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(सं. 1612, पद्म 2000), पाण्डे विनवास का जम्बूस्वामी चरित (सं. 1642 ), नरेन्द्रकीर्ति का सगर प्रबन्ध (सं. 1646), वादिचन्द्र का श्रीपाल पाख्यान (सं. 1651 ), परिमल का श्रीपाल चरित्र (सं. 1651 ), पाये का भरतभुजबल चरित्र (सं. 1616), ज्ञानकीर्ति का यशोधर चरित्र (सं. 1658), पार्श्वचन्द्र सूरि का राजचन्द्र प्रवहरण (सं. 1661), कुमुदचन्द्र का भरत बाहुबली चन्द (सं. 1670 ), नन्दलाल का सुदर्शन चरित (सं. 1663) बनवारी लाल का भविष्यदत्त चरित्र ( सं. 1666 ), भगवतीदास का लघुसीता सतु (सं. 1684), कल्याण कीर्तिमुनि का चारुदत्त प्रबन्ध (सं. 1612), लालचन्द्र का पद्मिनी चरित्र (सं. 1707), रामचन्द्र का सीता चरित्र (सं. 1713), जोषसज गोदीका का प्रीतंकर चरित्र (सं. 1721), जिनहर्ष का श्रेणिक चरित्र (सं. 1724), विश्वभूषण का पार्श्वनाथ चरित्र (सं. 1738), किशनसिंह के भद्रबाहु चरित्र (सं. 1783), और यशोधर चरित (सं. 1781), लोहट का यशोधर चरित्र (सं. 1721), प्रजयराज का यशोधर चरित्र (सं. 1721), प्रजयराज पाटणी का नेमिनाथ चरित्र (सं. 1793 ), दौलत राम कासलीवाल का जीवन्धर चरित्र (सं. 1805), भारमल का चारुदत्त चरित्र (सं. 1813), शुभचन्द्रदेव का श्रेणिक चरित्र (सं. 1824 ), नाथमल मिल्ला का नागकुमार चरित्र (सं. 1810 ), चेतन विजय के सीता चरित्र श्री जम्बूचरित्र (सं. 1853), पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित्र (सं. 1827 ), हीरालाल का चन्द्रप्रभ चरित, टेकचन्द का श्रेणिक चरित्र (सं. 1883), और ब्रह्म जयसागर का सीताहरण (सं. 1835 ) ।
इन चरित काव्यों में तीर्थंकरों प्रथवा महापुरुषों के चरित का चित्रण कर मानवीय भावनाओं का बड़ी सुगमता पूर्वक चित्रण किया गया है । यद्यपि यहां काव्य की अपेक्षा चारित्रांकन अधिक हुआ है परन्तु चरित्र प्रस्तुत करने का ढंग और उसका प्रवाह प्रभावक है । मानन्द धौर विषाद, राग और द्वेष तथा धर्म और अधर्म आदि भावों की अभिव्यक्ति बड़ी सरस हुई है । कवि भगवतीदास का लघु सीता सतु उल्लेखनीय है जहां उन्होंने मानसिक घात-प्रतिघातों का प्राकर्षक वर्णन किया है
तब बोलs मन्दोदरी रानी, सखि अषाढ़ बनघट चेहरानी । पीय गये ते फिर घर मावा, पामर नर नित मंदिर बाबा || लवहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग धरत नहीं धीरों ।। बादर उमहि रहे चौमासा, तिथ पिय विनु लिहि उरुन उसासा । नन्हीं बून्द करत भर लावा | पावस नभ प्राणमु दरसामा || दामिनि दमकत निशि अंधियारी । विरहिनि काम वाम उमारी । araft भोगु सुनहि सिख मोरी । जानति काहे भई मति चोरी ॥ मदन रसायन हर जग सारू । संजमु नैमु कथन निवहाक |
तब लंग हंस शेरीर मेहि, तब राज तह त्रिमा श्रम इ
लग कोई भोगे । 'लौ ॥