________________
202.
बुझ गई, पचासी प्रकृतियों की भस्म को भी स्नानादि करके धो दिया और स्वयं उज्जवल हो गया । इसके उपरान्त फाग का खेल बन्द हो जाता है, फिर तो मोहपाक्ष के नष्ट होने पर सहज श्रात्मशक्ति के साथ खेलना प्रारम्भ हो जाता है'नय पंकति चाचरि मिलि हो ज्ञान ध्यान डफताल । संवर भाव गुलाल || अध्यातम ||11||
पिचकारीपद साधना हो राम विराम प्रलापिये हो
भावभगति थुमतान ।
रीझ परम रसलीनता दीजे दश विधिदान || अध्यातम ||12।।
1.
2.
दया मिठाई रसभरी हो तप मेवा परधान ।
शील सलिल प्रति सीयलो हो संजम नागर पान || अध्यातम ||1311
गुपति अंग परगासिये हो यह निलज्जता रीति ।
यह गारी निरनीति ॥ म्रध्यातम ||14|
ree कथा मुखभ लिये हो उद्धत गुण रसिया मिले हो सुरत तरंगमह छकि रहे हो, मनसा वाचा नेन ||अध्यातम ||1||
भ्रमल विमल रस प्र ेम ।
परम ज्योति परगट भई हो, लगी होलिका आग |
पाठ काठ सब जरि बुझ हो, गई तताई भाग ॥ श्रध्यातम ||16||
प्रकृति पचासी लगि रही हो, भस्म लेख है सोय ।
न्हाय धोय उज्जवल भये हो, फिर तह खेल न कोय ॥ म्रध्यातम ||17||
सहज शक्ति गुण खेलिये हो चेत बनारसीदास ।
सगे सखा ऐसे कहे हो, मिटे मोह दधि फास || अध्यातम ||18|| 1
जगतराम ने जिन राजा और शुद्ध परिणति-रानी के बीच खेली जाने वाली होली का मनोरम दृश्य उपस्थित किया है । वे स्वयं उस रंग में रंग गये हैं और होली खेलना चाहते है पर उन्हे खेलना नहीं आ रहा है- कैसे होरी खेली खेलि न भावं । क्योकि हिंसा झूठ चोरी कुशील, तृष्णा प्रादि पापों के कारण चित्त चपल हो गया। ब्रह्म ही एक ऐसा प्रक्षर है जिसके साथ खेलते ही मन प्रसन्न हो जाता है । उन्होंने एक अन्यत्र स्थान पर 'सुध बुध गोरी' के साथ 'सुरूचि गुलाल' लगाकर फाग भी खेली है। उनके पास 'समता जल' की पिचकारी है जिससे 'करुणा - केसर' का गुरग छिटकाया है । इसके बाद अनुभव की पान-सुपारी और सरस रंग लगाया ।
सुध बुध गोरी संग लेय कर, सुरूचि गलाल लगा रे तेरे । समता जल पिचकारी, करुणा केसर गुरण छिरकाय रे तेरे ॥
बनारसीविलास, मध्यातम फाग, 18, पं. 155-156.
अक्षर ब्रह्म खेल प्रति नीको खेलत ही हुलसाबै-हिन्दी पद संग्रह, पृ. 92.