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है कि जैनतर साधक भक्त थे अतः उन्होंने भक्ति के नाम-स्मरण पर अधिक जोर IT जबकि जैन साधकों ने आत्मा के ही परमात्मतत्त्व को अन्तर में धारण करने बात कही है।
2. साधक तत्व सद्गुरु और सरसंग : ___ साधना की सफलता और साध्य की प्राप्ति के लिए सद्गुरु का सत्संग प्रेरणा स्रोत रहता है । गुरु का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक शान्ति और प्रास्मद्व करने वाला होता है। उसके लिए श्रमण और वैदिक साहित्य मे श्रमण, चार्यो, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, उपाध्याय, भन्ते, भदन्त, सद्गुरु, गुरु प्रादि शब्दों का प्ति प्रयोग हुमा है । जैनाचार्यों ने अर्हन्त और सिद्ध को भी गुरु माना है और वेध प्रकार से गुरु भक्ति प्रदर्शित की है। इहलोक और परलोक मे जीवों को जो ई भी कल्याणकारी उपदेश प्राप्त होते हैं वे सब गुगजनो की विनय से ही होते
इसलिए उत्तराप्ययन में गुरु और शिष्यों के पारस्परिक कर्तव्यों का विवेचन गा गया है। इसी सन्दर्भ में सुपात्र और कुपात्र के बीच जैन तथा वैदिक साहित्य करेखा भी खीची गई है।
जैन साधक मुनिरामसिंह और प्रानंदतिलक ने गुरु की महत्ता स्वीकार की पोर कहा है कि गुरु की कृपा से ही व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि के बंधन से मुक्त हर भेदविज्ञान द्वारा अपनी आत्मा के मूलविशुद्ध रूप को जान पाता है । इसलिए
. उत्तराध्ययन, 1 27. . जे केइ वि उवएसा, इह पर लोए सुहावहा संति ।
विणएण गुरुजणाणं सवे पाउणइ ते पुरिमा ॥ वसुनन्दि-श्रावकाचार,
339, तुलनार्थ देखिये-घेरंड संहिता, 3, 12-14. . उत्तराध्ययन, प्रथम स्कन्ध । . श्वेताश्वतरोपनिषद् 3-6, 22 आदि पर्व, महाभारत, 131. 34. 58,
ताम कुतित्थइ परिभमइ घुत्तिम ताम करेइ । गुरुहु पसाए जाम रणवि अप्पा देउ मुणे ।। योगसार, 41, पृ. 380. अप्पापरहं परंपरह जो दरिसावइ भेउ । पाहुड़दोहा, 1. गुरु जिरणवरु गुरु सिद्ध सिड, गुरु रयणत्तय सारु । सौ दरिसावइ अप्प परू पाणंदा ! भव जल पावइ पार ॥ पाणंदा, 36.