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कालीन हिन्दी जैन साहित्य को उनकी सामान्य प्रवृत्तियों में ही विभाजित करना उचित समझा । यह मात्र सूची सी मवश्य दिखाई देती है पर उसका अपना महत्व है । यहां हमारा उद्देश्य हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले विद्वानों को प्रत्येक प्रवृ तिगत महत्वपूर्ण काव्यों की गणना से शापित कराना मान रहा है कि अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में किन्हीं कारणों बस उल्लेख नहीं हो पाया । उन प्रतियों के विस्तार में हम नहीं जा सके। जाना सम्भव भी नहीं था क्योंकि उसकी एक-एक प्रवृत्ति पृथक् पृथक् शोध प्रबन्ध की मांग करती प्रतीत होती है । तुलनात्मक अध्ययन को भी हमने संक्षिप्त किया है अन्यथा वह भी एक अलग प्रबन्ध-सा हो जाता । प्रस्तुत अध्ययन के बाद विश्वास है, रहस्यवाद के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित हो सकेगा
प्रायः हर जैन मंदिर में हस्तलिखित ग्रंथों का भण्डार है । परन्तु वे बड़ी वेरहमी से अव्यवस्थित पड़े हुए हैं । प्राश्चर्य की बात यह है कि यदि शोधक उन्हें देखना चाहे तो उसे पूरी सुविधायें नहीं मिल पातीं। हमने अपने अध्ययन के लिए जिन-जिन शास्त्र मंडारों को देखा, सरलता कहीं नहीं हुई। जो भी अनुभव हुए, उनसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि शोधक के लिए इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रभूत सामग्री है पर उसे साहसी और सहिष्णु होना भावश्यक है ।
अन्त में यहां पर लिखना चाहूंगी कि पृ. 243 (285) पर जो यह लिखा गया है कि न कोई निरंजन सम्प्रदाय या मौर न कोई हरीदास नाम का उसका संस्थापक ही था, गलत हो गया है। तथ्य यह है कि हरीदास (सं. 1512-95) इसके प्रवर्तक थे जिनका मुख्य कार्य क्षेत्र डीडवाना (नागौर) था ऐसा डॉ० भानावत ने लिखा है ।
इस प्रबन्ध लेखन में हमें मान्यवर प्रोफेसर व्ही. पी. श्रीवास्तव, भूतपूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, हिस्लाप कालेज, नागपुर का मार्गदर्शन मिला है । कृतज्ञ हैं । इसी तरह हिन्दी जैन साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान डॉ. नरेन्द्र भानावत, रीडर हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के भी हम बाभारी हैं जिन्होंने बड़े स्नेहिल हृदय से प्राक्कथन लिखने का हमारा प्राग्रह स्वीकार किया ।
इसके बाद हम सर्वाधिक ऋणी हैं अपनी मातेश्वरी श्वव जी श्रीमती तुलसा देवी जैन के जिन्होंने हमेशा पारिवारिक प्रथवा गार्हस्थिक उत्तरदायित्वों से मुके युक्त-सा रखा । उनका पुनीत स्नेह हमारा प्रेरणा स्रोत रहा है। साहित्य के क्षेत्र में जो कुछ कर सकी हैं, उनके प्राशीर्वाद का फल है। उनके चरणों में नतमस्तक हूँ । उन्हीं को यह कृति समर्पित है। उनके साथ ही में प्रपने जीवन साथी डॉ. भागचन्द जैन भास्कर भूतपूर्व मध्यक्ष पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्व विद्यालय तथा