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(8) जैन रहस्यभावना में सर्वात्मवाद का का दर्शन होता है पर वह जैन सिद्धान्तों के अनुरूप है । प्राधुनिक रहस्यवाद का सर्वात्मवादी दर्शन अखमंगुर संसार को ईश्वरीय सत्ता में अन्तर्भूत करता है । यह स्थिति उसी प्रकार अंग्रेजी रोमाण्टिक कवियों में वर्डसवर्थ व ब्लेक की है जो प्राध्यात्मिक सत्ता पर विश्वास करते हैं और शैली uttracवादी हैं । फिर भी दोनों सर्वात्मवादी तत्त्व को सहज स्वीकार करते हैं ।" जैन धर्म प्रात्मा को ज्ञान-दर्शन मय मानकर सर्वात्मवाद की कल्पना करता है ।
(9) प्राचीन रहस्यवाद में साधक संसार, शरीर मादि नश्वर पदार्थों को जन्म-मरण का कारण मानकर उसे त्याज्य मानता है । पर आधुनिक रहस्यवाद में उसके प्रति सौन्दर्यमयी दृष्टिकोण है ।
(10) प्राचीन रहस्यभावना में वैयक्तिक स्वर अधिक है पर आधुनिक रहस्य - वाद सार्वभौमिकता को लिए हुए है ।
(11) प्राचीन रहस्यवादी साधना साम्प्रदायिक द्याधार पर प्रधिक होती रही पर आधुनिक रहस्यवाद में साम्प्रदायिकता का पुट अपेक्षाकृत बहुत कम है । (12) प्राचीन जैन किंवा जनेतर रहस्यवादी साधक भारतीय साधना-प्रकार से सम्बद्ध थे पर आधुनिक रहस्यवादी कवियों पर हीगल वर्डसवर्थ, ब्लेक, बर्नार्डशा, * श्रादि का प्रभाव माना जाता है । 2
इस प्रकार प्राचीन और आधुनिक रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद में सम्बन्ध अवश्य है पर साधकों के दृष्टिकोण निश्चित ही भिन्न-भिन्न रहे हैं। प्राचीन साधकों के समान, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा श्रादि प्राधुनिक रहस्यवादी कवियों पर भी दर्शन विशेष की छाप दिखाई देती है । पर वे प्राचीन कवियों के समान साम्प्रदायिकता के रंग में उतने अधिक रंगे नहीं। इसका मुख्य करण यह था कि दोनों युगों के साधक अपने युग की परिस्थितियों से प्रभावित रहे हैं। इसलिए रहस्य भावना को सही अर्थ मे समझने के लिए हमें उसके विकासात्मक स्वरूप को समझना पड़ेगा । इस सन्दर्भ में मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में अभिव्यक्त रहस्यभावना की उपेक्षा नहीं की जा सकती और न उसे साम्प्रदायिकता अथवा धार्मिकता के घेरे में बांधकर अनावश्यक कहा जा सकता है । हमारे प्रस्तुत अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि रहस्यभावना के विकास में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों का विशेष योगदान रहा है ।
1. प्राधुनिक हिन्दी साहित्य की विचारधारा पर पाश्चात्य प्रभाव डॉ. हरीकृष्ण पुरोहित, पृ. 251.
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वही, पृ. 241-277
विशेष दृष्टव्य - छायावाद और वैदिक दर्शन-डॉ. प्रेम प्रकाश रस्तोगी, आदर्श साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1971,