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प्रातःकाल राजा के रूप में देखा वही दोपहर में जंगल की भोर जम्ता दिखाई देता है । जल के बबूले के समान यह संसार अस्थिर और क्षणभंगुर है । इस पर दर्प करने की क्या कता ? वह तो रात्रि का स्वप्न जैसा है, पावक में तृणपूल-सा है, काल-कुदाल लिए शिर पर खड़ा है, मोह पिशाच ने मतिहरण किया है । 2
संसारी जीव द्रव्यार्जन में अच्छे बुरे सभी प्रकार के साधन अपनाता, मकान श्रादि खड़ा करता, पुत्र-पुत्री प्रादि के विषय में बहुत कुछ सोचता पर इसी बीच यदि यमराज की पुकार हो उठी तो 'रूपी शतरंज की बाजी सी सब कुछ वस्तुयें यों ही पड़ी रह जाती, उस धन-धान्य का क्या उपयोग होता ?
चाहत है धन होय किसी विश्व, तो सब काज सरें जियरा जी । गेह चिनाय करूं गहना कछु, ब्याहि सुता सुत बांटिये भाजी ॥ चिन्तत यो दिन जाहिँ चले, जम प्रामि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गयँ, रहि जाइरूपी शतरंज की बाजी | जिनके पास धन है वे भी दुःखी हैं, जिनके पास धन नहीं है वे भी तृष्णावश दुःखी हैं । कोई घन त्यागी होने पर भी सुख-लालची हैं, कोई उसका उपयोग करने पर दुःखी है। कोई बिना उपयोग किये ही दुखी है। सच तो यह है कि इस संसार मे कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं दिखाई देता ।" वह तो सांसारिक वासनाओं में लगा रहता है । 4
पांडे जिनदास ने जीव को माली और भव को वृक्ष मानकर मालीरासो नामक एक रूपक रचा। इस भव-वृक्ष के फल विषयजन्य हैं । उसके फल मरणान्तक होते है । 'माली वरज्यो हो ना रहे, फल की भूष ।
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सुन्दरदास के लिए यह प्राधचर्य की बात लगी कि एक जीव संसार का मानन्द भी लूटना चाहता है और दूसरी ओर मोक्ष सुख भी । पर यह कैसे सम्भव है ? पत्थर की नाव पर चढ़कर समुद्र के पार कैसे जाया जा सकता है ? कृपाणों की शय्या से विश्राम कैसे मिल सकता है।
1. वही, पृ. 157.
2.
जैनशतक, भूधरदास, 32-33, छहढाला- बुधजन प्रथमढाल, ।
3.
मनमोदनपंचशती, 216, हिन्दी पद संग्रह, पृ. 2:39, पृ. 194, पृ. 252, T. 211.
पाण्डे रूपचन्द, गीतपरमार्थी, परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई.
5. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि,
पृ.
4.
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