________________
246
हसहों ।
गरबस जानि हरुको इन दिन बस है न मन मधुकर पन के तुलसी पद कमल वसैहों । 1
इस प्रकार रूपचन्द भगवान् के शरण में जाकर यह कहते हुए दिखाई देते ६- 'अभी तक उन्होंने स्वयं को नहीं पहिचाना 1 मन वासना में लीन रहा; इन्द्रियां विषयों की ओर दौड़ती रहीं । पर मब तुम्हारी शरण मिलने से एक मार्ग मिल गया है जो भव दुःख को दूर कर देगा—
प्रभु तेरे पद कमल निज न जाने || मन मधुकर रस रसि कुवसि, कुमयो अब प्रमत न रति मानं । अब लगि लीन रह्यो कुवासना, कुविसन कुसुम सुहाने । भीज्योति वासना रस यस प्रवस वर सयाहि भुलानं । श्री निवास संताप निवारन निरूपम रूप मरूप बखाने । मुनि जन सबहस जु सेवित, सुर नर सिर सरमाने ॥ भव दुख तपनि तपत जन पाए, अम-प्रग सहताने । रुपचन्ध चित भयो अनदसु नाहि ने बनतु बखाने ||
या भगवतीदास हो केतन सो मति कौन हरी मौरकुमुदचन्द "चेवन घेतत
'किस' बाबरे" कहकर यही भाव व्यक्त करते हैं। कबीर बाह्य क्रियामो को व्यर्थ
कहते हैं और तुलसीदास इद्रिय वासना की बात करते हैं पर भगवती राग धोर लोभ के प्रभाव से आयी हुई मिथ्यामत को ही दूर करने का संकल्प लिए हुए बैठे है
+3
'प्रातिकूलस्य वर्जनम्' का तात्पर्य है भगवद् भक्ति मे उपस्थित प्रतिकूल भावो का त्याग करना । 'हिरदे कपट हरि नहि सांचो, कहा भयो जे अनहद नाच्यौं' जैसे उद्धरणों मे कबीर ने माया, कपट क्रोध लोभ प्रादि दूषित भावो को त्यागने का संकेत किया है ।" मीरा भी मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई 'कहकर भक्ति मे विघ्न डालने वाले परिवार के लोगो को त्याग देती है।" तुलसी ने भी' जाके प्रिय न राम वैदेही । सो छाड़िये कोटि बेरी सम जद्यपि परम सनेही' कहकर प्रतिकूल
1.
2.
3.
विनय पत्रिका, 105.
हिन्दी पद सग्रह, पृ. 32-33 ब्रह्मविलास, पृ. 116.
4.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 183.
5. मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ॥
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
तात मात भ्रात बन्धु अपना नहि कोई । छोड़ दई कुल की कानि क्या करिहै कोई ||
"