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चिदानन्द की मौज मची है, समता रस के पान में। इतने दिन तू नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायो पजाम में। अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभु मुन पखय खजान में । गई दीनता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में।
प्रभु गुन अनुभव के रस मागे, मावत नहिं कोई ध्यान मे ॥ जगजीवन भी प्रभु के ध्यान को बहुत कल्याणकारी मानते हैं। धानतराय मरहन्त देव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे स्यातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकटतर पहुंचना चाहते हैं। इसी प्रकार एक पद में मन को इधरउपर न भटकाकर जिन नाम के स्मरण की सलाह दी है क्योंकि इस से संसार के पातक कट जाते हैं
जिन नाम सुमरि मन बावरे, कहा इत उत भटके । विषय प्रगट विष बेल है इनमें मत अटके ।। द्यानत उतम भजन है कीजै मन रटके ।
भव भव के पातक सवै बैंहे तो कटके ।।* भक्त कवि अपने इष्टदेव के चरणों में बैठकर उनका उपदेश सुनता है। फलतः उसके राग द्वेष दूर हो जाते हैं और वह सदैव भगवान के चरणों में रहकर उनकी सेवा करना चाहता है । बनारसीदास ने भगवान की स्तुति करते हुए उन्हें देवों का देव कहा है। उनके चरणों की सेवा कर इन्द्रादिक देव भी मुक्ति प्राप्त कर लेते है। कवि मठारह दोषों से मुक्त प्रभु की चरण सेवा करने की माकांक्षा व्यक्त करता है
1. जसविलास-~-यशोविजय उपाध्याय, सज्झाय पद अने स्तबन संग्रह में
मुद्रित । 2. करिये प्रभु ध्यान, पाप कटं भवभव के या मै बहोत भलासे हो ।
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 178. प्ररहंत सुमरि मन बावरे ।। ख्याति लाभ पूजा तजि भाई । प्रतर प्रभु लौं जाव रे ॥ वही, पृ. 139. वही, पृ. 138. इसके पतिरिक्त 'सुमिरन प्रभु जी की कट रे प्रानी, पृ. 164, परे मन सुमरि देव जिनराय, पृ. 187 भी दृष्टव्य हैं। सीमन्धर स्वामी स्तवन, 14-15. चतुर्विशति जिनस्तुति, जैन गुर्जर कविमी, तृतीय भाग, पृ. 1479, देखिये चेतन पुद्गल ढमाल, 29, दि. जैन मंदिर नागदा 'दी में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति.