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जगत में सौ देवन को देव । जासु चरन परसै इन्द्रादिक होय मुकति स्वमेव । नहीं तन रोग न श्रम नहि चिन्ता, दोष मठारह मेव ।
मिटे सहज जाके ता प्रभु की करत बनारसि सेव ।। कुमुदचन्द्र भी प्रभु के चरण-सेवा की प्रार्थना करते हैं--प्रमु पाय लागों करू', सेव थारी, तू सुनलो अरज श्री जिनराज हमारी।' मैया भगवतीदास प्रमु के चरणों की शरण में जाकर प्रबल कामदेव की निर्दयता का शिकार होने से बचना चाहते हैं। प्रानंदधन संसार के सभी कार्य करते हुए भी प्रभु के चरणों में उसी प्रकार मन लगाना चाहते हैं जिस प्रकार गायों का मन सब जगह घूमते हुए भी उनके बछड़ों में लगा रहता है--
ऐसे जिन चरण चित पद लाउं रे मना,
ऐसे परिहंत के गुण गाऊं रे मना । उदर भरण के कारणे रे गउवां बन में जाय,
चारो चहुं दिसि फिर, बाकी सुरत बछरू मा माय ॥
भगवतीदास पार्श्वजिनेन्द्र की भक्ति में अगाध निष्ठा व्यक्त करते हुए संसारी जीव को कहते है कि उसे इधर-उधर भटकने की प्रावश्यकता नहीं हैं। उसकी रात. दिन की चिन्ता पार्श्वनाथ की सेवा से ही नष्ट हो जायेगी--
काहे को देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द्र नरिद । काहे को देवि प्रो देव मनापत, काहे को शीस नवावत चंद ॥ काहे को सूरज सीं करजोरत, काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद।
काहे को सोच करे दिन रैन तू, सेवत क्यों नहिं पार्व जिनंद ॥
जगतराम प्रभु के समक्ष अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कहते हैं जिन विषय कषाय रूपी नागों ने उसे उसा है उससे बचने के लिए मात्र भापका भक्ति
1. हिन्दी पद संग्रह, भूमिका, पृ. 16-17. 2. हिन्दी जैन भक्ति काम्य और कवि, पृ. 132. 3. तेरी ही सरण जिम जारे न बसाय याको सुमटा सौ पूजे तोहि-मोहि ऐसी
भायौ है । ब्रह्मविलास, जैन शोष पौर समीक्षा, पृ. 55. 4. पानंदघन पद संग्रह, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल बंबई, सं. 1971, पद
95, पृ. 413. 5. ब्रह्माविलास, फुटकर कविता, पृ. 91.