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हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विष डांकिनी विघ्न के मय प्रवाचं ।। दरिद्रीन को द्रव्य के दान दाने । मपुत्रीन कों तू भले पुत्र कीने ॥ महासंकटों से निकार विधाता । सबै संपदा सर्व को देहि दाता ।।
नामस्मरण प्रपत्ति का एक अन्यतम अंग है जिसके माध्यम से भक्त अपने इष्ट के गुणों का अनुकरण करना चाहता है । द्यानतराय प्रभु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो अपजाल को नष्ट करने में कारण होता है
रे मन भज भज दीनदयाल । जाके नाम लेत इक खिन में, कटं कोटि प्रघजाल ।। पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निकाल ॥ सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल ।। इन्द्र फरिणन्द्र चक्रधर गाव, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकास, नारी मिथ्याजाल । सोई नाम जपो नित द्यानत, छांडि विष विकराल ॥2
प्रमु का नामस्मरण भक्त तब तक करता रहता है, जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता । जैनाचार्यों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है। स्मरण पहले तो रुक-रुक कर चलता है, फिर शनैः शनैः एकांतता प्राती जाती है और वह ध्यान का रूप धारण कर लेता है । स्मरण में जितनी अधिक तल्लीनता बढ़ती जायेगी वह उतना ही तद्रप होता जायेगा। इससे सांसारिक विभूतियों की प्राप्ति होनी आवश्यक है किन्तु हिन्दी के जैन कवियों ने प्राध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है। विशेषरूप से ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की अपनी विशेषता है । द्यानतराय अरहन्तदेव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे ख्यातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकटतर पहुंचना चाहते हैं
भरहंत सुमरि मन वावरे ॥ ख्याति लाभ पूजा तजि भाई । अन्तर प्रभु ली जाव रे ॥
1. वृहज्जिनवाणी संग्रह, कलकत्ता से प्रकाशित 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 125-26 3. वही, पृ. 139