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और हिन्दी में लिखकर जैन साहित्यकारों ने साहित्य के क्षेत्र में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर काफी पड़ा ।
मुगलों के प्राक्रमणों से यद्यपि जैन साहित्य की बहुत हानि हुई फिर भी प्रकबर (1556-1605 ई.) जैसे महान शासकों ने जैनाचार्यों को सम्मानित किया। मध्यात्म शैली के प्रवर्तक बनारसीदास, पाड़े रूपचन्द, पांडे राममल्ल, ब्रह्मरायमल्ल, कवि परमल्ल प्रादि हिन्दी के जैन विद्वान इसी समय हुए । साहु टोडरमल प्रकवर की टकसाल के अध्यक्ष थे। प्रकवर के राज्य काल में हिन्दी जैन साहित्य की प्रभूत अभिवृद्धि हुई । जहांगीर के समय में भी रायमल्ल, ब्रह्मगुलाल, सुन्दरदास, भगवतीदास आदि अनेक प्रसिद्ध हिन्दी जैन साहित्यकार हए । रीतिकालीन साहित्य परम्परा के विपरीत भया भगवतीदास, मानंदघन, लक्षमीचन्द, जगतराय प्रादि जैन कवियों ने शान्त रस से परिपूर्ण विरागात्मक आध्यात्मिक साहित्य का सृजन किया । एक ओर जहाँ जेनेतर कवि तत्कालीन परिस्थितियों के वश मुगलों और अन्य राजामों को श्रृंगार और प्रेम-वासना के सागर में डबो रहे थे, वहीं दूसरी पोर जैन कवि ऐसे राजाओं की दूषित वृत्तियों को प्रध्यात्म और वैराग्य की ओर मोड़ने का प्रयत्न कर रहे थे। जैन धर्म, साहित्य और संस्कृति की यह अप्रतिम विशेषता थी। शान्तरम उसका अंगी रस था। समूचा साहित्य उससे प्राप्लावित रहा है। 3. बौद्धधर्म
सप्तम शताब्दी के पासनास तक बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के रूप में देश-विदेशों में बंट गया था। साधारणत: दक्षिण में हीनयान और उत्तर में महायान का जोर था। भारत में इस समय महायानी परम्परा अधिक फली-फूली। महाराजा हर्षवर्धन संभवत: पहले हीनयानी थे और गद में महायानी बने । हयूनसांग ने इसी के राज्य काल में भारत यात्रा की थी। इस समय बौद्ध धर्म में अवनति के लक्षण दिखाई देने लगे थे। नालन्दा, बलभी आदि स्थान बौद्ध धर्म के केन्द्र बन चुके थे। हर्ष के बाद बौद्ध धर्म का पतन प्रारंभ हो गया।
___ यहाँ तक आते-पाते बुद्ध में लोकोत्तर तत्व निहित हो गये । श्रद्धा और भक्ति का मान्दोलन तीव्रतर हो गया। प्रवदान साहित्य और वैपुल्य सूत्र का निर्माण हो चुका था। सौत्रांतिक और वैभाषिक तया योगाचार-विज्ञानवाद पौर शून्यवाद-माध्यमिक सम्प्रदाय अपने दार्शनिक आयामों के साथ बढ़ रहे थे । प्रसंग, वसुबन्धु, दि नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर गुप्त, नागार्जुन, प्रार्यदेव, शान्तरक्षित मादि माचार्य अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे थे। मात्मवाद मव्याकृत से लेकर अनात्मवाद अथवा निरात्मवाद बन गया । साधक प्रतीत्यसमुत्पाद से स्वभावशून्यता और गुण साधना की पोर बढ़ने लगे। निकायवाद का विकास हो गया । पारमितायें भी यथासमय बनने कमने लगी। 1. विशेष देखिए-अंन दर्शन एवं संस्कृति का इतिहास-डॉ. भागचन्द्र
भास्कर, पृ. 323-337,