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उनका ज्ञान और प्रज्ञान, श्रानन्द और विषाद 'एक' में ही लीन हो जाता है । इसी के लिए तो उन्होंने पचरंगी बोला पहिनकर फिरमिट में प्रांख धीर मनमोहन से सोने में सुहाग-सी प्रीति लगायी है। बड़े भाग से गिरिधर नागर मीरा पर रीके हैं।
मिचौनी खेली है मीरा के प्रभु
इसी माधुर्य भाव में मीरा की चुनरिया प्रेमरस की बूंदों से भोंगती रही प्रोर भारती मजाकर सुहागिन प्रिय को खोजने निकल पड़ी। उसे वर्षात् मीर fare भी नहीं रोक सकी। प्रिय को खोजने में उसकी नींद भी हराम हो गई, अंग-मंग व्याकुल हो गये पर प्रिय की वारणी की स्मृति से 'अन्तर-वेदन विरह की वह पीडा न जानी' गई। जैसे चातक घन के बिना और मछली पानी के बिना व्याकुल रहती है वैसे ही मीरा 'व्याकुल विरहणी सुध बुध विसरानी' बन गई । उसकी पिया सुनी सेज भयावन लगने लगी, विरह से जलने लगी । यह निर्गुण की सेज ऊंची मटारी पर लगी है, उसमें लाल किवाड़ लगे हैं, पंचरंगी झालर लगी है, मांग में सिन्दूर भरकर सुमिरण का थाल हाथ में लेकर प्रिया प्रियतम के मिलन की बाट जोह रही है
जिनका प्रियतम परदेश में रहता है उन्हें पत्रादि के माध्यम की प्रावश्यकता होती । पर मीरा का प्रिय तो उनके अन्तःकरण में ही वसता है, उसे पत्रादि लिखने की आवश्यकता ही नहीं रहती। सूर्य, चन्द्र आदि सब कुछ बिनाशीक है यदि कुछ अविनाशी है तो वह है प्रिय परमात्मा । सुरति और निरति के दीपक में मन की वाती और प्रेम-हटी के तेल से उत्पन्न होने वाली ज्योति प्रक्षुण्ण जिनका पिया परदेश वसत है लिख लिख भेजें पाती । मेरा पिया मेरे हीयवत है ना कह थाती जाती ।। चन्दा जायगा सूरज जायगा जायगा धरणि धकासी । पवन पानी दोनों हूं जायगे अटल रहे अविनाशी ||
रहेगी
1.
ॐची अटरिया, लाल किवड़िया, निर्गुन सेज बिछी । पंचरंगी झालर सुभ सोहे फूलत फूल कली ॥ बाजूबन्द कडूला सो हैं मांग सेंदूर भरी । सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा सोभा अधिक भरी । ।
सेज सुखमणां मीरा सोवै सुभ है प्राज घडी ॥ "
2.
भी चुनरिया प्रेमरस बूंदन ।
भारत साजकी चली है सुहागिन पिय अपने को ढूढ़न ॥
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 218.
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 222,