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साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग हारी। स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग । धोय से छूटे नहीं रे दिन-दिन होत सुरंग । भाव के कुंड नेह के जल में प्रेम रंग देइ बोर । दुख देह मैल लुटाय दे रे खूब रंगी झकझोर ॥ साहिब ने चुनरी रंगी रे पीतम चतुर सुजान । सब कुछ उन पर बार दूं, रे तन मन धन और प्रान ।। कहें कबीर रंगरेज प्यारे मुझ पर हुए दयाल ।
सीतल चुनरी मोढि के रे भइ हैं मगन निहाल ॥1
प्रियतम से प्रेम स्थापित करने के लिए संसार से वैराग्य लेने की आवश्यकता होती है। संसार से विरक्त होकर प्रिया प्रियतम में अपने को रमा लेती है। और उसके विरह में मन के विकारों को जला देती है। मिलन होने पर वह प्रिय के साथ होरी खेलना चाहती थी पर प्रिय विछुड़ ही गया । मिलन अथवा विवाह रचाने का उद्देश्य परमपद की प्राप्ति थी। कबीर ने इस प्राध्यात्मिक विवाह का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है ।
दुलहिन गावो मंगलाचार, हम घरि पाये हो राजा राम भरतार । तन रति करि मैं मन रनि करि हूं पंच तत्व वराती। रामदेव मोहि ब्याहन पाये मैं जोवन मदमाती ॥ सरीर सरोवर वेदी करि हूं ब्रह्मा वेद उचार । रामदेव संग भंवरि लेहूं धनि धनि भाग हमार ।। सुर तेतिस कोटिक पाये मुनिवर सहस अठासी । कहै कबीर हम व्याहि चते पुरुष एक अविनाशी ।'
1. कबीर-डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 352-3 2. पिय के रंग राती रहै जग सू होय उवास । चरन दास की वानी।
प्रीति की रीति नहिं कजु राखत जाति न पांति नहीं कुल गारो।
सुन्दरदास, सन्त सुधासार, खण्ड 1, पृ. 633. 3. पिय को खोजन में चली आपहु गई हिराय । पलटू, वही, पृ. 435. 4. विरह प्रगिन में जल गए मन के मैल विकार । दादूवानी, भाग 1, प. 43. 5. हमारी उमरिया खेलन की, पिय मोसों मिलि के विछुरि गयो हो।
धर्मदास, सन्तवानी संग्रह, भाग 2, पृ. 37. 6. गुलाब सहाब की वानी. पृ. 22. 7. कधीर ग्रंथावली, पृ. 90.