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गर पगति के प्रतीक है, मधुबिन्दु सांसारिक सुखाभास है। कविवर भगवतीदास ने भी इसी कथा का प्राधार लेकर संसार का चित्रण किया है।'
कवि बूचराज ने ससार को टोड (व्यापारियों का चलता हुमा समूह) कहा है और अपने टंडारणागीत में परिवार के स्वार्थ का सुन्दर चित्रण किया है :
'मात पिता सुत सजन सरीर दह सब लोग विराणावे । इयण पंख जिम लरुवर वासे दसहं दिशा उडाणावे ।। विषय स्वारथ सब जग वंछ करि करि बुधि बिनारणावे ।
छोडि समाधि महारस नूपम मधुर विन्दु लपटाणावे ॥”
संसार के इस चित्रण में कवि साधकों ने एक मोर जहां संसार की विषय वासना मे प्रासक्त जीवों की मन:स्थिति को स्पष्ट किया है वहीं दूसरी ओर उससे विरक्त हो जाने का उपदेश भी दिया है। इन दोनों के समन्वित चित्रण में साधक टूटने से बच गया । उसका चिन्तन स्वानुभूति के निर्मल जल से निखरकर भागे बढ़ गया । जैन कवियों के चित्रण की यही विशेषता है।
2 शरीर से ममत्व रहस्य साधकों के लिए संसार के समान शरीर भी एक चिन्तन का विषय रहा है। उसे उन्होने समीप से देखा और पाया कि वह भी संसार के हर पदार्थ के समान वह भी नष्ट होने वाला है। समय प्रथवा अवस्था के अनुसार वह लीन होता चला जाता है । अध्यात्म रसिक भूधर कवि ने शरीर को चरखा का रूप देकर उसकी यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है । इस सन्दर्भ में मोह-मग्न व्यक्ति को सम्बोधते हुए वे कहते हैं कि शरीर रूपी चरखा जीर्ण-शीर्ण हो गया । उससे अब कोई काम नहीं लिया जा सकता । वह आगे बढ़ता ही नहीं। उसके पैर रूप दोनों खूटे हिलने लगे, फेफड़ों में से कफ की धर-घरं आवाज पाने लगी जैसे पुराने चरखे से पाती है, उसे मनमाना चलाया नहीं जा सकता। रसना रूप तकली लड़खड़ा गयी, शब्द रूप सूत से सुधा नहीं निकलती, जल्दी-जल्दी शब्द रूप सूत टूट जाता है। प्रायु रूप माल का भी कोई विश्वास नहीं, वह कब टूट जाय, विविध प्रौषधियां देकर उसे प्रतिदिन स्वस्थ रखने का प्रयत्न किया जाता है, उसकी मरम्मत की जाती है,
1. ब्रह्मविलास, मधुबिन्दुक चौपाई, छीहल का पन्थी गीत भी देखिये जो
जयपुर के दीवान बधीचन्द्रजी के मंदिर में, गुटका नं. 27, वेष्टन नं. 973
में सुरक्षित है। 2. हिन्दी जैन भक्ति काव्य पार कवि, पृ. 100.