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fare वात- प्रभूता मिट गई, यथार्थ कार्य जाग्रत हो गया, बसन्तकाल में जंगल भूमि सुहावनी लगने लगी । 1
बसन्त ऋतु के आने के बाद भलख अमूर्त भात्मा प्रध्यात्म की भोर पूरी तरह से झुक गयी । कवि ने फिर यहां फाग और होलिका का रूपक खड़ा किया और उसके अंग-प्रत्यंगों का सामंजस्य अध्यात्म क्षेत्र से किया । 'नय वाचरि पंक्ति' मिल गई, 'ज्ञान ध्यान' उफताल बन गया, 'पिचकारी पद भी साधना हुई, 'संवरभाव गुलाल' बन गया, 'शुभ भाव भक्ति तान' मे 'राग विराम' अलापने लगा, परम रस में लीन होकर दस प्रकार के दान देने लगा ।" दया की रस भरी मिठाई, तप का मेवा, शील का शीतल जल, संयम का नागर पान खाकर निर्लज्ज होकर गुप्ति-मंग प्रकट होने लगा, अकथ कथा प्रारम्भ हो गई, उद्धत गुण रसिया मिलकर ममल विमल रसप्रेम में सुरति की तरंगे हिलोरने लगी। रहस्यभावना की पराकाष्ठा हो जाने पर परम ज्योति प्रगट हुई । भ्रष्ट कर्म रूप काष्ठ जलकर होलिका की बाग
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विशम विरण पूरो भयो हो, प्रायो सहज वसंत । प्रगटी सुरूचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयत ॥ अध्यातम विन क्यो पाइये हो ॥2॥
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सुमति कोकिला गह गही हो बही अपूरब वाउ ।
भरम कुहर बादर फटे हो' घट जाडो जड़ ताउ || प्रध्यातम || 3 || मायारजनी लघु भई हो' समरस दिवशशि जीत ।
मोह पंक की थिति घटी हो' संशय शिशिर व्यतीत || अध्यातम || 4 ||
शुभ दल पल्लव लहलहे हो' होहि प्रशुभ पतकार ।
मलिन विषय रति मालती हो' विरति वेलि विस्तार ॥ म्रध्यातम ॥5॥ शशिविवेक निर्मल भयो हो, थिरता प्रभिय झकोर ।
फैली शक्ति सुचन्द्रिका हो' प्रमुदित नंम चकोर ॥ श्रध्यातम ||6||
सुरति अग्नि ज्वालागी हो' समकित भानु श्रमन्द |
हृदय कमल विकसित भयो हो' प्रगट सुजश मकरन्द। मध्यातम || 7 || दिढ कषाय हिमगिर गये हो नदी निर्जरा जोर ।
धार धारणा बह चली हो शिवसागर मुख औौर || ध्यातम ||8|| वितथ वात प्रभूता मिटी हो जग्यो जथारथ काज ।
जंगलभूमि सुहावनी हो तुप वसन्त के राज || अध्यातम ||9|| बनारसीविलास, मध्यातम फाग 2-6 पं. 154
गौ सुवर्ण दासी भवन गज तुरंगे परधान ।
कुलकलच तिल भूमि रथ ये पुनीत दशदान । वही, बसवा 1 पं. 177.