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परमात्मा रूप पद्मावती कहां है ? यह विरह ही रहस्यवादी साधक का प्राण है। वही उसकी जिजीविषा है । इस विरह को जायसी ने 'प्रेम-धाव' के रूप में चित्रित किया। वह सारे शरीर को कांटा बना देता है । सापक साध्य की विरहाग्नि में जलता रहता है पर दूसरे को जलने नहीं देता । प्रेम की चिनगारी से माकाश पोर पृथ्वी, दोनों भयवीत हो जाते हैं।
पद्मावती के दिव्य सौन्दर्य का वर्णन भक्त कवि ने किया है। मान-सरोबर ने पद्मावती को पाकर कैसा हर्ष व्यक्त किया यह पद्मावत में देखा जा सकता है।' उसके दिव्य रूप को जायसी ने 'देवता हाथ-हाथ पगु लेही। जहं पगु धर सीस तहं देही' के रूप में चित्रित किया है। उनका परमात्मा प्रेम भी अनुपम है। माकाश जैसा असीम है, ध्र वनक्षत्र से भी ऊंचा है। उसका दर्शन वही कर सकता है जो शिर के बल पर वहां तक पहुंचना चाहता है। परमात्मा की यह प्राप्ति सदाचार के पालन, पहं के विनाश, हृदय की शुद्धता एवं स्वयंकृत पापों का प्रतिक्रमण (तोबा) करने से होती है ।'
इस प्राध्यात्मिक विरह से प्रताडित होकर रतनसेन पद्मावती से मिलन करने के लिए प्रयत्न करता है । उसकी साधना द्विमुखी होती है- अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी साधना में साधक अपने हृदयस्थ प्रियतम की खोज करता है पोर बहिमुंखी साधना में वह उसे सारे विश्व में खोजता है। अन्तमुखी रहस्यवाद शुद्ध भावमूलक और योगमूलक दोनों प्रकार का होता है । बहिर्मुखी रहस्यवाद में प्रकृतिमूलक, मभिव्यक्तिमूलक प्रादि भेद पाते हैं। इस प्रकार जायसी का भावमूलक रहस्यवाद अन्तर्मुखी भौर बहिर्मुखी उभय प्रकार का है ।
1. कहं रानी पद्मावती, जीउ वस जेहि पांह ।
मोर-मोर के खाएऊ, भूलि गरब अवगाह ।। वही, पृ. 179
प्रेम-धाव दुख जान न कोई, बही, पृ. 74. 3. वही, गु. 88. 4. वही, पृ. 25. 5. वही, पृ. 48 6. प्रेम प्रदिष्ट गगन ते ऊचा,
ध्रव त ऊंच प्रेम ध्र व ऊमा । सिर देइ सो पांव देइ सो छूमा। वही,
पृ. 50. 7. सूफीमतः साधना मोर साहित्य-पृ. 231-258 8. आयसी का पद्मावत : काव्य पौर दर्शन, पृ. 269-277.