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2. पुष्पदंत कृत, महापुरास, रोमकुमार सर, संतस्त्र एवं नासर के करकंबर की भाषा की सरी भेद इसी में गमित हो जाता है।
3. पश्चिमी प्रपत्र श-कालिदास, जोइन्दु, रामसिंह, धनपाल, हेमचन्द प्रादि की प्रपत्र से भाषा, जिसका रूप विक्रमोर्वशीय, सावयधम्म दोहा, पाहु दोहा, भविसयत्तकहा एवं हेमचन्द द्वारा उदभूत प्रपत्र श दोहीं आदि में उपलब्ध होता है । इसे नागर ने कहा जाता है। यह शौरसेनी प्राकृत संबद्ध भाषा थी । इसे परिनिष्ठित प्रकाश भी कहा जाता है ।
डॉ० भोलाशंकर व्यास ने जैसा कहा है, वस्तुतः लगभग 12वीं शती तक शौरसेनी (नागर) प्रपत्र श में ही साहित्य लिखा जाता रहा है। पुष्पदंत वगैरह कवियों की भाषा भी दक्षिणी न होकर पश्चिमी ही रही है। इसी शौरसेनी से पूर्वी राजस्थान, ब्रज, दिल्ली मेरठ प्रादि की बोलियों का विकास हुम्रा गुर्जर और अवन्ती की बोलियां भी इसी के रूप हैं ।
To व्यास ने शौरसेनी अपभ्रंश (नागर) की विशेषताओं को इस प्रकार से गिनाया है
1. स्वर और ध्वनियाँ :
(i) महाराष्ट्री प्राकृत के समान यहां हस्व ए और हस्व भो ध्वनियां पायी जाती है। जिन संस्कृत शब्दों में ए-ऐ तथा प्रोमो ध्वनियां
और उनके बाद संयुक्त व्यंजन श्रावें वे स्वर क्रमश: ह्रस्व ए (थ) व प्रो (माँ) हो जाते हैं। जैसे- पंक्ख (प्रेक्ष), सॉक्स जॉब्स में प्रथम स्वर हस्व (एकमात्रिक) है ।
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(ii) ऋ, लृ, ऐ, श्री का प्रभाव है। ऐ, नौ की जगह अह उच्चरित
होने लगा ।
(iii) 'व' श्रुति का प्रयोग प्रपभ्रंश की अन्यतम विशेषता है जैसे -गायकुमार, जुयल । 'व' श्रुति भी जहां कहीं मिल जाती है । जैसे- संवंति, (रुति, सुभग) ।
सुहब,
(iv) अन्त्य स्वर की ह्रस्वीकरण - प्रवृत्ति । जैसे- कोइ, होइ ।
2. व्यंजन व्यनियाँ :
(i) स्वर के मध्य रहने वाले क्, त्, पू, का ग्, दू, बु, हो जाता है तथा खू, थू, फ्, का घ्, घ्, म्, हो जाता है। जैसे - मदकल (मयगल), विप्रियकारक (विपगार), सापराध (सम्वराह) ।