________________
199
(परमात्मा) मिल जाता है । अतएव वह सौलहों शृंगार करती है । पहनी हुई झीनी साड़ी में प्रतीति का राग झलक रहा है। भक्ति की मेंहदी लगी हुई है, शुभ भावों का सुखकारी अंजन लगा हुआ है। सहजस्वभाव की चूड़ियाँ और स्थिरता का कंकन पहन लिया है। ध्यान की उर्वशी को हृदय में रखा और प्रिय की गुणमाला को धारण किया । सुरति के सिन्दूर से मांग संवारी, निरति की वेणी सजाई । फलतः उसके हृदय में प्रकाश की ज्योति उदित हुई । अन्त:करण में अजपा की मनहद ध्वनि गुंजित होती है भोर अविरल मानन्द की सुखद वर्षा होने लग लग जाती है।
प्राज सुहागन नारी, अवधू पाज । मेरे नाथ पाप सुध, कीनी निज भंगचारी। प्रेम प्रतीति राग रुचि रंगत, गहिरे झीरी सारी । मंहिदी भक्ति रंग की राची, भाव मंजन सुखकारी। सहज सुभाव चुरी मैं पन्ही, थिरता कंकन भारी। ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुनमाल प्रधारी । सुरत सिन्दूर मांग रंगराती, निरत बैनि समारी। उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन पारसी केवलकारी । उपजी धुनि प्रजपा की अनहद, जीत नगारेवारी।
झड़ी सदा मानन्दघन बरसत, बन मोर एकनतारी॥ जैन साधकों ने एक और प्रकार के प्राध्यात्मिक प्रेम का वर्णन किया है। साधक जब प्रनगार दीक्षा लेता है तब उसका दीक्षा कुमारी अथवा संयमश्री के साथ विवाह सम्पन्न होता है। प्रात्मा रूप पति का मन शिवरमणा रूप पत्नी ने पाकषित कर लिया 'शिवरमणी मन मोहियो जी जेठे रहे जी लुभाव ।
कवि भगवतीदास अपनी चूनरी को अपने इष्ट देव के रंग में रंगने के लिए प्रातुर दिखाई देते हैं । उसमें प्रात्मा रूपी सुन्दरी शिव रूप प्रीतम को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है । वह सम्यक्त्व रूपी वस्त्र को धारण कर ज्ञान रूपी जल के द्वारा सभी प्रकार का मल धोकर सुन्दरी शिव से विवाह करती है । इस उपलक्ष्य में एक सरस ज्योनार होती है जिसमें गणधर परोसने वाले होते है जिसके खाने से मनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है।
1. वही. पृ. 20. 2. शिव-रमणी विवाह, 16 अजयराज पाटणी, बधीचन्द मन्दिर, जयपुर
गुटका नं. 158 वेष्टन नं 1273.