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कहां-कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल, प्रावो क्यो न भाज तुम ज्ञान के महल में । नेक बिलोकि देखt अन्तर सुदृष्टि सेती, कैसी-कैसी नीकि नारी ठाड़ी है टहल में । एक ते एक बनी, सुन्दर स्वरूप घनी, उपमा ने जाय बाम को चहल में । 2 महात्मा मानन्दघन की आत्मा भी अपने प्रियतम के वियोग में तड़पती दिखाई देती है । इसी स्थिति मे कभी वह मान करती है तो कभी प्रतीक्षा, कभी उपालम्भ देती है तो कभी भक्ति के प्रवाह मे बहती है, कभी प्रिय के वियोग में सुध बुध खो देती है- 'पिया बिन सुधि-बुधि भूली हो ।" विरह - भुजंग उसकी शैय्या को रात भर खूं देता रहता है, भोजन-पान करने की तो बात की क्या ? अपनी इस दशा का वर्णन किससे कहा जाय ? उसका प्रिय इतना अधिक निष्ठुर हो जाता है कि वह उपालम्भ दिये बिना नही रहती । वह कहती है कि मैं मन, वचन और कर्म से तुम्हारी हो चुकी, पर तुम्हारी यह निष्ठुरता और उपेक्षा क्यों ? तुम्हारी प्रवृत्ति फूल-फूल पर मडराने वाले भ्रमर जैसी है तो फिर हमारी प्रीति का निर्वाह कैसे हो सकता है ? जो भी हो, मै तो प्रिय से उसी प्रकार एकाकार हो चुकी हूं जिस प्रकार पुष्प में उसकी सुगन्ध मिल जाती है। मेरी जाति भले ही निम्न कोटि की हो पर तुम्हें किसी भी प्रकार के गुण-अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए ।
पिया तुम निठुर भए क्यू ऐसे ।
मै मन बच क्रम करी राजरी, राउरी रीति मनसें ॥
फूल-फूल मंबर कैसी भाउंरी भरत हो निब है प्रीति क्यूं ऐसें । मैं तो पियते ऐसि मिली घाली कुसुम वास संग जैसें ॥ प्रोछी जात कहा पर ऐती, नीर न हैयँ भैसें । गुनगुन न विचारी श्रानन्दधन कीजिये तुम हो तसे ||
"सुहागरण जागी अनुभव प्रीति" में पगी और अन्तः करण में अध्यात्म दीपक से जगी प्रानन्दधन की प्रात्मा एक दिन सौभाग्यवती हो जाती है । उसे उसका प्रिय
1. ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोत्तरी, 27 वां पद्य, पृ. 14. प्रानन्दघन बहोत्तरी, 32-41.
2.
3.
पिया बिन सुधि-बुधि मूंदी हो ।
विरह भुजंग निसा समै. मेरी सेजड़ी खूदी हो ।
atanपान कथा मिटी. किसकूं कहूं सुद्धी हो । वही, 62
4. मानन्दघन महोत्तरी, 32.