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'पोरा झूठा है रे तू मत भूले प्रसवारा । तोहि सुषा ये लागत प्यारा, अंत होपया म्यारा ।। चरै चीज मार डर कैद सो, प्रबट चल पटारा । जीन कसै तब सोया चाहै, खाने को होशियारा॥ खूब खजाना खरच खिलानो, यो सब न्यामत चारा। प्रसबारी का अवसर प्राव, गलिया होय गंवारा ।। छिनु तासा छिनु प्यासा होव, खिवमत बहुत करावन हारा। दौर दूर जंगल में डार, भूरे धनी विचारा ॥ करहु चौकड़ा चातुर चौकस, यो चाबुक दो चाटा।
इस घोरे को विनय सिखावो, ज्यों पावो भवपारा ॥1 बुधजन शरीर की नश्वरता का भान करते हुए शुद्ध स्वभाव चिदानंद चैतन्य अवस्था में स्थिर होने का संदेश देते हैं-'तन देख्या अस्थिर घिनावना ।....... बुधजन तनत ममत मेटना चिदानंद पद धारना (बुधजनविलास, पद 116)। मृत्यु अवश्यंभावी है। उसके आने पर कोई भी अपने प्रापको बचा नहीं पाता, इसलिए उससे भयभीत होने की प्रावश्यकता नही बल्कि प्रात्मचिंतन करके जन्म-मरण के दुःखो से मुक्त हो जाना ही श्रेयस्कर है- "काल अचानक ही ले जायेगा, गाफिल होकर रह्ना क्या रे ! छिन हूँ तोको नाहिं बचा तो सुमटन को रखना क्या रे" (बुधजन विलास, पद 5)।
शरीर की इस नश्वरता का प्राभास साधक प्रतिपल करता है और साधनात्मक प्रवृत्ति मे शुद्ध स्वभावी चैतन्य की भावना भाता है। मृत्यु एक अटल तथ्य है जिसमें शरीर भग्न हो जाता है मात्र स्वस्थ चेतन रह जाता है।
3. कर्मजाल प्रत्येक व्यक्ति अथवा साधक के सुख-दुःख का कारण उसके स्वयंकृत कर्म हमा करते हैं। भारतीय धर्म साधनामों में चार्वाक को छोड़कर प्रायः सभी विचारकों ने कर्म को संसार में जन्म मरण का कारण ठहराया है। यह कर्म परम्परा जीव के साथ अनादिकाल से जड़ी हुई है। जैन चिन्तकों ने ईश्वर के स्थान पर कर्म को संस्थापित किया है । तदनुसार स्वयंकृत कर्मों का भोक्ता जीव स्वयं ही होता है, चाहे वे शुभ हों या अशुभ । इसलिए जन्म-परम्परा तथा सुख-दुःख की असमानता में ईश्वर का कोई रोल यहां स्वीकार नहीं किया गया । जीव फल भोमने में जितना परतंत्र है उतना ही नवीन कर्मों के उपार्जन करने में स्वतन्त्र भी है।
1. हिन्दी चैन भक्ति काव्य और कपि, पृ. 294.