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सूफी काव्यों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने प्रेम और रूप का अजस्र सम्बन्ध स्वीकार किया है । इसका कारण यह है कि वे रूप को खुदा की प्रतिच्छवि मानते हैं 12 जीवात्मा के परमात्मा के प्रति प्रेम को उन्होंने कई प्रतीकों द्वारा व्यंजित किया है जिनमें कमल और सूर्य, चन्द्रमा घोर चकोर, दीपक एवं पतंग, चुम्बक और लोहा, गुलाब धौर भ्रमर, राग और हिरण प्रमुख हैं। इन प्रतीकों से कवि स्पष्ट ही साधक और साध्य के बीच के व्यवधान की ओर संकेत करता है अवश्य पर उनमें विद्यमान श्रानन्द, एकनिष्ठता और त्याग सराहनीय है । हर सूफी साधक जगत को एक दर्पण मानता है जिसमें ब्रह्म अथवा ईश्वर प्रतिबिम्बित होता है । मानसरोवर रूपी दर्पण में पद्मावती रूपी विराट ब्रह्म के रूप से सारा संसार श्रभासित होता है | श्रद्धंतवाद को स्पष्ट करने का यह सरलतम मार्ग सूफी साधकों ने खोज निकाला । परमात्मा रूप प्रियतम के विरह ने इसमें संवेदनशीलता की नहरी अनुभूति जोड़ दी जिसे साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में हम एक विशेष योगदान कह सकते हैं ।
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3. निर्गुण भक्तों को रहस्य भावना :
मध्यकालीन हिन्दी सन्तों ने भी सूफी सन्तों के समान अपनी रहस्यानुभूति को अभिव्यक्त किया है। उनकी रहस्यभावना को सूफी, वैदिक, जैन और बौद्ध रहस्यभावनाओं का संमिश्रित रूप कहा जा सकता है । माया श्रादि के प्रावरण से दूर प्रेम की प्रकर्षता यहां सर्वत्र देखी जा सकती है । माया के कारण ब्रह्ममिलन न होने पर विरह की वह दशा जाग्रत होती है जो साधक को परम सत्य की खोज में लगाये रखती है।
सन्तों का ब्रह्म (राम) निर्गुण और निराकार है- निर्गुण राम जपहु रे भाई । वह अनुपम और रूपी है। उसके वियोग मे कबीर की प्रात्मा तड़पती हुई इधर-उधर भटकती है। पर उसका प्रियतम तो निगुंग है । 'अबला के पिक
1. हंस जवाहिर, कासिमशाह, पृ. 151.
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4.
जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफी कवि और काव्य, पृ. 223.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 49.
जाके मुंह माथा नहीं नाहीं रूप अरूप ।
पुहुप वास से पातरा ऐसा तत्त्व अनूप ॥ बही, पृ. 64, तुलनार्थं देखिये -- सो निर्गुन कथि कहे सनाथा, जाके हाथ पांव नहि माथां । दरियासागर, g. 26.