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3 भावनात्मक रहस्य भावना साधक की प्रात्मा के ऊपर से जब अष्ट कर्मों का प्रावरण हट जाता है, और संसार के मागजाल से उसकी प्रात्मा मुक्त होकर विशुद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है तो उसकी भाव दशा भंग हो जाती है। फलतः साधक विरह-विधुर हो तड़प उठता है । यह माध्यात्मिक विरह एक ओर तो साधक को सत्य की खोज अर्थात् परमपद की प्राप्ति की मोर प्रेरित करता है और दूसरी ओर उसे साधना में संलग्न रखता है । साधक की अतरात्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है तब वह प्रेम और श्रद्धा की प्रतिरकता के कारण उससे अपना घनिष्ठ संबंध स्थापित करने लगती है। यही कारण है कि कभी साधक उसे पति के रूप में देखता है और कभी पत्नी के रूप में । क्योंकि प्रेम की चरम परिणति दाम्यत्यरति में देखी जाती है । अतः रहस्यभावना की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और प्रिया के प्राधय में होती रही है।
आध्यात्मिक साधना करने वाले जैन एवं जैनेतर सन्तों एवं कवियों ने इसी दाम्पत्यमूलक रतिभाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। प्रात्मा परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण किया गया है । श्री पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव का यह कथन इस सन्दर्भ में उपयुक्त है कि लोक में प्रानंदशक्ति का सबसे अधिक स्फुरण दाम्यत्य संयोग मे होता है, जिसमें दो की पृथक सत्ता कुछ समय के लिए एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती है। मानंद स्वरूप विश्वसत्ता के साक्षा• स्कार का मानंद इसी कारण अनायास लौकिक दाम्यत्य प्रेम के रूपकों में प्रकट हो जाता है । मलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐमी विलक्षण होती है कि द्वैध भाव ही समाप्त हो जाता है । मध्यकालीन कवियो ने माध्यात्मिक प्रेम के सम्बन्ध में प्राध्यात्मिक विवाहों का चित्रण किया है । प्रायः इन्हें विवाहला, विवाह, विवाहलउ और विवाहला मादि नामों से जाना जा सकता है। विवाह भी दो प्रकार के मिलते हैं। रहस्यसाधको की रहस्यभावना से जिन विवाहों का सम्बन्ध है उनमें जिन प्रभसूरि का 'अंतरंग विवाह' अतिमनोरम है। सुमति और चेतन प्रिय-प्रेमी रूप हैं। मजयराज पाटणी ने शिवरमणी विवाह रचा जिसमें प्रात्मा वर (शिव) और मुक्ति वधू (रमणी) हैं । मारमा मुक्ति वधू के साथ विवाह करता है।
बनारसीदास ने भगवान शान्तिनाथ का शिवरमणी से परिणय रचाया। परिणय होने के पूर्व ही शिवरमणी की उत्सुकता का चित्रण देखिये-कितना मनूठा
1. कबीर साहित्य का अध्ययन, पृ. 372.