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दुवजन भी चेतन को सुमति के साथ होली खेलने की सलाह देते है-चेतन खेल सुमति रंग होरी ।' कषायादि को त्यागकर, समकित की केशर घोलकर मिया की शिल को चूर-चूरकर निज गुलाल की झोरी धारणकर शिव-मीरी को प्राप्त करने की बात कही है। कवि को विशुद्धात्मा की अनुभूति होने पर यह भी कह देते हैं
निजपुर में प्राज मची होरी । उमगि चिदानन्द जी इत पाये, इत प्राई सुमती गोरी । लोक लाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी । समकित केसर रंग बनायो, चारित की पिचुकी छोरी । गावत मजपा गान मनोहर, अनहद झरसौं वरस्यो री।
देखन माये बुधजन भीगे, निरख्यो ख्याल अनोखी री॥ सर्वत्र होली देखकर सुमनि परेशान हो कह उठती है-'और सबै मिलि होरि रचावें हूं, करके संग खेलूगी होरी' (बुधजन विलास, पद 43) । इसलिए बुधजन 'वेतन खेल सुमति संग होरी कहकर सत्गुरु की सहायता से चेतन को सुमति के पास वापस पाने की सलाह देते हैं--(बुधजन विलास, पद 43) । प्राध्यात्मिक रहस्य भावना से मोतप्रोत होने पर कवि का चेतनराय उपके घर वापस पा जाता है पोर फिर वह उसके साथ होली खेलने का निश्चय करता है-'अब घर माये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी। कुमति को दूरकर सुमति को प्राप्त करता है, विज स्वभाव के जल से हौज भरकर निजरंग की रोरी घोलता है, शुद्ध पिचकारी लेकर निज मति पर छिड़कता है और अपनी अपूर्व सक्ति को पहचान लेता है
अब घर भाये बेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ।। पारस सोच कानि कुल हरिक, धरि धीरज बरजोरी। बुरी कुमति की बात न बूझ, चितवत है मोमोरी, वा गुरुजन की बलि-वलि जाऊं, दूरि करी मति भोरी ।। निज सुभाव जल हौज भराऊं, घोरू निजरंग रोरी। निज त्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी॥ गाय रिझाय माप वश करिक, जावन धौं नहि पोरी। बुधजन रचि मति रहूं निरंतर, शक्ति अपूरब मोरी। सजनी॥
1. छार कषाय त्यागी या गहि ले समकित केशर घोरी।
मिथ्या पत्थर गरि धारि लै, निज गुलाल की मोरी ॥ 'बुधजनविलास', 40 2. वही, पृ. 49.
छार कषाय त्यागी या गहि ले समकित केशर घोरी। मिथ्या पत्थर डारि पारि लै, निज गुलाल की झोरी ।। 'बुधजनविलास',49.