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प्राचीन भारतीय साहित्य के देखने से ऐसा लगता है कि उस समय कर्म के समकक्ष भनेक सिद्धान्त बड़े दिये गये थे। उस समय की काल को विश्व का नियन्त्रक मानता था तो कोई स्वभाव को, कोई नियति को अनिलाता था तो कोई यदुच्छा को, किसी का ध्यान भूतों पर जाता था. तो किसी का ईश्वर पर कोई अपने wrest देव के हाथ दे देता था तो कोई पुरुषार्थ को पता था । इन सभी वादों ने एकान्तिक मिटको से किल्ला करू. कर्म सिद्धान्त के स्थान पर स्वयं को प्रासीत कर लिया। परन्तु जैक्सन में इन सभी को समन्वित रूप में स्वीकार किया गया है। तदनुसार सभी कारण मिलकर ही कार्य की निष्पत्ति करते हैं। इसी को सम्यक् धारणा कहा जाता है।
कर्मों का अस्तित्व, सुख-दुःख के वैविध्य, नवीन शरीर धारणा करने की प्रक्रिया तथा दानादिक क्रियाओंों के फल में स्पष्टत दिखाई देता है । समान- साधन होने पर भी फल का तारतम्य प्रदृष्ट कर्म का ही परिणाम है। कर्म को जैन धर्म में मूर्ति अथवा पदलिक माना गया है और आत्मा को प्रमूर्तिक । प्रमूर्त प्रात्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। इसी प्रकार शरीर और कर्म का सम्बन्ध भी बीजांकुर के समान अनादिकालीन है और वह कार्यकारण भावात्मक है। हमारे मन-वचन-काय की प्रत्येक क्रिया अपना संस्कार श्रारमा मौर कर्म प्रथवा कारण शरीर पर छोड़ती जाती है । यह संस्कार कार्मारण शरीर से बंधता चला जाता है और उसका जब परिपाक हो जाता है तो बंधे कर्म के उदय से यह आत्मा स्वयं हीनावस्था मे पहुच जाती है । फलतः मिथ्यात्व मादि विकारों से वह ग्रसित होता जाता है ज्ञानादि रूप विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता । जाते हैं और नये कर्म बंधते चले जाते हैं । म्रात्मा और कर्म की यही परम्परा अनादिकाल से चली ना रही है। शास्त्रीय परिभाषा में पुद्गल परमाणुओंों के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म और राग द्वेषादिक प्रवृत्तियों को भाव कर्म, और शरीर रूप कर्म को नोकर्म कहा गया है। बनारसीदास ने इसे एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है । मान लीजिए जिस प्रकार कोठी में धान रखी है, बाल के मीर का है तो उस पान को अलग कर करण को रख लेते हैं। इसमें कोठी के समान नोकमंगल हैं । यान के समान
राग, द्वेष, मोह, प्रज्ञान मोर वह अपने अनन्त पुराने कर्म निर्माण होते:
कमल हैं, चमी के सम्रन भावकर्ममल तथा करण के समान भगवान है बुद्गला के ये दो हो, जाल हैं- अध्यकर्म और भावकर्म । सहज शुद्ध, चेतन, भावकर्य की ओर.
1.
सम्मति तर्क प्रकरण, 3-53.
2. बनारसीविलास, मध्यातम बसीसी, 11-13.