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सोहं सोहं नित, सांस उसास मझार । ताको प्ररथ विचारिये, तीन लोक में सार ............
जसो तसो पार, पाप निह तजि सोहं । अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ॥
आनन्दघन का भी यही मत है कि जो साधक माशाओं को मारकर अपने मन्तः करण में अजपा जाप को जपते हैं वे चेतनमूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। कबीर मादि सतों ने भी सहज-साधना, शब्द सुरति और शब्द ब्रह्म की उपासना की। ध्यान के लिए अजपा जाप और नाम जप को भी स्वीकार किया है। सहज समाधि को ही सर्वोपरि स्वीकार किया है।
साधक कवि को परमात्मपद पाने के लिए योग साधना का मार्ग जब दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति (भक्ति) का सहारा लेता है । रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुगम है इसलिए सर्व प्रथम वह इसी मार्ग का भवलम्बन लेकर क्रमशः रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है। रहस्य भावना की भूमिका चार प्रमुख तत्वो से निर्मित होती है-मास्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मार्ग । जन साधको की मास्तिकता पर सन्देह की आवश्यकता नहीं। उन्होने तीर्थकरो के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों के प्रति अपनी अनन्य भक्ति भावना प्रदर्शित की है। द्यानतराय की भगवद् प्रेम भावना उन्हे प्रपत्त भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है।
प्रपत्ति का अर्थ है अनन्य शरणागत होने अथवा प्रात्मसर्पण करने की
भावना। नवधाभक्ति का मूल उत्स भी प्रपत्ति है। भागवत पुराण में नवधा. भक्ति के 9 लक्षण है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण , पादसेवन (शरण), अर्चना, वंदना, दास्यभाव. सख्यभाव और आत्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इनमें कुछ मन्तर किया है। पाचरात्र लक्ष्मी संहिता में प्रपति की षडविधायें दी गई है
1. धर्मविलास, पृ. 65 2. आनन्दधन बहोत्तरी, पृ. 359 3. अनहद शब्द उठ झनकार, तहं प्रभु बैठे समरथ सार । कबीर प्रन्थावली
पृ.301 4. संतो सहज समाधि भली । कबीर वाणी, पृ. 262 5. श्रवन, कीरतन, चितवन, सेवन वन्दन ध्यान । लघुता समता एकता नीषा भक्ति प्रमान ।।
नाटक समयसार, मोक्षवार, 8, 1.218 -