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चानतराय ने 'नहि ऐसौ जनम बारम्बार' कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता तो 'मंघ हाथ बटेर माई, सजत ताहि वार' वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी। भैया भगवतीदास ने व्यक्ति की पहले उसे सांसारिक इच्छात्रों को प्रोर से सचेत किया है और फिर नर. जन्म को दुर्लभता की मोर संकेत किया । जीव अनादिकाल से मियाज्ञान के वशीभूत होकर कर्म कर रहा है । कभी वह रामा के चक्कर में पड़ता है तो कभी बन के, कभी शरीर से राग करता है तो कभी परिवार से । उसे यह ध्यान नहीं कि 'प्राज कालि पाँजरे सौ पची उड़ जातु है ।। रे चिदानद, तुम अपने मूल स्वरूप पर विचार करो। जब तक तुम और रूप में पगे रहोगे, तब तक वास्तविक सुख तुम्हें नहीं मिल सकेगा। इन्द्रिय सुख को यदि तुम वास्तविक सुख मानते हो तो इससे अधिक भूल तुम्हारी और क्या होगी? यह सुख क्षणिक है और तुम्हारा स्वरूप अविनाशी है। ऐसा नरजन्म पाकर विवेकी बनी और कर्मरोग से मुक्त होमो, इसी मे कल्याण है। अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा। तुमने इतनी गाढ़ निद्रा ली जो साधारणतः मौर कोई नहीं लेता । अब तुम्हारे हाथ चिन्तामरिण पाया है, नरभव पाया है इसलिए घट की मांखें खोल और जौहरी बन ।
संसार की करुण स्थिति को देखकर भी यह मूढ नर भयभीत नहीं होता। समनष्य जन्म को पाकर सोते-सोते ही व्यतीत कर दिया जाय तो बहुत बड़ी अज्ञानता होगी। उस समय की कोई कीमत नही लगायी जा सकती है। एक-एक पल उसका अमूल्य है । इसलिए कवि ने 'चेतन नरभव पाय के, हो जानि वृथा क्यों खोवे छै' का उद्घोष किया है । दौलतराम ने चतुर्गति के दुःखो का वर्णन करते हए "दुर्लभ लहि ज्यो चिन्तामणि त्यो पर्यायलही त्रसतणी' कहकर मनुष्य को सचेत किया है।' बुधजन के भावो को देखिये, कितनी मातुरता और व्यग्रता दिखाई दे रही है उनके शब्दों में :
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 116. 21 ब्रह्मविलास, शतप्रष्टोत्तरी, 21,22,44. 3. वही, 42,43. 4. वही, शतप्रष्टोत्तरी, 83-85, परमार्थपद पंक्ति, 5. 5. जैन शतक, भूधरदास, 21. 6. हिन्दी पद संग्रह, बस्तरामसाह, पृ. 166. 7. बहढाला, प्रथम ढाल, 1-6.