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'सूफियों का प्रेम 'प्रच्छन्न' के प्रति है । सूफी अपनी प्रेम व्यंजमा साधारण नायक-नायिका के रूप में करते है । प्रसंग सामान्य प्रेम का ही रहता है किन्तु उसका संकेत 'परम प्रेम' का होता है । बीच में माने वाले रहस्यात्मक स्थल इस सारे संसार में उसी की स्थिति को सूचित करते हैं साथ ही सारी सृष्टि को उस एक से मिलने के लिए चित्रित करते हैं । लौकिक एवं प्रलौकिक प्रेम दोनों साथ-साथ चलते हैं । प्रस्तुत में प्रस्तुत की योजना होती है । वैष्णव भक्तों की भांति इनकी प्रेम व्यंजना के पात्र अलौकिक नहीं होते। लौकिक पात्रों के मध्य लौकिक प्रेम की ध्यंजना करते हुए भी अलौकिक की स्थापना करने का दुरूह प्रयास इन सूफी प्रबन्ध काव्यों में सफल हुमा है ।
प्रेम के विविध रूप मिलते है । एक प्रेम तो वह है जिसका प्रस्फुटन विवाह के बाद होता है । दूसरा प्रेम वह है जिसमे प्रेमियो का आधार एवं प्रादर्श दोनों ही विरह हैं । तीसरे प्रेम मे नारी की अपेक्षा नर मे विरहाकुलता दिखाई देती है मौर चौथे प्रेम में प्रेम का स्फुरण चित्रदर्शन, साक्षात् दर्शन प्रादि से होता है । 'प्रेम के इस अन्तिम स्वरूप, जिसका प्रारम्भ गुण श्रवण, चित्रदर्शन, साक्षात् दर्शन मादि से होता है, का परिचय सूफी प्रेमाख्यानों में मिलता है । लगभग सभी नायक नायिका का, जो परमात्मा का स्वरूप है, रूप गुरण वर्णन सुनकर अथवा स्वप्न मे या साक्षात् देखकर उसके विरह में व्याकुल हो घरबार त्यागकर योगी बन जाते है। गुणश्रवण के द्वारा प्रेम भावना जाग्रत होने वाली कथानों के अन्तर्गत 'पद्मावत' 'हसजाहर', 'अनुरागवांसुरी', 'पुहुपावती' प्रादि कथायें पाती हैं। 'छीता' प्रेमाख्यान में गुणश्रवण से पाकर्षण एवं पश्चात् साक्षात् दर्शन से प्रेम जाग्रत होता है। चित्रदर्शन से प्रेमोद्भूत होने वाली कथानों में चित्रित होने वाली कथाओं में 'चित्रावली' 'रतनावली' मादि कथायें माती हैं, । स्वप्न दर्शन के द्वारा प्रेम जाग्रत होने वाली कथायें अधिक हैं । 'कनकावती', 'कामलता' 'इन्द्रावती', 'यूसुफ जुलेखा', प्रेमदर्पण' प्रादि प्रेमाख्यान इसके अन्तर्गत पाते हैं। साक्षात् दर्शन द्वारा जागृति का वर्णन मधुमालत, मधकरमालति एवं भाषा प्रेमरस मादि में मिलता है ।
सूफी कवियो में जायसी विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने अन्योक्ति और समासोक्ति के माध्यम से प्रस्तुत वस्तु से अप्रस्तुत वस्तु को प्रस्तुत कर आध्यात्मिक
1. जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफी कवि और काव्य-डॉ. सरल शुक्ल, लखनऊ,
सं. 2013, पृ. 111. 2. वही, पृ. 113.