Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Mehta Mohanlal Damodar
Publisher: Mehta Mohanlal Damodar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International श्री उत्तराध्ययन सूत्र मूळ, भाषान्तर तथा टीका. छापी प्रसिद्ध करनार - महेता मोहनलाल दामोदर, राजकोट- काठिआवाड. For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. घणारा धार्मिक संप्रदायामां अनुक काळ व्यतित थतां एक एवो समय आत्री लागे छे के, तेना अनुयायीओनुं स्वधर्मना मूळ उद्देश प्रति दुर्लक्ष्य थाय छे अने तेओ धर्मना मात्र बाह्याचारनेज वळगी रहे छे, एथी परिणाम ए आवे छे के मनुष्य जीवन उपर धर्मनी जे उमदा असर रहेवी जोइए ते रहेती नयी; आवो समय आवे छे त्यारे केळवायेल वर्ग धर्मना ए पडछायाने तत्व तरीके स्वीकारवा तरफ उदासीनता धारण करे छे, अने अशिक्षित वर्ग जे मार्गे जतो होय ते मार्गे तेने जबा दे छे, एवे वखते सामान्य जन मंडळ धर्मना अमुक आचार अने क्रियाने वळगी रहे छे खरा, परंतु परापूर्वथी चालता आंवला रीवाज अने रुढीने लइनेज तेओ तेम करे छे; जिंदगीना सत्यमार्ग-दर्शक भोमिया तरीके, तत्रज्ञानने अभावे, धर्मनो तओ उपयोग करी शकता नथी. arrar धर्म ने पंथी अत्यारे आवी स्थिति जोवामां आवे छे, जैन धर्मनी सांप्रत स्थिति पण ए प्रवाहना वेगने मळती छे, जैन मावापन पेटे जन्मेला केटलाक केळवाला युवा जडवादना संस्कारीने लइ, स्ववने तत्वने बदले पडछायारूप माने छे, तेओ पोते एम समज छे अने अन्यने एम समजावे छे के मनुष्य जीवनमां धर्म जेवी संस्थानी कशी जरुर नयी, एटलुंज नहिपण धर्म व्हेमो अने न मानी शकाय एवी कल्पनाओतुं संग्रहस्थान छे अने तेथी ते नुकशानकारक छे, अने आपणने आगळ वधता अटकावामां ते कंटक समान छे, अर्थात धर्मने तेओ एक दर्दरुप माने छे अने ए दर्दथी मुक्त थवाने पोते प्रयत्न करे छे अने 'अन्यने प्रयत्नशील थवा उपदेश करे छे. heater वर्गने धर्म तरफ आओ अगगमो शाथी उत्पन्न थयो हो अने ए गैर समज केस दूर थाय ए प्रश्नो अति महत्वना छे. . धर्मने नामे मात्र बाह्याचार पाळनारां ने अमुक अमुक क्रिया करनाएं मनुष्योनां विचार, वाणी अन कर्ममां परस्पर विरुद्धता मात्र जोइनेज तेओ एम मानवाने उतावळ करे छे के धर्म मनुष्यने उन्नतिना मार्गे चढाववाने अशक्त छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 00000000 00000000000000 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण एणा छे के ऐहिक सुख एज जिंदगीभुं सार्थक मनावा लाग्युं छे अने संसार- विषय-वासनानी तृप्ति साधवान तन, मननी तमाम शक्तिओनो उपयोग पण एज मार्गे थतो जणाय छे, स्वधर्मनी अज्ञानता अने पायात्य प्रजाना रीत-रीवाज अने रहेणी कणीना अनुकरणं ए परिणाम छे एम कहीए तो खोडं नथी. गृह अने शाळानां अपाती केळवणीमांथी धार्मिक शिक्षणनो बहिष्कार अने प्रचलित भाषामा धर्म-पुस्तकोनां भाषान्तरोनो अभाव ए पण धर्मनी अवनतिनां अन्य कारणी छे. ए गैर समज दूर करवाने ज्ञाननो प्रसार एज मात्र एक उपाय छे. जीव दया याने प्राणी मात्र प्रति भ्रातृभाव उपर रचायेला जैन धर्मनो पायो अति उंडो अने सुद्दढ छे. आत्मवत् जगतने जोनार प्राणी समजे छे के सकळ सृष्टि एकज शरीर रुप छे अने मां वसतां प्राणीओ तेनां अवयव रुप छे; अने तेथी तेमांना एकाद अवयवने इजा करतां आखा शरीरने व्यथा पहोंचे छे अने तेनां परिणाम तमाम अवयवने भोगवव पडे छे. धर्मनो आवो प्रौढ अने उच्च सिद्धान्त होवा छतां जैन कुळमां जन्मल तरीके ओळखावनार केटलाकनुं वर्त्तन एथी विपरित जोवामां आवे छे तेनुं कारण शुं ? कारण मानी लीघेलो स्वार्थ अने अज्ञानता. आपणे हाथे थती प्रत्येक भूल, अपराध अने पापनुं मूळ तपासीशुं तो स्वार्थ सिवाय वीजं भाग्येज हशे अने ए स्वार्थ बुद्धि उत्पा स्थान अज्ञानताज छे. तेटलाज मांटे जैनधर्मनां पुस्तकोमा फरमान्युं छे के प्रथम ज्ञान अने पछी दया. डंडो विचार करी जोवाथी जणाशे के अन्यना भोगे पोतानो स्वार्थ साधनार अज्ञानी पामर प्राणीज हो. अर्थात ते स्वार्थ-परायण के कारण के ते अज्ञान ले. विचार ए एक प्रबळ शक्ति छे. वाणी अने कर्म एतो मात्र विचार वृक्षनी शाखाओ छे. प्राणी मात्र तरफ प्रेमभावना विचार वृक्ष प्रेमन, अने द्वेषभावना विचार वृक्षने द्वेषनां फळ लागे ए कुदरतना निर्विकल्प नियम छे. तेला माटे काम, क्रोध, लोभ, माहे मदादिने विचारमां पण स्थान आप ए केवळ अज्ञानी मनुष्यतुं काम छे. पशु पक्षी ओ तरफ दर्शावेलो प्रेमभाव पण व्यर्थ नयी जतो, तो पछी मनुष्य तरफनो ए भाव निरर्थक नज जाय ए वात स्वतः- सिद्ध छे अने सुख अने शान्तिनो एज साचो मार्ग छे अने जैन धर्मनी पण एज प्ररूपणा छ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रा आवा आवा विचारोने लइने ज्ञानना प्रसार अर्थ सूत्रना भाषान्तर करवानुं कार्य हाथ धर्यु छे. श्री उत्तराध्ययन सूत्र मूळ सूत्रोमा प्रथम पद भोगवे छे. तेनो उद्देश दाखला दलीलोथी कर्त्तव्यनुं ज्ञान अपवानो, संसारनां भय अने लालचोथी चेताववाने अने जैन धर्मना मुख्य सिद्धान्तो समजाववानो छे. तेमां अन्य मत-मतान्तरोनुं स्पष्टीकरण अन खंडन पण काइ कोइ स्थळे करेलु छे. जीव दया उपर रचायेला जैन धर्मनो प्रथम अने मुख्य हेतु जीव- अजीवना भेद समजावानो होवो जोइए अने तेथील्ला एटले छत्रीसमा अध्ययनमां जीव-अजीवना भेदनुं वर्णन विस्तार अने स्पष्टताथी करवामां आवे छे. समर्थ विद्वानो पोताना अपूर्व ज्ञान अने व्होळा अनुभवने परिणामे निक्षपात बुद्धिथी, सर्वानुमते एकत्र थइ जे सूत्रो, "स्मरण स्थानपरथी आपणा माटे पानांपर लखवा श्रम कर्यो ते सूत्रोनो सुरम्य प्रकाश, शब्दोद्वारा प्रदर्शित करवानुं काम सहेलं नथी. परमात्माना वास्तव स्वरुपनी झांखी निर्दोष शब्दो अने रसात्मक वाक्यों बडे सूत्रायां वणी सळतायी कराववामां आवी छे. ए चमत्का मात्र अनुभव गम्यज छे. शब्दोथी तेनुं संपूर्ण वर्णन कोइथी कदि यह शकेज नहि. तेमांची ज्ञानामृतनां करिणो स्फुरे छेबोधामृतना झरा माथी उछले छे. वांचतां के सांभळतांज अलौकिक असर उत्पन्न थवा मांडे छे. फीलसुकीना संगीन तत्वधीत भरपुर छे. तेनो 'दिव्यनाद' श्रवण करना अने 'मर्म वाक्यो' समजवानो आपणो प्रयास, ए शुभ भविष्यनुं सूचन छे. जैन तरकेतुं जीवन गाळवा माटे, सूत्रो ए कीमती कायदाओ छे. जे महानभुना एक अक्षर मात्रथी अनेक अमूल्य शिक्षाओना प्रवाह छुटे छे, तेवी शिवामणोना संग्रह-भंडार रूप आवां उपयोगी पुस्तकोनुं ज्ञान स्वधर्मी बन्धुओम प्रसार, ए उत्तम संघ भक्ति छे- ए उत्तम अमूल्य भावना छे- ज्ञानावर्णीय कर्मनो क्षय करवानी ए अचुक औषधी छे. वर्तमान जैन शासन प्रवर्त्तक महाप्रभु श्री महावीर स्वामी- चरम तीर्थकरनी चरम मासादि रूप श्री उत्तराध्ययन सूत्र विशेष उपकारी अने विशेष चमत्कारी मनाय छे. आयुष्यना अवशेष छेल्ला वे दिवसो गुजराती आशो वद १४ - ० ) ) वे उपवास-उठना श्रीवर भगवाने ५५ पुण्य फळनां अने ५५ पाप फळनां विपाक, ते समये एकटा थयेला विद्वान् सुनी, राजा माहाराजाओना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० 00000०.०००००००००००००००००रूर प्रश्नांना उत्तर रुपे फरमाच्या बाह, अनुपायीनां उपकारार्थे वगर * पुछये आ सूचना ३६ अध्ययनो फरमाचत्रानी कृपा करी.जे पराक्रमी नररत्न पारो, इंद्रभूति प्रमुख चौदहजार मुनि, चंदन वाला प्रमुख छत्रीस हजार साधवि, शंखजी, शतकजी प्रमुख एक लाख ओगणसाठ हजार श्रावक, सुलसा अने रेवती प्रमुख वग लाख ने अहार हजार भाविका, सातसें केवलज्ञानी, सातसें वैक्रीय लब्धि धारी, तेरसे अवधि ज्ञानी, पांचसे मनः पर्यव ज्ञानी, अणसें चौद पूर्वधारी, वीगेरे परिवार हतो ते प्रभुश्रीना, छेवटना शब्दो केंवा असरकारक होय तेनो ख्याल वाचको पोतेज करी शके. एका साधारण संसारी पग, मृत्यु समये पोता पासे गुप्त राखेनु द्रव्य तथा बाकी रहेलं ज्ञान पुत्रो वीगेरे ने आपे छे अने साधारण वायतो करतां अंतनी शिक्षाओ संसारीनी पण वधारे उपयोगी अने महत्वनी होय छे, तो परम उपकारी अने सर्व पाणीओने पोता समान गणनारा प्रभुश्रीना आना उदगारो अवर्णनीय, अलौकिक होय मां आर्य नथी. आ सूत्र आवा उद्गारोना अपूर्व संग्रह रूप छे. ते श्री संघना चारे अंग-साधु-साधवि-श्रावक श्राविकाओने बोधक | अने एक सरयु उपयोगी छे. पाचात्य प्रसिद्ध जैन शास्त्राभ्यासीओ भोफेसर जेकोबी, कोलक, शुद्धला, लेपन, वेबर, वार्थ, विल्सन बीगेरे जेओ परधर्मी छता, जैन सूत्रोनी श्याद्वाद वाणीपर आटला बधा आग्रहथी ललचाया छे, ते अपूर्व ज्ञान मृतथी आत्माने शान्त करवायां, छता | साधने, आपणे जैनो जो आळस करीए तो, पाकी बोरडी नीचे सुतां छां पासेज पडेलां बोर मारे अन्यनी मदद मागवा, जेवी निर्माल्य अने हास्य जनक दयामणी स्थितिना भोगता नहि थइ पडीए, ए वात आपणे खास विचारवी जोइए. सूत्रोनी भाषा आपणामांनां घणां, ते भाषाना खास अभ्यासने अभावे, वांची समजी न शका होवाथी, तेनो जोइए तेवो लाभ लेवातो नथी अन अमूल्य शीखामणोना भंडारथी अज्ञान रहे पडे छे. अशुद्ध गुजराती भाषामां उपयोगी सूत्रोनी टीकाओछ. छता सरळ स्वभाषामां तेनां भाषांतर थवानी जरुरीयात विषे श्री श्वेतांवर कोन्फरन्स अने विद्वान् श्रावको ठराव करीनेज देसी नहिं * पत्रिशतम प्रश्न व्याकरणान्य भिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरु र भावयत । स्वामिनो मोक्ष समयं विज्ञावासन कंपतः । ००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेता, तेनो अमल तुरतमां थयेलो जोया इच्छे छे. पण सूत्रोना भाषान्तरथी श्रा क वर्ग माहित थाय ए केटलाक शिथिलाचारीने भयरुप लागे छे अने अनेक विघ्नो नांखे छे. वर्तमान समय आवी अडचणो तरफ लक्ष आपे एम नथी... देशवासी प्रसिद्ध बाबुए घणां सूत्रो छपायां छे. जाणीता जैन बुकसेलर श्रावक भीमसीह माणेके ते परथी केटलांक सूत्रो छपाव्यां छे. पण तेमां लंबाण विशेष छ अने भाषा वर्तमान समयने अनुसरती सरल नथी. स्थानकवासी विद्वान् डोक्टर जीवराज घेला| भाइ, एल. एम. एन्ड एस. एमणे जर्मनीना प्रो. हर्मन जेकोबीनी सलाह लइ श्री दशवकालिक अने श्री उत्तराध्ययनजी सूत्रोन भाषान्तर प्रसिद्ध करेल छे अने हजी बीजां सूत्रो मारे तेवो स्तुत्य प्रयास चालुज राख्योछे. देरावासी प्रो.रवजी देवराज तथामोरबीना .स्था. जैन स्कोलरोए मळी उपयोगी प्रथम अंग श्री आचारांगजी सूत्रनुं भाषान्तर प्रसिद्ध करेल तेनी प्रथमावृत्तिनी तमाम नकलो खलास थतां वीजी आवृत्ति छपाववा पडी. आ बधी बीनाथी सावीत थाय छे के अनुयायीओ आ अगत्यता स्वीकारी उत्तेजन आपवा तैयारछे. आवी आशाए अमारो उत्साह टकावी खख्यो छ. श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रमा पण परम उपकारी भगवान आवा उपयोमी सूत्रोना अर्थो समजी शीखवानुं खास फरमान करी गया छे. उक्त सूत्रनुं भाषान्तर करवामां कलकत्ता आवृत्ति अने ते उपर श्री लक्ष्मीवल्लभनी टीका सस्कृतमा करायेली, भाव विजयी अने शान्त वैताली टीकाओ तथा प्रो. हर्मन जेकोबीकृत अंग्रेजी भाषान्तर उपर खास आधार राखवामां आवेलो छे. ए बन्नेनी वच्चे ज्या ज्यां गाथा अथवा अर्थमां तफावत जणायो त्या त्या विद्वान साधु मुनिराजनी अने अन्य आवृत्तिओनो आश्रय लइ शक्ति अनुसार स्पष्टीकरण कर्यु छे, अने पृष्ठने तळीये ते संबंधे खुलासो कर्योछे. उपरांत अल्पज्ञान ने अवकाश मल्यो त्यां सुधी फुटनोटमां समज आपेली छे. मूल पाठ तमाम प्रतोनो मळतो नथी. इस्व दीर्घ दोष थवानां आ सबळ कारणो छे. शा. १५१२ नी | माळवानी प्रत तथा वीजी हस्त लीखित प्रतो साथे मूळ पाठ मेळववा प्रयास कयों छे छतां अमने भीति छे के आ पुस्तक ते दोपथी मुक्त रही शक्यु नथी. Jain Education intentional For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमोनी मूळ संख्या ८४नी हती. तपांथी हाल ३२ आपणी मान्यता मुजद विद्यमान छे, एम कहेवाय छे, राज्य बदला, उत्तेजननो अभाव, पुस्तकोने भंडार दाखल करी उधाइने खवडाकी देवानी कुटेव, अने प्राकृत भाषाज्ञ पंडितोनी गेरहाजरी art कारणाने लइने संख्याबंध आगमो लय पाम्यां छे. प्राचीन काळमां छापवानी कळानो शोध नहोतो थयो ते वखते नाश थाना भी धर्म-पुस्तकोने भंडारमा साचवी राखवानुं धोरण सकारण गणी शकाय, परंतु सांप्रत समये तेम करवानी जरुर नयी. जुदा जुदा भंडारसांथी अकेक ग्रंथनी जुदी जुदी प्रतो मेळवी, संशोधन करावी, प्रचलित भाषामां तेनां भाषान्तरो करावी, तेन प्रसार करवानी खास जरूर छे; अने कोन्फरन्स अने अन्य मंडळोनी ए पवित्र फरज छे. तेम थशे त्यारे अने त्यारेज जैन धर्मना उत्तम सिद्धान्त अने अप्रतिम तत्वज्ञाननो प्रकाश जगतमा फेलाशे अने अनेक जीवोनी उन्नतिनो मार्ग खुल्लो थशे. अ अंतःकरणपूर्वक मानीए छीए अने जाहेर करीए छीए के आ सूत्रनुं भाषान्तर प्राकृत भाषानुं ज्ञान घरावनार अने धर्मना सिद्धान्तोनो विशाळ अनुभव घरावना कोइ विद्वानने हाथे थयुं होत तो वधारे सारं. परंतु ए आशामां काळ व्यतीत करवा करतां गजा विनापण अल्प शक्ति, अल्प ज्ञान अने अप अनुभवना आधारे आ साहस उठाव्युं छे, तेमां जे जे दोष दृष्टिए आवे 'तेने माटे असे क्षमा याचीर छीए. निर्दोष एको हरिः । भाषान्तर करवामां शब्दार्थ करतो वाक्यार्थ उपर खास लक्ष्य आप्युं छे, कारणके सूत्रनां फरमान अने भावार्थ सरळताथी समजाय अने वर्त्तनमां तेनो सदुपयोग थाय एम अमाने उद्देश छे. ए उद्देश केटला अंशे पार पड्यो छे ए निर्णय करवानुं काम वाचक वर्ग छे, अमारुं नथी. गुचवाडा भरली भाषामा न गुंचवाता, सरळ अने समजाय तेवी भाषा वा परवानी खास काळजी राखी छे. आ सूत्रना पहेला त्रीश अध्ययननुं भाषान्तर आजयी पाँच वर्ष पहेलां तैयार करवामां आव्युं हतुं. त्याएपछी व्यवसाय, विपत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ अने शक्तिना शंकाशीलपणाने ली ए कार्य पडतुं मूकवामां आव्यं हतं. परंतु केटलाक विद्वान सन्मित्रानां अभिप्राय अने सलाही उत्तेजित थइ ए कार्य पूरी करवाने अमे शक्तिवान थया छीए, तेने अमे श्री वीर प्रभुना अनुग्रहनुंज फळ मानीए छीए. स्त्री पुरुष, वृद्ध वगेरे सौ कोइ तनो एक सरखी रीते लाभ लइ शके ए उमदा उद्देशथी ते वखतना देश काळने अनुसरीने जेम सूत्रो संस्कृतने बदले माकृत भाषामा लखायां हतां तेज धोरणे हालनो देश काळ ध्यानमां लइ सरळ गूजराती भाषामा तेनुं भाषान्तर करवाने असे मेराया डीए, अने तेनो लाभ गूजराती भाषा जाणनार सौ कोइ ले एज अमारी इच्छा एज अमारी उमेद अन एज अमारी प्रार्थना छे. भाषान्तर बीज तो साथ मेळवी, युवा वधारो करवामां शंका लागे त्यां विद्वान् मुनीराजोनी सलाह लेवामां, अने अवकाश मळ्यो त्यां सुधी फुटनोटो लखनामां, मारा वनित शिष्य झवेरी दुर्लभजी त्रीभुवनदास मोरवीवाळाए मने सारी मदद करी छे. आ स्तुत्य श्रम वाचको प्रत्यक्ष जोइ शकशे. ए उपयोगी साधनानुं स्मरण आ पवित्र पुस्तक साथे जळवाइ रहेशे. आवी धार्मिक उन्नति दलालीनां कार्यो माटे, आ भाइ विशेष उत्साही बनी रहे ए मारी अंतःकरणनी आशीश छे. आ पुस्तकनी प्रसिद्धि, राजकोट मिटिंग प्रेसना स्ववमीं मालिक भाइ मोहनलाल दामोदरना उत्साह ने आभारी छे. जेणे साहस करी, श्रावकोना उत्तेजननी आशा उपर आ काम माथे लइ यत्ना पूर्वक छापी, एक उपयोगी पुस्तक श्री संघनी सेवामां रजुक छे. Jain Educationa International वीर संवत २४३५. भाद्रपद शुद्ध ६० } For Personal and Private Use Only भवदीय नागरदास मूळजी ध्रुव, भाषान्तर कर्त्ता. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र मळवानां ठेकाणां: राजकोट–प्रसिद्ध कर्ता महेता मोहनलाल दामोदर. अमदावाद-शा. वालाभाइ छगनलाल, ठे:-कीका भटनी पोळ. , --शा. त्रीभोवनदास रुगनाथदास, ठे:-आका शेठ कुवानी पोळ. मोरबी-संघवी अभेचंद जपाळ, जैन लाइब्रेरीना सेक्रेटरी. 0000 महेता मोहनलाल दामोदरे 'धी राजकोट प्रिन्टिंग प्रेस'मां छापी प्रसिद्ध कयु-राजकोट. 00000 Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॥ ॐ असिआउसाय नमः ॥ ॐ श्री उत्तराध्ययन सूत्र मूळ, भाषान्तर तथा टीका. अध्ययन १. *विनय संजोगा विप्प मुक्करस अणगारस्स भिख्खूणो । विणयं पाउ करिस्सामि आणुपुचि सुणेह मे ॥१॥ आणा निद्दे स करे गुरूण मुववाय कारए इंगिया गार संपन्ने सेविणीएत्ति वुच्चई ॥२॥ ४ जेणे बाह्य संयोगो (धन, धान्य, पुत्र, कलत्रादि) तथा अभ्यंतर सयोगो [ मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ वगेरे ] नो त्याग करेलो छे, एवा घर रहित साधुनो विनय अनुक्रमे प्रकट करुं हुं ते सांभळो.[१]. गुरुनी आज्ञा प्रमाण करनार, गुरुनी वृत्ति 18| अने चेष्टारना जाणपणा सहित, गुरुनी दृष्टि अने वचनने विषे रहेला कार्यनो करनार शिष्य विनित कहेवाय. [२]. * विनयथी मोक्ष मार्ग सधाय छ, जैन धर्म, विनय मूळ छ :-धीरे कारणोथी विनयने अत्र प्राधान्य आपेलछे, अन्य १ सूत्रोमां पण विनयन अधिक अगत्य आपवामां आवी छे. “ विणओसासगेमूलं, विणोनिव्वाणसाहगो, विणयाओविष्पमुक्कस्स कओधम्मोकोतवो. विणयाओनाणं नाणाओदंसणंचरणेहिं." वीगेरे घणां प्रमाणो अनुमोदन माटे मळी शके छे. १. संयोगनो खुल्लो अर्थ परिग्रह छे. २. प्रोफेसर हर्मन जेकोबी आ गाथानो अर्थ करेछे के :-"A monk who,on receiving an order from his superior, walks upto him, watching his nods and motions, is called well-behaved." Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा निदे स करे गुरूग मणुवधाय कारए। पडिगीए असंबु हे अधिगीएलि बुच ॥३॥ जहा सुगी पुइ कन्नी निकसिज्जई | उ.अ. | सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निकतिज्जई ॥४॥ कग कुंडगंचइत्त,णं विठं भुजइ सूयो । एवं सिलं चइताणं दुस्सीले रमई मिए ॥५॥ सुणिया भावं साणस्स मूयरस्त नरस्सय । विणए ठविज्ज अप्पाणं इक्षुत्तो हिय मप्पणो ॥६॥ तम्हा विणय मेसेज्जा सीलं पडि लभेजओ । बुद्ध पुत्त नियागठी ननिक्कसिज्जई कन्हुइ ॥७॥ गुरुनी आज्ञा प्रमाणे न वर्ते, गुरुथी दूर बेसी रहे, गुरुना काम न करे, गुरुनां प्रत्यनीक वरी। सरखो होय अने तत्वनो अजाण होय ते शिष्य अविनित' कहेवाय. [३]. जेम कोहेलारुधिर बहेता कानवाळी कुतरीने ज्यां जाय त्यांची काढी मूकवामां आवे छे, तेममूंडा आ चारवाळा, गुरुना प्रत्यनीक बेरी सरखा, अने असम्बन्ध भाषि- शिष्यने [गच्छथी] काढी मूकवो जोइए. [४]. जेम सूकर | Al[डुक्कर] अन्न कुंड छांडीने विष्टा भोगवे छे, तेम पशु जेवो अविनित शिष्य भला आचार छांडीने मुंडा आचाग्ने विषे प्रवर्ते छे. [५]. श्वान अने सूकरनी सार्थ अविनित मनुष्यनी सरखामणीनु आ दृष्टांत सांभळीने, जे कोइ पोताना आत्मानुं हित इच्छतो होय । तेणे विनयने विषे दृढ थर्बु जाइए. [६. तेटला माटे तुं विनय कर जेथी तुं भलो आचार पामीश. मोक्षार्थी४ बुद्धपुत्र। [विनित शिष्य ने गच्छादिकथी कोइ काढी मूकतुं नथी. [७]. १. अविनित अर्थ समजाववा टीकाकारे कूलवालूनुं द्रष्टांत आपेलु छे. २. पडिण,ये=In su bordinate. 3. Talkative =वातोडीओ. ४. 'नियागही' हमेशा 'मोक्षार्थी 'ना भावार्थमां वपराय छे, तेथी प्रोफेसर जेकोबी ते माटे in Tho desires liberation लखे छे, परन्तु अहि तथा २०मी गाथामा 'नियोग' तेना सामान्य अर्थ"आज्ञा order " 181 मां वपरायो जणाय छे, तेथी 'मोक्षार्थी' ने बदले 'आज्ञार्थी' [He who waits for an order] लइए तो पण बंध बेसतुं । थशे. ५. अहिं बुद्ध, आचार्य-गुरुना अर्थमां छे. युद्ध पुत्र एटले गुरु पुत्र-शिष्य. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only w ine baryong Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसंते सिया मुहरी बुद्धाणं अंतिएसया । अठ जुत्ताणि सिख्खेज्जा निष्ठाणिउ वजए॥८॥अणुसासिउ न कुप्पिजा। उ.अ. खंति सेविज पंडिए । खुडेहिं सहसंसरिंग हासं कोडंच वज्जए ॥९॥ माय चंडालियं कासी बहुयं माय आलवे । कालेTajणय अहिज्जित्ता तओझाइज्ज एग्गओ ॥१०॥आहच्च चंडालियंकटु ननिन्हविज कयाइवि । कडं कडित्ति भासिज्जा अकंड नोकडित्तिय ॥११॥ १. पाठांतरे 'कुप्पेज्जा' छ. २. केटीक प्रतोमा 'सेवंज' छे. ३. केटलीक प्रनोमा 'एक्को' छे. ___आचार्यनी समीपे सदा शान्त (क्रोध रहित) थy; वाचाळ थर्बु नहि सिद्धान्त वाक्यो (ज्ञान तत्व )नुं ज्ञान मेळवषु अने *निशरर्थक शास्त्र स्त्री लक्षणादि दर्शक कोक शास्त्र, ज्योतिष, वैद्यक वगेरे]नो त्याग करवो. (८). [सूत्रार्थ शीखतां गुरु] कठण वचने शिखामण दे त्यारे डाह्या शिष्ये कोप न करवो पण क्षमा राखवी. क्षुद्र मनुष्यनी साथे संसर्ग, हास्य, क्रीडा वगेरे त्याग. (९). नीच्चरकर्म अने मिथ्या भाषण करवू नहि पण सिद्धान्त भणीने एकान्तमा धर्म ध्यान करवू. १०. कदाचित (क्रोधने लीधे) कांड इ जाय तो ते छुपाय नाही पण जा कयु हाय ता एम कहवुक में ते कयु छन कयु होय तो एम कहे के 'में ते कर्यु नथी. [११]. * संसार त्यागी साधुओने संयम मार्गमा बाध करनारा होबाथी, तेमने ते तद्दन [Worthless] निरर्थक छे, त्यागवा योग्य छे. 1. बालक तथा पापत्य दिक-प्रोफेसर हर्मन जैकोबी ते आखी गाथानो एवो अर्थ करे छे के :-"When repriruanded, a wise man should not be angry, but he should be of a forbearing mood; he should not associate, laugh, and play with mean man." २. चंडालियं-क्रोधादिक-निच्चकर्म. 200००००००००००० 0000००००००००००००००० ०००००००००००6.000 Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मा गलियरसेव करसं वयण मिछेपुणो पुणो । कसंव दछु माइन्ने पावगं परिवजाए ॥ १२ ॥ अणासवा थुलवया कुसीला उ.. मिउंपि चंडं पकरंति सीसा चित्ताणुया लहु दुख्खो क्वेया पसायए तेहु दुरासयपि॥१३॥नापुछो वागरे किंचि पुठोवा नालियं वए। कोहं असच्चं कुविज्जा धारिज्जा पियमप्पियं ॥ १४॥ अप्पाचंव दमेयव्वो अप्पाहु खलु दुद्दमो। अप्पादतो सुही होइ अस्सिलोए परथ्थय ॥१५॥ । १. पाठांतरे 'कुवेज्जा' 'धारेज्जा' छे __ अणपळोटायेलो अश्व जेम चाबुकनी राह जुए छे, तेम तेणे गुरुना आदेशनी वारंवार राह जोवी नहि; पण 18 जातवंत [पळोटायेलो] घोडो जेम चाबुक देखाने श्वारना भावे चाले छ, तेम विनित शिष्य गुरुनी अंग चेष्टा समजीने तेना भावे वर्ते छ अने पाप कमने तजे छे. [१२]. गुरुनी आज्ञानो भंग करनार, दुष्ट भाषग करनार अने मुंडा आचारवाळो शिष्य, क्रोध रहित गुरुने पण क्रोध उपजावे छे; पण गुरुनी इच्छानुसार वर्तनार अने वगर विलंबे कार्य करनार विनित शिष्य अति क्रोधी गुरुने पण प्रसन्न करी शके छे. [१३]. पूछया विना बोलवू नहि, अने पूछया पछी जूटुं बोल नहि, क्रोधने निष्फळ करवो अने इष्ट-अनिष्ट वचन सांभळीने ते उपर रागद्वेष करवो नहि. (१४). आत्मदमन कर, कारण के आत्मदमननुं काम अति दोहिटु छे. आत्मदमनथी आ लोके अने परलोके सुखी थवाय ७.४ (१५). 8 . अहिं टीकाकार चंद्ररुद्राचार्यनी कथा आपेलीछे..... टीकाकार आठसाववा कुल पुत्र अन मंत्रवादीनी कथा आपे छे. ४. आ | सत्य ठसाववा टीकाकार पल्लीपती चोर अने सिंचानक हाथीनां दृष्टांत टांके छे. मनुष्य मात्रने मनन अने मुखपाठ करवा लायक आ बेगाथाओ प्रोफेसर जेकोबीना शब्दोमां स्मरीए:-"Subdue your self, for the self is difficult to subdue; if your self is subdued, you will be bappy in this world and in the next. Better it is 0000000000000000 Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. वरं मे अप्पा दतो संजमेण तवेणय । माहं परेहिं दम्मतो बंधणेहि वहेहिय ॥१६॥ पडिणीयंच बुद्धाणं वाया अदुव कम्मुणा । आवीवा जइवा रहसे नेवकुज्जा कयाइवि॥१७॥न पख्खओन पुरओ नेव किच्चाण पिठ्ठओ।न मुंजे ऊरणा ऊरु सयणे नो पडिस्सुणे ॥१८॥ नेव पल्हथ्थियं कुज्जा पख्खपिंडंव संजए। पाए पसारिए वावि न चिठे गुरुणंतिए॥१९॥आयरिएहिं वा हित्तो तुसिणीओ न कयाइवि । पसाय पेही नियागठी उवचिठे गुरु सया ॥२०॥ बीजाओने हाथे रसी (रांढवा)थी बंधावा करतां अने लाकडीना मारथी जीतावा करतां [सत्तरे भेदे] संयम अने [बारे भेदे] तपस्याथी हुँ ज मारा आत्माने दमुं [जितेन्द्रिय थाउं] तो वधारे सारुं।. (१६). वचने करीने अथवा कार्ये करीने जाहेरमां अथवा एकान्तमा *गुरु समीपे शत्रुभाव दर्शाववो नहि. (१७). गुरुनी साथे एक पंक्तिए बेसवू नहि; गुरुनी अगाडी तेमज पूंठे पण बेसबुं नाहि; पोताना साथळे करीने गुरुना साथळने संघट्टो करवो नहि ( साथळ घसाय एम अडोअड न बसवं ); अने पयारीमा बेठां बेठां गुरुने उत्तर आफ्नो नहि. [१८]. सुशिष्ये गुरुनी सामे वस्त्रवति हाथ पगनी पलांठी वाळीने अथवा पग लांबा करीने बेसवं नहिअथवा तो गुरुनी छेक पासे उभा रहेवू नहि. [१९]. गुरु बोलावे त्यारे अणबोल्या रहेवं नहि, पण मारा उपर गुरुए कृपा करी एम समजवू. मोक्षार्थी मुशिष्ये सदाकाळ गुरुनी विनय पूर्वक सेवा करवी. (२०). 0000०००००००००० ००००००००००००००. that I should subdue my self by self-control and penance, than be subdued by others with fetters and corporal punishment."सर्व धर्मोमां आ सिद्धान्त प्रतिपादन छे अने पुष्टिने माटे जोइए तेटला प्रमाणो मळी शके एम छ. अत्र विशेष विवेचनने अवकाश नथी. ____ * 'बुद्धाणं' अहिं गुरु Superiorsना अर्थमां वपरायेल छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००००००००००००० आलवते लपंतेवा ननिसीइज्ज कयाइवि । चइऊण आसणं धीरो जओ जुसं पडिरसुणे ॥ २१ ॥ आसणगओ न || 'पुछिज्जा नेव'तिज्जा..ओ कयाइवि । आगम क्कुडुओ संतो पुछिज्जा पंजली उडो॥ २२ ॥ एवं विणय जुत्तर सुत्तं अ| थ्थंच तदुभयं । पछुमाणरस सीसस्स वागरेज्म जहा सुयं ॥२३॥ मुसं पहिरे भिख्खू नय ओहारिणिं वए। भासा दोसंपरिहरे मायंच वज्जए रूया ॥२४॥ नलविज्ज पुट्ठो सावजं ननिरझुनमम्मयं । अप्पणछा परछावा उभयसंत रेणवा ॥२५॥ कोइ प्रतमा १. 'पुछेज्जा' 'सेज्जागओ' छे. ००००००००००००००००००००००००० गुरु एकवार बोल.वे अथवा वारंवार ब.लावे, छतां अधीरा थर्बु नहि. बुद्धिवंत शिष्ये आसनेथी उठीने, गुरु जे काइ आज्ञा करे, ते ध्यान अने आदर सहित पाळवी. (२१]. पोताने आसने या पथारीमां बेठां बेठां (गुरुने ) काइ प्रश्न पूछवो नहि; परंतु आसनेथी उठी, गुरु समीपे आवी, बे हाथ जोडीने पूछर्बु (२२) उपर प्रमाणे विनय सहित शिष्य सूत्र अथवा सूत्रार्थ अथवा ए ३ बन्ने विप्रश्न करे तो गुरुए पोताना गुरु पासवी सांभळ्यो होय तेवो उत्तर आपवो. २३] साधुए मृषाव द (जूटुं बोलवू ते) तजवो तेमज तेगे भिविन्यने माटे निश्चयात्मक भाषा वापरवी नहि भाषा दोष परिहरको [त्यागवो), अन दगा [माया थी सदा दूर रहj [२४]. पोताना आत्माने अर्थे अथवा तो बीजाना आत्माने अर्थे अथवा तो विना प्रयोजने साधुए पाप वचन, अर्थ रहित वचन, य तो मार्मिक वचन भाखवू नहि..२५). १. भाषा समति संबंधीनी आ गाथाना प्रोफेसर जेकोबीए वापरला अंग्रेजी शब्दो आ छे." He should uot tell anything sinful or meaningless or hurtful, neither for bis own sake nor for anybody else's, nor without such a motive.” Jan Education Interational For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समरेसु अगारेसु संधीसुय महापहे एगोएगि थिए सहि। नेव चिडेन संलवे॥२६॥जमे बुद्धाणु सासंति सीएणं फरु सेणवा | || ममलाभोत्ति पेहाए पयओत्तं पडिसुणे॥२७॥अणुसाप्तण भावाय दुक्कडस्सय चोयणं । हियं तं मन्नइ पन्नोवेमंहोइ असाहुगो । ॥२८॥ हियंविगय भया बुद्धा फरुसपि अणुसासणं । वेतं होइ मूढाणं खंति सोहि करं पयं ॥२९॥ आसणे उवचि. ठिज्जा' अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुठ्ठाइ निरुठाइ निसीइज्जा प्पकुकुए ॥३०॥ १. कोई प्रतमा 'चिटेज्जा' 'निसीएज्ज' छे. अहारादिना मकानमां, सूना घरमां, बे घर वचनी आंतरावाळी जन्यामां (नेटमां) अथवा राज्य मार्ग उपर, एकला साधुए। एकली स्त्री संगाते उभा रहे नहि अने तेनी माथे वात करवी नहि.[२६]. गुरु शीतल वचने अथवा कठोर वचने ज्ञानादि आचार | शीखवे तो ए मारा पोताना लाभने अर्थे छे, एम समनी बुद्धिवंत शिष्ये गुरुनी शिक्षा प्रयास साथे प्रमाण करवी. [गुरुना कठोर : वाक्या उपर क्रोध करवोहि] (२७).गुरुनी शीक्षा, ते आपवाना रीत, अने दुष्कृयने माटे ठपको, बुद्धिवंत शिष्यने हितकारक लागे छे; पण कुशिष्यने ते देशोत्पादक लागे छे. [२८]. तत्वनो जाग अने सप्तभय रहित साधु आचायतुं अनुशासन कठोर होय तोल पण तेतिक रक समजे छे; पण मूर्ख साधुने गुरुर्नु ए शिक्षा वचन क्षमाकर अन आत्म शुद्धि करनारुं होवा छतां द्वेष कारक जणाय छे. (२९). सुशिष्ये न.चा अने निश्चळ आसन उपर बेसंधु अने विना प्रयोजने उठ बेस करवी नहि ; तेमज हाथ पग हलाववा नहि. [हरफर करवी नहि. [३०]. * जेकोबी 'हजामनी दुकान' लखे छ काकार 'लुहारादितुं मकान' लखे छे. बन्नेनुं तात्पर्य ए जणाय छ के 'एवा हलका वर्णना मकानयां'. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. कालेण निख्वमे भिख्खू कालेणय पडिकमे । अकालंच विवज्जित्ता काले कालं समायरे ॥३१॥ परिवाडिए न चिहिजा || भिख्खू दत्ते सणं वरे। पडिरूवेण एसित्ता मियं कालेण भख्खए ॥३२॥ नाइदूर मणासन्ने नन्नेसिं चख्खूफासओ। एगो चिटिज्ज भत्तहा लघित्ता तं नइक्कमे ॥ ३३ ॥ नाइ उच्चव नीएवा नासन्ने नाइदूरओ । फासुयं परकडं पिंडं || पडिगाहिज्ज संजए ॥ ३४ ॥ १. पाठांतरे 'विवजेता' छ. २. पाठातरे ‘पडिगाहेज' छे. विनित शिष्ये योग्य वखते गोचरीए जg अने वखतसर गोचरीथी पाछा फरवू अकाळे कांइ काम करवं नहि. समय साचवीने योग्य काळे योग्य क्रिया आचरवी (३१). साधुए जमणवारनी पंगत बेठी होय त्यां जवु नहि, परन्तु पृथक पृथक गोचरी करवी स्थापित थयेला नियम मुजब शुद्ध आहार व्होरी लाव्या पछी तेमांथी क्षुधा शान्त थाय एटलो भाग बराबर काळे विधि पूर्वक खावो. [३२]. अन्न पाणी आदि व्होरवाने अर्थे तेणे ग्रहस्थने घेर साथेना साधुओथी अति दूर अथवा तो छेक नजीकमां उभा रहेवू नहि. 18] ग्रहस्थनी नजर तेनाज उपर पड़े एवी रीते बीजा भिक्षुकनी आडे उभा रहे नहि. अगाउथी आवी उभेला बीजा साधुने उलंघीने तेणे आगळ थइ जq नहि. (३३). अन्यने अर्थे तैयार करेलो २पासुक आहार साधुए छेक अक्कडपणे पण नहि तेम बहु नीचा नमीने पण नहि, बहु दूर उभा रहीने नहि तेम छेक नजीक आवीने पण नहि-एबी स्थितिमां वहोरवो. (३४). | १. नियमसर वर्तनार साधुने, शारीरिक मानसिक संपूर्ण सुखाकारी मळे छे ते आवा नियमोनेज आभारी छे. प्रोफेसर जेकोबीना शब्दोमां आपणे ते पुनः याद करीशुं:-" Having begged according to the sanctioned rules, he should eat a moderate portion at the proper time. " २ जीव रहित-free from liv. ing beings. 000000000000000000000००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9... अप्पपाणअप्पबीयमि पडिछन्नंमि संवुडे । समयं संजए भुंजे जयं अप्परि साडियं ॥ ३५ ॥ सुकडेत्ति सुपक्कित्ति | सुछिन्ने सुहडे मडे । सुनिटिए सुलटेत्ति सावजं वज्जए मुणी ॥३६॥ रमए पंडिए सासं हयं भदं ववाहए । बालं समइ सासंतो गलियरसंव वाहए ॥ ३७॥ खडुयामे चवेडामे अक्कोसाय वहाय मे । कल्लाण मणुसासंतो पाव दिहित्ति, मन्नई ॥३८॥ पुत्तो मे भायनाइत्ति साहु कल्लाण मन्नइ । पावदिठिओ अप्पाणं सासं दासित्ति मन्नई ॥३९॥ उपरथी अने चौतरफथी ढंकायेली जग्योए बेसी, बीजा साधुओ संगाथे, बे इन्द्रियादिक जीव अने बीज रहीत खोराकनो | आहार, जयणा अने पोताना आचार विचार प्रमाणे करवो. [३५]. सारी रीते तैयार करेलुं अन्न वगरे, सारी रीते पकवेल घेवर वगैरे, मसालादार शाक पांदडं अने अथाणु, स्वादिष्ठ लाडु वगेरे, मीठां अने मसालेदार भोजन साधुए त्यागवां जोइए. (३६). जेम पळोटायेला घोडाने शीखवतां अश्वारने आनंद उपजे छ तेम विनित शिष्यने शिक्षण आपतां गुरुने आनंद उपजे छे; पण अणपळोटायेला अश्वने शखवतां जम अश्वारने कंटाळो उपजे छ तेम अविनित शिष्यने शिक्षण आपतां गुरुने खेद उपजे छे. (३७). अविनित शिष्य एम धारे छे के:-'गुरु मने टोंके छे, मारे छे, दुर्वचन कहे छे, दंड दे छे; कोटवाळ जेम बंदीवानने मारे तेम मने मारे छ; टुंकामां परम हितकारी शीख देनार आच यने ते पाप दृष्टिवालो [द्वेषी ] माने छे. (३८). विनित शिष्य गुरुने पोताना परम हितकारी समजे छे अने माने छे के:-'गुरु मने पोताना पुत्रनी माफक, भाइनी माफक अथवा नजीकना सगानी माफक राखे के.' पण अविनित शिष्य एम समजे छ के गुरु मने दास जेवो गणे छे. [३९]. १. प्रोफेसर जेकोबीना शब्दो-" A good pupil has the best opinion (of his teacher ), thinking I that he treats him like his son or brother or a near relation, but a malevolent pupil Fel imagines himself treated like a slave." ......992040०. .... Jain Education intomational For Personal and Private Use Only wwwda.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १. १० न को आयरियं अप्पाणंनिकोवए । बुद्धो वघाइ नसिया नसिया तोच गवेसए ||४०|| आयरियं कुब्वियं नच्चापत्तिएण पसाए । विझविज्ज पंजली उडो 'वइज्ज न पुणोत्तिय ॥ ११ ॥ धम्मज्जियंच ववहारं बुद्धेहायरियं समा । तमायरं तो ववहारं गरहं नाभिगछई ॥४२॥ मणोगयं वक्क गयं जाणित्ताय रियप्सउ । तं परिगिझ वायाए कम्मुणा उववायए ॥ ४३ ॥ वित्ते अचाइए निच्चं खिप्पं हवइ सुचाइए । जहोवइठं सुकयं किच्चाई कुईसया ॥ ४४ ॥ नच्चा नमइ मेहावी लोएकित्ती सेजायए । हवइ किच्चाणं सरणं भू याणं जगई जहा ॥ ४५ ॥ १. केटलीक प्रतोमा 'वएज्ज' छे. गुरुने कोपाचवा नहि, तेम पोते पण कोप करवो नहि; तेमज आचार्यनां छिद्र खोलीने तेना उपघाति [ कृतघ्न ] थं नहि. १ [४०]. आचार्यने कोपेला जोइने, तेमने विश्वास उपजे एवां वचनोथी तेमनो कोपानि शान्त करवो, अने बे हाथ जोडी खमावाने एम कहें के 'फरीथी एवो अपराध हुं नहि करूं. '[४१]. बुद्ध पुरुषोए [ तत्व ज्ञानीओए ] क्षमादिक गुणोए करीने जे साधु धर्म प्राप्त कर्यो छे, अने सदा पाळ्यो छे तेवो आचार पाळवाथी अविनितपणाना दोषथी मुक्त थवाय छे. [४२] . मनोगत भावथी अथवा वचनथी गुरुनो अभिप्राय जाणी लइने गुरुनुं कार्य प्रमाण कर. वचने करीने कहेतुं के ' हुं ए काम करीश. ' अने कायाये करीने ए कार्य संपूर्ण कर. [४३]. विनित शिष्य अणमेर्यो कार्य करवाने सदा तत्पर रहे छे, अथवा तो गुरुनी सूचना मुजब वगर विलंबे करे छे. गुरुए जे रीते कार्य करवानुं कहयुं होय ते रीते सदा करे छे. (४४). आ विनय शिक्षा जाणीने जे बुद्धिवान साधु विनय आदुरे छे, ते आ लोकमां कीर्ति पाप्त करे छे, अने एवो विनयवान साधु, पृथ्वी जेम सर्व जीवना आधाररूप छे, तेम सर्व उचित कार्यना आधाररूप थइ पडे छे. (४५). १. अहिं टीकाकार कुशिष्यनुं दृष्टांत आपे छे. * नमई - नमति = शब्दार्थ Bows down. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुज्जा जस्स पसीयंति संबुहा पुव्वसंथुया । पसन्ना लाभइरसंति विउलं अठियं सुयं ॥४६॥ स पुज्जसथ्थेसविणीय MB संसए मणोरुइ चिठ्ठइ कम्मसंपया । तवो समायारिं समाहि संबुडे महजुई पंचवयाइंपालि या ॥४७॥ सद्देव गंधव्व Fi मणुस्स पूइए चइत्तु देहं मलपंकपुवयं । सिद्धेवाहवइ सासए देवेवा अप्परए महिठिएत्तिबेमि ॥४८॥ ॐ ॥ इति विणयनामा झयणं पढमं सम्मत्तं ॥ १ ॥ ® तत्वन शुद्ध ज्ञान धरावनार अने प्रथमथीज विशुद्ध चार पाळनार। गुरु शिष्योना विनयथी प्रसन्न थइने तेमने विस्तीर्ण अने मोक्ष उत्पादकर ज्ञाननो लाभ आपे छे.[४६, एवा सुशिष्यना ज्ञाननी प्रशंसा थशे, तेना संदेह टळशे, ते पोतानां सुकृत्योथी गुरुना अंतःकरणने आनंद उपजावशे अने दश विध क्रिया [आचार] पाळीने, तप अने समाधीए करीने महाद्युति [महा तपना तेजवाळा ] समान ते साधु महा पंचव्रतनो पालणबार थशे. [४७]. उपरनां लक्षणोथी विभूषीत विनयी शिष्य, देव, गंधर्व अने मनुष्यथी पूजाशे अने मळ मूत्रवडे भरेली आ देहथी मुक्त थवा पछी ते कांतो जन्म मरण रहित सिद्ध४ थशे अथवा तो मोटी रिद्धि अने ओछी अविद्या वाळो देवता उपजशे.[४८]. हुं आम कहुं छ.५ *॥ प्रथम अध्ययन संपूर्ण ॥* १. पुन्वसंधुया शब्दार्थ-पूर्व काळथी प्रसिद्ध- lready famous. २.अष्ठिय-अर्थिक-मोक्षार्थी=Leading to liberaMation. ३. आगाथा माटे प्रोफेसर जेकोबी नीचेना शब्दो वापरेछे-" His knowledge will be honoured, his doubts will be removed, he will gladden the heart of his teacher by his good acts, kept 1: in safety by the performance of austerities and by meditation, being as it were a great light, he will keep the five vows. " . Liberated or perfected soul. ५. तिबेमि-दरेक अध्ययनने अंते आ शब्दो वपराय छे, श्री सुधर्मा स्वामी, श्री जंबु स्वामी प्रत्ये कही संभळावे छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only orary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २. १२ अध्ययन २. बावीश परिसहनां स्वरुप. 1 सुयं मे आउसंत भगवया एव मख्खायं । इह खलु बाबीसं परीसहा समगणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेईया । जे भिख्खू सोच्चा नच्चा जिच्चां अभिभूय भिख्खायरियाए । परिव्ययंतो पुडो नो 'विहन्निज्जा । करेखलुते बावीसं परीसहा समणणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेईया । जे भिख्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिख्खायरियाए परिव्त्रयंतो पुड्डो नो विहंनिज्जा । इमे खलुते बावीसं परिसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवईया । जेभिख्खू सोच्चानच्चाजिच्चा अभिभूयभिख्खायरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विहंनिज्जा । तझहा' । १. कोइ प्रतोमा 'विहभेज्जा' छे. २. केटलीक प्रतोमां आ शब्द नथी. आयुष्मन जंबु ! ( सुधर्मा स्वाभीए) श्रमण भगवंत श्री महावीर पासेथी वावीश परीसह नीचे प्रमाणे सांभळ्या छे. काश्यप गोत्रमां उत्पन्न थयेला श्रमण भगवंत श्री महावीर देवे जिन शासनने विषे बावीश परीसह कथा छे, ते भिक्षाने अर्थ विचरता साधुए शीखवा, जाणवा, जीतवा, सर्व प्रकारे सहन करवा अने तेनाथी हारी जनुं नहि. ते बावीश परीसह नीचे प्रमाणे छे: १. सुधर्मा स्वामी - श्री महावीर भगवानना ११ मा गणधर २. जंबु स्वामी-सुधर्मा स्वामीना शिष्य. ३. प्रोफेसर हर्मन जेकोबी परीसनो एवो अर्थ करे छे के= That which may cause trouble to an ascetic, and which must be cheerfully borne. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.grary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००० उ.अ. दिगिछा परिसहे १ पिवासा परिसहे २ सीय परिसहे ३ उसिण परिसहे ४ दस मंसय परिसहे ५ अचेल परिसहे ६ अरई परिसहे ७ इथ्थी परिसहे ८ चरिया परिसहे ९ निसीहिया परिसहे १० सिज्जा परिसहे ११ अक्कोस परि8 सहे १२ वह परिसहे १३ जायणा परिसहे १४ अलाभ परिसहे १५ रोग परिसहे १६ लणफास परिसहे १७ जल्ल परिसहे १८ सक्कार पुरस्कार परिसहे १९ पन्ना परिसहे २० अन्ताण परिरहे २१ (१).दिगंछा [क्षुधा] परीसह. [२].पिवासा [तृषा परीसह.[३]. सीय (शीत, टाढ) परीसह. [४]. उसिण (उष्ण, ताप) परीसह. [५]. दस मंसय [डांस, मच्छरादिना डंख ] परीसह. [६]. अचेल १ (वस्त्रनी ताग) परीसह. [७]. अरइ२ [अरति, अ. धीरपणुं] परीसह. (८). इत्थी [स्त्री] परीसह. (९). चर्या [भटकती जींदगी ] परीसह. (१०). निसीहिया (नषेधिकी, स्वाध्याय) परीसह. (११). सिज्जा (शय्या) परीसह. [१२]. अकोस (आक्रोष, अशुभ वचन) परीसह. [१३]. वह [वध, मार] परीसह. [२४], जायणा (याचना) परीसह. [१५]. अलाभ (कोइ आपवानी ना पाडे ते) परीसह. [१६]. रोग [ मंदवाड] परीसह. [१७]. तणफास [तृण स्पर्श ] परीसह. (१८). जल्ल [मळ, मेल] परीसह. [१९]. सकार-पुरकार (सत्कार-पुरस्कार, आदर-सत्कार) परीसह. (२०). पन्ना [प्रज्ञा, ज्ञान] परीसह. [२१]. अन्नाण (अज्ञान) परीसह. 2. आ शब्दनो अर्थ प्रो. जेकोबी Nakedness करी ते फक्त जीन कल्पीने लागु पडवानुं जणावे छे अने टीकाकार देवेन्द्र वस्त्रनी अल्पता सुचवे छे. भावार्थ एवो लेवानो छे के वस्त्रो पुरा न मळ्यां होय तो पण समता राखवी. २. टीकाकार तेने माटे-संयमने विषे अधीरपणुं छांड-ए शब्दो वापरे छे त्यारे प्रो. जेकोबी एवो अर्थ करे छे के-To be dis. contented with the object of control. ३. Place for study-अमुक स्थळे बेसी रहेवानो भावार्थ समायेलोछे. । Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www.janory.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... | दसण परिसहे २२ परीसहाणं पविभत्ती कासवेणं पवेइया । तंभे उदाहरिस्सामि आणुपुचि सुणे हमे ॥१॥ दिगिछा 18] परिगए देहे तवस्सी भिख्खू थामवं । नछिदे नछिंदावए न पये नपयावए ॥२॥ काली पव्वंगसंकासे किसे धमणि | संतए । मायन्ने असण पाणस्स अदिण मण सोचरे ॥३॥ तओ पुठ्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्ज संजए । सी उदगं न सेविज्जा वियडस्से सणं चरे ॥ ४ ॥ छिन्नावाएसु पंथेसु आउरेसु प्पिवासिए । परिसुक्क मुहादीणे तं तितिख्खे 8 परिसहं ॥५॥ [२२]. 'दसण [दर्शन, सम्यक्त्व] परीसह. ए बावीश परीसहनां स्वरुप काश्यपे ( श्री महावीर भगवाने ) मने (सुधर्मा स्वामीने) कया छे ते हवे हु तमने [जंबु स्वामीने] अनुक्रमे समजावं छ.[2].* (१) शरीरने विषे क्षुधा व्यापी होय छतां तप अने संयमने विषे दृढ साधुए पोते फळ वगेरे छेदवां नहि, तेमज बीजा पासे छेदावा नहि. पोते अन्न पकव नहि, तेमज बीजा पासे पकावq नहि. (२). कागडाना पग जेवां दुर्बळ गात्र थइ गयां होय अने शरीर हाडकाना माळा जेवू बनी गयु होय, छतां पोताना उदर पोषणने माटे अन्न पाणीनुं प्रमाण साधुए जाणतुं अने [आकुल व्याकुळ न थतां] प्रसन्न मनथी संयम मागें प्रवत्तेवु.२ (३.) (२) तृषाए पीडावा छतां अनाचारनो त्यागी साधु लज्जाए करीने सचेत जळ पीतो नथी; पण अचेत पाणी मेळववानो प्रयत्न करे छे (४) वन, अटवी, आदि निर्जन रानमां तृषाथी अति पीडातो होय, म्हों सूकाइ जतुं होय, अत्यंत व्याकुळ थतो होय, छतां साधुए तृषानो परीसह सहन करवो.३ (५). - *आ अध्ययननो आ पहेलांनो भाग गद्यमां छे; त्यार पछीनो श्लोकमा छे. प्रत्येक परीसह उपर बब्वे श्लोक छ, १.सूत्रोना मूळ पाठमा 'दसण' शब्द छ पण प्रो. जेकोबी 'समत्त ' शब्द वापरे छे. २. अहिं टीकाकार हस्ति मित्र अने तेना पुत्र दृष्टांत आपे छे. ३. अहिं टीकाकार धन मित्र अने तेना पुत्रनुं दृष्टांत आपे छे. Jan Education International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २. १५ चरं विरयं लूहं सीयं सइ एगया । ना इवेलं मुणी गछे संचाणं जिणसासणं ॥ ६ ॥ न मे निवारणं अथि छवित्तानं नवज्जई | अहंतु अरिंग सेवामि इइ भिख्खू नचितए ||७|| उसिण परिया वेणं परिदाहेण तज्जिए । सुत्रा परतावेणं सायं । परिदेव ||८|| उन्हाहि तत्तो मेहावी सिणाणं नोवि पथथए । गायं नो परिसिंचिज्जा नवि जाय अप्पयं ॥ ९ ॥ पुट्ठोय दंम मंसएहिं समरेव महामुणी । नागो संगाम सीसेवा सूरो अभि हणे परं ॥ ००॥ १. कोइ प्रतमां ' सोचाणं 'छे. ३ शीत काळाने विषे एक गामथी बीजे गाम जतां शरीरे टाढ व्हाय तो पण साधुए, जिन शासननी शिक्षा लक्षमां लइने, कवेळा स्थानान्तर करं नहि. ( विहार करवा नहि.) [६]. टाढ दूर करवाने माटे मारे घर नथी, शरीर ढांकवाने वस्त्र पण नी, माटे हुं अग्नि से वो विचार पण साधुए करवो नहि. १ (७). (४) तापे करीने तपेली जमीनथी, बाह्य ( परसेवो, मेल वगेरे ) अने अभ्यंतर [ तरस वगेरे ] गरमीनी थती पीडाथी, ग्रीष्म रुतुना सूर्यना तापथी पीडावा छतां, साधुए शीततानी वां नाकरवी नहि. [८]. तापनी अत्यंत पीडा पामवा छतां मर्यादावंत साधु स्नाननी इच्छा करे नहि, शरीर उपर पाणी रेडे नहि, अथवा पंखाबति पत्रन नांखे नहि. २[९]. [५] डांस मच्छरादिनी पीडा महान साधुर सहन करवी जोइए. जेवी रीते हाथी संग्रामने मोखरे रहने शत्रुने हणे छे, तेम महा मुनिए क्रोधादि अभ्यंतर शत्रुने हणवा जोइए. (१०). १. अहिं टीकाकर चार वणिक मित्रोनुं दृष्टांत टांके छे. २. अदि टीकाकार दत्त अने भानुं द्रष्टांत आपे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २. १६ नसंत से नवारिज्जा? मर्णपि नपओसए । उवेह नहणे पाणे भुजंते मंससोणियं ||११|| परिजुन्नेहिं हं । ख्खामित्ति अचेलए | अदुवा सचेलएहोख्खं इइभिख्खू न चितए || १२ || एगया अचेलए होइ सचेलयावि एगया । एयं धम्मं हियं नच्चा नाणीनोपरिदेवए ॥१३॥ गामाणुगामंरीयंत अणगारंअकिंचणं । अरई अणुप्पवेसे तंतितिख्खे परिसहं ॥१४॥ अरई पिठ्ठओ किया रिए आय रखिए । धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी घरे ॥ १५ ॥ १. कोइ मतमां ' वारेज्जा छे. डांस, मच्छरने त्रास उपजाववो नहि; चटको भरतां अंतराइ न करवी, तेमज मने करीने पण तेना उपर क्रोध करवो नहि. पोता . मांस अने लोही तेओ खाइ जाय, छतां सर्व सहन कर पण तेमने हणवा नहि. १ [११]. [६] ' महारां वस्त्र जीर्ण थइ गयां छे, तेथी हुं वस्त्र रहित फरीश अथवा तो म्हागं फाटेला कपडा जोइने कोइ धर्मात्मा दाता मने नवां कपडां आपे तो ठीक ear विचार साधु करवा नहि. [१२]. कोइ वखत [ जिन कल्पावस्था प्रमाणे ] वस्त्र रहित थइ जाय, अथवा कोइ वखत [ स्थविर कल्पावस्था प्रमाणे] वस्त्र सहित होय, तो वस्त्र रहित अने वस्त्र सहितपणाना बन्ने धर्मो हितकारी जाणीने ज्ञानी साधुए खेद करवो नहि.२ (१३), (७) परिग्रहः रहित अणगारने गामो गाम विचरतां संयम मार्ग तरफ अधीर उत्पन्न थाय तो ते परीसह तेणे सहन करव्ये. (१४). डाह्या साधुए आवं अधीरपणं त्याग; अने हिंसादिकथी दूर रहीने, दुर्गतिना मार्गथी आत्माने दूर राखीने, धर्म रुपी आरामने विषे आनंद मानीने आरंभ रहित थइ, संपूर्ण शान्निथी संगम मार्गने विषे विचरं. ३ (१५). १. अहिं श्रमण भद्रनुं द्रष्टांत आपलं छे. २. अहिं सोम देवतुं द्रष्टांत आपेलुं छे. ३. अहिं अपराजीतनुं दष्टांत आपलं छे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगमि इथिओ। जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामन्नं ॥१६॥एव मादाय मेहावी [2] उ.अ. पंकभूयाओ इथिओ । नो ताहि विहन्नेज्जा चरेज्जत गवेसए ॥ १७॥ एगएव चरे लाढे अभि भूय परीसहे । गामेवा नगरेवावि निगमेवा रायहागिए॥ १८ ॥ असमाणो चरे भिख्खू 'नेव कुजा परि गगहं असत्तो गिहथ्थेहि अणिकेओ परिवए ॥ १९॥ १. कोइ प्रतमां' नायकुज्जा'छ. [८]आ संपारमा मनुष्योने स्त्रीनी कुदरती इच्छा होय छे, ते जाणाने जे कोइ तेनो परित्याग करे छे तेज खरा श्रमण तरीके पोतानो साध्वाचार सफळ करी शके छे. (१६.) जे बुद्धिवंन पुरुष स्त्रीने खंची जवाय एवा कादव समान,( मुक्ति मार्गने विषे बंधनरुप) माने छ, तेने तेनाथी कोइ इजा थती नथी, पण ते आत्माना उद्धारने अथें धर्मानुष्ठान आवरे छे. (१७). (९) एकली, राग द्वेष रहित, निर्दोष आहार उपर निर्वाह करीने, अने सघका परीसह सहन करीने, साधुए गाम, नगर, निगमर अथवा राज धानीने विषे विहार करवो.(१८).ग्रहस्थादिकथी(संसारीथी)अलग रहीने साधुए विहार करवो, परिग्रहने विषे ममता करवी नहि; पण 18| ग्रहस्थनो परिचय त्यागीने घर रहित थइने विचरवं. (अमुक स्थळेज विना कारण पड़ी रहे नहि.)3 (१९). १.आ गाथानो प्रो. हर्मन जेकोबी एवो अर्थ करे छे के-I wise man who knows that women are a slough, as it were, will get no harm from them, but will wander about searching for the self l आ परिसह माटे टीकाकार शकडाल मंत्रीनुं द्रष्टांत आपे छे. २. वाणीनो वास होय ते जग्यो. मो. जेकोबी ते माटे Market place शब्द वापरे छ. व्यापार वाणियाओनोज प्राचिन समयथी होवो जोइए, एम साबीत थइ शके छे. ३. आ फरमानमां जेटली शिथिलता 8 तेटली भृष्टता समजवी. श्री संघे आवी शिथिलता जती करवायी अनेक अनये उत्पन्न थया छे, अने थवाना छे. टीकाकार अन्यदा दत्त शिष्यनु दृष्टांत टांके छे. ००००००००००००००००००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १८ सुसाणे सुन्न गारेवा रुख्ख मूलेव एगओ । अकुकुओ निसीएज्जा नायवित्ता सए परं ॥ २० ॥ तथ्य से अध्यमाणस्स उवसग्गाभि धारए । संकाभीओ न गर्छुज्जा उडत्ता अन मासणं ॥ २१ ॥ उच्चा वयाहिं से जाहिं तबस्सी भी थामत्रं । नाइवेलं विनेज्जा पावदिठ्ठी विन्नई ॥ २२ ॥ पइरिक्कु वस्तयं लब्धुं कलाणं अदु पावगं । कि मेगराई करिसइ एवं तथ्य हियासए ॥ २३ ॥ अक्कोसेज्ज परो भिख्खू न तेंसि पडिसं जले । सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिख्खू न संजले ॥ २४ ॥ [१०]. स्मशानमां, सूना घरमां, अथवा तो वृक्ष नीचे, रागद्वेव अने कुचेष्टा रहित बनीने बेसबुं अने अन्य जीवने [जंदर वगेरेने] त्रास उपजाववो नहि [२०]. एवां स्थळे रहेतां साबुने उपसर्ग उपजे ते सहन करवो. पण ते उपसर्गथी डरीने त्यांथी उठीने बीजे स्थानके जनुं नहि. ' [२१]. (११) तपस्वी अने धीरजवान साधु सारी शय्यार मळवाथी अति हर्ष पामतो नथी, तेमज खराब शय्या मळवाथी अति विवाद पामतो नयी; पण पाप दृष्टिवाळो आचार हीन साधु एवे प्रसंगे हर्ष विषाद पामे छे. (२२). स्त्री रहित सारा अथवा नरसा मकानमा आश्रय मळतां मां तेणे रहेतुं अने विचार के, ' मारे तो आमां एक रात रहे छे, तेमां सुख दुःख शुं थवानुं छे ? " [ अर्थात्-सम्भाव राखवो ]. (२३) [१२] कोइ ग्रहस्थ साधुने दुर्वचन कहे, तो पण तेगे तेना उपर क्रोध करबो नहि; ते अज्ञान बाळक जेवो समजीने साधुए तेना उपर कोप करवो नहि. [२४]. १. टीकाकारे कुरुदत्त मुनीश्वरनुं दृष्टांत टांके छे. २. उपाश्रय Lodging house. ३. यज्ञदत्त ब्राह्मणना वे पुत्रनुं दृष्टांत टीकाकारे टांकेलं. छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2००००००००००००००1004400100hein h0000000 सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गाम कंटगा । तुसीणीओ उवि हिज्जा न ताओ मणसी करे ॥२५॥ हओ न सं जले भिख्खू मणं पि न पओसए । तितिख्खं परमं नच्चा भिख्खू धम्मवि चिंतए ॥ २६ ॥ समणं सं जयं दंतं si'हणिज्जा कोई कथ्थइ । नथ्थि जीवरस नासोत्ति एवं पेहेज्ज सं जए ॥ २७ ॥ दुक्करं खलु भोनिच्चं अणगाररस भिख्खूणो । सव्वंसे जाइयं होइ नथिकिंचि अजाइयं ॥२८॥ गोयरग्गपविठ्ठस्स पाणीनोसूपसारए । सेओ आगारवासोत्ति इइ भिख्खू न चित्तए ॥ २९ ॥ १. कोइ प्रतमा — उच्चहेजा ' ' हणेज्जा' छे. | कठोर, कंटक समान भाषा सांभळीने, मौन्य धारण करीने तेने काइ हेसायमां गणवी नहि, अने एवी भाषा बोलनार उपर द्वेष करवो नहि. | [२५].(१३) साधुने कोइ मार मारे तो पण तेणे कोप करवो नहि, तेपज मनी पण तेनुं बुझं इच्छ, नहि; परंतु क्षमा ए उत्कृष्ट | धर्म छ एम जाणीने दश वध यति धर्मनुं चिंत्वन कर. [२६]. कोइ अनार्य, संयममा दृढ अने जितेन्द्रिय साधुने, मार मारे तो | तो तेणे एम विचाखु के 'एथी काइ मारा आत्मानो नाश थतो नथी.' ( अर्थात्-पण जो शरीर नाशना अवसरे हुँ क्रोध करीश | तो मारा धर्मरुप जीवितनो नाश थशे एटले मारो धर्म हारी जइश.)२ [२७. (१४) संकेत रहित साधुने, याचवाथी सर्व वस्तु मळवी दोहिली छे, तेमज याचना सिवाय काइ मळी शकतुं नथी. [२८]. गोचरीन विषे फरता साधु तरफ [सर्व दाता, ग्रहस्थनो] | हाथ हमेशा खुशीथी लंबातो नथी; पण तेथा साधुए एम न धार के आथी ग्रहस्थाश्रम वधारे साग.3 (२९). १. अहिं अर्जुनमालीन दृष्टांत टीकाकार आपे छे. २. स्कन्दाचार्यना पांचप्तो शिष्यतुं दृष्टांत टीककारे अहं टोकेलं छे. | ३. आ याचना परिसह उपर श्री वळदेव रुपीश्वरनुं दृष्टांत समज. ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिनिठिए । ल हे पिंडे अल हे वा नाणु तप्पेजपंडिए ॥३०॥ अजेवाहं नल भामि अविलाभो सुएसिया । जो एवं पडिसंचिख्खे अलाभोतं नतज्जए ॥ ३१ ॥ नचा उप्पइयं दुख्खं वेयणाए दुहाठिए । अदीणो थाइए प. पुठ्ठो तथ्थ हियासए ॥३२॥ तेगिळं नाभिनंदिज्जा संचिखेत गवेसए । एवं खुतरप्त सामन्नं जनं कुज्जा नकारवे ॥ ३३ ॥ अचेलगस्स लूहस्स संजयरस तवरिसणो । तणेसु सुयमाणरस होज्जा गाय विराहणा ॥ ३४ ॥ आयवस्स निवाएणं अउला हवइवेयणा । एवंनच्चा नसेवंति तंतुजंतण तज्जिया ॥३५॥ 200000000000000000000000 ol. [१५] ग्रहस्थने घेर तेमने माटे भोजन तैयार थयु होय तेमाथी तेगे आहारने माटे मागी लेj, आहार मळे या न मळे तेने माटे पंडित मुनिए खेद करवो नहि. [३०]. " आजे काइ आहार न मच्यो, तो काले कांइ मळी रहे." जे साधु आ प्रमाणे विचार को छे तेने अलाभ परीसहथी कांइ दुःख उपजतुं नथी.१ [३१]. (१६) जो मंदवाड अथवा वेदना आवी पडे तो पीडाता मुनिए प्रसन्न मुखे मनने स्थिर राखg अने रोग परीसह सहन करवो.[३२]. रोग टाळवाना उपायने माटे तेणे आतुर बनवु नहि वैदक सारवारनी राहन जोवी ) पण आत्माना गवेषक साधए आत्म हित माटे पोतानुं चारित्र पाळवं पोते रोगनी चिकित्सा करे | नहि अने बीजा पासे करावे नहि ते साचो श्रमण (साधु) कहेवग्य.२ [३३]. [१७] जो के वस्त्र रहित अथवा अल्प वस्त्रवाळा, १ संयमवंत, तपस्वी साधुने तृणने विषे सूतां बेसतां शरीरे पीडा थाय छे, अने ताप पडवाथी तेने असह्य वेदना थाय छे, तो पण तृण | स्पर्शथी पीडावा छतां जिन कल्पी साधु वस्त्र भोगवतो नथी.४ [३४-३५]. ००००००००००००० १. खंदण कुमारनुं दृष्टांत अलाभ परिसह उपर आपेलं छे. २. अहिं कालवेस कुमारचं दृष्टांत टीकाकारे टांकेलुं छे. ३. 'संतुझ=What is manufactured from thread. ४. जीतशत्रु राजाना पुत्र भद्रकुमारनी कथा अहिं आपेली छे Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ.अ. किलिन्नगाय मेहावी पंकेण वा रएण वा । धिंसुवा परितावेणं सायनो परिदेवर ॥ ३६ ॥ वेइज्ज निजरा पेही 8 आयरियं धम्म मणुत्तरं । जावसरीर भेउत्ति जां काएण धारए॥३७॥ अभिवायण मझुठाणं सामीकुज्जा निमंतणं । जेताई पड़िसेवंति नतेसिं पीहए मुणी ॥ ३८ ॥ अणुकप्ताइ अप्पिछे अन्नाएसी अलोलुर । रसेसु नाणुगिझेज्जा नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ॥ ३९ ॥ 'सेनूगं मए पुव्वं कम्मा नाण फलाकडा जेणाहं नाभिजाणामि पुठो केणइ कन्हुइ ००००००००००० १. केइ मतमा ' सोनूणं' छे. (१८)उन्हाळाना तापे करीने शरीरे परसेवो थाय, अथवा मेल अने रजथी शरीर भराय तो पण मर्यादावंत साधुए सुख शातानी हानि मारे 8 शोच करवो नहि.(३६).कर्मनो क्षय' करवा अने सर्वोत्कृष्ट चारित्र धर्म पाळवा साधुए आ सघर्छ सहन करषु अने शरीरनो नाश थतां सुधी कायाये मेल धारण करवो.[३७] (१९)कोइ ग्रहस्थ साधुने अभिवंदन करे अथवा तेने आवतो जोइने पोताना आसनेथी उठीने तेनुं सम्मान करे, अथवा भिक्षाने माटे आमंत्रण करे आवी रीते सत्कार करनार तरफ साधुए अनुराग राखवा नहि. (३८). क्रोध रहित अल्प इच्छावाळो, अजाण्याने त्यांथी [आपनारनुं जाति, कुळ, द्रव्य वगेरे जाण्या सिवाय] आहार लेनार, स्वादिष्ट भोजनने माटे लालच रहित, प्रज्ञावंत साधु रस, स्वादनी इच्छा करतो नथी अने पोतानो सत्कार न थवाथी कोप करतो नथी.3 (३९) [२०] प्रज्ञावंत साधु एम जाणे छे के निश्चे में पूर्व जन्मान्तरे, जेर्नु फळ अज्ञान छ एवां कृत्यो करेला होवां जोइए; कारण के कोइ माणस कोइ स्थानकमा कांइ सुगम प्रश्न मने पूछे छे, तेनो उत्तर हुं आपी शकतो नथी. [४०]. १. निर्जरा. २. आह श्रेष्ठि पुत्रनुं दृष्टांत टांके छ. ३. आ सत्कार परिसह उपर एक साधुनुं दृष्टांत टांकेलं छे. ०००००००००००००००००००००००००००००००००० 2०००००००००००० Jan Education Interational For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܘ܀܀ अह पछा उइज्जति कम्मा नाण फला कडा।एव मस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्म विवागय॥४१॥निरगंमि विरओ मेहणाओ सुसंवुडो । जोसखं नाभिजाणामि धम्मं कल्लाण पावगं॥४२॥तवो वहाण मादाय पडिमं पडिवज्जओ । एवंपि विहरओ मे छउमथ्थ ननियट्टइ ॥ ४३ ॥ नथिनूणं परेलोए इष्टी वावि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओ मित्ति इइ भिखूनचिंतए ॥४४॥ अभूजिणा अश्थिजिणा अदुवावि भविस्सई । मुसते एवमाहंसु इइ भिखू न चिंतए ॥४५॥ ०००. हवे बळी पर्व जन्मांतरे कीधेलां कृत्यो, जेनु फल अज्ञानछ, तेर्नु शुभाशुभ परीणाम अगळ उपर आवशे; ते मारी ए कृत्योर्नुज 2 फळछे एम मानीने मारा आत्मानुं मारे आश्चारान कर जोइए1. (४१).(२१) में मैथुननो त्याग करेलोछे, अने इन्द्रिीने नियममा 18| राखेली छे, छता है शुभ अने अशुभ [ धमेनो स्वभाव अने मोक्ष नकेन। हेतु ] बराबर जाणी शकते। नथी. तोपळी मारो त्याग अने संयम निरर्थकज छ. माटे ज्ञानने आवरण करनारा कर्मनो मारे क्षय करव। जोइर]. [४२]. हुं तप करुं ई, सिद्धांत भणुं छ अने द्वादश विधिए साधु धर्म पाळुछ, छतां ज्ञानावरण कर्म टळतां नथी. [ माटे ज्ञानने आवरण करनारा कर्म मारे खपावयां जोइए ].२ [४३]. (२२) 'परलोके छेज नहि, तप करवायी लब्धिरुप रिद्धि पण मळवानी नथी; आ तो हुँ ठगाउंछ.' एवं चिंत्वन साधुए कदि करवं नहि. [४४]. 'पूर्वे सर्वज्ञ जिन थइ गया छे, वर्तमान काळे ( महा विदेह क्षेत्रने विषे ) सर्वज्ञ जिन [ केवलि] छे, अने भविष्य काळमां पण सर्वज्ञ जिन थशे एम जिननी हस्ती कहनार, माननार जूठाछे' एवं चिंत्वन साधुए करवु नहि.(४.), 00000000000000000000000 १. श्री कालकाचार्य- प्रज्ञा परिसहपर दृष्टांत समजबु. २. अज्ञान परिसहपर अहिर पुत्रनुं दृष्टांत आपेल छे. ३. आषाढाचायनुं दृष्टांत टीकाकारे टांकेलं छ. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००० उ.अ. 2000 ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० एए परिसहासवे कासवेणं पवेइया । जेभिख्खु नोविहन्नेज्जा पुट्ठो केणइ कहुइ तिबेमि ॥ ४६ ।। ®॥ इति परिसह झयणं बियं सम्मतं ॥ २ ॥ अध्ययन ३. *चार अंग (चत्तरंग-चोरंगी). चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणी हजंतुणो । माणुसत्तं सुइसा संजमंभियवीरियं ॥१॥ उपर कह्या ते बावीसे परीसह काश्यप गोत्रमां उत्पन्न थयेला श्री महावीर भगवाने मरुध्या छ, एमांना कोइक परीसहथी कोइक ६ स्थानकने विषे मडावा छतां धीरजवान साधुए पोताना संयमनो भंग करवो नहि.[४६]. . * ॥ बीजुं अध्ययन संपूर्ण.॥ * __ अध्ययन ३. आ संसारमा मनुष्यने परम उत्कृष्ट, मोक्ष साधनना उपायरुप चार वस्तु प्राप्त थवी दुर्लभ छे:-(१) मनुष्य जन्म.१ [२] धर्मन श्रवण. [३] धर्म उपर श्रद्धा अने [४] चारित्र (संयम) ने विषे वीर्य-स्फोरण ( उत्साह ). [१]. १. प्रो. जेकोबी ए मांटे एवा शब्दो वापरे छ के-A monk should not be vanquished by them,when : attacked by any anywhere. १. मनुष्य जन्म दश वृष्यते दुर्लभ कहेल छे ते विषे एवी गाथा छ के 'चुल्लग, पासा, धने, जूये, रयणेय, सुमिग, चक्केय, चम्म, युगं, परिमाणुं दसदि दंता मगुय भवि।' आ उपर दश कथाओ विस्तारवाली छे, अत्र विस्तारना भयथी पडती मूकी छे. Jain Education thational For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ०००००००००००० समावन्नाण संसारे नाणागोतासु जाइसु । कम्मा नाणाविहा कट्टु पुढोविस्सं भयापया ।। २ ।। एगया देवलोएसु।। नरए सुविएगया । एगया आसुरं कायं आहाकम्मेहिं गछुइ ॥ ३ ॥ एगया खत्तिओ होइ तओ चंडाल बुक्कसो।।। तओकीड पयंगोय तओ कुंथु विप्पीलिया ॥४॥ एव मावट्ट जोणीसु पाणिणोकम्म किदिवसा । ननिविज्जतिसंसारे सवठेसुबखत्तिया ॥ ५ ॥ कम्म संगेहि संमूढा दुख्खियाबहु वेयणा । अमाणुसासुजोणीमु विणिहम्मंतिपाणिणो ॥ ६ ।। कम्माणं तु पहागाए आणुपुञ्ची कयाइओ । जीवा सोहि मणुपत्ता आययंति मणुस्सयं ॥ ७ ॥ जगत अनेक जीवोथी भरपूर छ. तेमां जीव जुदा जुदा गोत्र अने जातिने विविध प्रकारनां कमें करीने उत्पन्न थाय छे. (२), जीव पोतानी करणीए करीने कोइ वार देवलोके जाय छे, कोइ वार नर्के जाय छे अने कोइवार असुर योनिमां उपजे छे. । अर्थात-जेवां कर्म जीवे कया होय तेवी गतिए जाय छे]. [३]. कोइवार जीव मरीने क्षत्री थाय छे, तेमज चांडाळ अने २७कस पण थायछ अथवा तो कीडा, पतंगियां अथवा कुंथु अने किडी थाय छे. [४]. एवी रीते अधम प्राणी जीव योनिने विषे परि 9 भ्रमण करवा छतां उद्विग्न थता नथी. जेम क्षत्री युद्धथी अने राज्य रिद्धिथी संतोष पामती नथी, तेम ए जीव संसारमा फरतां संतोष पामतो नथी.(५). कर्मे करीने मूढ थइ गयेला जीव दुःखी थाय छे अने [ संसारमा फरतां ] घणी वेदना सहन करे छे, अन अमानुषिक [ नारकी, तिथच गतिने विषे घगुं दुःख वेठे छे. [६]. पण अशुभ कर्मनो नाश थवाथी, कदाचित अनुक्रमे फरतां फरता, शुभ कर्मनो उदय थवाथी जीव निर्मळ थइने, मनुष्य गतिमा आवे. (७). ००००००००००००००००००००० १, न+अर्क-सूर्य. नर्कमां हमेशा अंधकारज रहे छे २. बाप शुद्र अने मा ब्राह्मगीथी उत्पन्न थयेल प्रजा बुक्कत कवाय छ, ३, 18 Animalcules. . Living beings of sinful actions. For Personal and Private Use Only www.ainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 1 माणुस्सं विग्गहं लब्धं सुइ धम्मरसदुल्लहा। जसोच्चा पडि वज्जति तवं खंति महिंसय।।८॥ आहच्च सव्वणं लब्धं सद्धा परम दुलहा। सोच्चा नेयाउयं मग्गं बहवे परिभरसइ ।।९।। सुयंच लधुं सद्धंच विरियं पुण दुल्हं ।बहवे रोयमाणावि नोयणं पडिवज्जए ।।१०।। माणुसत्तंमि आयाओ जोधम्म सोच्च सद्दहे । तबस्सी विरियं लब्धं संवुडे निधूणेरयं ॥११॥ (२)कदाच मनुष्य देह मळे तो पछी धर्मनुं श्रवण दुर्लभ थइ पडे छे; जे धर्मनुं श्रवण करवायी जीव तप, क्षमा, दया, आदि अंगीकार करी शकेछ.[८]. [३]कदाचित धर्मद् श्रवण कयु, तो पछी धर्म उपर श्रद्धा धवी परम दुर्लभ थइ पडेछे अने घणा जीव शुद्ध मार्गजिन धर्म सांभळीने अंगिकार कर्या पछी ते थकी भ्रष्ट थाय छे (जमालीनी पेठे). [९]. [४] जीवे कदाच धर्मर्नु श्रवण कयु, ते सांभळीने ते उपर तेनी श्रद्धा बेठी, तो पछी उत्साहथी चारित्र पाळq दुर्लभ थइ पडे है. श्रेणीकनी पेठे] घणा जीव जाणे छे के धर्म छे तो सारो, पण पळातो नथी. १०]. मनुष्यपणुं पामीने, धर्मनुं श्रवण करीने, ते उपर श्रद्धा राखीने, तप जप ( चारित्र )ने विषे वीर्य-वळ दाखवीने साधु पुरुष आश्रवद्वारने रुंध जोइर अने कर्मरुपी मेलने फेडवो जाइए. (११). १. Combat their passions. २. Do adopt religion-अहिं चारित्र एटले दिक्षा लइ लेवानो भावार्थ नथी. संसारमा रहेनारा जीवो धर्मनां फरमान अनुसार वर्तन राखवाथी पण कर्म क्षय करी शके छे. ३. पाप लागवानां-कर्म बांधवानां साधनाने आश्रवदार नाय आपलं छे. ते माटे नव तत्वमां कहेगुं छे के :-" गुंताल सदा भरे, ज्यु आवत जल ओर, एसे आश्रय द्वारसें, कर्म बंधक जोर." जेम जेम पाणी आवतुं जाय छे तेम तलाव भरातुं जाय छे एवीते आश्रवधी कर्म विशेष बंधाय छे.जेम टांकीनं पाणी खाली करवा प्रथम नळर्नु आवतुं पाणी बंध करवू जोइए, तेम माप्त कौनो क्षय करवा, प्रथम नवां आवतां कर्म रोकवां जे.इए. ४. नव तत्वमा आ भावार्थनो बोध छे के:-" ज्यु आवत जल बुरीए, सुके सरोवर पान, त्युं आतम संवर कीए, कम निर्जरा ही जाण." जल आवतुं बंध थवाथी जेम सरोवर सुकाइ जाय छे. तेम संबर करवाथी-आवतां कर्म रोकवाथी कर्मनी निर्जरा थाय छ. आ संबंधेनुं विशेष क्वेिचन नव तत्वमा छे ते अवश्य मनन अने ग्रहण करवा लायक छे. 0000000000000र Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३. २६ 00000000 सोही उय भूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिउइ । निव्वाणं परमं जाइ घयं सितेन्त्र पावए ॥१२॥ विनिंच कम्मुणो हेउं जसं संचिणु खंतिए । पाढवं सरीरं हिच्चा उद्धुं पक्कमई दिसं ॥ १३ ॥ विसालिसेहिं सीलेहिं जख्खा उत्तर उत्तरा । महासुक्का दिप्ता मन्नंता अपुणव्यं ॥ १४ ॥ अप्पिय देव कामागं काम रुत्री विउब्विणो । उट्टं कप्पेस चिति पुत्रा वासस्या बहु ॥१५॥ तथ्थठ्ठिच्चा जहाठाणं जख्खा आउख्खए चुया । उवेंति माणुसं जोणि सेदसं गेभि जायइ ॥ १६ ॥ माया-रहितने निर्मळता प्राप्त थाय छे; अने निर्मळ [ पुरुष ] शुद्ध धर्मने विष दृढ रहे छे; अने घीथी सींचायेलो अग्नि जे निर्मळ देखाय छे, तेन जीव निर्मळ ( कर्म-रहित ) थइने परम उत्कृष्ट निर्वाणने पामेछे. (१२). कर्मना हेतु [ मिथ्यात्व आदि ] दूर करीने क्षनाथ यश उपार्जन कर. २ ( आ प्रमाणे वर्तनार पुरुष ) पार्थिव [ उदारीक ] शरीर त्यागीने उर्द्वदिशामां [ उंचा देव rai ] जाय छे. (१३). सद्गुणोथी शोभता यक्ष लोक [ देवता ] ( तप, जन आदि क्रियाये करीने) एक एकथी चढी आता निर्माण थला विमान (देव लोक) ने त्रिषे जाय छे, अने चंद्र, सूर्यनी पेठे तेजथी देदीप्यमान [ दीपता ] जणाय छे; अने ते पोताना मनी मनी मानता के अमारे अहिंथी चवीने कदी नीचे जं पडशे. (१४). देवताइ सुख भोगवतां अने पोतानी इच्छा प्रमाणे नवा नवां रूप धारण करतां, तेओ (यक्ष लोको) उंचा देव लोकने विषे असंख्य पूर्वनुं आयुष्य भोगवे छे. [१५]. तेओ [यक्षो ] ते स्थानक [ देव लोक ]ने विषे पोतानुं आयुष्य पूरुं करीने, पोतानां अवशेष पुण्य कर्म बाकी रह्यां होय ते भोगववा दशांग मनुष्य योनीमां जन्मे छे. [१६] . १. मुक्ति-कर्म बंधन- जन्म, जरा, मरणथी मुकावं. २. प्रो. जेकोबी आ माटे असरकारक शब्द वापरे छे. Leave off the causes of sin, acquire fame through patience ३. सातमा अध्ययननी १३ मी गाथानी फुटनोटमां वर्षोनुं कोष्टक आपेल छे. For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३. २७ 000000066 खेतं व हिरणंच पसवो दास पोरुसं । चतारी काम खंधाणि तथ्य से उववज्जइ ॥ १७ ॥ मित्तवं नाय होइ उच्चा गोएय कनवं । अप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसो बले ||१८|| भोचा माणुस्सए भोए अप्पड़िरूवे अहाउयं । पुत्रं विसुद्ध सम्मे केवलंब हि बुझिया ॥ १९ ॥ चउरंगं दुल्लई नच्चा संजमं पड़िवज्जिया । तत्रसा धूय कसे हसाए तिबेभि ॥ २० ॥ ॥ इति चउरंगणीयं झयगं तइयं सम्मतं ॥ ३ ॥ ७ क्षेत्र अने गृह, सुवर्ण, पशु अने दास तथा सेवको ए चार काम स्कन्ध [चार प्रकारनी दोलत ] ज्यां होय एवा सकुळमां ए पुण्यात्मा जन्म ले छे. * १७]. मित्र, स्वजन, उब गोत्र, सद्वर्ण [सुंदर शरीर ], आरोग्य, बुद्धि, (प्रज्ञा ), विनय, यश अने वळने ते पामे छे. (१८). मनुष्य भवनां एवां अनुपम सुख जाव जीव [ जिंदगी पर्यंत ] भोगवीने पूर्व जन्मना विशुद्ध सद् धर्प [ चारित्र ] ने अंगे यथाकाळे, ते पाछे शुद्ध समकित लइ प्रति बुझे. (१९) यार अंग धर्म प्राप्त करवां दुर्लभ छे एम जाणीने ते संयमनुं प्रतिपादन करे छे [ धारण करे छे ]; अने वारे भेदे तपथी कर्म रजने दूर करीने ते शाश्वत सिध्ध थाय छे. [२०]. ॥ श्रीजुं अध्ययन संपूर्ण. ॥ * मनुष्यतां दश अंग पैकी एक अंग आ गाथामां अने बाकीनां नव अंग १८मी गाथामां वर्णव्यां छे. Jain Educationa International * For Personal and Private Use Only * Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. अध्ययन ४. * प्रमाद [ असंस्कृत ]. असंखयं जीविय मा पमायए जरोवणियरस हु नथ्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते किन्नुवि हिंसा अजया गर्हिति ॥ १ ॥ जे पाव कम्मे हिंधणं मणुस्सा समाययंती अमयं गहाय । पहायते पास पयठिए नरे वेराणुबडा नरयं उर्वति ॥ २ ॥ तेणे जहा संहि, मुहे गहिए स कम्मुणा किच्चइ णवकारी । एवं पया पेच्च इहंच लोए कडाण कम्माण न मोख्ख अथ्थि ॥ ३ ॥ ® अध्ययन ४. ॐ आयुष्य तूट्या पछी सांधी शकातुं नथी; ( जींदगी लंबावी शकाती नथी ] माटे हे भव्य जीव ! प्रमाद न कर. जरा प्राप्त || Aथया पछी कोइनुं शरण रहेशे नहि, तेनो विचार कर. जे प्रमादी मनुष्यो जीव हिंसा करे छे अने इन्द्रिओने वश राखी शकता नथी तेओ कोने शरणे जशे ? (१). जे मनुष्यो कुमति ग्रहण करीने पाप कर्मथी ( दगा कपटी ) धन उपार्जन करे छे, ते धन छांडीने । (स्त्री, पुत्र, कलत्रादि ) पासमा फसाई घणां पाप करीने, अने घणा जीवथी देर बांधीने नरके जाय छे. (२). जेम कोई चोर खातर पाडतां खातरने मोढेज पोते करेलां पाप कर्मथीज (खोदेली भीत तूटी पडवा) दवाइ मरे छे, तेम हे लोको ! आ लोक अने पर लोके करेलां कर्मनां फळ भोगव्या सिना छुटको नथी. (३). १. श्री सुयगडांग सूत्रना प्रथम सूत स्कन्धना बीजा अध्ययनना बीजा उद्देशानी २१ मी गाथामां आज पाठ छे. २. श्री देवेन्द्र टीकामां आ विषे वे दृष्टांत टांके छे. तेमां एक विषे तो पाठमां पण इशारो जणाइ आवे छे तेनो भावार्थ एको छ, के, घरमां दाखल थवा चोरे दीवालमां बाकोरं पाडयुं अंदर दाखल थवा पग नांख्या तो अंदर घरनो धणी हतो ते पग खेंचवा लाग्यो, | ज्यारे चोरनो सोबती बहार हतो ते तेने बहार खेंचवा लाग्यो, ताणा ताणमा उपरनी दीवाल त्रुटी पडी अने चोर दबाइ गयो. 6000000000 Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. संसार मावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जंच करेइ कम्मं । कम्मरस ते तस्स उवेय काले न बंध वाबंधवयं उवेति । ॥४॥वित्तेणताणं नलभे पमत्ते इमम्मिलोए अदुवापरथ्या । दिवप्पणढे व अणंत मोहे नेयाउयं दठुम मठ्मेव॥५॥ । सुत्ते सुयावि पडिबुध्ध जीवी नवीससे पडिय आसु पन्ने। घोरा मुहुत्ता अबलं सरिरं भारंड पखी कचरे प्पमत्तो ॥ ६ ॥ ००००००० 181 कोइ मनुष्य संसारने विषे पोताना (मित्र, पुत्र, कलत्र, बांधवादि) अर्थे अथवा पारकाने अर्थे काइ कृत्य करे छे ते कम फळना क समये (फळ भोगववाटाणे | सगा सगापणं साचवता नथी पण अलगा जइने उभा रहे छ. ( अर्थात-पोतानी कमाइ जीवने पोतानेज भोगववी पडे छे. [४]. वित्त अथवा द्रव्यथी आ लोके के परलोके प्रमादी पुरुष पोतार्नु रक्षण करी शकतो नथी.२ जेम कोइ मनुष्य हाथमां दीवो लइने ( रस कुपिका लेवा माटे ) जाय, पण दीवो बुझाइ जबाथी जेम तेने मार्ग न सूझे, तेम जीवे का मुक्ति मार्ग दीठेलो छे, पण मोहनी कर्मने लीधे ते दीठो अण दीठो थह जाय छे. (५). मूर्ख लोक द्रव्ये अने भावे ] निद्रामा 18 सूता छ, पण पंडित एची निद्रानो त्याग करे छे. प्रज्ञावंत पारके विश्वासे रहेता नथी;[ पारकी आशा पण राखता नथी । सदा I जागृत रहे छे, कारण के काळ अघोर छे, अने शरीर दुर्वल छे, भारंड पक्षीनी माफक ते सदा प्रमत्त-जात रहे छे. (६) । १ प्रो. जेकोबी ते माटे नीचेना शब्दो वापरे छ. At the time of reaping the fruit of his actions, 21 his relations will not act as true relations i. e. will not come to his help )...२. पसाया कम 81 क्षय कदी थइ शकता नथी. कर्म उदय आवे त्यारे पैसानी लांचथी ने कड़ी शान्त थतां नयी. कुदरत निष्पक्षपात न्यायाधाशना का पेठे, रंक श्रीमंतनो भेद राख्या विनाज, करेलां कर्म अनुसार, अदल इन्साफ आप्याज को छे. ते श्रीमंतोना बाह्य कुत्रीम तेजथा BI कदी दवाती नथी अने श्रीमंतोए तेवा फांकामां कदी थाप पण खावी नहि. शुभ कर्मना संच रथी मळेली श्रीमंताइ साचवा, शुभ कर्मोनो संचय चालु राखवो जोइए. 0000000000000000000000 Jain Educationa interational For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००००००00000000000000 चरे पयाई परिसंकमाणो जकिचि पास इहमनमाणो । लाभंतरे जीविय व्हइत्ता पछा परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥ छंदं निरोहेण उवेइ मोख्खं आसेजहा सिख्खियवम्म धारी। पुव्वाइं वासाइं चरेप्पमत्तो तम्हा मुणिखिप्प मुवेइ मोख्ख ॥८॥ स पुव्वमेवं नलभेझपछा एसोवमा सासयवा इयाणं । विसीयइ सिढिले आउ यमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥९॥ खिप्पं नसके इ विवेगमेउ तम्हा समुठ्ठाय पहाय कामे । समिक्षा लोगं समया महेसी अप्पाण रख्खीवचरप्पमत्तो॥१०॥ - साधु पापी संकोचाइने संयम मार्गे संभाळथी विचो छे अने संसारनां कामकाज अने ग्रहस्थीना परिचयने पाशरुप माने छे. ज्यां सुवी ज्ञान, दर्शन, चारित्रादिनो लाभ प्राप्त थाय त्यांसुधी संभाळ पूर्वक जिवित धारण कर. पछीथी प्रज्ञा बुद्धिए करीने सर्व वस्तुनो त्याग करी, अगसण लइ, पापरुप मळने फेडवो. (७). स्वच्छंदतानो निरोध करवायी साधु मोक्षे जाय छे. जेम सुशिक्षित A कवचधारी अश्व [अश्वारनी सूचना मुजर चाले तो ] युद्धमा शत्रुने जीती आवे छे (तेम साधु पण इच्छाने रुंधे तो मोक्ष पामे छे ). जे साधु पूर्व काळमां [जुवानीमा ] अमत्त रहीने विचरे ते साधु जलदीथी मोक्षे जाय छे. (८). 'पूर्व काळमां अप्रमत्तत्व प्राप्त न थ' तो ते पश्चात काळमां थशे. अर्थात-हमगां तो खाउं, पाउ, पछी मरण काळे धर्म करीश ] एवो वाद शाश्वतवादी आयुष्यना धणीने शोभे पण जेम जेम आयुष्य शिथिल थर्नु जाय छ, अने मरणका निकट आवतो जाय छे, तेम तेम तेवा मनुष्योने दुःख उपजेछ. [ के में धर्म न कर्यो, हवे मारी शी गति थशे ? ] (९). प्राणी मरण समये एकदम त्यागरुप विवेक पाळी शके नहि; तेटला माटे काप भोग छांडीने धर्मने विषे उद्यम करवो, आ लोकर्नु स्वरुप ओळख, ज्ञानी पुरुषनी माफक (शत्रु, मित्र तरफ) सम्भाव राखवो, आत्मार्नु रक्षण करवु अने कदि प्रमाद करवो नहि. [१०]. १. आयुष्यनो अंत नथी एवा अभिप्रायवळाओनोज आ भ्रम मात्र छे. प्रो. जेकोबी पण तेना शब्दार्थमां आ शब्दो वापरेछे " This is the comparison of those who contend that life is eternal." 00000000 an Educationa intematonal For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहं मुहं मोह गुणो जयं तं अणेगरुवा समणं चरं तं । फासा फुसंति असमं जसंचनतेसुभिख्खूमणसाप उस्से ॥ ११ ॥ मंदाय फासा बहुलो हणिज्जा तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा । रखेज्ज कोहं विणएज्जमाणं मायं नसेवेज्जपहेजलोहं ॥ १२ ॥ जेसंखया तुछुपरप्पबाइ तेपेज दोसाणुगया परझा । एए अह म्मुत्ति दुगंछमाणो कंखेगुणे. जावसरिरभेउ तिबेमि ॥ १३ ॥ ॥ इति असंखयनाम झयणं चउथ्थं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ जे श्रमण ( साधु ) वारंवार मोहनी कर्मने जीते छ अने संयम मार्गे विचरे छे सेने नाना प्रकारनां बाह्य स्पर्श दुःख नडे छे, छत्त साधुए मनमां तेनो हर्ष-शोक करवो नहि. (११). एवा प्रकारना स्पर्श बुद्धिने मृढ करी नांख छ अने घणाने लोभावे छे, मांट ते ( स्त्री-स्पर्श वगैरे) तरफ लक्ष लगाडवू नहि. मायाथी दूर रहे. क्रोध करवो नहि, मानने फेडबुं अने लोभने टाळवो. (१२). जे मिथ्यात्वी (अन्य ) सदा राग द्वेषने लीधे परवश पडेला छे अने तेमां सदाकाळ मच्या रहे छे, एवाओने अपवित्र मानी तमनो अनादर फरवो, अने शरीर पडतां मुधी ज्ञान मेळववानी आकांक्षा राखी ( अथवा-संयम-धर्मने विषे प्रवर्त। ). [१३]. * ॥ चोथु अध्ययन संपूर्ण ॥ १ 0000००००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००००००००686ad १. Heretics-तुच्छ परवादी. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. • अध्ययन ५. अकाम, सकाम, मरण. अनवंसि महोहंसि एगेतिन्ने दुरुत्तरे तथ्यएगे महापन्ने इमपणह मुदाहरे ॥१॥ संतिमेय दुवेठाणा अख्खाया मारणं तिया। अकान मरणंचेव सकाम मरणं तहा ॥२॥ बालाणं अकामंत मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामंत उक्कोसेणं सइं भवे ॥३॥ तश्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं । काम गिद्धे जहा बालेभिसं कूराइं कुब्बई ॥ ४ ॥ जे गिध्धे काम भोगेसुएगे कूडाय गछई । नमे दिठे परेलोए चख्खु दिछा इमा रइ ॥५॥ ॐ अध्ययन ५. ॐ ____ आ संसार समुद्र जेना महान प्रवाही (जन्म-मरणथी ) पार उतरवार्नु काम अति कठिन छ, तेना सामा तीरे मात्र एकज महा पुरुष [ तीर्थंकर ] पहोंच्या छे. [ अर्थात-जन्म मरणधी मुक्त थया छे]. अने ते महा बुद्धिवंत पुरुषे नीचेना प्रश्ननो उत्तर आप्यो छे. [१]. प्रत्यक्ष रीते वे प्रकारे जीव मरणावस्थाने प्राप्त थाय छे (१) अकाम मरण अने (२) सकाम मरण. [२]. मूर्ख 8 अने विवेक रहित मनुष्यने अकाम मरण वारंवार प्राप्त थाय छे पंडित अने धार्मिक पुरुषने सकाम मरण एकजवार प्राप्त थाय छे. [३].* अकाम अने सकाम मरणमा प्रथम अकाम मरण विषे श्री महावीर देवे कहयुं छे के काम भोगने विषे मच्यो रहीने मूर्ख 18 माणस अति क्रूर हिंसादिक कर्म करे छे. (४). जे मनुष्य काम भोगने विषे आसकिन राखे छे, ते कुटिलतानी जाळमां फसाय छे. (जूटुं बोले छे अने क्रूर कर्म करे छे ). ते एम माने छ के, 'परलोक तो में जोयु नथी, पण काम भोगादि सुख तो प्रत्यक्ष | देखाय छे., [२]. *केवळीने मात्र एकज जन्मे मुक्ति प्राप्त थाय छे. अन्य अणगारोने मुक्ति मळतां पहेलां सात आठ भव करवा पड़े छे. ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. 00001 Iel कालिया जे अणागया । को जाणइ परेलोए अधिथवा नचित्र | पुणो ॥ ६ ॥ जणेणसधि होख्खामि इइ बाले पगझइ । कामा भोगाणु राएणं केलंसं पडिवज्जइ ॥ ७ ॥ तओ से दंडं सब्बे गारिसु थावरे । अठ्ठाय अणकार या ग्रामं विहिंसइ || ८ || हिंसे बाले मुसाबाई माइल्ले पिसणे, तरा । गारोहिय सुरं मंसं सेय मेयं मन्नई ॥ ९ ॥ कायासा वयसा मध्य इथिसु । दुहओ म गोव्व मट्टियं ॥ ० ॥ 'ए काम भोग अत्यारे मारा हाथमांज छे, पण भविष्यनां सुख तो अनि पुरुषना सकाम र मरण [ पंडित मरण] विषे [६]. एवो लंपट बडाइ करे छे के, ‘जेवी गति बीजानी थशे एत्री मारी पण थरों अरोने घश राखी शके छे तेवा पंडि अंते क्लेश [ दुःख ] पामे छे. [७]. आवी अज्ञानताथी ए मूर्ख माणस त्रस अने स्थानं मरण सघळा साधुने तेमज सघळा ग्रहस्थ कार्यने अर्थे धगा जीवन निरर्थक वध करे छे. [2]. एवो मूर्ख माणस हिंसा करे छे, र अति विषम छे. [१९]. कोइ कोइ पारकी निंदा करे छे, उगबाजी रमे छे, मद्य मांस सेवे छे, अने एम माने छे के आ वधुं हुं सघळा संसारी करतां संयममा उत्कृष्ट मी खाय छे, माटीमा रहे छ अने अंते माटीमांज सुकाइने मरे छे तेम कार्ये अंन वच go माणस, राग द्वेष करीने बने प्रकारे [ मनर्थ अने कायाथी ] पाप बांधे हे. २ (१०). १. ' आ भव मीठो तो पर भव कोण दीठो ' - एवो अज्ञानताना भ्रम. २. प्रो. जो. जेकोबीना आ संबंधेना शब्दो शब्द। बापरे छे:- Over bearing in acts and words, desirous for wealtle monks in self-control; lates sins in two ways (by his acts and thoughts) just as a monk Saint ( both on and in its body ). Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००.. उ.अ. तओ पुठो आर्यकेणं गिलाणो परितप्पई । पभाओ पर लोगस्स कम्माणु प्पेहि अपना ठाणा असीलाणंच जा गई । बालाणं कूर कम्माणं पगाढा जथ्थ वेयणा ॥ १२.. तमणुस्सुयं । अहाकम्नेहिं गछंतो सो पछा परितप्पई ॥ १३ ॥ जहा सागडितमय दुवा तिमेय दुवेठाणा अख्खाया मारणं विसमं मग्ग मोइन्नो अख्खे भग्गंमि सोयइ ॥ १४ ॥ एवं धम्मं विउकम्मं इ. न्नो अख्खे भग्गंमि सोयह एवं नरिक इं भवे। पंडियाणं सकामंतु उक्कोमहं पत्ते अख्खे भग्गेव सोयई ॥ १५ ॥ तओ से मरणं तमि बाले संता बालभिस कूराइ कुब्बई ॥ ४ ॥ वाकलिणा जिए ॥ १६ ॥ इमा रइ ॥५॥ ०००००००००००००० ००००००००००००००००० ३४ 3 पछी ते ग्लानि पामे छे अने रोगथी घेराय छ; अने पोतानां दुष्ट कर्मन चिंत्वन कराते कठिन छे, तेना सामा तीरे मात्र एकज स्थान, अने पापी जीवनी गति [ ए बन्ने ] विष में सांभळ्युं छे; ज्या क्रूर कर्म करन ते महा बुद्धिवंत पुरुषे नीचेना प्रश्ननो उत्तर (१२). पोछारे पते उपार्जेलां कर्म प्रमाणे जन्म धारण करवाने माटे (नरकना)जम मरण अने (२) सकाम मरण. [२]. मूर्ख छ (के अरेरे ! में बहुँ भूडं कर्यु ). एम में [ श्री महावीर देव पासेथी ] सांभळरं परुपने सकाम मरण एकजवार प्राप्त थाय छे. 1 [धोरी सडकनो रस जाणवा छतां ते छोडीने विषम मार्गे गाड़ें चलो छ, अने पछी गाडानोगेयने विषे मच्यो रहीने मूर्ख छे, तेम जे मूर्ख माणस श्री तीर्थकर देवन। भाखेलो धर्म छोटपोन अधर्म मार्ग अंगीकार करेले ते मरण कानी जाळमा फसाय गाडीवान शौच करतो हतो तोच करे छे.[१४-१५]. पछी ज्यार मरणनो समय आखरे आवी पहोंचे छ सुख ता प्रत्यक्ष । कंपे छे, अने ते 'अकाम मरणे ' मरे छे अने दाव [ द्युत दोष ] थी जीतायेलो जुगारी जेम शोच करे छे तेम है. गुमाववाथी] शोच करे छे. (१६). .................०००००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. उ.अ. एयं अकाम मरणं बालाणं तु पवेइयं । एतो सकाम मरणं पंडिगणं सुणेहमे ॥ १७ ॥ मरणंपि सपुन्नाणं जहा 18 मे तमणुस्सुयं । विप्पसन्न मणाघायं संजयाणं बुसीमओ ॥ १८ ॥ न इमंसव्वेसु भिख्खू न इमं सबेसु गारिस 181 नाणा सीला अगारथ्था विसमंसी लाय भिख्खूणो ॥१९॥ संति एगेहिं भिख्खूहिं गारथ्था संजमुत्तरा । गारथ्यहिय। सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥ ००००००००००००र मुर्खनु अकाम मरण (बाल मरण) आ प्रमाणे समजाव्या पछी हवे डाह्या पुरुषना सकायर मरण [ पंडित मरण] विपे कह छ ते सांभळो. [१७1. पुण्यवंत मनुष्यो जे संयमयी पोताना आत्माने अने विकागेने घश राखी शके छे तेवा पंडितनं सकाय मरण व्याकुळता अने विघ्न रहित होय छे, एम में गुरु मुखेयी सांभळयुं छे. (१८), एy मरण सघळा साधुने तेमज सघळा ग्रहस्थने प्राप्त थतुं नथी. कारण के ग्रहस्थना आचार विविध प्रकारना होय छे अने साधुना आचार अति विषम छे. [१९]. कोइ कोइ | संसारी कटलाक [न.मधारी ] साधु करतां संयएमां श्रेष्ट होय छे. पण [खरा ] साधु सघळा संसारी करतां संयममा उत्कृष्ट | होय छे. [२०]. १. Death against one's will. २. Death with one's will. ३. पो. जेकोबीना आ संबंधेना शब्दो स्मरणमा राखवा लायक छ:-Some householders are superior to some monks in self-control; | but the saints are superior to all householders in self-controls monk à Saint तफावत समजवो जाइए. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. चीराजिणं न गिणिणं जडी संघाडी मुंडिणं । एयाणिविन तायंति दुस्तीलं परिवागयं ॥ २१ ॥ पिंडोलएव दुस्सीले नरगाओ न मुच्चइ । भिख्खाएवा गिहथ्थेवा सुब्बए कम्मई दिव्वं ॥ २२ ॥ आगारि सामा इयंगाई सढ़िकाएण फासए । पोसहं दुहओ पख्खं एगराइं न हावए ॥ २३ ॥ चीर, वल्कल, अजाचर्म धारण करवाथी, या तो नग्न रहेबाथी, जटा राखवाथी, कथा धारण करवाथी, माधुं मुंडावाथी अने एवां एवां बाह्य-आचार-निशानो ग्रहण करवाथी कांइ दुराचारी कुमागी (साधु ) पातान दुर्गतिथी बचावी शकता नथी. (२१). दुःशील भिक्षा मागीने आजीविका करे पण अनाचार सेवे अने पाप कर्म व नहि तो ते नरकथी छुटे नहि; पण पवित्र वर्तन राखनार पोतानां वृत रुडी रीते पाळनार] साधु होय के संसारी होय तो पण स्वर्ग जाय छे.१(२२), श्रद्धावंत श्रावके सामायिकना 8 अंग कायाये करीने पाळवा जाइए. शुक्ल अने कृष्ण पक्षमा आठम, पाखी वगेरेना शुद्ध भावे पोषा२ करवा जोइए. कोई ते करवानुं चूकवू न जोइए 3. (२३), १. संसारमा रहीने औहिक अने आमुष्मिक-आ भव परभवतुं-श्रेय साधवानी इच्छावाळाए आ शब्दो सोनेरी अक्षरे लखी। राखवा जोइए. A pions man, whether monk or householder, ascends to heaven. " २. पोषह वृत-18 । आत्माने पोषवो संसारी खटपटथी अलग रही, सर्व व्यापार, सर्व आहार | पाणी, मुखवास, मेवो वीगेरे ] अब्रह्म, नोकर चाकर वीरेनी सेवा-आ बधुं एक दीवस अने एक रात्रीने माटे त्यागी आश्रयनो रोध करी संघरमा प्रवर्त. शान्त मने ज्ञान, ध्यानमां 1 दीवस निर्गमन करवो. बुद्ध धर्मीओमां पण आq वृत्त छे जे 'उपोसथ' ( Uposatha ) कहेवाय छे. ३. मूळ पाठमां । 'एमराई' शब्द छे जेनो शब्दार्थ “ए. के रात्रीये पण पोसहनी हानी न करे" एप भाषाकार लाखे छे. जेनो भावार्थ ए होइ शके छे के अष्टमी, पख्खीना पोषा कोइ दीवस चुकवा नहि. दीवस दरम्यान अवकाश न म तो देसावगासीक करवा. ००००००८ Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ५. ३७ एवं सिख्खा समावने गिहिवासेवि सुव्वए । मुच्चई छविपव्वाओ गछे जख्खस लोगयं ॥ २४ ॥ अह जे बुडे भिख्खु दुन्ह मन्नयरे सिया । सव्व दुख्ख पाहणेत्रा देवेवावि महिढिए ॥ २५ ॥ उत्तराई विमोहाई जुइमं ताणु पुव्वो । समाइन्नाई जख्खेहिं आवासाई जसं सिणो ॥ २६ ॥ दीहाउया इढिमंता समिद्धा कामरूविणो । अहुणो वन संकासा भुज्जो अच्चिमालिभा ॥२७॥ ताणि ठाणाणि गर्छति सिखित्ता संजमं तवं । भिख्खा एवा हिथ्थेवा जेति परिनिव्वुड ॥ ॥ २८ ॥ तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं संजयाणं बुसीमओ । नसंतसंति मरणंते सीलवंता बहुस्सुया ॥ २९ ॥ आ रीते शिक्षा ग्रहण करीने जे कोइ गृहवासमां [ग्रहस्थाश्रममां ] रहीने पण सुव्रत पाळे छे ते 'औदारिक शरीर छांडीने यक्ष लोकमां जाय छे. (२४). पोताना आत्माने संवरे करीने वश राखनार साधु बेमांथी एक गतिने प्राप्त थाय छे; कां तो सर्व कर्मनो क्षय करीने ते सिद्ध थाय छे [ मोक्षे जाय छे ]; अथवा ( जुज कर्म बाकी रह्यां होय तो ) महा रिद्धिवान देवता थाय छे. (२५). अनुत्तर विमान ज्यां मोहनी कर्म रहेलां नथी, जे ज्योति ( तेज ) थी भरपूर छे, ज्यां यशस्वी देवताओनो वास छे, जे भो दीर्घायुषी, रिद्धिवंत, समृद्धिवान, अति तेजस्वी छे, जेओ नवां नवां रूप धारण करीने सुख भोगवे छे, तत्काळ उपज्या होय एवं [ तरतना जन्मेला बाळकना जेवं ] जेनुं स्वरुप छे, जेनी अनेक सूर्यना जेवी कान्ति छे; एवा देवलोकने विषे हरकोइ त्यागी अथवा ग्रहस्थ, जेणे बारे भेदे तप अने सत्तरे भेदे संयम पाळ्यो होय अने पोताना आत्माने वश राख्यो होय, ते जर शके छे. (२६-२७-२८). जे पुज्य साधु पुरुषो पोताना आत्माने वश राखे छे अने दृढ संयम पाळनारा छे तेमनी पासेथी आ (बोध) सांभळ्या पछी, बहु श्रुतं अने शीलवंत पुरुषो मरण काळे भय प्रामता नथी. २ [ २९ ] . १. जे शरीरमां हाड मांस होय ते. २. मो. जेकोबी आ माटे एवा शब्द वापरेछे के: - The virtuous and the learned do not tremble in the hour of death. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलिया विसेस मादाय दयाधम्मरस खतिए । विपसीइज्ज मेहावी तहाभूएण अप्पणी ॥१॥ तओ काले अभिप्पेए सढी तालिसमंतिए । विणएज्ज लोम हरिसं भेयंदेहस्स कंखए ॥ ३१ ॥ अहकालंमि संपत्ते अघायायसमुस्सयं । सकाम मरणं मरइतिएहमन्नयरंमुणी तिबेमि ॥ ३२ ॥ * ॥ इति अकाम सकाम मरणं झयणं पंचम सम्मत्तं ॥ ५ ॥ ००० बुद्धिवान पुरुष ( बन्ने प्रकारना मरणर्नु ) तोल [परीक्षा] करीने अने (सकाम अने अकाम मरण )वे मांथी वधारे सा ३. होय ते पसंद करीने, दया, धर्म, क्षमादि आदरे तो ते मरण काळे ] पोताना आत्माने शान्त अने क्षमाशील राखी शकेले. [३०]. मरण काळ प्राप्त थाय त्यारे श्रद्धावंत साधुए पोताना गुरुनी समीपे परण-भयने त्यागीने (हर्ष,-शोक तजीने) शरीर का त्याग (देह-क्षय )ने इच्छचो. [३१]. देह त्याग करवानो समय आवी पहोंचे त्यारे प्रज्ञावान पुरुषने त्रणमांधी एक प्रकारे । सकाम मरण प्राप्त थाय छे. [३२], ॥ पांच, अध्ययन संपूर्ण. ॥ *भक्त परिज्ञा, इंगित मरण, पादपोपगमन. भक्त परिज्ञा-पोते लीधेली प्रतिज्ञाओ पाळीने अणसण करी शान्तीथी शरीर छोडवू ते. इंगित एटले सांकेतिक, धारेला प्रदेशमांज हरवा फरवाना निर्णयवाळु अणसण करीने शरीर छांडवं ते इंगित मरण. पादप एटले वृक्ष तेने उपगमन सरखा थ एटले वृक्ष माफक स्थिर रहेवं, कोइ पण अंगोपांग हलाववां नहि एवा अणसणने पादपोपगमन कहे छे, आ विषे विस्तार पूर्वक विवेचन श्री आचारांगजी सूत्रना प्रथम श्रुत स्कंधना आठमा अध्ययनना ५, ६, ७,८ उद्देशामा छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अध्ययन ६. * लघु निग्रन्थ [ क्षुल्लक साधु ]. devar जावंति विज्जा पुरिसा सव्वेते दुख्खसंभवा । लुप्पं तिबहुसोमूढा संसारं मिअणंतए। ॥ १ ॥ समिख्ख पंडिए तम्हा पास जाइपहे बहू । अप्पणा सच्च मेसिज्जा मित्ति भूएस कप्पए ॥२॥ माया पियाएन्हुसा' भाया भज्जा पुत्ताय ओरसा । नालंते मम ताणाय लुप्पंतस्स स कम्मुणा ॥ ३ ॥ एय म; स पेहाए पासे समिय दसणे । छिंदे गहिं सिणेहंच न कंख्खे पुष्वसंथवं ॥ ४ ॥ १. पाठांतरे ' अनंतगे', 'मेसेज्जा', 'मित्तं', 'पियान्हसा' वगेरे तफावत छे. ॐ अध्ययन ६. ७ जे मनुष्यो तत्वना अजाण छे ते सघळा दुःखना विभागी थाय छे. अनन्त संसारमा ते मूढ पुरुषो अनेक प्रकारनी पीडा पामे छ. (१). पुत्र कलत्रादि मोहपास अने (एकेन्द्रियादि ) योनिपां भ्रमणर्नु स्वरुप समजीने, तत्वज्ञ पुरुष पोताना आत्माने संयमन विषे स्थापे छे, अने सर्व जीव तरफ मित्रभाव राखे छे. (२). [ ते एम विचारे छे के ]-'माता, पिता, पुत्रवधु, भ्राता, भायों अने पुत्रादि ज्यारे हुँ मारां पोतानां कर्मने लीधे दुःख भोगवीश त्यारे ते थकी, तेमांनु कोइ मारुं रक्षण करवाने समर्थ थशे नहि. (३). आ सत्य तत्वरुपी अर्थ बुद्धिवान पुरुपे सम्बग दृष्टिथी विचारवो-स्मरवा मिथ्यात्व अने स्नेहने छांडीने पूर्व परिचयनां (ग्रहस्थाश्रमनां) सुख याद न करवां.[४]. १. श्री देवेन्द्र अहिं एक संस्कृत श्लोक टांके छे. “ कलत्रानिगडं दत्वा, न संतुष्टः प्रजापतिः। भुयोऽपि अपत्या रुपेन ददाति गलशृंखलम् ॥” तनो भावार्थ एवा छे के, सृष्टिमां पुरुषोने स्त्रीरुपी पास-बेडीमां बांधवामां आवे छे एटलुंज नहि पण वधारामां बाळ बच्चा-संतानरुपी सांकळ तेमना गळानी आसपास वींटालवामां आवे छे, २. आज पाठ श्री सुयगडांग सूत्रना प्रथम भूत स्कंधना नवमा अध्ययननी पांचमी गाथामा छ,' ....००.०० ००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.jain Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ६. ४० गवास मणि कुंडलं पसवो दास पोरुसं । सत्र मेयं चइत्ताणं कामरूत्री भविस्ससि ॥ ५ ॥ थावरं जंगमं चैव धणं धन्नं उवखरं । पञ्च्चमाणस्स कम्मेहि नालं दुखाउ मोयणे ॥ ६ ॥ अज्जथं सध्यओ सध्वं दिस्स पाणे पिया | नहणे पाणिण पाणे भय वेराउ उवरए ॥ ७ ॥ आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि । दोगुंछी अप्पणोपाएदिन्नं भुंज्जिज भोयणं ॥ ८ ॥ इहमेगेउ मन्नंति अप्पचख्खाय पावगं । आयरियं विदिशाणं सव्व दुखावि मुई ||९|| गाय, अश्व, मणि, कुंडल, पशु, दास, सेवक इत्यादि सर्व वस्तु छांडवाथी ( हे शिष्य ! अथवा हे जीव ! ) तुं स्वेच्छारूप धारी देवता थइश. (५). २स्थावर परिग्रह [घर, हाट वीगेरे] अने जंगम परिग्रह (धन, धान्य वगैरे) जीवने पोतानां कर्मनां दुःखथी मूकवाने समर्थ नथी. (६). सर्व प्रकारनां सुख दुःख सौ सौना आत्मानेज लागु पडे छे. माटे प्राणी मात्रने पोत पोतानो जीव हालो छे एम जाणीने कोइ जीवने हणवा नहि; अने तेमने भय उपजाववाथी तथा तेमना उपर वेर लेवाथी साधुए दूर रहे. [७]. अदत्तने नर्कना हेतु जाणीने साधुए अण दीधुं तृण मात्र पण लें नहि; शरीरना निभाव अर्थ काण्ड-पात्रमां [ पातरामां ] ग्रहस्थ दो सुझतो आहार जमवो. (८). आ संसारमा केटलाक (कपिलादी ज्ञानवादीओ) एम माने छे के ' हिंसादिक पाप कर्म तया विना पण पोताना मतना आचार पाळवाथीज सर्व दुःखथी मुक्त थवाय छे. (९). १. देवताओ पोतानी मरजी मुजब रुप धारण करी शके छे, कारण तेमने वैक्रय शरीर होय छे. २. प्रो. जेकोब / ना भाषान्तरमा गाथा नथी. hara हस्त लीखीत प्रतोमां पण आ गाथा नथी. एम तेनुं कहेवुं छे. ३. सुख दुःखनो ज्ञाता - जाणनार अने वेदना आला छे. सुख दुःख आत्मामांज रहेलुं छे. शब्दार्थ एवो छे के, पोताने थतुं सुख दुःख बधी रीते सर्वने थाय छे. एपदनो संस्कृत अनुवाद एम छे के “ आत्मस्थं सर्वतः संवै. " ४. ज्ञान मार्ग उपर आ आक्षेप रुप छे. Jain Education Inmational For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ६. ४१ कतिबंधोन पइण्णिणो । वाया वीरिय मत्तेणं समासा संति अप्पगं ॥ १० ॥ न चित्ता तापए भासा ओ विज्जाणु सासणं । विसन्ना पावकम्मेहिं वाला पंडिय माणिणो ॥ ११ ॥ जे केइ सरिरे सत्ता वन्ने रूवेय सव्वसा । मणसा काय वक्केणं सव्वेते दुख संभवा || १२ || आवन्ना दीह मडाणं संसारंभि अणं तए । तम्हां सच्च दिसं पर अप्पमतो परिवए || १३ || बहिया उढ्ढ मादाय नाव कंखे कयाइवि । पुत्र कम्म खय ठाए इमं देहं समुद्धरे 11 98 || आ जगतमा केटलाक एम माने छे के ज्ञानथीज मुक्ति छे, क्रियानी कांइ जरुर नथी. एवा मनुष्यो बन्ध-मोक्षनां साधननो स्वीकार करवा छतां ते प्रमाणे क्रिया करता नथी, अन मात्र वचनना आडम्बरथी पोताना आत्माने आश्वासन आपे छे. (१०). ( पण ज्ञानने अहंकार राखनार एम नथी जाणता के ) भाषा ज्ञान जीवने नरके जतो बचावी शकशे नहि. विद्या-पठन [ न्याय, मीमांसा वगेरे ] मात्र जीवनुं पापथी रक्षण शी रीते करी शके ? पाप कर्मने विषे मच्या रहेनार मूर्ख माणसो पापमां डंडाने उंडा डुबता जाय छे तो पण पोताने पंडित मानी बेसे छे. [११]. जे प्राणी मन, वचन अने कायाये करीने शरीर, वर्ण अने रुपने विषे आसक्त रहे छे ते दुःखी थाय छे. ३ (१२) तेओ आ अंतरहित संसारमां लांबे मार्गे भव भ्रमण करे छे; माटे साधुए गतागतनुं स्वरूप ओळखीने संसारमा पाप कर्मी दूर रहीने विचरं. [१३] संसारथी अति उत्तम जे मोक्ष [ मुक्ति ] ते मेळववा मनोरथ करीने रिद्धि विषयादिकनी कदि बांच्छना करवी नहि; पण पूर्व कर्मना क्षयने अर्थे काया निभावत्री. (१४). १. तेओ मात्र ज्ञानथीज मोक्ष माने छे, आपणे जैनो ज्ञान अने क्रियाथी मोक्ष मळवानुं मानीए छीए. वातो मोटी करवी अने वर्तकां नहि एम नथवं जोइए. २ वातोथी वडां पांकी जतां नयी - Clever talking will not work salvation. ३. प्रो. जेकोबी वे गाथा पछी आ गाथा राखे छे. अहिं मुळ प्रमाणे अनुक्रम राखेलो छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ६. ४२ त्रिरिंगच कम्मुणोहेउं कालं कंखी परिव्वए । मायं पिंडरस पाणस्स कडे लडूण भए ॥१५ ॥ संनिहिंच न कुब्वेज्जा लेवमायाए संजए । पङ्क्ती पत्तं समादाय निर बिल्लो परिव्वए || १६ || एसणा समिओ लज्जू गामे अण्यिओ चरे । अप्पमत्तो पत्ते पिंडवायं गवेस ||१७|| एवं से उदाहु अणुत्तर नाणी अणुत्तर दंसी । अणुत्तर नाण दंसण घरे अरहा नायपुत्ते भवं । वेसालिए वियाहिए तिबेभि ||१८|| इति खुड्डागनियंठिय झयणं छठं सम्म ६ कर्मबन्धननां कारण दूर करवां अने अवसरे (योग्य काळे ) स्वक्रिया- अनुष्ठान करतां विचर [ अवसरज्ञ थवं ] आहार पाणी मात्रा [केट व्होरं ते ] जाणीने, ग्रहस्थे पोताने माटे बनाव्यो होय तेवो सूझतो आहार लेवो. [१५]. साधुए अन्नादिकनो मुदल संग्रह करवो नहि; पातराने ले थाप एटले पण घी वगेरे राखतुं नहि. पण पक्षी जेम पत्र [ पांख ] एकठी करीने उडे छे, तेम साधुए पात्र [ पातरां ) एकठां करीने कशी पण अपेक्षा राख्या सिवाय विचर. [१६]. लज्जावान साधु निर्दोष आहार व्हो - रतो संयम मार्गे विचरे छे, अने गाम या नगरमां नित्य ( स्थिर ) वास करतो नथी. अने प्रसादी ग्रहस्थना समुहमां अप्रमादी रहीने सूझतो आहार ग्रहण करे छे. [१७]. सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी, सर्वाधिकदर्शी अने अनुत्तर ज्ञान दर्शनना धारण करनार अरिहंत ज्ञातपुत्र वैशालिक [ सिद्धार्थ अने त्रिशलाना पुत्र ] श्री महावीर भगवाने आ प्रमाणे कयुं छे. (१८). */ ॥ १: मूळ पाठमा 'विंगिंच ' शब्द छे जेनो अर्थ टीकाकार दूर कर-करे छे मो. जेकोब Recognize शब्द वापरेछे. २. मो. कोबी मरणनी राह जोतां विचर एन अर्थ करे छे. ३. बैशालिकना घणा अर्थ छे. विशाळ शिष्योवाळा, वैशालीना रहीश, विशाळाना पुत्र वगेरे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ००००००००००००००००00000000000000००० । अध्ययन ७. मेंढा, आख्यान. (श्री एलक' अध्ययन). जहाएसं समुद्दिस्त कोइ पोसेज एलयं । ओयण जब संदिज्जा पोसेज्जावि सयं गणे ॥ १ ॥ तओ से पुढे परिवूढे जामेए महोदरे । पीणिए विउले देहे आएसं परिकसंखए ॥ २ ॥ जव नएइ आएसे तावज्जीवइ से दुही । अह पत्तमि आएसे सीसं छितॄण भुंजइ ॥ ३ ॥ जहां से खलु उरभ्भे आएसाए समीहिए। एवं बाले अहं मिठू इहई नरया उयं ॥ ४ ॥ हिंसे बाले मुला वाई अडाणमि विलोबए । अण्ण दत्त होतेगे माई कन्नू हरे सढे ॥ ५ ॥. १. एलयं एलकं=A ram. २. कोइ प्रतमा 'से' अक्षर 'ख' पछी छे 'जहा खलु से' पण तेथी अर्थमा फारफेर थतो नथी. । अध्ययन ७. परोणाने निमित्त कोइ (मांसाहारी) माणस मेंढाने उछे, तेने जब, मग, मठ विगेरे खवडावे छे अने पोताना घरना आंगणे तेने पाळी पोपीने पुष्ट कर. (१). पछी ज्यारे ते रातो मातो, मोटा पेटवालो अंने पुष्ट शरीरवाळो थाय त्या घरनो धणी एम इच्छे छे के हवे परोगो आवे तो सारु, [२]. ज्यां सुवी परोगो न आवे त्यां सुधी ते विचारुं प्राणी मांसाहारीने घेर] जीववा पामे छ. पण परोगो आव्यो के तरतज तेनुं मायुं छेदाय छे अने ते खवाय छे. [३]. जेबी रीते परोणानी खातर भेंढार्नु सारी रीते पालण पोषण थाय छे, तेवी रीते मूर्ख अने अज्ञानी मनुष्यो नरकनी जींदगी माटे पाहोर्नु पोषण करे छ. (४). एवो प्राण घातक मूर्ख मागस जीव हिंसा करे छ, मृषावाद बोले छे, वाटपाडुना धंधो करे है, चोरी को छे, अदत्तादान ले छे अन कोइनुं धन हरवार्नु चिंत्वन मनमां का करे छे. (५). ०००००००००००००००००० ००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only www.ketary.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथ्थी विसय गिडेय महारंभ परिंगहे । भुंजमाणे सुरं मंसं परिवढे परं दमे ॥ ६ ॥ अयकक्कर भोइय तुंदिल्ले चियसोगिए । आउयं नरए कंखे जहाए संवएलए ॥ ७ ॥ आसणं सयणं जाणं वित्तं कामेय भुजिया। दुस्साहडं धणं हिच्चा बहु संचिणिया रयं ॥ ८ ॥ तओ कम्म गुरुजंतु पच्चुपन परायणे । अयव्व आगया एसे मरणं तंमिसोयर ॥ ९ ॥ तओ आउ परिवीणे चुयादेह विहिंसगा । आसुरीयं दिसं बाला गच्छंति अवसातमं ॥१०॥ १. कोइ प्रतमा 'लोहिए' शब्द छे. -०००००००००००००००००० स्त्री अने विषयमा लुब्ध रहे छे, महा आरम्भ अने परिग्रहमां मच्यो रहे छे, मद्य पीए छे, मांस खाय छे अने मस्त बनीने अन्यने दमे छे. (६). तेवा (विषयासक्त) अजा मांस अति स्वादी खाय छे, तेनुं उदर प्रौढ थाय छे, तेनी नाडोमां लोही। उछान मारे छ, पण मेंढो जेम अंते परोणाने माटे हणाय छे तेम तेने अंते नरकनुं आयुष्य प्राप्त थाय छे. [७]. सुखासन, छप्पर पलंग, गाडी घोडा, द्रव्य, कामभोगादि भोगवीने, महा महेनते उपार्जन करेला धननो व्यय करीने, अनेक पापरुपी मळ भेगो करीने, आ जगतनेज सर्वस्व समजीने, भारे की जीव, जेम मेंढो, परोणो आववाथी दुःख पामे छे तेम ते मरण काळ आवी पहोंचवाथी शोच करे छे. दुःखी थाय छे. (८-९). पछी प्राणी हिंसा करनार पापी मनुष्य पोताना आयुष्यना अंते मनुष्य देहथी भ्रष्ट (मानव भस्थी विमुख ) थाय छे, अने (पार कर्मने लीधे) परवश पडलो होवाया अंधकारमय असुर लोक (नरक गति) मां जाय छे. [१०], Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.iainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०००००० जहा कागणीएहेउं सहसंहारएनरो । अपथ्थं अंबगंभुच्चा रायारज्जं तु हारए ॥ ११ ॥ एवं माणुसगाकामा देव ।। कामाण अंतिए । सहस्स गुणीया भुजो आउंकामाय दिव्विया ॥ १२ ॥ अणेगवासाणउया जासा पन्नव उठिई । जाणि जीयंति दुम्मेहा उणेवाससयाउए ॥१३॥ जहायतिन्निवणिया मूलंधितूणनिग्गया। एगोथ्थलहए लाभं एगोमूलेण | आगओ ॥ १४ ॥ एगो मूलपि हारित्ता आगओ तथ्थ वाणिओ ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह ॥१५॥ जेम कोइ. माणस एक *कोडीने माटे हजार दीनार हारी जाय, जेम *पेलो राजा अहितकारी आम्रफल खावाथी पोतानुं | | आखं राज्य हारी गयो हतो, तेम देवताना कामभोग आगळ मनुष्यनां कामभोग कोडी समान छे, वळी देवत्तानां कामभोग अने आयुष्य मनुष्यनां कामभोग अने आयुष्य करतां सहस्र गणां अधिक छे. [११-१२]. उत्तम ज्ञानवाळा पुण्यशाळी देवता अनेक 1 नियुतनुं [ असंख्य वर्षतुं ] आयुष्य भोगो छ दुर्बुद्धिवाळो मनुष्य सो वर्षथी ओछा आयुष्यवाळी जीदगीमा देवताना लांबा आ युष्यनो लाभ गुमावे छे.(१३).त्रण वेपारी पुंनी लइने घेरथी वेपार करवाने नीकळे छे. तेमांनो एक लाभ मेळवीने, बीजो मूळगी मूडी | लइने अने त्रीजो पोतानी सबळी पुंजी गुमावीने पाछो आवे छे. आ व्यवहारिक दृष्टान्त जींदगीने लागु पाडतां शीखवू जोइए. (१४-१५). *आ बन्ने उदाहरण- स्पष्टिकरण करवा माटे टीकाकारे बे दृष्टांत आपला छे, पण बगर दृष्टान्ते अर्थ स्पष्ट है वाथी ते अहिं उतार्या नथी. कोडी अहिं रुपियाना एसीमा भागना नाना पुराणा सिका माटे वापरी छे. मूळ पाठमां 'कागणी' शब्द छे. टीकाकार ते माटे 'काकिण्य' (Kakini) शब्द वापरे छ, १. नियुत एटले ४९,७८६,१३६,०००,०००,०००,०००,०००,०००,०००, ०००, वर्ष तेनु कोष्टक नीचे मुजब छे. ८४००००० वर्ष-एक पूर्वाग. . ८४००००० पूर्वांग-एक पूर्व.. ८४००००० पूर्व–एक नियुतांग.. ८४००००० नियुतांग-एक नियुत, 06८०. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ७. ४६ माणुसतं भवे मूल लाभो देव गई भत्रे । मूल छेएण जीवाणं नरग तिरिखत्तणं धुवं ||१६|| दुहओ गई बालस्स आवई वह मूलिया । देवतं माणुसतंच जं जिए लोलुया सदे || १७ || ओ जिएसई होइ दुविहं दुग्गइंगए । दुलहा तस्स उम्मग्गा अडाएस चिरादवि ॥ १८ ॥ एवं जियं संपेहाए तुलिया बालंच पंडियं । मूलियंते पवेसंति माणुस्सं ज्जोणि मंतिजे॥१९॥ बेमायाहि सिख्खाहिं जेनरा गिहि सुव्वया । उब्वैति माणुस्सं जोणि कम्म सच्चाहुपाणिण ॥ २० ॥ मनुष्य भव ए पुंजीरुप छे; देवगति लाभ रूप छे. ते पुंजी गुमाववाथी माणसने नरक अथवा तिथेच योनिमां ( पशु योनिमां ) जन्म पडे छे. [१६]. पापी मनुष्य माटे वे गति [ नरक अने तिथेच ] निर्माण छे; जे बन्ने गति दुःखदायक अने पीडाकारक छे. कारण के [ स्त्रीने विषे ] लुब्ध रहेवाथी ए शठ पुरुष मनुष्यपणुं अने देवपणुं हारी बेठो छे. [१७]. ए बने ( देवपणुं अने मनुsraj) हारी बेठेला होवाथी तेने बेवडी दुर्गति [ नरक अने तिर्यंच ] वेठवी पडे छे; अने ए (अधो) गतिथी नीकळीने लाचे काळे पण उच्च [ देव या मनुष्य ] गति प्राप्त करवी दुर्लभ थइ पडे छे. (१८). मूर्खने आ प्रमाणे हारेलो देखीने प्रत्येक मनुष्ये मूर्खपणाना अने पंडितपणाना सारासारनी विचार पूर्वक तुलना करवी जोइए. जे मनुष्य धर्म अंगीकार करीने मनुष्य योनी पामे छे तेनी तुलना मूळ मूडी ला पाला आवनार बेपारी साथै थाय छे. [१९). जे ग्रहस्थो विनितपणानी विविध प्रकारनी शिक्षाए करीने सदाचार पाळे छे ते मनुष्य योनीने पाये कारण के प्राणी मात्र पोत पोतानां कर्मनुं फळ मळे छे. (२०). १. मनुष्य गति चार कारणे मछे छे. [१] 'पगाई महीयाए' दयालु स्वभाव-प्रकृतिनो भेदीक ( Kind disposition. (२) 'पगाई वीणयाए' विनय ( Love of discipline ) (३) 'शात्रु कोशीयाए' अनुकंपा ( Compassion ); ' (४) 'अमछयाए' गर्व रहीत (Want of envy). आ संबंधे विस्तार पूर्वक विवेचन श्री ठाणांगजी सूत्रमां छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसि तु विउला सिख्खा मूलियतेअइथिया । सीलवंता सवीसेसा अदिणाजति देवयं ॥२१॥ एव मद्दीणवं भिख्खं । गरिंच वियाणिक । कहन्नू जिच्च मेलिख्खं जिच्चमाणोनसंविदे ॥२२॥ जहा कुसग्गे उदयं समुद्देण समंमिणे । ३) एवं माणुस्सयाकामादेवकामाण अंतिए ॥ २३ ॥ कुसगामित्ता इमेकामा संनिरुद्धंमि आउए । करसहेउं पुरा काउं जोगखेमं नसंविदे ॥२४॥ इह कामानियट्टरस अत्तढे अवरझई । सोच्चानेयाउयंमां जंभुज्जो परिभस्सई ॥२५॥ इह कामानियरस अत्तठेनाव रझई । पूइदेह निरोहेणं भवेदेवेत्तिमे सुयं ॥२६॥ पण जे मनुष्य विपुल अने विस्तीर्ण शिक्षा [पंच महाव्रतरुप ] ग्रहण करीने ते पाळे तेनी तुलना पुंजी उपरांत लाभ मेळवनारनी साथे थइ शके छे, एका सर्वोत्तम आचारवाळो सदाचारी पुरुष आनंदी देवपणुं पाये छे. [२१]. एवी रीते सदाचारी साधु तथा ग्रहस्य पोताना साधुपणाना अने ग्रहस्थपणाना लाभ समजे छे. तेथी पंडित पुरुषोए सावधान रहीने धर्म मार्गे प्रवर्तवू जोइए. (२२). मनुष्यनां कामभोगनी तुलना कुशाग्रे [दर्भनी अणी उपर ] रहेला जळ विन्दु साथे थइ शके छे, ज्यारे देवतानां सुखनी सरखामणी समुद्रना (अगाध ) जठनी साथे करी शकाप छे. [अर्थात देवताना प्रमाणमा मनुष्यनां सुख नहि सरखां छे]. [२३]. मनुष्यना अति अल्प आयुष्यनां कामभोग कुशाग्रे रहेला जळ बिन्दु समान छे तो पछी [ देवतानां अपार सुखनो] अलभ्य लाभ प्राप्त करीने ते साचव। राखवाने कयो मनुष्य न इच्छे ? (२४). जे जीव कामभोगथी निवृत थतो नथी ते आत्मानो खरो हेतु [ मुक्ति ] गुमावे छे. जो के मोसना देनार शुद्ध मार्ग सांभळीने ते तेणे अंगीकार करेलो छ, छतां ते थकी ते वारंवार भ्रष्ट थाय छे. [२५]. जे जीव कामभोगथी निवृत्त थयेलोछे ते आत्मानो खरो हेतु (देवलोकादि) गुमावतो नथी. ते एम माने छे के आ अपवित्र शरीर त्यागीने हुँ देवता अथवा-सिद्ध थइश. (२६), ००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ७. ४८ Jain Educatio इट्ठीजुइ जसो बन्नो आउं सुह मधुत्तरं । भुज्जोजध्यमणुस्सेसु तथ्यसे उबवज्जई ॥ २७ ॥ चालस्तपस्सबाल अहम्मं पडिवज्जिया । चिच्चाधम्मं अहम्मिठे नरएस उववज्जई ॥ २८ ॥ धीररसपरसधीरतं सध्वधमाणु वत्तिणो । चिच्चा अधम्मं धम्मिठे देवेस स्ववज्जई ॥ २९ ॥ तुलियाण बालभावं अबालं चेव पडिए । चइऊण बालभावं अबालं सेवइ मुणी चित्रेमि ॥ ३० ॥ ॥ इति एलयं नाम झयणं सत्तमं सम्मतं ॥ ७ ॥ जे लोकमां रिद्धि, कान्ति, यश, कीर्ति, दीर्घायु अने सर्वोत्तम सुख रहेलां छे त्यां ते उन्न थाय छे. (२७). अधर्म अंगीकार मूर्खनी मूर्खाइ तो तमे जुओ ! शुद्ध धर्मनो त्याग करवाथी ए जीव नरकमां उत्पन्न थाय छे. (२८). सत्य धर्मने अनुसरीने चालनार धीर पुरुषतुं धैर्य तमे जुओ ! ते अधर्म मार्ग त्यागीने धर्म मार्गे चालवाथी देवलोकने विषे उत्पन्न थाय छे. [२९]. डायो पुरुष मूर्खनी मूर्खाइ अने पंडितना पंडितपणानी पोताना मनथी तुलना करे छे. साधु मूर्खपणं छांडीने पंडितपणं सेवे छे. [३०]. emational TARIS * ॥ सात अध्ययन संपूर्ण ॥ For Personal and Private Use Only * Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ८, ४९ अध्ययन ८. *कपील मुनीनो बोध. अडुबेअसासयंमिसंसारंमि दुख्खपउराए । किं नामहूज्जत्तं कम्मयं जेणाहं दुग्गई नगछेज्जा ॥ १ ॥ अध्ययन ८. आ अध्रुव अने असाश्वत संसार जे अनेक दुःखाथी भरेलो छे, तेमां केवा कर्तव्यथी-कया धर्मनो अंगीकार करवाथी हुं दुर्ग तिने विषे न जाउं [१]. * कसंवीना कास्यप ब्राह्मणता ते पुत्र हता. तेना पिताना मृत्यु बाद अभ्यास माटे एक शेठने त्यां रहेल त्यां चाकरडी साथै प्रेममां पडया. ते स्त्रीए वस्त्र भूषणनी मागणी करी परन्तु पैसा न होवाथी दीलगीर थतां ते स्त्रीए युक्ति बतावी के राजाने प्रभातम प्रथम आशीर्वाद आपनारने ते सोनानुं दान करे छे ते माटे प्रयास करो. प्रेम पासमा सपडायेला कपिल प्रभातमां व्हेला उठी गया पण बहुज व्हेलुं थवाथी पोलीसे पकडी राजा पासे रजु कर्या. राजा पासे सत्य हकीकत रजु थतां ते एटला खुशी थ केसांज सुधी मां जेटलं द्रव्य मांगे लुं आपका इच्छा दर्शावी. विचार करवा माठे सामेनी वाटिकामां गया पण तृष्णावती ग अन लोभनो थोभ न थतां सांज पडी गइ. प्रसनजीत राजाए आपेलुं वचन व्यर्थ गुमायुं, आ फटकाथी वैराग्यना फणगा कपिलना मनमां व्या. स्वयंबुद्ध थया अने तप बीगेरे करी संसारथी विरक्त थया अने परमार्थ खातर राज्ग्रही नगरीना वनमांचलभद्र पांचसो चोरना परिवार सहित रहेता हता तेने बोध आपका गया, चोए पकडी तेने केद कयी अने जाणे बंधनज न होय तेम कपिलमुनी नाचवा ने गावा लाग्या. आ अध्ययननां वधां पद गायां अने ध्रुव तरीके प्रथम पद बोलता गया. चोरो आ बोधथी प्रति बुझ्या - आ अध्ययननी १७मी गाथा पोताना अनुभवपरथी तेओए असरकारक भाषामा कही संभळावी घणा जीवाने बोर्ष आप्पो हतो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.. विजाहत्तुपुत्रसंजोगं नसिणेहं कहिंचिकुव्वेज्जा । असिणेह सिणेह करहिं दोसपओसेहिं मुच्चएभिख्खू ॥२॥ ततोनाण सणसमग्गेहियनिस्तेसायसव्वजीवाणं। तेति विमोख्खगठाए भासई मुणिवरोविगयमोहो ॥३॥ सव्वं गंथं कलहंच हा विप्पजहे तहाविहं भिख्खू । सव्वेसु काम जाएसु पासमाणो नलिप्पई ताई ॥ ४ ॥ भोगामिस दोस विसन्ने हिय निस्सेस बुद्धि, वुच्चथ्थे । बालेय मंदिए मूढे बज्जई मछिया व खेलमि ॥ ५॥ दुपरिच्चया इमे कामा नो सुजहा अधीर पुरिसेहिं । अहसंति सुव्वया साहू जे तरंति अतरं वणियावा ॥ ६ ॥ समणा मु एगे वयमाणा पाणवहमिया अयाणंता । मंदा निरयंगछंति बालापावियाहिं दिठीहिं ॥ ७ ॥ 000000 500०००००००००० ___ पूर्व संबंध छांडीने कोइ वस्तु उपर मोह न कर, पोताना उपर मोह राखनार उपर पण जे साधु मोह न राखे, ते आ लोक खथी छूटे. २]. ते मुनिवर ( कपिल केवळी ) जे पोते मोह रहित छे अने ज्ञान दर्शने करी सहित छ, ते सर्व : जीवोर्नु हित अने मोक्ष इच्छी, कर्म बन्ध टाळवाने कहे छे. (३). [आत्माना] सर्व बंधन, क्रोधादिक प्रकारना कर्म बन्धना हेतुओ साधुए छोडी देवा जोइए. विषय [शब्द, रुप, रस, गंध अने स्पर्श जाणवा छतां, तेमां तेण लुब्ध थवं नहि. (४). जेनी बुद्धि मंद, मूढ, निच्च कर्म करनारी अने आत्म हित करनार मोक्षथी विमुख छ, ते धर्मने विष आळस करे छ, निश्च कर्म करे छे अने 8 माखी जेम श्लेष्ममां बंधाइ जाय छ तेम संसारमा बंधाइ रहे छ. (५). ए काम भोग छांडवाचें कार्य कठिन छ कायर पुरुषो ए कामभोग सेहेलाइथी छडी शकता नथी, पण व्यापारी (वाणी) जेम वहाणथी समुद्र तरे छे, तेम साधु पुरुष संसार समुद्र 18| तरी जाय छे. (६). जो के पोते पशुनी माफक अज्ञानताथी जीव हत्या करता होय, तो पण केटलाक परतीथि एम कहे छे के अमे श्रमण-साधु छीए; आवा विवेकहीन पाप दृष्टिवाळा मनुष्य मिथ्यात्वे करी न जाय छे. (७). ००००००००००००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ८. ५१ हुपावहं अणुजाणे मुज्जकयाइ सव्वदुख्खाणं । एवा यरिएहिं अखायं जेहिं इमोसाहु धम्मोपन्नत्तो ॥ ८ ॥ पाणेयनाइ वाएज्जा सेसमीइत्ति वुच्चई ताई । तओसे पावयं कम्मं निज्जाइउदयं व थलाओ ||९|| जग निसिएहिं भूएहिं तरसनामेहिं थावरेहिंच । नोतेसिं मारमे दंडं मणसा वयसा कायसा चैव ॥१०॥ सुद्धे सणाओ नच्चाणं तथ्य ठवेज्ज भिख्खू अप्पाणं । जायए वासमेसेज्जा रस गिद्धेणसिया भिखाए ॥११॥ पंताणि चेत्र सेविज्जा सीयं पिंडं पुराण कुम्मसं । अदुबुकसं पुलागंवा जवणडाए निसेवए मंधूं ॥ १२ ॥ aise प्राणी ना कोण कार्यमां अनुमोदन आप न जोइए: आथी बहुधा बीजा दुःखो - पाप कर्मेमांथी मुक्त थइ शकाय हे, - एम तिर्थकर गणधरोए साधु धर्म प्ररूप्यो [ कह्यो ] छे. [८]. जे पुरुष प्राणी-जीवने मारे नहि ते समित (सावध) कहेवाय छे, जेवी रीते पाणी उच्च प्रदेशपरथी ढळी जाय छे तेवी रीत ते पुरुषने पाप कर्म लागतुं नथी. (९). जे जे त्रस अने स्थावर जीवो पृथ्विपर वसेला छे, तेने मन, वचन, कर्मे करीने पिडा उपजावबी न जोइए. [१०]. साधुए शुद्ध निर्दोष आहारने जाणवा-केवो आहार कल्पे तेनुं ज्ञान मेळवं अने तेना नियम बराबर पाळवा. शरीर निर्वाहने अर्थेज आहार लेवो अने स्निग्ध आहारमां लोलुपता न राखबी. (११). ठरेलो आहार, जीर्ण र दाळ [ मग, अडद, चणानी ], बक्स, ३ पुल्लाक, ४ जे निरस होय ते खा अने शरीर निर्वाह अर्थे मंथु५ ( बदर चूर्ण ) खां, (१२). * Circumspect- आगळ पाछळनो विचार करनार. १. चीकणां-मसालेदार मीठां भोजन विशेष घी वाळां. जे खावाथी शियळनी नव वाड जळवाती नथी. २. Old beans. ३-४ आने मळता गुजराती शब्दो मळी शकता नथी. ५. ठळी सहित बोरनो भूको -[ Founded jujube ]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 0000000. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेलख्खणंच सुविणंच अंग विजंच जेपउंजंति । नहुतेसमणा वुच्चंति एवं आयरिरहिं अख्खायं ॥१३॥ इहजीवियं अणियमित्ता पम्भठ्ठासमाहिजो गेहिं । तेकामभोगरसगिडा उववजांतिआसुरेकाए ॥१४॥ तत्तोविय उवट्टित्ता संसारबहु अणुपरियठति । बहुकम्म लेवल्लित्ताणं बोही होइसुदुल्लहातेसिं ॥१५॥ कसिणंपि जो इमं लोगं पडिपुन्नं दलेजा एक्कस्स । तेणाविसेन तूसेज्जा इइ दुप्पूरए ईमेआया ॥१६॥ 6600.00000000000.00००००००००००० ०००००.4000000000000000 पुरुष लक्षण, स्वप्नना खुलासा, अने शरीर फरक तेना खुलासा-एटलां वानां जे कोइ कहे तेने साधु न कहेवा एम तीर्थकर भगवाननी आज्ञा छ, [१३. जेओं पोताना आत्माने अनियंत्रित राखे, तप विधान आदिमां अनियमित रहे, समाधी योगथी भ्रष्ट थाय, काम रस भोग अने भोजनमां लुब्ध रहे, ए असुर योनिमां जन्मे छे.२ [१४]. ज्यारे ते असुर योनिमांथी नोकळे छ, त्यारे तेने संसारमा घण। वखत सुधी परिभ्रमण करवू पडे छे.जेना आत्माने कर्ममळनो लेप लागेलोछे, तेवा पुरुषोने जैन धर्म अने सम्यकत्वनी प्राप्ति दुर्लभ छे (१५). आ आखी पृथ्वि द्रव्य वैगेरथी भरी, कोइने आपीए तोपण जेवी रीते तृष्णानो अंत आवतो नथी-संतोष थतो नथी, एवी रीते कोइ जीवने संतोपवो महा मुश्केल छे. [१६]. १. निमित्तिा-नजुमी जेवा कार्योथी संसारी साथे घाटा परिचयमा आक्वार्थी राग बंधन थाय अने प्रसंगे महातोमा दोष लागे.२. प्रो. जेकोबीना आ गाथा माटेना शब्दो असरकारक छ-Those who do not take their life under discipline, who cease from meditation and, ascetic practices, and, who are desirous of pleagrsures, amusement and good fare, will be born again as Asuras. ३. प्रो. जेकोबी बाधि' Bodhi 18 शब्द वापरे छे. ते शब्द बंध जाणव-ज्ञान थवं ए क्रियापद उपरथी थयेल छ. पूर्ण शुद्ध ज्ञान विना शुद्ध सम्यकत्वनी प्राप्ति महा मुश्केलछे. Jain Educationa interational For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18| जहा लाभातहा लोभोलाभालोभी पवढुई। दोमासकयं कजं कोडीएवि नानठियं ॥१७॥ नोरख्खसीसुनिझज्जा गंड 1B वथ्थासु णेचित्तासु । जाउपुरिसंपिलोभित्ता खेलंति जहावदासेहिं ॥१८॥ नारीसु नोपगिझेज्जा इथ्थीविप्पजहे अण१६) गारे । धम्मंचपेसलं. नच्चा तथ्थठवेज्ज भिख्खू अप्पाणं ॥१९॥ इइ एसधम्मे अख्खा ए कविलेणंच विसूद्ध पन्नणं । तरिहितिजेउ काहिंति तेहिं आराहिया दुवे लोग त्तिबेमि ॥२०॥ ॥ कावलीयं नाम झयणं अठमां समत्तं ॥८॥ यथा लाभ स्तथा लोभः जम लाभ थाय तेम लोभ वधतो जाय छे. बेमासाधीर जरुरआत पुरी पडती होय, छतों कोटि धनथा पण संतोष थतो नथी [१७].- स्त्री राक्षसीने विषे लुब्ध थर्बु नहि. तेना हृदय उपर कुच रूपी मांसना बे लोचा छ, तेनु चित्त अनेक स्थळे भरके छे, ते पुरुपने ललचाचे छे, लोभावे छे अने तेने [ पासमां लइ दास बनावी रमाडे छे.. [१८. साधुए स्नान | इच्छवी नहि. तेणे स्त्रीनो परित्याग करवो. साधु धर्म बराबर जाणीने पोताना कर्तव्यमा आत्माने दृढ करवो. (१९). विशुद्ध ज्ञा. नी कपिल केवीए आ धर्म (पांचसो चोर पासे) कोो छे. जे ते धर्म करशे ते ताशे अने बन्ने लोक आराधाः, आ लोक अने परलोक बन्नेनु सार्थक करशे. (२०). *॥ आठमुं अध्ययन संपूर्ण. ॥* १. Desires increase with your means. " हती दीनताइ त्यारे ताकी पटेलाइ अने, म। पटेलाइ त्यारे ताकी छे शेगइने सांपडी-शेठाइ त्यारे ताकी मंत्रिताइ अने, आवी मंत्रिताइ त्यारे ताको तृपलाइने."-मोक्ष माळा. २. एक तोलाना बार मासा लेखाय छे. आपणी आठ रतीनो एक मासो गणाय छे. ०००००000000000 ००००००००००००००००००.०० - - Jain Educationa intemtional For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 * अध्ययन ९. नमि प्रव्रज्या. (नमि राजानी दिक्षा). 000000000 - - - - उ.अ. | चइऊण देवलोगाओ उववन्नो माणुस्संमि लोगंमि । उवसंत मोहणिज्जो सरइ पोराणि यजाई ॥१॥ जाई सरित्त Ta] भयवं सहसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे । पुत्तंठवितुरज्जे अभिनिख्खमई नमीराया ॥२॥ सोदेवलोग सरिस्से अंतेउरवर गउ३ बरे भोए । भुंजित्तु नमीराया बुद्धोभोगे परिचयइ ॥३॥ * अध्ययन ९. ॐ सातमा देव लोकी चवीने मनुष्य लोकने विषे जन्म लीधा पछी निमि राजा मोहनी कर्मथी मुक्त थ्या अने तेमने पोताना पूर्व भवर्नु जाति स्मरण ज्ञान भयु. (१). जाति स्मरण ज्ञान उपजवाथी नमि राजा सर्वोत्कृष्ट जिन धर्मने विषे स्वयंसम्बुद्ध थया. ३ [पोतानी मेळे धर्मनो प्रतिबोध पाम्या ], तेथी पोताना पुत्रने राज्य सोपीने पोते दिक्षा ग्रहण करी. [२]. येताना अंतःपुरनी देवांगना सरखी स्त्रीओ संगाथे देव लोक सरखा भोग भोगव्या पछी, पोताने ज्ञान उपजवाथी नमि राजाए भोग छोडी दीधा. (३). १. नमि राजानुं जीवन वृत्तांत टीकामां आपेलुं छे. श्रीमती मयणरेहानुं भक्तिथी उभरातुं चरित्र पण टीकामां आपलं छे. २. आठ कर्म माहेना, चार धन घातीा कर्ममां, मोहनी कर्म विशेष प्रबळ छे. मोहनी कर्म संसारमा रखडावे छे. ठेठ अगीआरमा 'उपशान्तमोह' गुण स्थानके तेनो क्षय थाय छे. ३.पोतानां पूर्व भवर्नु स्मरण आ ज्ञानथी थाय छ, मती ज्ञाननो ते भेद छे. अवग्रह, इहा, अपाय अमे धारणा ए अनुक्रमे वृद्धि थतां केटलाक सरल सुर्लभ बोधि जीवने जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न थायछ. ४.समकालिक चार प्रत्येक बुद्ध मांहेना तेओ एक हता. जाति स्मरणादिक ज्ञानथी पोतानी मेळे बुझनार स्वयंबुद्ध कहेवाय छे. काइ देखीने वैराग्य पागनार प्रत्येक बुद्ध कहेवाय छे. गौत्तम बुद्ध गळतो वळद अने मडदेखीने बुझ्या तेम. ००००००००००००००००००००००००००० Join Education Interational For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ५५ - मिहीलंसपुर जणवयं बलमारोहंच परियणं सव्वं । चिच्चा अभिनिख्खंतो एगंतमहिडिओ भगवं ॥ ४ ॥ कोलाहल - भूयं आसिमिहिलाए व्वयं तंमि । तइया रायरिसिंमि नर्मिमि अभिनिख्खनतंमि ||५|| अभूठियं रायरिति पत्रठाण मुतं । संक्कोमाहण रूपेण इमं वयणमव्ववी || ६ || किंतुभो अज्जमिहिलाए कोलाहलग संकुला । सुच्चंति दारुणा सदा पासाएस गिहेसुय ॥ ७ ॥ एयमठ्ठे निसामित्ता हेऊकारण चोईओ । तओ नमिरायरिसी देविंद इणमन्त्री ॥८॥ मिहिलाए चेइएवये सीयछाए मणोरमे । पत्तकफलोबेए बहुबहूगुणेया ॥ ९ ॥ वाएणाहिर माणंभि बेइयंभि मनोरमे । दुहियाअसरणाअत्ता एएकंदंतिभोखगा ||१०|| मिथिला नगरी तथा देश, चतुरंग सेना, अंतःपुर तथा पोतानो सघळो परीवार छोडीने महात्मा नमि राजा दिक्षा लइने एकांतसमाजइ रह्या. [४]. ज्यारे नमि राजर्षि प्रव्रज्यार्थ [ दिक्षायें ] नगर थकी बहार नीकळया ते वखते मिथिला नगरीमां सर्व स्थाने कोलाहल मची रह्यो. (५). सर्वोत्तम प्रव्रज्या स्थानने विषे पहोंचला नमि राजपिं पासे शक्र (इन्द्र) देव ब्राह्मणनुं रुप धारण करीने आव्या अने तेमने नीचे प्रमाणे प्रश्न कर्या:- [६]. 'हे राजर्षि ! मिथिला नगरीमा आ कोलाहल शानो मची रह्यो छे ? अने महल तथा मंदिरोमां आ हृदयभेदक आक्रन्दशानुं संभळाय छे ?' (७). ए सांभळीने देवेन्द्रना प्रश्ननो हेतु अने कारण समजी लइने नमि राजपिए नीचे प्रमाणे उत्तर आप्पो. *[८]. 'हे ब्राह्मण मिथिला नगरीना उद्यानमा पत्र, फल, फूले करी सहित शितळ छायावाकुं मनोरमा नामे एक पवित्र वृक्ष छे, अने ते घणा पक्षीओनं आश्रय स्थान छे; वायराथी ए पवित्र वृक्ष मनोरमा चलायमान थवायी दुःखी पिडाता अने शरण रहित पक्षीओ आक्रन्द करे छे. ' (९-१०). * कार्य-कारणहेतुना पांच अवयव छे:- [१] मतिज्ञा. [२] हेतु. [३] उदाहरण. [४] उपनय अने [५] निगमन. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ९. ५६ एयमहं निसामिशा हेऊकारण चोईओ । तओ ननिरायारसिं देविंदोइण मब्बवी ||११|| एस अगीय वाय एयं झइ मंदिरं । भयवं अंतेउरं तेणं कीसणं नाव पेख्खह || १२ || एयमहं निसामित्ता हेउ कारण चोईओ । तओ नमीराय रिसी देविंदं इणमज्जवी ||१३|| सुहं वसामो जीवामो जेसि मोनध्थि किंचणं । मिहिलाए डझमाणीए नमे झइ किंचणं || १४ | च पुत्र कलतस्स निव्वावाररस भिख्खूणो । पिंयं नविज्जए किंचि अप्पियंपि नवि'ज्ज || १५ || बहु खुमुणिणो भदं अणगाररस भिख्खूणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगंत मणुपस्सओ || १६ || एम निसामित्ता हेउकारण चोईओ । तओ नमि रायरिसिं देविंदो इण मन्त्रवी || १७ || पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणिय । उसूलग सयग्धीओ तओ गछसि खतिया || १८ || ए सांभळीने राजर्षि नमिना हेतु अने कारणे प्रेरित एवा देवेन्द्रे नीचे प्रमाणे प्रश्न कर्णे. (११). 'हे भगवान! आ अग्नि ear प्रत्यक्ष देखा छे. तमारो महेल वळे छे. छतां तमे तमारा अंतःपुर सामुँ केम जोता नथी? ' (१२) ए सांभळीने नाम राजर्षि [ गाथा ८मी प्रमाणे ] बोल्या. (१३). ' हे ब्राह्मण ! एमां मारुं कोइ नथी एम समजीने हुं सुखी हूं अने मुखे रहुंछं. मिथिला नगरी बळी जवाथी मारुं कांइ वळतुं नथी. [१४]. ' जेणे पुत्र कलत्रादिनो त्याग करेला छे, ग्रहस्थना व्यापारथी रहित छे, तेवा साधुने कोइ वस्तु प्रिय नथी तेम अप्रिय पण नथी. (१५). 'जे मुनि अथवा घर रहित भिक्षुक ग्रहस्थना व्यापारथी अने सघळा आरम्भथी मुक्त छे, अने जे एकान्तमां रहीने मोक्ष मार्गनुं चिंत्वन करे छे तेनुं कल्याण थाय छे.' [१६]. ए सां ror देवेन्द्र ( गाथा ११ मी प्रमाणे ) [ १७ ]. ' हे क्षत्रिय ! प्रथम नगरना रक्षणार्थे कोट बंधाव, तेने दरवाजा मूकाय, नेना उपर बुरजा बनाव, तेना फरती खाइ खोदाव, युद्ध स्थान उपर शतघ्नयंत्र ( सो सुभटने एकी साथे मारी शके एव यंत्र) गोठवत्यार पछी [ दिक्षार्थी] जा ' [१८]. टीकाकार आ प्रमाणे अर्थ करे छे. पण प्रो. जेकोबी बधी गाथा मां एवो अर्थ करे छे के, ' तो तुं खरो क्षत्री कहेवाय. ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only decccccca Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000००००००००००००००००००० ५७ 2000000000000contence एयम, निसामिता हेऊकारण चोईओ । तओ नमीरायरिसी देविंद इणमब्बबी ॥ १९ ॥ सद्ध नगरं किच्चा तव| संवर मग्गलं । खंतिनिउणपागारं त्तिगत्तं दुप्पहंसगं ॥२०॥ धणुपरक्कम किच्चा जीवंच इरियं सया । धियंचकेयणं किच्चा सच्चेणं पलिमंथए ॥२१॥ तवनाराय जुत्तेणं भित्तुणं' कम्म कंचुय । मुणी विगय संगामो भवाओ परिमुच्चई ॥२२॥ एयमलु निसामित्ता हेउकारण बोईओ । तओ नभी रायरिसी देविंदो इण मन्बी ॥२३॥ १. कोई प्रतमा 'भेतूणं' छे. ए सांभळीने नमि राजर्षि बोल्या (गाथा ८मी प्रमाणे ). [१९]. धर्म तत्व उपर श्रद्धारुपी नगर वसावी, तेन फरतो क्षमारुपी कोट बांधी, तप संयमरुपी भंगळवाळा दरवाजा मूकी, ए गे २ प्रकारे किल्लाने अभेद बन यो पछी पराक्रमरुती धनुष्य धारण करीने, इरिया सुरतिरुपी तेनी प्रत्यंचा [तांत] करीने, संतोषरुपी तेनी मूठ बनावीने, सत्यरुपी बंधनयी तेनी मूठ लपेटीने परूपी लोहबाण चढावने, कर्मरुपी कवचने भेदवाथी, बुद्धिमान साधु विना मेबीने संसारथी मुक्त थाय छे. (२०-२२). ए सांभळीने देवेन्द्र बोल्या (गाथा ११मी प्रमाणे)[२३]. १. आ गाथा मुख पाठ करी राखवा ये.ग्य छे. प्रो. जेकोबीना शब्दोमां आपणे तेन पुनः स्मरीए “ Making Faith 8 bis fortress, Penance and Self-control the bolt of its gate Patience its strong wall, so that B guarded in three ways it is impreguable; making Zeal his bow, its String Carefulness in walking, and its top where the string is fastened ; Content, he should bend (this bow ) with Truth, piercing with the arrow, Penance, the foe's) mail, Karman-( in this way ) a sage will be the victor in battle and gate rid of the Samsara." २.त्रण गुप्तिनो आशय अत्र दविलो छ. ३. पांच सुमति मांदनी, हालवा चालवामां सावचती राखवानी प्रथम इरिया सुमति छे. ००००० ०००००००००००००००० .000000००००००००००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ ९. ५८ पासा काराणं वज्रमाण निहाणिय । वालग्गपोइयाओय तओ गछसि खत्तिया ॥ २४ ॥ एयमहं निसामित्ता हेउ कारण चोईओ । तओ नमीराय रिसी देविंदं इणमब्बत्री ॥ २५ ॥ संसयं खलुसो कुइ जो मग्गेकुणइ घरं | जथे गंतुमछिज्जा तथ्य ' कुब्विज्ज सासयं ॥ २६ ॥ एयमठ्ठे निसामित्ता हेऊकारण चोईओ । तओ नमी रायरिसिं देविंदो इण मब्बवी ॥२७॥ आमोसे लोमहारेय गंठिभेएय तक्करे । नगरस्स खेमं काऊणं तओ गछसि खत्तिया || २८ ॥ मनिसामा ऊ कारण चोइओ । तओ नमी रायरिसी देविंद इण मब्बवी ॥ २९ ॥ असइंतु मणुस्सेहिं छिदंडे जुंजई । अकारिणोथ्थ वर्झति मुच्चई कारगो जणो ॥ ३० ॥ एयमठं निसामित्ता हेऊ कारण चोइओ । तओ नाम रायरिसीं देविंदो इण मब्बवी ॥ ३१॥ १. पाठांतरे ' मिछेजा ' ' 'कुवेज्ज 'छे. 'हे क्षत्रिय ! प्रथम महेल, वर्द्धमान गृह ( भव्य मकानो ) अने क्रीडा स्थान बंधाव; त्यार पछी तुं [ दिक्षार्थे] जाजे. ' (२४). ए सांभळीने नाम राजर्षि बोल्या. [ गाथा ८मी प्रमाणे ]. (२५). 'हे ब्राह्मण ! जे मार्गने विषे घर करे छे, तेने भय उपजे छे. जे नगर विषे जंछे त्यांज शाश्वतुं घर [ मुक्तिरुप ] कर. [ बच्चे घर कोण करे ? 1. [२६]. ए सांभळीने देवेन्द्र बोल्या, (गाथा ११ मी प्रमाणे). (२७). 'चोर, लंटारा, तस्कर, वाटपाडु वगेरेने शिक्षा करीने, नगरने तेमना भयथी मुक्त कर, त्यार पछी हे क्षत्रिय ! (दि) जाजे. ' [ २८ ]. ए सांभळीने नमि राजर्षि (गाथा ८मी प्रमाणे ) बोल्या. [२९]. 'हे ब्राह्मण ! मनुष्यो वारंवार खोटी शिक्षा करे छ. निरपराधी विना कारण मार्या जाय छे अने चोरी करनारा छूटी जाय छे.' (३०). ए सांभळीने देवेन्द्र बोरा ( गाथा ११मी प्रमाणे ). [३१]. Jain Educationa International 5 For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...........००००००००००००००० जे केइपश्थिवातुझं ना नमंति नराहिवा । वसे ते ठावइत्ताणं तओ गछसि खतिया ॥ ३२ ॥ एयमळं निसामित्ता | हेऊ कारण चोईओ। तओ नमी रायरिसी देविंद इण मब्बवी ॥३३॥ जो सहस्सं सहस्साणं संगामेदुज्जएजिणे । | एग जिणिज्जअप्पाणं एससेपरमोजओ ॥३४॥ अप्पाणमेवबुझाहिं कित्तजुझेणबझओ। अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥३५॥ पंचिंदियाणं कोहं माणं मायंतहेवलोभच । दुज्जयंचेव अाणं सव्वमपे जिएजियं ॥३६॥ + आ गाथानी पेहेली लीटी आर्या छंदमांछे बीजी अनुष्टुप छंदमांछे. छंदनो आवो तफावत घणे स्थळे जोवामां आवे छे.. 'हे राजन! तने जे राजाओ नयता नधी तेमने वश कर, त्यार पछी हे क्षत्रिय! (तुं दिक्षार्थे जाजे). ' [३२]. ए सांभळीने नमि राजर्षि [गाथा ८मी प्रमाणे] बोल्या. (३). 'कोइ सुभट रणसंग्रामने विषे हजारो योद्धाने जीते, तेना करतां कोई पुरुष पोताना आत्माने जीते ते सौथी म्होटो सुभट कहेवाय. (३४) 'पोताना आत्मा साथे युद्ध कर. बाह्य युद्ध करवानी शी जरुरछे? आत्मा पोते पोतानेज जीते तेथी ते सुख पामे छे.२१ ३५] 'पांचे इन्द्रिओ अने क्रोध, मान, माया, लोभथी आत्माने जीतवो (मूकाववो ) ए अति दुर्लभ छे; जेणे पोताना आत्माने जीत्यो छे, तेणे सर्व जीत्युं छे एम समजवं.(३६) १-२-३-गृह शृंगार माटे वपरातां विषय वर्धक चित्रोने बदले आवां वाक्यो माटे अक्षरे लखी टांगवामां आवे तो पळे पळे तेना स्मरणथी केटलो बधो लाभ थाय? प्रो. जेकोबी ते माटे नीचे मुजब शब्दो वापरे छे. “ Though a man should conquer thousands and thousands of valiant foes ), greater will be his victory if he conquers nobody but himself. Fight with your self; why fight with external foes? He who conquers himself through himself, will obtain happiness The five senses, anger. pride, delusion and | greed-difficult to conquer is one's self;but when that is conquered everything is conquered." Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.jainedv.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ०.०००००.००० ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० | एयम; निसामित्ता हेऊ करण चोईओ। तओ ननी रायरिसी देविंदो इण मञ्चमी ॥ ३७॥ जइताविउले जन्ने भोइत्ता समणमाहणे । दच्चा भोच्चा य जि य तओ गछति खत्तिय॥३८॥ एयन, निगमित्ता हेऊ कारण चोईओ। तओ नभी रायश्सिी देविंदं इण मब्रवी ॥ ३१ ॥ जो सहस्सं सहस्सागं मामाले गदए । तत्सावि संजमोसओ अदितस्तवि किंचणं ॥ ४० ॥ एयमर्छ नि सामित्ता हेऊ कारण चोईओ । तानी रायरिसी देविदो इण मब्बबी ॥४१॥ घरासमंचइत्ताणं अन्नपच्छेसिआसमं । इहेवपोसहरओ भवाहिमणुया व ॥४२॥ एयमठं निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ। तओ नमी रायरिसी देविंद इण मब्बी ॥४३॥ मामाते उ जो बाले कुतगणंतु मुंजए | नसोसुयख्खाय धम्मरस कलं अग्धइ सोला॥४४॥ ए सांभळीने देवन्द्र बोला । गाथा ११मी प्रमाणे (३७). 'हे क्षत्रिय! महा यज्ञा कर; श्रमण-ब्राह्मणने जमाड, सुवर्णादिनां दान दे, तुं पत भोग भोगव, अने होम हवन कर. त्यार पछी दिक्ष थे जाज. (३८). ए सांभळीने नामे राजर्षि बोल्पा (गाथा ८मी प्रमाण]. [३९]. ' क इ माणस प्रति मासे दश लाख गायोनां दान दे, तथापि साधु पुरुषो जेभो कांइ दान देता नथी तेमनो संयम ए दान करता पण श्रेष्ठ छे. ४०]. ए सांभळीने देवेन्द्र बोल्या. [गाथा ११मी प्रमाणे ४१]. 'हे राजन! *घोर आश्रम (ग्रहस्थाश्रम) छोडो तुं अन्य आश्रममा दाखल थवा इच्छे छे; पण घामा रहीनन पो था करीने संताप मान.४२]. ए सांभळीने नमि राजर्षि बाल्या (गाथा ८मी माणे) [४३]. कोइ अज्ञान माण म. खमणने पारणे मात्र कुशाग्र (दर्भनी अणी उपर रहे एटलो ) आहार लइने संतोष माने, तोपण तेना तपर्नु फळ श्री भगवते भाखला चारित्ररुप धर्मना सोळमा भागना फळने पण पहोंचे नहि.[४४]. * गृहस्थाश्रमने अंगे घणा मुश्कल आ हावाथा तेन घोर-भयंकर कहेल छ, पण का रोना अभिप्राय मुजब आ शब्द नमि राजाना मुखमा विशेष शोभत. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0.०८.००८ .... एयमठं निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ । तओ नभिं रायरितिं देविंदो इण मब्यवी ॥४५॥ हिरनं सूवन्नं मणिमुत्तं ९. कंसं दूसंच वाहणं । 'कोसं वाट.इनाणं तओ गछसि खत्तिया ॥४६॥ एयरठं निसारित्ता हेऊ कारण चोईओ। । तओ नर्मि रायरिसिं देविंदं इण मब्बवी ॥४७॥ सुवन्न रुप्पस्सओ पव्वयाभवे सियाहु केलास समाअतखया! नरस्स ६१ । लुद्धस्स न तेहिं किंचि इछाहु आगाससमा अणंतिया ॥४८॥ पुढवी साली जवा चेव हिरन्नं पसुनिस्सह । पडि. पुन्ननालमेगस्स इइ विज्जा तवंचरे ॥४९॥ एयमठं निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ। तओ नमि रायरिसिं देविंदो इण मब्बी ॥५०॥ अछेरामझदए २भोएचयति पथिवा । असंते कामेपथ्येसि संकप्पेण विहन्नति ॥ ५१ ॥ एयमठं निसामित्ता हेऊ कारण चे ईओ । तओ नमी रायरिंसी देविंदं इण मब्बवी ॥५२॥ १.कोइ प्रतामाकोसंच बढ़इनाण' एवी रचना छ.२. आने बदले कोइ मत 'जाति' शब्द छे. ए सांभळीने देवेन्द्र बोल्या. [ गाथा ५ : खी प्रमाणे ] [४५]. 'रुपुं, सोनु, मणि, गाती, बांधु, सुंदर वस्त्र, रथादिक वाहन 18 अने भंडार वधार, त्यार पछी हे क्षत्रिय ! तुं (दिक्षार्थे ) जाजे.' (४६). ए सांभळीने नमि राजर्षि बोलगा. [ गाथा ८मी प्रमाणे ] [४७]. 'सोना रु ाना कैलास पर्वत जेण्डा र संख्य ढगला होय, तोपण ले.भी माणसने तेथी संतोष थतो नयी. कारण के तेनी तृष्णा आकाशनी पेठे अनंत छ । (४८). 'चोखा अने जवना पाकथी, सोना, रूपा भने पशुथी भरपूर करीने सघळी पृथ्वी एकज 18] माणसने अपो दइए तोपण तनी तृष्णा तप्त थती नथी, ए जागीने तप करई'(४९). ए साभळीने देवेन्द्र बोल्या. [गाथा ११मी प्रमाणे] [५]. 'हे पार्थिव ! आश्चयनी वात छ के आवा अदत भाग छांडीने तुं कल्पनिक [ अदृश्य ] भोगनी इच्छा करे छ. स्वर्गीय अदृष्ट सुखना लाभथी तुं प्रत्यक्ष सुख तजो दे छे तेथी तने पश्चाताप थशे. ' (५१). ए सांभळीने नमि राजर्षि बोल्या. (गाथा ८मी प्रमाणे)[२२]. .०००००००००० 20...०००००००००००००००००००० । For Personal and Prvate Use Only www.jaineheay.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लं कामा विसंकामा कामा आसी विलोवमा। कामेभोए पळे माणा अकामा जति दुग्गई।। ५३।। अहेबयइ कोहेणं माणणंअहमा गइ । माया गई पडिग्घाओ लोभाओ दुहओ भयं ।। ५४ ।। अवउझि ऊणमाहण रूवं विउविऊणं इंदत्तं । वंदइ अभिथ्थुणंतो इमाहिं महुराहिं वग्गृहि ।। ५५ ।। अहो तेनिजिओ कोहो अहोते माणो पराजिओ । ६२/8| अहो ते निरकिया माया अहोते लोभोवसीकओ ।। ५६ ।। अहोते अजवं साह अहोते साहू महवं । अहोते उत्तमाखंती अहोते मुत्ति उत्तमा ।। ५७ ।। १. 'भोए' शब्द केटलीक प्रतोमां नथी पण मास मेळववाने मात्रा मेळ करवा ते शब्दनी जरुर जणाय छे. 'हे ब्राह्मण !* ए काम भोग क्षणे क्षणे पीडा उत्पन्न करे एवा शल्य (कंटक) समान छे, ए काम भोग (धर्य जीवित विनाशक) विषम विष समान छे, ए काम भोग झेरी नाग समान छे माणसो काम भोगनी अभिलाषा करे छे पण तेमना मनोरथ पूरा थता नथी अने आखरे कामीनी दुर्गति थाय छे.[२३]. क्रोधे करीने ते अधोगतिने विपे जाय छे, माने करीने अधम गतिने पामेछ, माया सद्गतिनो नाश करे छे अने लोभे करीने आ लोके अने परलोके भय उपजे छ.५४]. ब्राह्मणर्नु रुप छांडीने, पोतार्नु खरं स्वरुप प्रकट करीने, इन्द्र आदर पूर्वक राजर्षिने नमन कयु अने मधुर बचने करीने तेमनी स्तुति करवा लाग्यो. (५५). 'अहो महानुभाव ! आपे क्रोधने जीत्यो छे. अहो पुण्यात्मा! आप माननो पराभव कर्यों छे. अहो ननि राजर्षि! आपे मायाने जीती छे. अहो साधु पुरुष ! आपे लोभने वश को छे. [५६. 'अहो.साधु पुरुष! आपनी सरलता विस्मय पमाडे एवी छे! आपनो मृदुभाव [कोमळता] आश्चर्यकारक छे ! धन्य छ आपनी उत्तमोत्तम क्षमाने ! धन्ध छ आपनी श्रेष्ठ निलोभताने ! ५७].. * प्रो. जकावी पण आ माटे एवाज असरकारक शब्दो वापर छे “ Pleasures are the thorn that rankles, pleasures are poision, pleasures are like a Venomons snakes, he who is desirotis of pleasures will not get them, and will come to a bad end at last." ००००००००००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००० annami.in Jain Education Lola anal For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० | इहसि उत्तमो भंते पेच्चा होहिसि उत्तमो । लोगुत्त मुत्तमं ठाणं सिद्धिं गछसि नीरओ ॥ ५८ ॥ एवं अभिणतो रायरिति उत्तमाण सद्धाए । पयाहिल करंतो पुणोपुणो वंदइ सक्को ।। ५९ ॥ तो बंदिऊण पाए चक्कं कुसलख्खणे मुणिवरस्स । आगासणुप्पईओ ललियचबलकुंडल तिरिडी ॥ ६० ।। नमी ननेइ अप्पाणं सख्खं सक्केण चोईओ । चइऊण गेहं वइदेही सामन्ने पज्जुबठिओ ॥ ६१ ॥ एवं करंति संबुढा पंडिया पवियख्खणा । विणियह्रति भोगेसु जहासे नमी रायरिसिं निबेमि ||६२॥ ॥ इति नमी पवद्या झयणं नवम सम्मत्तं ॥ ९ ॥ हे पुज्य : आ भवने विषे आप उत्तम पुरुष छो. हवे पछीना भवमा [परलोके । पण आप उत्तम थशो. अने सर्व लोकमां | सर्वोत्तम स्थान जे मोक्ष तेने विष कर्म रहित थइने आप निश्चे जशो (५८),आ प्रमाणे स्तुति करीने शक (इन्द्र) पूर्ण श्रद्धानी पद- | क्षिणा देतो नमि राजपिने वंदवा लाग्यो.[५९]. मुनिवरना (नमि राजाना ) चक्र' अंकुरो करी सहित [शास्त्रोक्त शुभ लक्षण युक्त पगने वंदन करीने, जणे मनोहर चपल कुंडल किरीट धारण करेलां छ एवा इन्द्र आकाश मार्गे उडया.(६०). नरिम राजर्षिए पोताना आत्माने विनय धर्मने विष स्थाप्यो. इन्द्रे जेनी प्रत्यक्ष परीक्षा करी एका नमि विदेह देशाधिपे घरबार छोडीने चारित्र [श्रमणत्व | धारण कयु. ६१]. स्वयंसम्बुद्ध, पंडित अने विचिक्षण पुरुषो मा प्रमाणे वर्ते छे. अने जेवी रीते नमि राजर्षिए काम भोगने छड्या तेवी रीते तेत्रो काम भोगधी निवर्ने छे. (६२). * नवमुं अध्ययन संपूर्ण. * ** मुळ पाठमा 'पायाहिणं' शब्द छे छतां पो. जेकोबी " Kept his right side towards lim." एम लखे छे. ११. पत्रीश लक्षणा पुरुषाने शंख, चक्र, अंकुश बीगेरे चिन्हो हाथ पगमा होय छे. 10... Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www.jairy.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200०८:०००० * अध्ययन १०. म पत्र. ........ m | दुमपत्तए पंडूयए जहा निवडइ राइ गणाण अच्चए' एवं मणुयाण जीवियं समय गोयममापमायए ॥१॥ कुसग्गे जह ओस बिंदुए थोवं चिठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयममापमायए ॥ २ ॥ इइ इत्तरियंमिआउए जीवियए बहु पञ्चवायए । विहुणाहि रयं पुरे कडं समयं गोयममापमायए ॥३॥ दुल्लहे खलु माणुसे भत्रे चिरकालेण विसव्वपाणिणं । गाढाय विवाग कम्मणो समयं गोयममापमायए ॥ ४ ॥ +OOVv००.. सदर००००००००००००००००० ॐ अध्ययन १०. ॐ जेम वृक्षतुं पाकुं पान घणां रात्रि दिवस थवाथी आखरे धरती उपर खरी पडे छे, तेम मनुष्य जीवित पण असाश्चतुं छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. (१). मेम कुशाग्रे रहेढं जळ विन्दु क्षण मात्र रहीने खरी पडे छे, तेम मनुष्य आयुज्य पण अस्थिर छ, माट हे गौतम ! कदि प्रमाद करवा नहि. (.). । आयुष्य आ त्वरित छ, जीवित अशाश्वतुं अने अनेक विघ्नो वालु छ, माटे हे मौतम! पूर्वे करेला कर्मनो क्षय करवो अने कदि प्रमाद करवो नहि. [३] लांबे काळे पण सर्व प्राणीने मनुष्यनो भत्र | मळवो अति दुर्लभ छ, कारण के गाढ तिव्र कमना फळ जीवने सदा काळ लागेलां ज छ एम समजीने हे गौतम ! कदि प्रमाद करवा नहि. [४]. * आ आवं व्याख्यान श्री महावीर देवे गौतम गोत्रना पोताना शिष्य इन्द्रभूतिने कही संभळाव्यु हतुं. इन्दभूतिने ए बोध आपवानी शा माटे जरुर पडा तेने लगती कथा टीकामां लंबाणथी अपेली छे, पण ते अहिं उतारवानी जरुर विचारी नथी. १.मो. जकोबीना आ माटेना शब्दो-"As lifeis so fleet and exhistence so precarious, wipe off all the sins you ever committed." Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ./ 3000०.००००००० पुढविकाय मइगउ उक्कोसंजीवो उसंवसे । कालं संखाइयं समयं गाय ममापमायए ॥५॥ आउक्काय मइगओ उकोसंजीवो उसंवसे । कालं संखाइयं समयं गोय ममापमायए ॥ ६ ॥ तेउकाय मइगओ उक्कोसंजीवो उसंवसे कालं संखाइयं समयं गोयममापमायए ॥ ७ ॥ वाउकाय मइगओ । उक्कोसंजीवो उसंबसे कालं संखाइयं समयं गोयममापमायए ॥८॥ वणस्सईकाय मइगओ उक्कोसंजीवो उसंबसे । कालमणतं दुरंतं समयं गोयममापमायए ॥९॥ बे इंदियकाय मइगओ उक्कोसंजीवो उसंवसे । कालंसंखेजसन्नियं समयं गोयममापमायए ॥ १० ॥ * पृथ्वीकायमां एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमा असंख्यातो काळ रहे पडे छ, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [५]. अपकायमा [पाणी ] एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमा असंख्यातो काळ रहे पडे छे, माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [६]. अग्निकायमां एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमा असंख्यातो काळ रहे पडे छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [७]. वायुकायमा एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमा असंख्यातो काळ रहे, पडे छ, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. (८). वनस्पतिकायमा एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमां अनन्तो काळ रहेवू पडे छे अने त्यार पछी पण तेनी स्थिति सुधरती नथी ( मनुष्य भव प्राप्त थतो नथी) माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [९]. द्वीन्द्रिय (काया अने जीभ) कायमा एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमां संख्यातो काळ ( हजारो वर्ष ) रहेवू पडे छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [१०]. * गाथा ५ थी ९ सुधीमां एकेन्द्रिय काय जेने मात्र स्पर्श-ज्ञानज छे तेनुं वर्णन करेलुं छे. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www .rary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ya | तेइंदियकाय मइगओ उक्कोसंजीवो उसंवसे। कालंसंखेज्जसन्नियं समयं गोयममापमायए ॥११॥ चउरिदियकाय 1 मइगओ उकोसंजीवो उसंवसे । कालंसंखेजसन्नियं समयं गोयसमापमायए ॥ १२ ॥ पंचिदियकाय मइगओ | उक्कोसंजीवो उसंवसे ।सत्तभवग्गहणे समयं गोयममापमायए ॥ १३ ॥ देवेनेरइय मइगओ उक्कोसंजिवो उ संबसे । एकेक भवग्गहणे समयं गोयममापमायए ॥११॥ एवंभवसंसारेसंसरइ सुहासुहोहकम्मेहिं । जीवोपमाय | बहुलो समयं गोयममापमायए ॥१५॥ क०००००००००००००००००००००००००००००.८ त्रीन्द्रिय (काया, जीभ अने नासिका) कायमा एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमां संख्यातो काळ रहेवू पडे | छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. (११). चउरिन्द्रिय (काया, जीभ, नासिका अने चक्षु ) कायमा एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमां संख्यातो काळ रहे पडे छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [१२]. पंचेन्द्रिय (काया, जीभ नासिका, चक्षु अने कान) कायमां एक वखत उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमां सात आठ भव सुधी रहे, पडे छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि.(१३). देवता अथवा नारकी कायमा उत्पन्न थवाथी जीवने एनी एज गतिमा 18 एक भव रहे, पडे छे. माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि (१४). * आ प्रमाणे प्रमाद वश जीव पोतानां शुभाशुभ कर्मे करीने संसारमा नवा नवा भव करतो परिभ्रमण करे छे, माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [१५]. * संसारमा परिभ्रमण वधारनार प्रमादज छे. जन्म मरणना फेरा वधारनार प्रमाद छे. प्रो. जेकोबी ते माटे एवा शब्दो वापरे छे के :-" Thus the soul which suffers for its carelessness, is driven about in the samstra 8 by its good & bad Karman. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ११ ६७ व माणस आयरियत्तं पुणराविदुलहं बहवेदसुयामिलखूया समयं गोयममापमाय ॥ १६ ॥ लध्धूणवि आयरित्तणं अहीण पंचिदिययाहु दुल्लहा | विगलिंदिय याहुदीसइ समयं गोयममापमाय ॥ १७ ॥ अहिणपंचिदिय तपसेल हे उत्तम धम्मसुइदुलहा । कुतिथि निसेबए जणे समयं गोयममापमाय ॥ १८ ॥ लघूणवि उतमंसुई सद्दहणा पुणराव दुल्लहा । मिछत्तनिसेवरजणे समयं गोयममापमाय ||१९|| धम्मंपि सद्दहंतया दुलहयाकाएणफासया । इहकामगुणेहिं मुछिया समयं गोयममापमायए ॥ २० ॥ परिजूरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते । सेसोयबलेयहायइ समयं गोयममा माय ॥ २१ ॥ कदाच मनुष्य भव प्राप्त थयो, तोपण आर्य देशमां जन्म मळवो दुर्लभ छे, कारण के ( यवनदेशमां) घणा जीव दृस्य (शुद्र, चोर) अने म्लेच्छ जन्मे छे, माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [१६]. कदाच आर्य देशे जन्म मळ्यो तोपण संपूर्ण पंचद्रियपं प्राप्त दूर्लभछे, कारण के घणां मनुष्योने एकाद वे इन्द्रियनी खोड आपणे जोइए छीएः माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [१७]. कदाच पांचे इन्द्रियो पामे, तोपण शुद्ध धर्म श्रवण दुर्लभ थइ पडे छे, कारण के घणा लोक कुतीर्थनी ' ( अन्य धर्मनी ) सेवा करता जणाय छे; माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [१८]. कदाच शुद्ध धर्मनुं श्रवण कर्यु, तो पछी ते उपर श्रद्धा चोटी दुर्लभ थइ पडे छे, कारण के घणा लोक मिध्यात्वने २ सेवे छे; माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [१९]. कदाच धर्म उपर श्रद्धा बेटी, तो पछी मन, वचन, कायाये करीने ते प्रमाणे वर्तवानुं दुर्लभ थइ पडे हे, कारण के घणा लोक संसाना भोगमा लुब्ध थइ जाय छे; माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [२०] ज्यारे तारुं शरीर जराए करीने जीर्ण थशे, अने वाळ श्वेत थशे, त्यारे तारुं श्रोत्र वळ (सांभळवानी शक्ति) ओहुं थइ जशै; माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [२१] 1. People follow heretical teachers 2. Many people are heretics. . People are engrossed by pleasures. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिजूरइते सरीरयं केसा पंडुरया हवंतिते । सेचखूबलेय हायइ समयं गोयममापमायए ॥२२॥ परिजूरइते सरीरयं । केसापंडुरया हवंतिते । सेघाणवलेय हायइ समयं गोयममापमायए ॥२३॥ परिजूरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते। सेजिझबलेय हायइ समयं गोयममापमायए ॥ २४ ॥ परिजरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते । सेफासबलेय हायइ समयं गोयममापमायए ॥२५॥ परिजूरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते । सेसव्वबलेय हायइ समयं गोयममापमायए ॥२६॥ अरइगंडंविसूइया आयंका विविहा फुसंति ते । विवडइ विद्धंसइ तेसरीरयं समयं गोयममापमायए ॥२७॥ ज्यारे तारुं शरीर जराए करीने जीर्ण थशे अने वाळ श्वेत थशे, त्यारे तारुं चक्षु-बळ क्षीण थइ जशे; माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करवो नहि. [२२]. ज्यारे तारुं शरीर जराए करीने जीर्ण थशे, अने वाळ श्वेत थशे त्यारे तारु घाण-बल [सुंघवानी शक्ति] ओर्छ थइ जशे; माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [२३]. ज्यारे तारुं शरीर जराए करीने जीर्ण थशे, अने वाळ श्वेत थशे स्यारे तारुं जिह्वा-बळ क्षीण थइ जशे; माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [२४]. ज्यारे तारुं शरीर जराए करीने जीर्ण थशे, अने वाळ श्वेत थशे, त्यारे तारुं स्पर्श-बळ क्षीण थइ जशे; माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. [२५]. ज्यारे तारुं शरीर जराए करीने जीर्ण थशेअने वाळ श्वेत थशे त्यारे तारुं सर्व बळ ओछे थइ जशे; माटे हे गौतम ! कदि प्रमाद करवो नहि. (२६). *अरति, वात प्रकोपथी उत्पन्न थतो चित्तोद्वेग , रुधिर प्रकोपथी उत्पन्न थता वमन, विरेचादि, [गंड विमुचिका, कॉलेरा] नाना प्रकारना आतंक [प्राण घातक] रोग आवी पडे छे अने शरीरने बळहीन करीने तेनो विनाश करे छे, माटे हे गौतम कदि प्रमाद करवो नहि. [२७] ०००००००००००००००००३.. | *. Despondency-आशा भंग. १. प्रो. जेकोबी तेनो King's evil-कंठमाळ अर्थ करे छे. टीकाकार 'चित्तोद्वेग"लखे छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल वोछिंदसिणेह मप्पणो कुमुयं सारइयंवपाणियं । सेसव्वसिणेह वज्जिए समयं गोयममापमायए ॥ २८ ॥ चिच्चाएंधणंच भारियं पवईओ हिसि अणगारियं । मावंतंपुणो विआइए समयं गोयममापमायए ॥ २९ ॥ अवऊज्जियमित्तबंधवं विउलंचेव धणोहसंचयं । मातंबिइयंगवेसए समयं गोयममापमायए ॥३०॥ नहु जिणे अज्जदिस्सई बहु मएदिस्सईमग्गदेसिए । संपईनेयाउएपहे समयं गोयममापमायए ॥३१॥ 20.००००००००० ० 60००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० हे गैातम!- जेम कमल पत्र २ शरद रुतुना जळ बिन्दुनो पण स्पर्श करतुं नथी तेम तुं स्नेह बन्धनने तजी दे; सर्व स्नेह [ राग] त्यागवो अने कदि प्रमाद करवो नहि. (२८). हे गौतम ! धन अने भार्यानो त्याग करीने तें साधुत्व ग्रहण कर्यु । छे, तो पछी जे काम भोगनुं तें वमन कर्यु छ, तेनो फरीथी अंगीकार करीश नहि अने कदि प्रमाद करीश नहि. [२९]. हे गौतम । तें मित्र, बांधवादि तज्या छ, अने संचेला द्रव्यनो पण त्याग करेलो छ, तो हवे फरीथी तेनी इच्छा करीश नहि अने कदि प्रमाद । | करीश नहि. ३०]. वत्तमानकाळे कोइ केवळ ज्ञानी [जिन] नजरे आवता नथी, तो पण मुक्ति-मागे देखाडनार (ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि साधु धर्म) छे तुं हमणां मोक्ष मार्गने विषे विचरे छे, एम जाणीने हे गौतम ! कदि प्रमाद करीश नहि. [३१]. २. शरद रुतुर्नु जळ निर्मळ अने मनोहर होवा छतां ने कमळ पत्रने लोभावी शकतुं नथी, तेम संसारनो स्नेह जीवने मनोहर लागे छे, छतां तेमां लुब्ध थर्बु न जोइए एवो भावार्थ छे. ३. श्री महावीर भगवान पोते केवळ ज्ञानी होवा छतां वर्तमान काळे कोइ केवळ ज्ञानी नथी' एम ते पोतेज बोले ए समजी शकातुं नथी. आ उपरथी टीकाकार तेमज प्रो. जेकोबी शंका करे छे कांतो आगाथा पाछळंथी- के जे वखते केवळ ज्ञानी नहि होय त्यारे उमेराइ हशे अथवा नवमा अध्ययननी ४२ भी गाथा मुजत्र भूल यंती हशे. Jain Education Infomational For Personal and Private Use Only www.janory.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. उ. अ. अवसोहिय कंटयापहं उत्तिन्नो सिपहं महालय । गछसि मग्गविसोहिया समयं गोयममापमायए ॥ ३२ ॥ अबले जहभारवाह मामग्गेविसमे बगाहिया। पछापछाणु तावए समयं गोयममापम्भाय ॥ ३३ ॥ तिन्नोहिसि अन्न महं किंपुण चिठसितीरमागओ । अभितुरपारंगमित्त समयं गोयममापमायए ||३४|| अकलेवर सेणिमुस्सिया सिद्धिं गोयमलोयं गछसि । खेमंचसिवंअणुत्तरं समयं गोयममापमायए ||३५|| ७० जे मार्गमांथी [ पाखंड रुपी ] कंटक दूर करेला छे एवो (सम्यकरूपी ) महा मार्ग तने प्राप्त थयेलो छे, माटे हे गौतम! मुक्ति मार्ग विषे चाल्यो जा अने कदि प्रमाद करीश नहि. (३२). * निर्वळ भार वाहकनी माफक तुं विषम मार्गे वहीश नहि; नहि तो तने पाछळी पश्चाताप थशे. माटे हे गौतम! कदि प्रमाद करीश नहि. (३३). हे गौतम ! तुं संसार २ समुद्र तरी गयो छे, हवे कांठे आवीने शा माटे अटकी बेसेछे ? त्वराधी भव पार उतरी जा अने कदि प्रमाद करीश नहि. (३४) क्षपक श्रेणीने विषे संयमथी उत्तरोत्तर चढीने अंते तुं सिद्ध लोकने विषे पहोंचीश४. ए सर्वोत्तम मुक्ति क्षेम कल्याणनी करणहार अने उपद्रव रहित छे, माटे हे गौतम कदि प्रमाद करीश नहि. [३५]. * जेम कोइ भार वाहक सुवर्णादि धन तो बोजो माथे लइने विषम मार्गे जतो होय अने घर नजीकमां होवा छतां ते बोजो कंटाळीने फेंक दे, अने पछीथी जेम तेने पश्चाताप थाय, तेम पंच महाव्रतनो भार युवावस्थारुपी विषम मार्गमां वहन कर्या छतां, पाछळथी ते फेंकी देवाथी (भंग करवाथी ) तने पेला भार वाहकनी माफक पश्चाताप थशे एवो भावार्थ छे. २. Uneven road. ३. अकलेवर श्रेणि. ४. प्रो. जेकोबी आ माटे नीचेना शब्द वापरे छे :- " You have crossed the great ocean; why do you halt so near the shore? make haste to get on the other side." Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धे परिनिबुडे चरे गामगएनगरेव संजए । संतिमग्गं चबृहए समयं गोयममापमायए ॥३६॥ बुद्धस्सनिसम्म भासियं सुकहियमठ्ठपऊवसोहियं । रागंदासंचछिंदिया सिद्धिंगइंगएगोयम तिबेमि ॥३७॥ ७ इति दुम पत्तय झयणं दसमं सम्मत्तं ॥ १० ॥ * बुद्ध अने निवृत्त साधु संयम तत्वने बराबर जाणतो थको गाम अने नगरने विषे विचरे छे अने भव्य जनोने शान्ति मार्गनो उपदेश करे छे, माटे हे गौतम कदि प्रमाद करवो नहि. [३६]. बुद्ध श्री महावीर दे,वनी सुभाषित अने उपमा द्रष्टांते करी अलंकृत | वाणी सांभळवायी गौतम राग द्वेषने छेदीने सिद्धिने पाम्या. [३७]. * ॥ दशसुं अध्ययन संपूर्ण ॥ For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5अध्ययन ११. बहुश्रत वर्णन. ( संजोगाविप्पमुकरस अणगाररसभिखूणो । आयारंपाउकरिस्सामि आणुपुर्दिवसुणेहमे ॥१॥ जेयाविहोइ निविज्जेथडे लुद्देअणिग्गहे अभिवणं उल्लवइ अविणीएअबहुस्सूए ॥२॥ अहंपंचहिंठाणेहिं जेहिंसिखानलभइ । थभाकोहापमाएणं रोगेणालस्सएणय ॥३॥ अहअहिंठाणेहिं सिखासीलेत्तिवुच्चइ । अहस्सेिरेसयादते नयमम्ममुदाहरे ॥४॥नासीले नविसीले नसिया अइलोलुए । अकोहणेसच्चरए सिखासीलेत्ति वुच्चई ॥५॥ अध्ययन ११. * जेणे बाह्य अने अन्तर सर्व संयोगो* छांड्या छे एवा घर रहित साधुनो आचार अनुक्रमे प्रकट करु छ ते सांभळो. [१ जे साधु विद्या रहित छे, अहंकार करे छ, रसादिमां लुब्ध रहे छ, इन्द्रियोने अंकुशमां राखी शकतो नथी अने अति वाचाळ छे, । एवो साधु अविनित कहेवाय, ते बहुश्रुत गणाय नहि. [२]. पांच पकारे शिक्षा ग्रहण थइ शक्ती नथी; ते पांच स्थानना नाम: (१) गर्व, [२] क्रोध, (३) प्रमाद, (४) रोग अने [५] आळस. [३]. आठ प्रकारे साधु शिक्षा सील गणाय छे:-(१) हास्य तजवाथी, [२] इन्द्रिय निग्रहथी, [३] पारकी निंदा न करवाथी, (४) अशील वर्जवाथी [शील राहेत न थवाथी], () विशील | वर्जवाथी (शील-आचार विरुद्ध न वर्तवाथी) [६] अति लोभ न करताथी, (७) क्रोध न करवाथी, अने (८) सत्य उपर प्रेम राखवाथी. ए आठ प्रकारे बहुश्रतपणुं प्राप्त थाय छे.[४-५] * प्रथम अध्ययननी प्रथम गाथामा “संयोग"नी समजण आवी गइ छ. १ Egoistical २ Discipline 1813 Cholerie. Jain Education International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ११. ७३ 000000 00000 अहच उदसहिठाणेहिं वट्टमाणेउसंजए । अविणीए बुच्चइ सोउ निव्वाणंचनगछ || ६ || अभिखणं कोही हवइ पबंधंचपकुई । मित्तिज्जमाणो मई सूर्यलधूणमज्जई ॥७॥ अविपावपरिखेवी अविभित्तसुकुप्पई । मुप्पियस्सावीमित्तस्स रहेभासइ पावगं ||२|| पइणवाइदुहिले थलुहे अणिगृहे । असंविभागी अवियत्ते अविणीति वच्चइ || ९ || अह पन्नरसहि ठाणेहिं सुविणीएत्ति तुच्चई । नीयावित्तीअचवले अमाइ अकुतूहले || १० | अपंचाहि खिवइ पबंधंचनकुव्वई नीचेना' चौद प्रकारे वर्तनार साधु अविनीत कहेवायछे अने ते निर्वाणने विषे पहोंची शकतो नथी:- (१) वारंवार क्रोध करे. (२) दीर्घकाल क्रोध राखे. (३) मित्रनी शीखामण माने नहि. (४) शास्त्र भगीने (ज्ञाननो) मद करे; (५) पारकानां छिद्र खोले. (६) पोताना मीत्र उपर पण कोष करे. (७) पोताना गाढ मित्रनुं पछवाडेथी ब्रूरुं बोले. (८) 'निश्चयात्मक भाषा वोले. (९) मित्रादिकनो द्रोह करे. (२०) अहंकार करे. (११) रसादिमां लुब्ध रहे. [१२] इन्द्रिय निग्रह न करे. [१३] बीजा साधुओने ( आहार वगेरेना) सरखा भाग न आपे, अने [१४] अप्रीति करे; एवो साधु अविनीत कहवाय. [ ७-९ ]. पण नीचेना पंदर गुणेयुक्त साधु सुविनीत कहेवायः - [१] नम्र [२] चपलताररहित. [३] माया रहित. [४] कुतूहल 'रहित. [५] कोइने कठोर वचन न कहे. [६) दीर्घरोपी न थाय. [७] मित्रनी शिखामण माने. [८] शास्त्र मणीने (ज्ञाननो) मद करे नहि, [९] पारकी निंदा करे नहि. [१०] १. Positive in this assertion पूर्ण विचार विना वातने वळगी रहेवानो भावार्थछे. ए चौद स्थानक माटे टीकाकार नीचेना शब्द वापरेछे. १. क्रोधः २ क्रोध स्थिरी करणं ३ मित्रत्वस्य वचनं त्यजनं ४ विद्यामदः ५ परछिद्रान्वेषणं ५ मित्राय क्रोधस्योंत्पादनं ७ प्रिय मित्रस्यैकान्ते दुष्ट भाषणं मुखे मिष्ट भाषणं ८ अविचार्य भाषणं ९ द्रोह कारित्वं १० अहं कारित्वं ११ लोभित्वं १२ अजितेन्द्रियत्वं १३ असम्बिभागित्वं १४ अप्रीतिकरत्वं २ Steady ३-४ Free from deceit & curiosity. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. मित्तिज्जमाणोभयइ सुर्यलध्धुंनमज्जाई ॥११॥ नयपावपरिखेवी नयमित्तेसकुप्पई । अप्पियस्साविमित्तस्स रहेकल्लाणभासइ ॥१२॥ कलहडमरवज्जए बुहे: अभिजायए हिरिमंपडिसलीणे सुविणीएत्ति बुच्चई ॥ १३ ॥ वसेगुरुकुलेनिच्छ जोगवं उवहाणवं । पियंकरेपियंवा इ सेसिखलडुमरहई ॥ १४ ॥ जहासंखंमिपयं निहितं दुहओविविरायई । एवं बहुस्सुए भिख्खूधम्मो कित्तितहा, 'सुर्य।।१५॥ जहासे कंबोइयाणं आइणे कंथएसिया । आसेजवेणपवरे एवं हवई बहुस्सुए ॥१६॥ जहाइण समारूढ़े सुरेदठ्ठपरक्कमे । उभओ नंदिघोसेणं एवंहवइ बहुस्सुए ॥१७॥ मित्र उपर कोप करे नहि. [११] खराब मित्रनु पण तेनी पीठ पाछळ बूलं बोले नहि. (१२) कलह (कजिया-टंटा) करे नहि. १३] गुरुनी सदा सेवा करे. (१४) लज्जावंत होय. अने (१५) स्वभावे शान्त होय; एवो साधु सुविनीत कहे वाय. (१०-१३). जे नित्य पोताना गुरु कुळने विषे वसे छे, जे सूत्र पठनादिमां योग्यवान उत्साही अने उपधानवान-उत्कंठीत छ, जेनां वाणी अने कृत्य प्रिय थइ पड़े एवां छे, 'वो सुविनीत शिष्य शिक्षाने योग्य रंगणाय छे. (१४). जेम दूधे भरेलो शंख बहारथी अने अंदरथी बन्ने तरफ उजवळ देखाय छे तेम बहु श्रुत साधु धर्म, कीर्ति अने ज्ञाने करीने शोभे छे. (१५). जेम कम्बोज देशनो सुजात अश्व कशा अवाजथी भडकतो नथी अंने जेम बीजा अश्वोथी वेगमां ते अधिक गणाय छे, तेम बहु श्रत साधु अन्य साधुओथी श्रेष्ट गणाय छे.प[१६] कोइ शुरवीर अने पराक्रमी सुभट सुजात अश्व उपर आरुढ थइ, बन्ने बाजुए द्वादश तूरीना नाद बच्चे जेम विजय मेळवे छे, । तेम बहु श्रुत साधु पण क्याइ पराजित थतो नथी. [१७]. 1 Decent PDeserves to be instructed-विद्या आपवाने लायक. मूळमां 'दूध' होवां छतां प्रो.जेकोबी'पाणी' लखे छे. ४ कंथक जातना सर्वोत्कृष्ट अश्वनी अहिं उपमा आपी छे. ५ आ वाक्य ३० मी गाथा सुधी ध्रुपदनी पेठे छे. Jain Educationa intemtional For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ११. ७५ १ 'जहा करेणु परिकिणे कुंज्जरे सठ्ठि हायणे । बलवंते अप्पाडहए एवं हवइ बहुस्सुए ||१८|| जहा से तिख्ख सिगें जाखं वियई । वस जूहाहिवई एवं हवइ बहुस्सु ॥ १९ ॥ जहासेतिख्ख दाढे उदग्गे दुप्पहंसए। सिहे मियाण "वरे एवं हवइ बहुस्सु ॥२०॥ जहा से वासुदेवे संख चक्क गयाधरे । अप्पडिहय बले जोहे एवं हवइ बहुस्सुए ॥२१॥ जहासे चाउ रंते चक्कवट्टी महिदिए । चउदस रयणा हिवई एवं हवइ बहुस्सुए ||२२|| जहा से सहसंखे वज्जपाणी पुरंदरे । सक्के देवा हिवई एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २३ ॥ जहा से तिमिरबिसे उत्तिते दिवायरे । जलते इव एणं एवं हवइ बहुस्सु ॥ २४ ॥ १. कोइ प्रतोमां 'जहासे 'छे. हाथणीओना परीवारमां म्हालता साठ वर्षन । बळवान हाथीने जेम [तेना) बीजा (शत्रु) हाथीओ पराजित करी शकता नथी, तेम सानो पण कोइ पराभव करी शकर्तुं नथी. [१८). जम तीक्ष्ण शींगडावाळो अने स्थूल स्कन्ध (गरदन) वाळो वृषभ गायना युथमां शोभे छे, तेम बहु श्रुत साधु पण शोभे छे. [१९]. जेम तीक्ष्ण दाढवाळो बलवंत दुर्जय सिंह सर्व पशुओम श्रेष्ठ गाय छे, ते बहुश्रुत साधु पण सर्व मनुष्योमां श्रेष्ठ गणाय छे. [२०], जेम शंख, चक्र, गदा, धारण करनार वासुदेव अप्रतिहत बळी (बाह्य) शत्रुने जीते, तेम (ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी त्रण रत्नो धारण करनार) बहु श्रुत साधु पण पोताना ( अन्तरना ) शत्रुने जीते छे. [२१]. चतुरंगिणी सेना अने महाद्विनो धणी, अने चौद रत्न (अने नव निधान)नो अधिपति चक्रवत्तिं राजा जेवां सुख भोगवे छे, तेवां सुख बहु श्रुत साधु पण (दान, शील, तपादिए करीने) भोगवे छे. [२२]. जेम सहस्र नेत्रनो धणी, वज्रनो धारण करनार, दैत्य नगरने दमनार, शक्र (इन्द्र) सर्व देवनो अधिपति गणाय छे, तेम बहु श्रुत साधु पण सर्व साधुमां श्रेष्ठ गणाय छे. [२३] जेम सूर्य अन्धकारनो नाश करे छे, अने तेजथी देदीप्यमान जणाय छे तेम बहुश्रुत साधु मिथ्यात्वरूपी अन्धकारनो नाश करे छे, अने पोताना तपे करीने प्रकाशे छे. [२४]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ... जहासे उडुवइ चंदे नख्खत्ते परिवारिए । पडिपुन्ने पुन्नम्मसिए एवं हवइ बहुस्सुए ॥२५॥ जहासे सामाइयाणं 8 कोठागारेसु रख्खिए । नाणाधण पडिपुन्ने एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २६ ॥ जहासा दुमाण पवरा जंबूनाम सुदंसणा । Ma अणाढियस्स देवस्स एवं हवइ बहुस्सुए ॥२७॥ जहा सा नईण पवरा सलिला सागरं गमा । सीयानीलवंत पवहा Ma एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २८ ॥ जहासे नगाण पवरे सुमहं मंदरो गिरी । नाणो सहि पज्जलिए एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २९ ॥ जेम उडुपति चंद्र नक्षत्रना परिवार सहित पूर्णमानी रात्रे (सोळ कळाथी) शोभेछ, तेम बहु श्रुत साधु पण (साधुओना परिवारमा सर्व धर्म कळाथी) शोभे छे. [२५]. जेम चोर, मुषकादिना उपद्रव सामे सुरक्षित अने नानां प्रकारनां धान्यथी भरेला 18गृहस्थोना कोठार शोभे छे, तेम बहु श्रुत साधु पण शोभे छे. [२६]. जंबूद्वीपना अधिष्ठाता देव ज्यां वास करी रहेला छे, अने जे सर्व वृक्षोमां श्रेष्ठ गणाय छे, एवा जंबु' अथवा सुदर्शन वृक्षनी माफक बहु श्रुत साधु शोभे छे. [२७]. जेमनील पर्वतमाथी उत्पन्न थती अने समुदमां वहेती सीता नदी सर्व नदीओमा श्रेष्ठ गणाय छे, तेम बहुश्रुत साधु पण अन्य साधुओमां श्रेष्ठ गणाय छे. [२८]. जेम सर्व पर्वतोमांश्रेष्ठ एवो मन्दरो-मेरु पर्वत नाना प्रकारनी औषधीना प्रभावथी शोभे छे, तेम बहु श्रुत साधु पण जिनशासनना | प्रभावना प्रकाशकरुप शोभे छे. [२९]. १ The queen of the stars. २. Eugenie Jambu टीकाकार कहे छ के आ वृक्ष उपरथी जंबुद्वीप नाम पडेल | छे. ३, आने बदले प्रो. जकोबी लखे छे के- 'पोताना नील जळ सहित'.४. जैन सृष्टि विद्या वर्णन प्रमाणे हिमालय पर्वतनी दक्षिण तरफनी शाखाना नील पर्वतमाथी नीकळी सीता नदी पूर्व महासागरमा मळे छे. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ११. ७७ जहासे सयंभू रमणे उदही अख्खओदए । नाणा रयण पडिपुन्ने एवं हवइ बहुस्सुए ॥ ३०॥ समुद्द गंभिरसमा दुरासवा अचक्किया केणइ दुप्पहंसया । सुयरस पुन्ना विउलस्स ताइणो खवित्त कम्मं गइमुत्तमंगया ॥ ३१ ॥ तम्हासुय मज्जा उत्तम गए । जेणप्पाणं परंचेव सिद्धिसंपा उणिज्जासि तिबेमि ॥ ३२॥ ॥ इति बहुस्सुय पुझ झयणं एकारसंमं समंतं ॥ ११ ॥ 'अक्षय जळथी भरेलो अने स्वयंभुनुं रमणस्थान जे समुद्र ते जेम नाना प्रकारना रत्नोथी भरेलो छे, तेम बहु श्रुत साधु पण अक्षयज्ञानरुपी रत्नोथी भरेलो छे. [३०]. जे साधु समुद्रनी पेठे गंभीर छे, जे (अन्य मागीनां) कपट कृत्योथी उगाता नथी, परिसहो जेने त्रास उपजावी शकता नथी, जेओ सिद्धान्तना ज्ञानमां पूरा छे, अने जेओ जीवना रक्षक छे, एवा बहुश्रुत साधु सर्व कर्मनो क्षय करीने उत्तम गति [मोक्ष]ने विषे जाय छे. [३१]. तेटला माटे हे उत्तमार्थ गवेषको ! [ मोक्षना अभिलाषी पुरुषो] सिद्धान्त भणो आत्माने अने अन्य जीवोने सिद्धि प्राप्त करावो. २ [३२]. पोत अग्यारमुं अध्ययन संपूर्ण * १. • The Delight of Svayambhu' ए वाक्यनो भावार्थ Vishnu's sleeping on ocean' ने कांइक मळतो आवे छे. २. मो. जेकोबीना शब्दो- “ Therefore, seeker after the highest truth, study the sacred lore, in order to cause yourself and others to attain perfection. " Jain Educatiemational For Personal and Private Use Only www.jamenary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १२. ७८ अध्ययन १२. हरिकेशीबलनुं आख्यान. सोवागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी । हरिएसबलो नाम आसि भिख्खू जिइंदिओ ॥ १ ॥ १. हरीकेश [ The yellow haired] चांडालनी एक जाति छे. गंगा नदीना कांठा परना प्रदेशमां चांडाल जातिना एक राजानो बल; पुत्र हो जेथी ते हरीकेशवळ कवायो, तेनुं आगलुं जीवन जाणवाथी आ अध्ययन समजं सुगम थशे. हरीकेशबळ जैन मुनी थया पछी विहार करतां एक वखते बनारस नजीकनी तीनदुग गुफामां जइ पहोंच्या. ज्यां रहेवो यक्ष तेनो अनुयायी थयो. एक दीवसे कौसीक राजानी कुंवरी भद्रा आ यक्षनां दर्शनायें त्यां आवी. यक्षने वंदन कर्तुं पण आ मेलां वस्त्रवाळा मुनीने जो तेने तिरस्कार उपज्यो . यक्ष आथी गुस्से थयो अने कुंवरीना शरीरमां पेटो. पवित्र मुनीनुं मान न जाळववानी शिक्षा खासर कुंवरीने अनेक कष्ट सहन करवां पड्यां अने कोइ औषधीथी तेने आराम थयो नहि. ज्यारे कोइ उपायथी आ यक्षे तेनुं शरीर छोयुं नहि त्यारे कुंवरीना आजीजीथी यक्षे छेवटनो उपाय बताव्यो के हरीकेशबळने परण, राजाना घणा आग्रह छतां मुनी श्रीए परवानी ना' पाडतां छेवटे राजाना पुरोहित रुद्र देवने ते परणाववामां आवी. आ पुरोहितनी यज्ञशाळामां जे वार्तालाप थयो छे तेनो आ अध्ययनमां संबंध छे. अध्ययन १२. हरिकेशवळ चांडाल (श्वपाक) कुळने विषे जन्म्यो हतो. ते सर्वोत्तम गुणने धारण करनार, जिनाज्ञापालक जितेन्द्रिय मुनी थयो. (१). Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. इरिएसणभासाए उच्चारे समिईसुय । जओ आयाण निख्खेवे संजुओ सुसमाहिओ ॥ २ ॥ मणगुत्तो वयगुत्तो ।। कायगुत्तो जिइंदिओ । भिख्खछाबंभइज्जमि जणवाड मुवष्ठिओ ॥ ३ ॥ तं पासिउणमेजतं तवेण परिसोसियं । । पंतोवहि उबग्गरणं उवहसंति अणारिया ॥४॥ जाइमय पडिवडा हिंसगा अजिइंदिया । अबंभचारिणो बाला इमं । वयणमब्बवी ॥ ५ ॥ कयरे आगछइ दित्तरूवे काले विकराले पोक्कनासे । उमचेलए पंसु पिसायभूए संकरदूस। परिहरिय कंठे ॥६॥ ००००००००००००००००० गमनागमन व्यवहारमां, आहार व्होरवामां, बोलवा चालवामां, मळ मूत्रादि क्रियामा, वसपात्रादि लेव। राखवामा संयमना नियम प्रमाणे वर्त्ततो, समाधिनस्त रहेतो अने सत्तर भेदे संयम पाळतो. [२]. मन, वचन, कायाये करीने गुप्त (त्रणे प्रकारे पापथी सूराक्षत) एवो ते जितेन्द्रिय पुरुष, एक व बत, ब्रामगोज्यां यज्ञ करता हता त्यां जई पहोंच्यो. [३]. तपे करीने जेनो देह सूकाइ ख्येलो छ, जेणे जीर्ण, मलीन वस्रो धारण करेला छे, एवा हरिकेशने आवतो जोइने अनार्य [ दुष्ट ब्राह्मणो हसवा लाग्या.[४].181 जाति मदथी उन्मत्त थयेला, जीत्र हिंसा करनारा, अजितेंद्रिय, अब्रह्मचारी, विषयासक्त, मूर्ख ब्राह्मणो साधुने जोइने नीचे प्रमाणे बोलव। लाग्या :-(५). अरे विकराळ [ मूळमां मश्करी रुपे 'दीप्तरुप' शब्द वापर्यो छे] आदमी तुं कोण छ? अने अहिं शा माटे आव्यो छ ? काळा वर्णवाळो, दैत्य जेवो विकराल, म्होटा दांत वालो, चपटा नाकवाळो, मलीन वस्त्रवाळो, धूळयी भरेलो, उकरहे पडेलां जीर्ण वस्त्र पहेरीने कोइ पिशाच हिं आवेलो जणाय छे. [६]. 20०००००००००००००० १.पांच मुमति, २.त्रण गुप्ती. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००० कयरे तुम इय अदं सणिज्जे काएव आसाएइह मागओसी। उमचेलगा पसुपिसायभूया गछ खलाहि किमिहिंठिओसि।।। ३ जख्खो तहिं तिंदुयरुख्खवासी अणुकंपओ तस्स महामुणिस्स। पछायइत्ता नियगंसरीरं इमाइं वयणाई मुदाहरिथ्था॥८॥ समणो अहं संजओबंभयारी विरओ धणपयण परिग्गहाओ। परप्पवित्तस्सओभिख्खकाले अणस्स अठा इहमाग ओसि।९। B वियरिज्जइखज्जइ भुंजइय अणंपभूयं भवयाणमेयं । जाणाहिमेजायण जीवणोत्ति सेसावसेसं लहओ तवस्सी ॥१०॥ उवख्खडंभोयण माहणाणं अत्तठ्ठियं सिहमिहेगपख्खं । नउव्वयंएरिसमणपाणं दाहामुतुम्म किमिहीठओसि ।।११।। अरे पिशाच! तुं कोण छ ? अने आ यज्ञशाळामांशी इच्छाथी आव्यो छ ? मेलथी भरेलां वस्त्र अने धूळथी भरेला शरीरवाला भूत! अहिंथी चाल्यो जा! केम उभोछे?[७].ए वखते ते यज्ञवाडामा एक तिंदुक नामतुं वृक्ष हतुं अने तेमां एक यक्ष वसतो हतो; तेने 18 ते साधु उपर दया उपजी, तेथी पोतार्नु शरीर अदृश्य करीने, *ते साधुना शरीरमा प्रवेश करीने,* ते नीचे प्रमाणे बोल्यो:-[८]. 8 “हुं शुद्ध श्रमण छ; ब्रह्मचारी छ; धन, परिवारना परिग्रहथी मुक्त छ; मारा पोताने माटे खोराक रांधतो नथा; अन्यने माटे निपजावेल आहार, पाणी भिक्षाकाळे व्होरं छु, अने ते कामने माटे अत्यारे अहिं आव्यो छ: [९]. तमे न्हाना प्रकारनां भोजन जमो 8 छो अने अन्यने आपो छो; तमारे त्यां भोजननी न्युनता जोवामां आवती नथी हुँ भिक्षाथीज म्हारो निर्वाह चलावुलु. शुद्ध आ हारनो अवशेष भाग बाकी रह्यो होय तोते आ तपस्वीने आपशो? (०).ए सांभळीने ब्राह्मगो बोल्या, 'ए भोजन ब्राह्मणोने माटे ब| नावटुं छे. वळी ते खास अमारा माटेज तैयार करेठे होवाथी बीजाने [तारा जेव! शुद्रने] अपाय नहि. माटे ए आहार, पाणी अमे 18 तने आपवाना नथी. नकामो शा माटे उभो रहे छे?' (११). * प्रो. जेकोबीए आटलो भाग मूकी दीधो छे. पांच शरीर महिन विक्रय शरीर देवताओ अने नारकीना जीवाने होय छे । जेथी तेओ शरीर नानां मोटा करी शके छे. Join Education Interational For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १२. ८१ थलेसुबीयाईववंतिका सगा तचनिनेसुयआससाए । एयाए सच्धाएद लाहिमम्भं आहए पुणमिणंखुखेत्तं ||१२|| खेत्ताणिअम्हंविदियाणिलोए जहिंप किन्नाविरुहंतिपुणा । जेमाहणा जाइ विज्जोववेया ताईतुरखेत्ताइं सुपेसलाई ॥ १३ ॥ कोहोयमाणोय होय जेसिं मोसंअदत्तंचपरिग्गहंच । तेमाहणाजाइ विज्जाविहृणा ताईतुखेाई सुपावयाई ॥ १४ ॥ भोभारहरागिणं अ नजाणाह अहिज्जवेए ! उच्चावयाइं मुणिणोचरति ताइतुरखेत्ताई सुपेसलाई ॥ १५ ॥ अझावयाणं पडिकूलभासिपभास से किंतुसगासिअम्हं । अविएयंविणस्सओ अनुपाणं नयणं दाहामुतुमंनियंठा ॥ १६ ॥ ए सांभळीने यक्ष [ साधु शरीरे ] बोल्यो, “जेम कोइ खेडत धान्य मेळववानी आशाथी उच्च भूमिमां तेमज नीच भूमिमां पणी वावेछे. दृष्टांत लक्षमां लइने तमे मने पण आपो. पण कदाच पवित्र क्षत्र होइश तो [तमारां पुण्यनुं] तमने फळ मळशे. " [१२]. ए सांभळीने ब्राह्मणो बोल्या, 'अमे [ ब्राह्मणोज ) उच्च क्षेत्र छीए एम सहु कोइ जाणे छे, जे क्षेत्रने विषे वाववाथी पुण्य उगी नीकळे छे; उत्तम जातिना अने विद्वान ( वेद पारंगत ) ब्राह्मणोज मनोहर क्षेत्र छे. ' (१३). ए सांभळीने यक्ष बोल्यो, "जेओ ara अने मानधी भरेला छे, जेओ प्राणी वध करे छे, जेओ मृषावाद बोले छे, अदत्तादान ले छे, परिग्रह सेवे छे, एवा ब्राह्मणो जाति अने विद्या हीन छे, एवां ब्राह्मण क्षेत्र अति पापरूप छे. [१४]. “ तमे ब्राह्मणो तो केवळ शास्त्र अने ब्राह्मण नामनो भार छो. वेदभया छो पण तेनो अर्थ समजता नथी. साधु पुरुषो उच्च अने नीचने घेर भिक्षार्थे जाय छे, तेज खरां पुण्य क्षेत्र छे.. (१५). ए सांभळीने ब्राह्मणो बोल्या, 'अरे दरिद्री ! अमारी उपाध्यायनी सन्मुख आवां निंदा अने क्रोधनां वचन उचारनार तुं कोण? आ अन्न, पाणी सडी जाय ते भले, पण हे निग्रंथ! अमे तने आपवाना नथी. [१६]. * 'निग्रंथ' शब्द अहं बेवडा अर्थमां वपरायेलो छे :- (अ) त्यागी. (ब) शरम रहित नि-विना ग्रंथ-गांठ Without restraint-Shameless. ૧૧ For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 09099999-002990902006oo09 1] समिईहिंमझं सुसमाहियस्स गुत्तिहिंगुत्तस्सजिइंदियस्स । जश्मेनदाहिथ्य अहेसणिज्ज किमज्ज जन्नाणलभिया लाभ ॥१७॥ केइथ्थखत्ताउवजोइयावा अझावयावासहखंडिएहिं। एयंतुदंडेणफलेणहंता कंठमिधित्तूण खलेजजोणिं ॥१८॥ 18| अज्जावयाणं वयणं सुणित्ता उद्धाइयातचबहूकुमारा । दंडेहिंवित्तेहिंकसेहिंचे। समागयातंइसितालयंति ॥ १९ ॥ रन्नोतहिकोसलियस्सधूया भद्दत्ति नामेणअणिंदियंगी । तंपासियासंजय हम्ममाणं कुडेकुमारेपरिनिव्ववेइ ॥ २० ॥ देवाभिओगेणनिओइएणदिन्नामुरनामणसाणझाया नरिंददेविंदभिवंदिएणजेणामिवंताइसिणासएसो ॥ २१ ॥ 18 ए सांभळीने यक्ष बोल्यो, “हुँ त्रण गुप्तिए गुप्त [मन, वचन, कायाये] अने पांच समितिए समित छु अने पांच इन्द्रिओने वश करुं छु २, एवा साधुने तमे सूझतो आहार नहि व्होरावो तो आ यज्ञनुं फळ तमने शी रीते मळशे?" [१७]. ए सांभळीने ब्राह्मणो बोली उठ्या 'अहिं कोइ क्षत्री, अग्निरक्षक, अध्यापक, अथवा तो पोताना शिष्यो सहित कोइ उपाध्याय नथी के जेओ आ निग्रंथने दंड अने बिल्ली फळथी मारीने, गरदन पकडीने बहार काढी मूके?' [१८] अध्यापकोनां आवां वचन सांभळीने केटलाक युवान ब्राह्मणो धसी आव्या, अने लाकडी, नेतर अने चाबुक वति ते मुनिने मारवा लाग्या. [१९]. ए वखते कोशलिक राजानी दोष रहित अंगवाळी पुत्री भद्राए यतिने मार खातो जोयो, तेथी ते क्रोधे भरायेला तरुण ब्राह्मणोने वारवा लागी. [२०]. 'हे ब्रह्म कुमारो! जे यक्षे मारा शरीरमा प्रवेश को हतो अने तेनी प्रेरणाथी मारा पिताए मने जे शख्सने । अर्पण करी हती तेज आ यति छे; पण तेणे पोताना मनथी पण मारी इच्छा करी नहोती. मारो त्याग करनार ए महर्षि नरेन्द्र अने देवेन्द्रने पण वांदवा योग्य छे. [२१]. | १मुनी शरीरमा प्रवेशी यक्षे बात चीत करेली छे. २. Subdue my senses. ३. Appeased the angry alyoungsters. Jan Education A nal For Personal and Private Use Only www.jainentary.org Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसोहुसोउग्गतवो महप्पाजिइंदिओ संजओबंभयारि । जोमेतयानेछइ दिज्जमाणिपिउणा सयंकोसलिएणरन्ना ॥२२॥ १२. महाजसो एसमहाणुभागो घोरव्यओ घोरपरक्कमोय । माएयंहीलह अहीलणिज्जं मासव्वेतेएण भिनिदहेज्जा ॥२३॥ 8 एयाइतीसे वयणाई सौच्चापत्तिएभदाई सुभासियाई । इसिस्सवेयावाडयठयाए जख्खा कुमारेविणिवारयति ॥ २४ ॥ तेघो ररूवाठियअंतलिख्खे असुरातहिं तंजणंतालयंति । ते भिणदेहे रुहिरंवमंति पासितु भद्दाइणमाहुभुज्जो ॥२५॥ गिरिनहिखणह अयं दंतेहिंखायह । जायतेयं पाएहिहणह जे भिख्खू अवमणह ॥ २६ ॥ ०००००००००००००००००००००००००००० ... 'ए उग्र तप करनार महात्मा छे; ते जितेन्द्रिय अने सप्तदश विधे संयमधारी पुरुष छे; मारा पिताए पोताना हाथे करीने मने अर्पण करी, छतां ए ब्रह्मचारी पुरुष मारो स्वीकार कर्यो नहोतो.[२२].'ए मुनि महानुभाव अने घोर पराक्रमी छे. ते पांच महावृतनो पालणहार अने अति सामर्थ्यवान पुरुष छे; माटे एवा अनिंदनीक पुरुषनी अवगणना करोमां; नहि तो तमे सौ तेना तपना तेजथी। बळीने भस्म थइ जशो.' [२३. [पुरोहितनी स्त्री ] भद्रामां आवां सुभाषित वचनो ज्यारे यक्ष देवताओए शांभळ्या त्यारे तेओ साधुनी सहायता करवाने आव्या अने पेला तरुण ब्राह्मणोने वारवा लाग्या. [२४]. विक्राळ स्वरुप धारण करीने अने अंतरिक्ष रहीने असुरा ब्राह्मणोने मारवा लाग्या ब्राह्मणोने भग्न शरीर अने मोढेथी लोही नाखता जोइने भद्रा आ प्रमाणे बोली:-२५]. 'हे ब्राह्मणो! आवा साधु पुरुषतुं अपमान कर ए २ नखवति पर्वत खोदवो, दांतवति लोढुं करडवू अने पगवति आग्निमसळवो, तेना जेवं छे. [ अर्थात् सर्व अनर्थनां मूळ छे]. (२६). १. Fire ( of his virtue). २.मो. जेकोबी आ माटे नीचे नां वाक्यो वापरे छे, Dig rocks with your nails,or eat iron with your teeth or kick fire with your feet. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १२. ८४. आसीविसोउग्गतबोमहेसी घोरव्यओ घोरपरकोय । अगणिच पख्खंदपयंग सेणा जे भिख्खूयं भतकाले बहेह ॥ २७॥ सीसेणएहयं सरणां उबेह समागयासव्वजणेणतुझे । जइ इछहजीवियंवाधणंवा लोगंपि एसो कुविओडहेज्जा ॥ २८॥ अवहेडीयपिडि स उत्तमंगे पसारियाबाहु अकम्मचिडे | निम्मेरिहहिरं वमते उङ्कं मुहेनिगायजीहणे ॥२९॥ पासियाखंडिय भूविमणोविस तो अहमाहणोसो । इसिंपसाएइ सभारियाओ हीलंच निर्दचखनेहभंते ॥३०॥ मूढेहिं अयाणएहिं जंहीलियातस्स खमाहभंते । महप्पसाया इसिणोहवंति नहुमुणी कोहपराभवंति ॥३१॥ 'उग्र तप करनार, घोर पराक्रमी अने घोर व्रत पाळनार आ महर्षि शेरी नाग समान छे; भिक्षायें नीकळेला साधुने पीडा उपजाववाथी त पतंगियाना टोळानी माफक बळीने भस्म थइ जशो. [२७]. माटे जो तमारुं जीवित अने धन बचाव होय तो तमे सौ एकठाइने, मस्तक नमावीने ए मुनिने पगे पडो, अने तेनुं शरणं मागो; नहि तो ए साधु कोपशे तो आखा नगरने बाळीने भस्म करी नांखशे. [२८]. पोताना शिष्योने मस्तक अने पीठ नमावीने, पोताने सोपायेतुं काम छोडी हाथ जोडीने, सजल नेत्रे म्होंमांथी लोही नांखता, म्हों वीकासीने, आंखो फाटीने, अने जीभ बहार काढीने, काष्टवत् जड उभेला जोइने, ते यज्ञ करावनार पुरोहित विषाद पायो, निराश थइ गयो, अने पोतानी भार्या [भद्रा ] सहित ते मुनिने प्रसन्न करवाने बोल्यो, 'हे पुज्य ! अमे आपनी निंदा तथा अवगणना करी छे, ते क्षमा करो. (२९-३०), 'हे पुज्य ! आ मूढ, अज्ञान बाळकोए आपने पीडा उपजावी छे तेना क्षमा आपो. ऋषिओ अति उदार मनना होय छे, तेओ क्रोधने वश थता नथी. [३१]. १. A swarm of moths. २. मुनिराजोए आ शब्दो खास स्मरणमां राखवा लायक छे. “ Sages are exceedingly gracious nor are the saints inclined to wrath." Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000 ००००००००० पुट्विंच इणिहंच अणागयच मणप्पओसोनमे अथ्थिकोइ। जख्खाहुवेयावडियं करेंति तम्हाहु एएनिहया कुमारा॥३२॥ 18 अश्थंच धम्मंच वियाणमाणा तुझेणविकुप्पहभृइपन्ना । तुझंतुपाएसरणं उबेमो समागया सव्वजणेण अम्हे ॥३३॥ अच्चेमतेमहाभागा नतेकिंचनअच्चिमो। भजाहिसालिमकरं नाणावंजणसंजयं ॥३४॥ इमंचमे अथ्थिपभयमन्नं तंभज्ज 1 ... सूं अम्ह अणुग्गहठ्ठा । बाढंति पडिछइभत्तपाणं मासस्सओपारणए महप्पा ॥३५॥ तहियं गंधोदए पुवासं दिव्यात हिं वसु हाराय वुठ्ठा । पहयाओ दुंदुभीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणंघुळं ॥३६॥ ए सांभळीने मुनि [हरिकेश] बोल्या, "हे ब्राह्मणो! मारा मनयां भूतकाळे कदि द्वेष उपज्यो नथी, वर्तमानकाळे उपजतो नथी, अने भविष्यकाळे उपजानो नथी. यक्षो मारी भक्ति करेछे, तेमणे तमारा कुमारोने माय छे." ३२]. ए सांभळीने ब्राह्मणो बोल्या, 'हे स्वामि ! आप सर्व शास्त्र तत्व अने धर्म वस्तुनो स्वभाष जाणो छो. हे सर्व जीव रक्षक तत्व ज्ञानी पुरुष कोप करशो नहि. सर्व परिवार सहित अमे सौ आपने शरणे छीए. [३३]. ' हे महानुभाग ! अमे आपने वांदीये छाए. आप सर्व रीते न योग्य छो. नाना प्रकारना मसाला सहित पकावेलो आ शुद्ध भात आप जमो. (३४). 'अमारी पाले अन्न, पक्वान्न पुष्कळ छे. अमारा उपर कृपा करीने आप ते पयो.' " भो।" एम कहीने ते महात्मा सुनिए आहार पाणी व्होरीने मासखमगर्नु पार| कयु. (३५). ए प्रसंगे दवताओए सुगंधी जळ अने पुप्पनो वरसाद वरसाव्यो अने दिव्य द्रव्यनी दृष्टि करी दुदभिना नाद कर्या अने आकाशमां' अहो दान ! अहो दान: 'एबी गर्जना भइ रही. (३६). १. सरल स्वभावी साधुओनी सहन शीलतानो आ प्रत्यक्ष पुराशे छे. असह्य शद्रो अने मार पड्या छां, तेमनी आजीजी ध्यानमां लइ तेमनोज आहार लीधो. शद्धे शढे ने डगले डगले मोढुं मरडतां आजना लोकोए आवां दृष्टांतो परथी घणो धो लेबानो छे. आवी शान्त वृत्तिनी कदर कुदरत अने देवताओ पण करे छे ते ३६मी गाथामां जणाइ आवे छे, 200000 .००००००606 Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. उ अ सख्खं ख्खुदीसह तवोविसेसो नदीसईजाइ विसेस कोइ सोवागपुतं हरिएस साहु जस्सेरिसा रिद्विमहाणुभागा ॥ ३७ ॥ किं माहणा जोइ समारभंता उदएण सोहिं बहियावि मग्गहा । जं मग्गहा वाहिरियं विसोहिं नतं सुदिनं कुसला वयंति ॥३८॥ कुसंचवं तणकडुमरिंग सायंच पाये उदगं फुसंता । पाणाई भूयाई विहेडयंता भुज्जेोवि मंदा पकरेह पावं ॥ ३९ ॥ कहंचरे भिख्खु वयं जयामो पावाई कम्माई पणोल्लुयामो ! अख्खाहिणोसंजयजख्खपूइया कहं सुजई कुसला वयंति ॥४०॥ ८६ ए जोने ब्राह्मणो विस्मय पाम्या ( अने बोली उठया) के ' तपनो महिमा प्रत्यक्ष देखायछे ! जातिनो महिमातो ( तेनी आगळ) कांइज जणातो नथी ! चांडाळ पुत्र हरिकेश साबुनो अदभुत प्रभाव तो जुओ !' [३७]. ए सांभळीने मुनि ब्राह्मउपदेश देवा लाग्या, “ हे ब्राह्मणो! तमे अग्निनुं संरक्षण करोछो अने जळ स्नानथी बाह्य शुद्धिने इच्छो छो. पण तत्वज्ञ पुरुषो ए बाह्य शुद्धिनेज खरी शुद्धि [जे मेळववानो मुमुक्षोनो प्रयास छे ते ] तरीके स्वीकारता नथी. (३८). " तमे दर्भ, यज्ञ स्तंभ, तृणकाष्टनो उपयोग करो छो; तमे संध्याकाळे अने प्रभाते ( अणगळ ) पाणीनो उपयोग करोछो तेथी जीव हिंसा थाय छे, भने त मतिमंद लोको समजता नथी के एवां पापे करीने [ उलटो] आत्मा मलीन थाय छे." (३९). ए सांभळीने ब्राह्मणो बोल्या, ‘हे साधु! अमारे केवी रीते वर्त्त ? केवी क्रिया करवी ? अने पाप कर्मथी केवी रीते दूर रहे ? हे यक्ष पूजित, जितेन्द्रिय साधु! ha प्रकारे करेला यज्ञने पंडित पुरुषो उत्तम कहे छे ? [४०]. १. कूळना अभिमानमां अंध थयेलाओने आ उपरथी घणुंज शीखवानुं छे. Jain Education international For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १२. 612 1 छज्जीवका असमारभंता मोसं अदत्तं च असेवमाणा । परिग्गहं इथिओ माणमायं एयं परिन्नाय चरंतिदंता ॥४१॥ सुसंबुडा पंचहिं संवरेहिं इह जीवियं अणवकं खमाणा । वोसहकायासुइचत्त देहा महाजयं जयइ जन्नसिहं । ॥ ४२ ॥ केतेजोई केवते जोइठाणं कातेसुया किंचते कारिसंगं । एहायते कयरासंति भिख्खू कयरेण होमेण हुणासि जाई ॥ ४३ ॥ १. कोइ प्रतोमां “ जन्नसे " छे. ए सांभळीने मुनि बोल्या, “ छकाय जीवनी रक्षा करवी, मृषावाद बोलवो नहि, अदत्ता दान लें नहिः स्त्री, मान, मायानो परिग्रह सेववो नहि अने इन्द्रियो ने वश राखीने वर्त. (४१). " पांचे आश्रव । जेणे संध्याछे, आ संसारमां जीवितनी वांच्छना पण करतो नथी, जेणे पोताना देहनो [ममत्वनो ] त्यागर करेलोछे, जे निर्मळ वृतिथी रहेछे, अने देहने कोइ अतिचारनो दोप लागवा देतो नथी, वो मुनि [कर्मरुपी] महायज्ञमां विजय मेळवेछे. " (४२). ए सांभळीने ब्राह्मणो बोल्या, 'हे साधु ! तमागे अग्नि केवोछे ? तमारो अग्निकुंड केवोछे ? अग्निमां घी होमवानो तमारो चाटवो केवोछे ? तमारां इन्धन ( छाणां ) केवांछे ? आ सर्व वस्तुओ विना यज्ञशी रीते थइ शके ? तमे अग्निमां होम हवन शानो करोछो ?' [४३] . १. पवित्र आत्माने मलीन करनाराना कर्मोंना चाल्या आवता प्रवाहने आश्रव कहे छे. सुमति अने गुतिथी ते प्रवाहने रोकवा नक्रिया संवर कहे छे. आश्रवमां नवा कर्मोनो संग्रह थाय छे, संवरथी नवां कर्मो आवतां रोकी शकाय छे. बंधाइ झुकेलां कर्मोनो तप वगेरेथी क्षय करवो ते निर्जरा कहेवाय छे. २. अहिं कावसग्ग - कार्योत्सर्ग करवानो पण भावार्थ छ मो. जकोबी ते मोठे “Who abandons his body" शब्दो बापरे छे. Jain Educationmational For Personal and Private Use Only www. ry.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ... तवो जोइ जीवो जोइ ठाणं जोगासूया सरिर कास्सिंगं । कम्मपहासंजमजोग.संती होमं हुणामिइसिणं पसथं ॥४४॥ केतेहरए केयतेसंतितिथ्थे कहंसिएहाओ वरयंजहासि । आइख्खणे संजयजख्खपूइया इछामोनाओ भवओ सगासे॥४५॥ धम्मेहरए बंभे संति तिथ्थे अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहिंसिएहाओ विमलो विसुद्धो सुसीइ भूओ पजहामिदोसं ॥४६॥ 200००००००००००००००००००० ए सांभळीने साधु बोल्था, " तप मारो अग्निछे जीव अग्निकुंड छे मन बचननो शुभ व्यापार शुद्ध आचरण ए मारो धी 18 होमवानो चाटवो छे; शरीर इन्धन रुपछे अने कर्म तेमां बळेछ. सप्तदश विधे संयम योग अने शान्ति जेनी पंडित पुरुषो स्तुति करी गया छे, तेनो हुँ होम हवन करुंटुं." [४४]. ए सांभळीने ब्राह्मणो वोल्या, 'हे यक्षपूजित ऋपि! आपर्नु तीर्थ कयु? स्नान करवा योग्य जळाधारी कइ? मेल टाळवाने आप केवी रीते स्नान करोछो ? ए सर्व आपनी पासेथी जाणवाने अमे इच्छिये छीए.' (४५). ए सांभळीने मुनि बोल्या, “ धर्म मारु तीर्थ छे; ब्रह्मचर्य मारी जळाधारी छे जे जळाधारी सदा शान्त अने आत्माने निर्मळ करनार [तेज, पद्म, शुक्ल ] लेश्याए करीने सहित छे तेमां हुं स्नान करंर्छ अने मळरहित, विशुद्ध अने शीतल थइने सर्व दोपने छां९ ई.२ [४६]. १."ध्यान धूपं, मनोपुष्पं, पंचेन्द्रिय हुताशनं क्षमा जाप, संतोष पूजा, पूजो देव निरंजनं," तेने मळतुं आ गाथार्नु रहस्य छे. 181 प्रो. जेकोबीना आ गाथाना शब्दो घणांज असर कारक छे.-"Penance is my fire; Life my fireplace; right exertion is my sacrificial ladle, the body the dried cowdung; Karman is any fuel;self-control, right exertion and tranquillity are the oblations, praised by the sages, which I offer". २. आ शब्दो सुवर्ण अक्षरे आलेखी हमेशां स्मरण करवा लायक छ. प्रो. जेकोबीना शब्दोमा आपणे ते पुनः स्मरीए. “The Law is my pond; celibacy my holy bathing-place, which is not turbid and through| out clear for the soul; there I make ablutions; pure, clean, and thoroughly cooled I get 18 al rid of hatred (or impurity).” Jain Educati emational For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १३. ८९, एवं सिणाणं कुसले हिंदि महासिणाणं इसिणं पसथ्यं । जहं सिएनहाया विमला विसुद्धा महारिसी उत्तमंठाणं पत्तेतिबेमि ॥ इति हरिए सिज्जं झयणं बारसमं सम्मत्तं ॥ १२ ॥ 118011 अध्ययन १३. चित्र अने सम्भूत. जाइपराजिओखलु कासिनियाणंबु हथिणपुरंमि । चुलणीए बंभद्धत्तो उववन्नो पओमगुम्माओ ॥१॥ कंपिल्ले संभूओ. चित्तो पुणजाओ पुरिमतालंभि । सेडिकुलमि विसाले धम्मं सोऊणपव्वइओ ॥२॥ -02 セブシ 66 कुशळ पंडितोए एवा प्रकारनुं स्नान शोधी काढयुंछ; ए उत्तम स्नाननी ऋषि मुनिओए प्रशंसा करीछे; महा मुनिओ मां स्नान करीने निर्मळ अने विशुद्ध थयाछे अने उत्तम स्थान (मुक्ति) ने विषे गयाछे. " (४१). ॥ बार अध्ययन संपूर्ण ॥ ** Jain Educatioemational * अध्ययन १३. चांडाळ जातिमां उत्पन्न थवाथी कवळीने [चित्रना न्हाना भाइ ] सम्भूते (पुनर्जन्ममां ) हस्तिनापुरमां चक्रवर्त्ति राजा थवानो बूरो संकल्प कर्यो, अने तेथी पद्मगुल्म [ अने नलिनगुल्म] विमानेथी चवीने कंपिलपुर नगरमां ब्रह्म राजानी भार्या चुलणीना उदरे ब्रह्मदत्त नामी जन्म धारण कर्यो. [१]. चित्रनो जीव पुरिमताल नगरने विषे एक शेठना श्रेष्ठ विस्तीर्ण कुळमां उपज्यो. त्यां अनुक्रमे धर्म श्रवण करीने तेणे दीक्षा ग्रहण करी. (२). For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ अ ल १३. ९० कंपिल्लंमियनयरे समागया दोविचित्त संभूया । सुहदुख्ख फलविवागं कहंतिते इक्क मैगस्स ॥३॥ चक्कत्रट्टी महिढीओ भदत्त महायो । भायरं बहुमाणेणं इमं वयण मब्बवी ||४|| आतिमो भायरादोवि अग्णमण्ण वसाणुगा । अण्णमण मरता अण्णमण्ण हिएसिणो ॥ ५ ॥ दासा दस आसी मियाकालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीराए सो - कासि भूमी || ६ || देवाय देवलोगंमि आसि अम्हे महढिया । इमाणो छडियाजाई अणमण्णेण जाकिणा ॥ ७ ॥ कम्मानियाण पगडा तुझेरायविचितिया । तेसिं फल विवागेणं विप्पओग मुवागया ||८॥ एक वखत काम्पिल्य नगरमां चित्र अने सम्भूत [ जे नामे तओ पूर्व जन्ममां ओळखाता हता ते] एक वीजाने मळ्या. त्यां ओ पोतानां शुभाशुभ कर्मनां जे फळ तेमणे भोगव्यां हतां ते विषे परस्पर बात करवा लाग्या. [३]. महा रिद्धिवान अने यशस्वी चक्रवर्त्ति ब्रह्मदत्त राजा भवान्तरे जे पोतानो सहोदर हतो तेने बहु मानथी निचे प्रमाणे कहेवा लाग्योः - [४]. 'पूर्व भवमां आपणे बन्ने भाइ हता; एक बीजापर माया राखता, परस्पर स्नेह भावधी वर्त्तता अने एक बीजानुं हित वांच्छता. (५), 'प्रथम आपणे दशार्ण देशमां दास [गुलाम रुपे] जन्म्या हता; पछी कालंजर पर्वतने विवे मृग थमा हता; पछी मृत गंगा नदीने तीरे हंस जातिमां उत्पन्न या हता; त्यार पछी काशीपुरीमां चांडाळ जातिमां जन्म्या हता. [६]. ' अने त्यार पछी आपणे सौधर्म देवलोकने विषे महा रिद्धिवान देवता थया हता; आ आपणो छट्टो भव छे जेमां आपणे एक वीजायी जुदा पडेला छीए. ' [ ७ ]. ए सांभळीने मुनि [ चित्र ] बोल्या, “हे राजा ! भोगनी पापी इच्छा करवाथी कर्म बंधाय छे; अने तें एवं चिंत्वन कर्तुं हतुं. ए कर्मनो उदय थवाथी आपणो परस्पर वियोग थयो छे." [८]. १. मनमां माठा विचार करवाथी पण कर्म बंधाय छे. पाप पुंज बधे छे अने मनुष्योनो मोटो भाग माठा विचारने परिणामेज पाप बांधे छे. Karman is produced by sinful thoughts. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १३. ९१ सच्च सोयप्पगडा कम्माम पुरा कडा । ते अज्ज परिभुंज्जामो किं न्नु चित्ते विसे तहा || ९ || सव्वं सुचिन्नं सफलं नराणं कडा कम्माण नमोख्ख अथि । अध्येहिं कामेहिय उत्तमेहिं आया ममं पुन्नफलो वए ॥ १० ॥ जाणाहि संभूय महाणुभागं महिडियं पुण्ण फलो वत्रेयं । चित्तंपि जाणाहि तहेव रायं इट्ठी जुई तस्सवियप्पभूया ॥११॥ महथ्थ रूवावयणप्पभूया गाहाणु गीयाणरसंघमझे । जंभिख्खुणो सीलगुणो ववेया इहजयंतेसमणोमिजाओ ॥१२॥ उच्चोद महुकबं पत्रेइया आ वसहायरम्मा । इमंहिं चित्तधणंप्पभूयं पसाहि पंचालगुणो ववेयं ॥ १३ ॥ ए सांभळीने ब्रह्मदत्त बोल्यो, 'हे साधु! हे भाइ ! पूर्व जन्ममां में सत्य अने आत्मशुद्धिकारक सुकर्मों कय हतां; ते [ जप तप शुभ कर्मनां फळ [ सुख ] आजे हुं भोगं छं. हे चित्र ! तारां शुभ कर्मोनां फळ कथां [ गुम थइ ] गया ? [९], ए सांभळीने मुनि बोल्या, “हे राजन! सौ कोइने पोतानां पुण्य कर्मनुं फळ मळे छे. करेलां कर्मनां फळथी कोइ जीव छूटी शकतो नथी. अर्थ-द्रव्ये अने कामे करीने मारा आत्माने पोताना पुण्यनुं फळ मळी चूक्युं छे. [१०]. “हे सम्भूत! तने तारां पुण्यनुं फळ म्हारी अने महान भाग्य रुपे मधुं छे; चित्रनी (मारी) बाबतमां पण तेमज थयुं छे एम समज. महान रिद्धि अने श्रुति (कन्ति) चित्रने पण हती.[११]. “ जन समुदायमां गवाती महा अर्थ अने अल्प अक्षरवाळी गाथा सांभळीने शील गुणे करीने युक्त एवा साधु पुरुषों जिन प्रवचनने (धर्म) विषे उद्यम करे छे. अने ए गाथा सांभळीने हुं पण श्रमण (साधु) थयो हूं "[१२] ए सांभळीने ब्रह्मदत्त बोल्यो, 'उच्च, उदय, मधु, कर्क अने ब्रह्म नामे पांच महारम्य अने मनोहर अवास मारे छे. हे चित्र ! चित्र विचित्र धनथी भरेला अने पांचाळ देशनी लक्ष्मीथी भरपुर ए घरनो तूं अंगिकार कर. (१३). १. कड्डाण कस्माण न मोख अस्थि - करेलां कर्म भोगव्यां विना छुटकोज नथी. There is no escape from the effect of one's actions. आ सिद्धांत स्मरणमां राखी वर्तनार मनुष्य कदी पण पापमां प्रवृत थतो नयी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १३. ९२ नहिंगी एहिवाइ एहिं नारीजणाइ परिवारयंतो । भुंजाहि भोगाई इमाई भिख्खू ममरोयई पव्वज्जाहु दुख्खं ॥ १४॥ तं पुत्रण कयाणुरागं नराहिवकामगुणसुगिद्धं । धम्मस्सिओतरप्तहियाणुपेही चित्तो इमं वयण मुदाहरिथ्या ॥१५॥ सव्वं विलंवियंगीयं सव्वं नटुं विडंत्रियं । सव्वे आभरणाभारा सव्ये कामा दुहावहा || १६ || बालाभिरामेसु दुहासुन कामगुणेयं । विरतकामाण तवोधणाणं जंभिख्खूगो सील गुणे रयाणं ||१७|| नरिंद आई अहमानराणं सोवागजाइ दुहओ गयाणं । जहिं वयं सव्व जणरसवेस्सा वसीय सोवागनि वेसणे ॥ १८ ॥ 'हे साधु ! मुग्धानां गीत, नाट्य, वादित्रना भोग तुं भोगव; मारा धारवा प्रमाणे प्रत्रज्या (साध्वाचार) तने बहु दुःखरूप थशे. [१४]. धर्माश्रित चित्र पूर्व स्नेहने ली ब्रह्मदत्तनुं हित इच्छतो हतो, तेथी विषय सुखमां लुब्ध थयेला सजाने ते नीचे प्रमाणे कवा लाग्यो. [१५]. " हे राजन! सर्व गीत मात्र लवारा विलाप तुल्य छे : सर्व नाट्य नाम मात्र मरकरी - विटंबना रुप छे, सर्व आभरण भाररुप छे; अने सर्वे कामभोग परिणामे दुःखज उत्पन्न करे छे. [१६]. "हे राजन! जे काम भोग बाळक अने मूर्ख हर्ष उत्पन्न करे छे ते खरूं जोतां दुःखनां मूळ छे; विरक्त अने तपस्वी साधु पुरुषो ए काम भोगमां सुख मानता नथी; पण तेओ तो शीलगुणने विषे आसक्त रहे छे. [१७]. “हे नरेंद्र ! मनुष्यमां अधम जाति जे चांडाळ तेमां आपणे बन्ने जन्म्या हता; चांडाळ होवाथी सौ आपणने धिक्कारता अने आपणे चांडाळनां झुंपडामां वसता. [१८]. १. मोज शोखमां मशगुल थयेलाओ आटलं समजे तो पृथ्विपरथी केटलो वधो अनर्थ दुर थाय ? प्रो. जेवी ते माटे आ मुजब शब्दो वापरे छे :- All singing is but prattle, all dancing is but mocking, all ornaments are but a burden, all pleasures produce but pains ". २. Virtues of right conduct. Jain Educattemational For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. तीसेउ जाईइउपावियाए वुच्छ्ामुसो वागनि वेसणेसु ।' सव्वस्स लोगस्सदुग छणिज्जा इहं तु कम्माई पुरे कलाई ॥१९॥ सो दाणिसिं राय महाणुभागो महडिओ पुन्न फलो ववेओ। च इत्तु भोगाइं असासयाइं आयाणहेऊं अभिनिखमाहिं ॥२०॥ इह जीविए राय असासयंमि धणियं तु पुणाई अकुब्बमाणो। से सोयई मच्चुमुहो वणीए धम्मंअकाऊण परंमिले.ए ॥२१॥ जहेह सीहोवमियं गहाय मच्चूनरंनेइहु अंतकाले । नतस्समायावपि यावभाया कालंमि तस्सं स हरा भवति ॥२२॥ नतस्सदुख्खं विभयं तिनाइओ न भित्तवग्गान सुयान बंधवा । एगोसयं पच्चणुहोइ दुख्खं कत्तारभेवं अणुजा इकम्मं ॥२३॥ 0000000000000००००० . "चांडाळनी अधम जातिमा उत्पन्न थवाथी आपणे चांडाळनां झुपडामा रहेता सौ लोकनो द्वेष सहन करता. आ जन्मने । विषे तारा पूर्व भवे करेला शुभ कर्मनो उदय थयो छे. (१०). "हे राजन! आ काळने विषे तुं महा रिद्धिवान अने महानुभाम राजा ययो छे ते तारां (पूर्वनां) पुण्यनुं फळ भोगवे छे. 1 अशाश्वत भोग छांडीने मोक्षदाता २ चारित्र धर्म अंगिकार कर. [दिक्षा ग्रहण कर. (२०). "हे राजन! आ अशाश्वत मनुष्य जीवितमा जेणे सुकृत्यो अने धर्म कर्या नथी तेने ग्यु समये पश्चाताप थाय छे. [२१]. जेम सिंह मृगमे पकडी जाय छे तेम मरण काळे काळ मनुष्यने लइ जाय छे. ते वखते माता, पिता, बांधव कोइ- तेना जीवितने जा पण बचावी शकतुं नथी. [२२] "स्वजन, मित्रवर्ग, पुत्र, बांधव कोइ तेना दुखमां भाग लइ शकतुं नथी; जीवने एकलानेज सर्व दुःख सहन करवां पडे छे; कारण के कर्मनां फळ ते करनारनेज भोगवां पडे छे. (कर्म करनारनी पाछळज कर्म जाय छे अथवा तो कर्मनो का एज कर्मनो भोक्ता छे.) [२३]. १. Transitory.२. The highest good. ३. खावावाळा खाइ जाय छे पण पापी कमनुं फळ पाप क नारने शीर || | रहे छे. माटे नीतिमय जीवनथी-पापथी बची कुटुंबर्नु भरण शेषण करवानो आशय आगाथापरथी नीकळी शके छे. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १३. ९४ चिच्चा दुप्पयं चचउप्पयं चखितं गिहं घण घणं चसव्वं । सकम्मप्पचीओ अवसो पयाई परीभवं सुदरं पावगंवा ॥ २४॥ तमेकगं तुछु सरीरगं से विई गयं दहिय उपावगेणं । भज्जाय पुत्तोवियनायओय दायार मन्नंअणुसंकर्मति ॥२५॥ उवणिज्जइ जीवि ममायं वर्णजराहरइनररसरायं । पंचाल रायवयणं सुणाहि माकासि कम्माई महालयाई ॥ २६ ॥ अपि जानामि जहे साहुजंमे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकराहवंति जेदुज्जया अज्जो अम्हारिमेहिं ॥ २७॥ हथ्थिण पुरं भिचित्ता दृद्रूण नरवई महिदियं । कामभोगेसु गाणं नियाणमसुहं कडं ॥ २८ ॥ " द्विपद ( भार्यादि), चतुष्पद ( अश्वादि), छांडीने, क्षेत्र, गृह, धन, धान्यादि सर्व वस्तु तजीने, परवश थयेलो जीव पोतानां शुभाशुभ कर्म साथै लइने परलोके जाय छे अने तेना प्रमाणमां सारी माठी गतिने पामे छे [ २४ ]. " रोगथी भरेलो असार देह चितामां बाकी दीघा पछी तेनी भार्या, पुत्रो अने सगां वहालां बजाने आश्रये जाय छे अने तेनी सेवा चाकरी करे छे. [२५] . " आयुष्य निरंतर क्षय थतुं जाय छे. जरा मनुष्यनी शक्तिने (रुप, वर्ण) हरे छे. माटे हे पंचाल राजा ! मारां वचन श्रवण करीने महारौद्र (मूंड) कर्म करीश नहि." [२६] ए सांभळीने ब्रह्मदत्त बोल्यो, 'हे साधु! आपे जे उपदेश मने दीघो छेते हुं सारी पेठे समजुं हूं. भोग विलास धर्ममां अंतराय करना। छे पण अमारा जेवा अज्ञानीथी ते छोड्यां छोडी शकात नवी. [२७]. 'हे चित्र ! हस्तिनापुरमा सनत्कुमार चक्रवर्त्तिनी रिद्धि देखीने, काम भोगनी इच्छाथी ललचाइने ते वखते में अशुभ (दुष्ट) संकल्प को हतो. [२८]. १. आ अध्ययनी प्रथम गाथा वांचवाथी आ संबंध समजाशे. आगला भवमां ब्रह्मदत राजा संम्भूत नामे मुनिश्वर हता. सनत्कुमारनी राणी सुनंदा ज्यारे आ मुनिने वांकावळी नमन करती हती त्यारे तेना सुंवाळा वाळनो, मुनिना पगने अकस्मात स्पर्श थइ गयो. आ अकस्माते मुनिश्रीना मनमां अनेक इच्छाओ उत्पन्न करी, अने पोताना तपना फळ रुपे चक्रवर्त्ति राजा थवानुं नियाणुं कर्यु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ ००००००००००००००००००००००००००० तरसमे अप्पडिकं तस्स इमं एयारिसं फलं । जाणमाणाविजंधम्मं कामभोगेसु मुडिओ ॥ २९ ॥ नागोजहापंकज लायसन्नो दलुथलंनाभि समेइ तीरं । एवं वयं कामगुणेसूगिडा नमिख्खूणोमगगमणुव्वयामो ॥ ३० ।। अव्वेइकालो तुरियन्तिराइओ नयाविभोगा पुरिस्साणनिच्चा । उविच्चभोगा पुरिसंचयंति दुम्मं जहाखीणफलं वपरूखी ॥ ३१ ॥ | जइतंसिभोगे चइउ असत्तो अजाइ कम्माइं करेहि रायं । धम्मेठिओ सव्वपयाणु कंपी तोहोहिसि देवोइउ विउव्वी ॥३२॥ नतुझ भोगे च इऊण बुही गिद्धोसि आरंभ परिग्गहेसू । मोहं कउएतिओविप्पलावो गामि रायं आमंतिओसि ॥३३॥ ०००००००००० ००००० ___'ए निदान में आलोव्यु नहिं. (एवा दुष्ट संकल्पने माटे में पाछळथी पश्चाताप को नहि) तेथी तेनुं एवं फळ आव्युंछ के धर्मनो मार्ग हुँ जाणुं छतां काम भोगने विषे आसक्त रहुं छ. [२९]. 'जेम पंकजळ (कादववाळी जग्या)मां निमग्न थइने झुंचतो हाथी, कांठो नजरे देखवा छता कादवमाथी बहार नीकळतो नथी, तेम काम भोगमा लुब्ध थयेला अमे साधु धर्म आचरी शकता नथी.' [३०]. ए सांभळीने मुनि बोल्या, “हे राजन! काळ त्वराथी वहे छे अने रात्रि दिवस झडपथी पसार थइ जाय छे; मनुष्यनां काम भोग पण अनित्य छे. जेम पक्षी फळ रहित वृक्षने तजी जाय छे, तेम काम भोग मनुष्यनी पासे आवीने न्हासी जाय छे. [३१]." हे गजन! काम भोग छांडवाने तुं असमर्थ होय तो उत्तम कार्यों कर; धर्मने विषे दृढ रहीने सर्व जीव उपर अनुकम्पा राख; तेम करवाथी आ मनुष्य देहथी छूटया पछी तुं शक्तिबान देवता थइश.२ [३२]. “आटलुं छतों पण काम भोग छोडवानी तारी | इच्छा न थती होय, अने हजी पण तुं आरम्भ, परिग्रहमां ग्रस्त रहेवा इच्छतो होय तो में जे वचमालाप को ते सर्व व्यर्थ गयो छे. | तो हवे तारी आज्ञा मागीने हं अहिंथी जाउं छ." [३]. ०००००००० १. The pleasures of men are not permanent. २. संसारमा रहीने पण जीवन सार्थक करवा आकुंचीछे. Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १३. ९६. पंचारायाविभदत्तो साहुरसतरस्वयणं अकाउं । अणुत्तरेभुंज्जिय काम भोगे अणुतरे सोनरएपीडो ॥ ३४ ॥ चित्तोत्रिकामेहिं वित्तकानो उदत्तच्चास्तितवोमहेसी । अणुत्तरं संजमपालइत्ता अणुत्तरं सिध्धिगई गओ तिबेमि ॥ ३५ ॥ ॥ इति चित्त संभूइज्जं झयणं तेरसमं सम्मतं ॥ १३ ॥ पंचाल देशनो राजा ब्रह्मदत्त चक्रवर्त्ति ते साधुना उपदेश प्रमाणे वच्यों नहि, तेणे सर्वोत्कृष्ट काम भोग भोगव्या अने ते अंते अनुत्तर नरकने विषे उत्पन्न थयो. [३४]. पण सर्वोत्कृष्ट चारित्र धर्म पाळनार अने उग्र तप करनार महर्षि चित्र (नो जीव ) काम भोगनी इच्छाथी विरक्त रह्यो. ते सत्तर भेदे संयम पाळीने अनुत्तर (सर्वोत्तम) सिद्ध गतिने प्राप्त थयो. [३५]. तेर अध्ययन संपूर्ण. Jain Educationa International * १. Sank into the deepest hell. For Personal and Private Use Only - * S000000000000000 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००० - अध्ययन १४. इषुकार. GET देवा भवित्ताण पुरे भवंमि केइ चुया एगविमाणवासी । पुरे पुराणे उसुयारनामे खाए समिध्धे सूरलोय रम्मे ॥ १॥ स कम्म सेसेण पुराकएणं कुलेसूदग्गेसुयतेपसूया । निविण संग्नार भया जहाय जिणिंदमग्गं सरणं पवन्ना ॥ २ ॥ पुमत्तमागम्म कुमार दोवि पुरोहिओ त्तस्स जसायपत्ती । विसाल कित्तिय तहो सुयारो रायथ्थदेवि कमलावइय ॥३॥ जाईजरा मच्चु भयाभि भूया बहिविहाराभिणिविठ्ठचित्ता । संसार चकरस विमोख्खणठ्ठा ठूणते काम गुणेविरत्ता ॥४॥ 20००००००००००००००००००० अध्ययन १४. पूर्व भवे देवतार्नु पद पामीने, पद्मगुल्म विमानथी चवीने केटलाक जीव (आ लोकने विषे) पुरातन, ममाद्धिवान, सुप्रसिद्ध अने देवलोक समान मनोहर इषुकार नगरमा उत्पन्न थया. [१]. पूर्व जन्मनां उपार्जित करेला अवशेष पुण्य कर्मने लीधे तेओ (देव | लोकथी चवीने छए जीव) उत्तम कुळने विषे (उत्कृष्ट द्विज, क्षत्रिय जाति रुपे) उत्पन्न थया. संसारना त्रासथी भय पामीने तेओए सर्व भोग छांडी दीधा अने जिनेंद्रमार्गर्नु शरणुं ग्रहण कर्यु. [२]. बे अविवाहित द्विज पुत्रो, श्रीजो भृगु नामे पुरोहित, चोथी तेनी यशा नामे पत्नि, पांचमो विस्तीर्ण कीर्तिवाळो इषकार नामे राजा ने छही तेनीराणी कमलावती. (ए रीते छ जीव उत्पन्न थया हता). [३]. पेला बे द्विज पुत्रा जन्म, जरा अने मरणथी त्रास पामीने मोक्षने विषे चित्त परोवीनेर, संसार चक्रथी पोताना आत्माने मुक्त कराववाने अने काम भोगन मोक्ष प्राप्तिमा विनरुप मानीने, तेओ तेथी विरक्त थया. [४]. १. टीकाकारना कहेवा प्रमाणे आ शेहेर कुरुक्षेत्रमा हतुं. २. मूळपाठ अने टीकाकारने आधार आ अर्थ करेलो छे, पण प्रो. जेकोबी एवो अर्थ करे छे के:-" There mind intent on pilgrimage." Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १४. ९.८. पिय पुत्तगा दोन विमाहणस्स स कम्मसीलरस पुरोहियस्स । सरित्तपोराणिय तथ्थ जाई तहा सुचिन्नं तवसंजमंच ॥ ५ ॥ काम भोगे असज्ज माणा माणुस्सएसुजेयाविदिव्या । मोख्खाभिकखी अभिजाय सढा तायं उवागम्म इमं उदाहु ॥६॥ सासद इमं विहारं बहु अंतरायं नय दीह माउ । तम्हा गिर्हतिं नरई लभामो आमंतया मोचरिस्सामोमोणं ॥ ७ ॥ अह तायगो तथ्यमुणीतेसिं तवरसवाघाय करं वयासी । इमं वयं वेय विदो वयंति जहान होइ असुयाण लोगो ॥ ८ ॥ अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे पुत्ते परिठप्प हिंसि जाया । भोच्चाण भोगे सह इथ्थियाहिं आरणगा होह मुणी सध्या ॥ ९॥ पोताना पट्कर्मने विषे जे सावधान छे एवा भृगु पुरोहितना बन्ने प्रिय पुत्रोने जातिस्मरण उपज्युं, ( पोताना पूर्व भवनुं भान (थ) अने पोते पाछला भवमां जे जप तप कीधा हता ते सर्वनुं तेमने स्मरण थयुं. [५] मनुष्य अने देवताना कामभोगथी विरक्त थयेला मोक्षना अभिलाषी, तत्वने विषे रुचीवाळा, एवा बन्ने कुमारो पोताना पिता पासे आवीने कहेवा लाग्या. [६]. “मनुष्यनी अवस्था अशाश्वत अने अनित्य' छे, तेमां अंतराय घणा अने आयुष्य डंकुं छे, तेथी हे तात! गृह सुखथी अपने संतोष थतो नथी, माटे दिक्षा ग्रहण करवाने वास्ते अमे आपनी आज्ञा मागवा आव्या छीए. [७]. तेओना चारित्र - भाव (तप- वृत्ति) मां विघ्न नांखवाने ( अंतराय करवाने) मांटे तेमनो पिता (भृगु पुरोहित) हवे पछी थनारा मुनिओने ( पोताना पुत्रोने ) कहेवा लाग्यो, “हे पुत्रो ! वेदने जाणारा पंडितो एम कहे छे के 'अपुत्रने परलोकनी प्राप्ति थती नथी. [८]. “ पुत्रो ! वेदनुं अध्ययन कर्या पछी, ब्राह्मणोने भोजनी तृप्त कर्या पछी, तमारा पुत्रो उपर घरनो भार मूक्या पछी, अने तमारी स्त्रीओ संगाथे भोग भोगच्या पछी तमे अरण्यमां जइने खुशीथी प्रशस्त मुनिओ थजो." [९]. ?. Lot of man is transitory and precarious. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ००००००००० सोयग्गिणा आय गुणिं धणेणं मोहा निलापज्जलणा हिएणं । संतत्त भावं परितप्पमाणं लोलप्प माणं बहुहा बहुंच ॥ १० ॥ पुरोहियं तं कमसोणुणंतं निमं तयं तंच सुए धणेणं । जहक्कम कामगुणेहिं चेव कुमारगाते पसमिख्ख वक्कं॥११॥वेया अही यानभवंतिताणं भुत्तादियानिति तमंत मेणं । जायाय पुत्तानभवंतिताणं कोनामते अणुमन्नेज एय॥१२॥खणमित्त सुख्खा बहुकाल दुख्खा पगाम दुख्खा अणिकामसुख्खा। संसारमोख्खस्स विप्पख्खभूया खाणी अणथ्थाणओ कामभोगा ॥१३॥ आत्मा गुणरागादिक इन्धनथी सींचायेलो अने मोहादि पवनथी अधिक प्रज्वलित थता अग्निमां पुरोहितने बळतो जोइने, तेने अंतःकरणने विषे दाझतो अने मोहनी कर्मने लीधे विलाप अने टळवळाट करतो जोइने, अने अनुक्रमे ते तेमने समजावी लेवानो प्रयास करे छे ते जोइने, तथा धन अने कामभोग तरफ ललचावे छे ते जोइने कुमारो पोताना पिताने कहेवा लाग्या. [१०-११]. "वेद पठनथी तरी शकातुं नथी ब्राह्मणोने जमाडवाथी अंधकारमां ने अंधकारमांज (नरकगतिमां) गोथा खावां पडे छः पुत्र जन्म नरकथी बचारी शकतो नथी'; माटे हे तात! तमारूं कहे, अमाराथी केवी से मान्य राखी शकाय? [१२]. "कामभोगः मात्र क्षणिक सुखने आपनारां छे, पण ते लांबा काळ सुधी दुःख देनारा छे. ते अल्प सुख अने अतिशय दुःखकर छे. ते मुक्ति मामां विघ्न [शत्रु] रुप छे अने अनर्थनी खाण रुप छ. (१३). १. Wind of delusion. २. संतान माटे अनेक उपाधी भोगवता मनुष्यो आ समजी सन्मार्गे द्रव्य व्यय करे तो घणु सारं. ३. जाणी जोइने संसारमा सपडाता अने अनर्थनी उंडी खाइमां गोथां खाता जीवो, आ शब्दो स्मरणमा राखे तो घणे दरज्जे जीवन सुधारी शके. प्रो. जेकोबी पग आ माटे असरकारक शब्दोनो उपयोग करे छे. “ Pleasures being only a moment's happiness, but suffering for a very long time, intense suffering, but slight happiness; They are an obstackle to the liberation from existence,and are a very mine of evils." Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2000 परिव्वयंते अनियत्त कामे अहो यराओ परितप्पमाणे ! अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पोत्ति मच्चु पुरिसोजरंच ॥ १४ ॥ इमंचमे अश्थि इमंचणथ्थी इमंचमेकिच्च इमंअकिच्चं । तंएवमेवं लालप्पमाणं हराहरतित्तिकहं पमाओ ॥ १५ ॥ धणं पभूयंसह इथ्थियाहिं सयणा तहाकामणुणापकामं । तवंकए तप्पइ जस्सलोगो तं सव्वताहीणमिहेवतुझं ॥ १६ ॥ धणेणकिंधम्म धुराहिगारे सयणेणवा कामगुणेहिंचेव । समणा भविस्सामो गुणोहधारी बहिं विहारा अभिगम्मभिख्ख॥१७॥ जहाय अगी अरणी असंतो खारेघयंतिल्ल महातिलेसु । एमेवजाया सरीरंसिसत्ता समुछुइना सइनावचिठे ॥ १८ ॥ 2 काम भोग उपर आसक्त थइने माणस परिभ्रमण करे छ अने (अधूरी रहेली अभिलाषाओने माटे) रात्रि दिवस (आर्त, रुद्र ध्याने) परिताप कर्या करे छ, प्रमादथी (पारका) धननी तपासमां फर्या करे छे अने अंते जरा अने मृत्युने प्राप्त थाय छे [१४]. 18 “अमारी पासे आ वस्तु छ; अमारी पासे पेली वस्तु नथी ; अमारे आ कृत्य करवं छ; अमारे पेलुं कृत्य नथी करव; ते आ प्र माणे वात करतो होय छे एवामां काळ आवीने तेने घसडी जाय छे. आते केवो प्रमाद कहेवाय ? [१५]. ए सांभळीने पिता कहे छे. "हे पुत्रो! आपणी पासे धन घणुं छे, स्त्रीओ पण घणी छे, विशाळ कुटुंब अने सुंदर कामभोग पण छे; के जे वस्तुओ मेळववा 18 माटे लोको तप जप करे छे. संसारना ए सर्व सुख तमने मो माग्यां मळ। शके तेम छे." [१६]. ए सांभळीने पुत्र कहे छ, “ध मना अधिकारमा धन, स्वजन अने कामभोग शुं कामना छ ? अमे गुणसमुहने धारण करनार श्रमण थइशुं अने गामोगाम विहार 8 करीने भिक्षा मागीशु." [१७]. ए सांभळीने पिता कहे छे, “जेम अरणीना काष्टमा अग्नि, दूधमां घी, अने तलमा तेल, रहेतुं छे 18 तेम हे पुत्रो! शरिरने विषे आत्मा (समुर्छाए) रहेलो छे; साटे शरिरना नाशनी साथे तेनो पण नाश थाय छे अने ते सर्व वस्तुओ Ta अनित्य छे." [१८]. Jain Educationa interational For Personal and Prvate Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १४. १०१ नोइंदियगिझ अमुत्तभावा अमुत्तभावाविय होइनिच्चो । अझथ्थ हेऊनियउस्सबंध संसारहे ऊंच्चयंति बंधं ॥ १९ ॥ जायं धम्माणमाणा पार्श्वपुराकम्म मकासि मोहा । उरझमाणा परिरख्खियंता तन्नेव भुज्जविसमायरामो ॥ २० ॥ अम्भाहयंमि लोगंमि सब्वओ परिवारिए । अमोहाहिं पडतीहिं गिर्हसि नरइंल मे ॥ २१ ॥ केण अम्भाहओ लोगो केणवा परिवारिओ । कावाअमोहा वृत्ता जाया चिंतायरोहुमे ॥ २२ ॥ मच्चुणाअम्माहओ' लोगो जराए परिवारिओ अमोहारणी वृत्ता एवंताय वियाह ॥ २३ ॥ १. कोइ प्रतमां झाहओ छे. ए सांभळीने पुत्र कहे छे, “आत्मा इन्द्रिओथा अग्राह्य छे, कारण के ते अमूर्त (अरुपी ) छे; अने ते अरुपी तथा अग्राह्य छे छतां ते नित्य अने शाश्वतो छे. मिथ्यात्वादि दुर्गुणो कर्मबंधनना हेतु छे, अने ए बंधन, संसार परिभ्रमणनुं कारण कहेवाय छे. १ [१९].“धर्मना खरा स्वरुपना अजाणपणाने लीधे अमे पूर्वे पापकर्म कीधां हतां, अमारा अज्ञाने- अपने रुंधी राख्या हता अने दिक्षा ari अटकाव राख्या हता. माटे हवे अमे एवां पापकर्म नहि करीए. [२०]. " हे तात! एक मनुष्यने पिडा उपजावे छे, बीजं तेने वीळावळे, अनेत्रीजुं अमोघ (निरंतर) वह्यांज करे छे; तेथी गृहस्थाश्रम उपर अपने रुची थती नथी." [२१]. ए सांभळीने पिता कहे छे, " हे पुत्रो ! मनुष्यने पिडा कोण उपजावे छे ? तेने कोण वीटळाइ वळेलुं छे ? अने अमोघ कोण वह्यांज करे छे ? ते जाणवाने हुं आतुर हुँ." [२२]. ए सांभळीने पुत्रो कहे छे, “मृत्यु मनुष्यने पिडा उपजावे छे, जरा तेमने वीटलाइ वळेली छे, रात्र दिवस अमोघ ह्यांज करे छे. हे तात! ते तमे जाणोछो (के जे रात्रि दिवस वह्यां करे छे ते आयुष्यने घटाडे छे ).[२३]. minde 1 ness. ३. १. This fetter is called the cause of worldly existence. २. Wrong मूळ पाठमा 'रयणी' रात्रि छे. मो. जेकोबी Days दिवस लखे छे पण भावार्थ रात्रि दिवसनो छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाजावच्चइ रयणी न सापडि नियतइ । अधम्मं कुणमाणस्स अफलाजति राइओ ॥ २४ ॥ जाजावच्चइ रयणी | न सापडि नियत्तइ । धम्मंच कुणमाणस्स सफला जतिराईओ ॥२५॥ एगओ संवसित्ताणं दुहओ सम्मत्त संजुया । I पछ्या जाया गमिस्सामो भिख्खमाणा कुले कुले ॥ २६ ॥ जस्सथ्थि मच्चुणासख्खं जस्सवश्थि पलायणं । जोजाणे | न मरिस्सामि सोहुकंखे सृएसिया ॥ २७ ॥ अज्जेवधम्म पडिवज्जयामा जहिंपवन्ना न पुणभवामो । अणागयं नेवय अश्थिकिंचि सहाखमणेविणयतुरागं ॥२८॥ "जे रात्रि दिवस व्यतित थाय छे ते पाछ मळतां नथी: अधर्म आचरण करनार जीवनां रात्रि दिवस निष्फळ जाय छे. [२४]. 181 "जे रात्रि दिवस व्यतित थाय छे ते पाछ मळतां नथी: धर्माचरण करनार मनुष्यनां रात्रि दिवस सफळ थाय छे." [२५]. ए सांभळीने बाप कहे छे, " आपणे बन्ने (पिता अने पुत्रो) गृहवासमां (अमुक काळ) साथे साथे रहीने अने सम्यक्तादि व्रत पाळीने पछीथी साधु थइने घरोघर भिक्षार्थे विचरीशं." [२६]. ए सांभळीने पुत्रो कह छे, "जे पुरुषने मरणनी साथे मित्राइ होय, | अथवा तो जेने मरणथी न्हासी छूटवानी शक्ति होय, अथवा तो हुँ नहिज मरूं एम जेओ जाणता होय. तेज मनुष्य एवा निश्चय उपर आवी शके के अमुक कार्य है काले करीश. [२७]." हे तात! अमे तो आजेज धर्म अंगीकार करीशुं, जेम करवाथी अमारे फरीथी संसारमा जन्म लेवो न पडे; विषय सुखनी अपाप्ति ए काइज नथी. (आ जीवे संसारमा रहीने अनेक विषय सुख भोगव्यां छे); श्रद्धार अमने रागथी मुक्त करी शकशे." [२८]. १. भविष्य उपर के वृद्धावस्था माटे मुलतवी राखनार मनुष्य परिणामे बहु हेरान थाय छे ए जग जाहेर छे. प्रसिद्ध अंग्रेजी कहेवत छ के :-Work as if you were to live for ever, but live as if you were to die to-morrow. 3. Faith will enable us to put aside attachment. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pal पहीण पुत्तस्सहु नथ्थिवासो वासिछि भिख्खाय रियाएकालो। साहाहि रुख्खोलभए समाहिं छिन्नाहिं साहाहिं तमेवखाणु २९ ] पख्खा विहूणोवजहेह पख्खी भिच्च विहूणोवरणे नरिंदो । विवणसारो वणिओव्वपोएपहीण पुत्तो मितहा अहंपि ॥ ३० ॥ सुसंभिया कामगुणा इमेते संपिंडिया अग्गरसपभूया । भुंजा मुता कामगुणापगामं पछा गमिस्तामोपहाण मगं ॥ ३१ ॥ | भुत्तारसा भोइ जहाइणेवउ न जीषियठा पजहामि भोए । लाभं अलाभंच सुहंच दुख्खं संचिख्खमाणो चरिस्सामि | मोणं ।। ३२ ॥ ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० (ए सांभळीने भृगु पुरोहित पोतानी स्त्री प्रति कहे छे)-हे वाशिष्टिः पुत्रो विना गृहवास शुन्यवत् भासे छे, माटे हे पिये! मारे भिक्षुकधर्म अंगीकार करवानो अवसर आवी पहोंच्यो छे. वृक्ष शाखा वडेज शोभे छ; शाखाओ छेदाइ गया पछी ते वृक्ष टुटुं (खीलारुप) थइ रह छे. (तेय पुत्र वियोगथी मारुं चित्त गृहवासमा स्थिर रहेवार्नु नथी.)" [२९]. 'हे प्रिये ! जेम पांख विनानु । पक्षी शोभतुं नर्ग, जम संग्राममां सेवक विनानो गजा शोभतो नथी, वहाण भांगी जवाथीद्रव्यहीन थइ गयेलो वेपारी जेम शोच करे छे, तेवी पुत्र रहित थवाथी मारी दशा थशे.' [३०] ए सांभळीने वाशिष्टि कहे छे, "हे स्वामिन् ! आपे सुखनां सर्व पदार्थो एकठां कर्या छे अने शृंगार तथा रसोत्पादक सुंदर वस्तुओनो संग्रह को छे; ते वडे आपणे(हमणां ता)कामभोग भोगवीए अने पछीथी आपणे मुक्तिमार्गने विषे विचरीशुं." [३१. ए सांभलीने भृगु कहे छे, “हे भद्रे! आपणे भोग भोगवी चुक्या छीए. आयुष्यनो अंत नजीक आवतो जाय छे; भव भोगनी इच्छाथी (आ लोकार्थे) हुं कांइ कामभोग छांडतो नथी. परंतु लाभ अलाभ अने सुख दुःख तरफ समान वृत्ति राखीने हुं साधु धर्म पाळीश."[३२]. * मो. जेकोबी लखे छ के 'बहाणमा माल विनानो वाणियो' A merchant on a boat without hingoods. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40००००००००००० माह तुमसोयरियाण संभरे जुन्नोव्वहंसो पडिसोयगामी। भुज्जाहि भोगाईमए सभाणं दुखू भिखायरिया विहारो ॥ ३३॥ जहायभोई तणुयं भुयंगग्गो निम्मोयणी हिच्चपलेइ मुत्ते । इमेते जाया पयहंतिभोए तेहं कहं नाणु गमिरसमेक्को ।। ३४ ॥ छिदितुजालं अबलं वरोहिया मछाजहा कामगुणेपहाय । धौरेय सीलातवसा उदारा धीराहुभिखाय रियं चरति ॥ ३५ ॥ नहेव कोंच्चा समइक्कमंता तय णि जालाणि दलितुहंसा। पलिंति पुत्ताय पईयमझं तेहं कहं नाणु गमिस्समेक्का ॥ ३६ ॥ पुरोहि यंतं ससुयं सदारं सोचाभिनिखम्मपहायभोए । कुडंबसारं विउलुत्तमंत्तं रायं अभिखं समवायदेवी ॥ ३७ ॥ ए सांभळीने ब्राह्मणी कहे छ, “जेम कोइ एक वृद्ध राजहंस अबळे प्रवाहे तणावाथी पश्चाताप करे छे तेम रखेने तमने (दिक्षा लीधा पछी) पाछळथी तमारां स्वजन वगेरे याद आववाथी शोच थाय! मारी संगाथे भोग भोगवो. भिक्षाचर्यानं वृत दोहितं." BI [३३] भृगु कहे छे, हे भद्रे! जेम कांचळी छांडीने सर्प न्हासे छे, तेम मारा पुत्रोए भोग छोडीने दीक्षा लीघी छे. तो पछी मारा पुत्रोनी पाछळ शा माटे न जाउं? हुँ एकलो रहीने शुं करूं? [३४]. “जेम रोहित १ नामनी माछली नबळी जाळ छेदीने बहार नी कळी जाय छ तेम तप, शील अने उदारतामा प्रसिध्ध धीर पुरुषो काम भोग छांडीने भिक्षा चर्याने विषे विवरे छे." (३५). । सांभळीने ब्राह्मणी कहेछ, “जेम कौंच पक्षी तेमज वळी राजहंस जाळ तोडीने आकाशमा उडी जाय छे तेम मारा बन्ने पुत्रो अने पति भोग जाळ छडीने चाली नीकळे छे, तो पछी मारे तेमनी पाछळ शा माटे चाली न नीकळवं? एकली रहीने शुं करूं?" ३६]. काम भोग छांडीने अने धन धान्यादि तजीने पुरोहित पोतानां स्त्री पुत्रो सहित दिक्षा ले छे एम ज्यारे राणी (कमळावती) ए सांभन्युं त्यारे ते राजाने [पोताना पतिने] कहेवा लागी. [२७]. १.Cyprinus Rohita. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.8 १४. वतांसी पुरिमोराय नसोहोइप संसिओ । माहणेण परिचत्तं धगं आयाओ मिछसि ॥३८॥ सव्वंजगं जइतुहं सव्वं ।। वाविधणं भवे । सव्वपिते अपज्जत् नेवता गायतंतत्र ॥ ३९ ॥ मरिहितिर यं जातयावा मणोरमे कामगुणे पहाय । एकोहु धम्मो नरदेवताणं नविज्जइ अगमिहेह किंचि ॥४०॥ नाहं रमेख्खिणि पंजरेवा संताणछिन्ना चरिस्सामिमोणं आकिंचणाउज्जु कडा निरामिसा परिरगहारंभ नियत्तदोस। ॥ ४१ ॥ ) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ "हे राजन! जेम कोई पुरुष वमन करलो आधार फरीधी खाय ते प्रशंसाने पात्र गणातो नथी, तेम तमे पण ब्राह्मणे त्याग ६ करेलु धन ग्रहण करवानी इच्छा राखो छो ते प्रशंसा पत्र नयी. ]. "हे राजन! कोइ तगने आ जगत अने ते उपरनु सर्व धन अर्पण करे तोपण तेनाथी तणारी तृष्णा तप्त यवानी नथी तेमज वळी ते सघटुं तमारं रक्षण करवाने असमर्थ छ.२ (३९) " हे नरदेव ! जे काळे आप मनोहर का भोग छोडीने मरण पापशो त्यारे धर्म सिवाय आ जगतनी बीजी कोइ वस्तु तमने [जीवने ] दुर्गतिमां पडता बचावी शकशे नहि [0]. "जेम पक्षी पांजरामा पूराइ रहेनाथी संतोष पामतुं नथी, तेग भवपिंजरमां पडी रहवाथा मने संतोप थतो नथी. संतति, द्रव्य, कषाय विषय, अने परिग्रह तथा आरम्भना दोपरहित थइने हुँ मुनिव्रत धारण करीश. [४१]. 6०००००००० १. विन वारसी मिल्कत ए काळपां पग राज्यने जती एक आ उपरथी जगाय छे. २. श्रीमंतोए आ उपरथी घणु शीखवार्नु छे. एक हजारना रोजवाळी डोकटर के मोहोरोनी थेलोओ आपुष्पया एक क्षणनो पण वधारो करी शकती नथी माटे हमेशां शक्ति। अनुसार सन्मार्गे पुन्य करवानुं छे. ३. महमद गीझनीए लूटगां मेवेली दोलतनो ढगलो करावी, मृत्यु समये तेपर बीछान कराव्यु अने पोके पोक मूकीने रोयो पण ते हीरा, पानां के सोनुं रुघु तलभार पण तेनी साथे गयु नहि. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ००००००००००००००००००००००००००.०००.०० दवग्गिणा जहारन्ने डझमाणेसु जंतुसु । । सत्तापमोयंति रागदोस वसंगया॥४२॥ एवमेव वयंमूढा कामभोगेसू मुछिया । डझमाणं नबुझामो रागदोसांगणा जां ॥ ४३ ॥ भोगेभोच्चावमित्ताय लहुभूय विहारिणो । आमोयमाणा गछुति दियाकाम कमाइव ॥४४॥ इमेय बहा फंदंति ममहथ्थजमागया। वयंच सत्ताकामेसु भविस्सामो जहाइमे ॥४५॥ सामिसं कुललंदिस्स बझमाणं निरामिसं आमिसं सधमुझित्ता विहरिस्सामो निरामिसा ॥४६॥ गिद्धो वमेउ नचाणं कामे संसारवठ्ठणे । उरगो सुवन्न पासेव संकमाणो नर्गुचरे ॥१७॥ " अरण्यमां दावानळ लागवाधी अन्य जीवोने तेमां बळतां जोइने, रागद्वेषने वश थयेला बीजां पशुओ जेम परम आनंद पामे 8 छे, तेवीज रीते काम भोगमा लुब्ध थयेला आपणे मूढ लोको जोइ शक्ता नथी के जगत रागद्वेषना दावानळथी सळगतुं जाय छे.१ | [४२-४३]. “ जेणे प्रथम भोग भोगव्या छ भने पछीथी तेने छाडी दीया छे, तेओ वायुनी पेठे कशापण प्रतिबंध विना विहार करे 8 अने जेम पक्षीओ स्वेच्छाचारथी उडतां फरे छे तेम तेओ पण पोतानी मरजी पडे त्यां फरता फरे छ. [४४]. “हे आर्य! ए| २ काम भोगने मारा हाथमां सुरक्षित राख्या छतां ते स्थिर रहेता नथी. ते काम भोगने विषे आशक्त रहेवाथ। पुरोहितादि कहे छ तेवी स्थिति आपण थशे. (४.). “(मांसना टुकडाथी ललचाइने) जाळमां फसायेला पक्षीने, तेवी लालचथी न ललचायेल पक्षीओ ६ जेम जोइ रहे छे, तेम आपणे पण प्रत्येक लालचथी दूर रहीने विचरखं जोइए अने कोइपण लालचथी ललचायं न जोइए. [४६]. "मनुष्योने जाळमा फसायेला पक्षी भोजेवां जाणीने, तथा कामभोग संसार (भव फेरा) ने वधारनारा छे एम समजीने, जेम सर्प गरुडने (सुपर्ण) ने देखीने सावचेती अन संकोचथी चाले छ तेम प्रत्येक मनुष्ये वर्तवू जाइए. [४०]. १. The world is consumed by the fire of love and hatred. २.प्रो. जेकोबीए आ आखी गाथा 'पक्षीओने' लागु पाडेली छे. 'टीका' अने 'भाषा'मां ते काम भोगने लागु पाडली छे काम भोगनी अस्थिरता बताववानो उद्देश छे. मूळ पाठमां 'फंदति-स्थिरा न भवन्ति' छे. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज.अ. मंतं मूलं विविहं विजचिंत्तं वमण विरेयण धूमनेत्त सिणाणं । आउरे सरणंतिगिछियंच तं परिणायपरिव्यए स भिख्खू ॥८॥ खत्तिय गणउग्गरायपुत्ता माह" भोइय विविहाय सिप्पिणो । नोतेसिं वयइसिलोग पूयं तं परिणाय परिबए स भिख्खू १॥ ९॥ गिहिणोजे पव्वइएण दिठ्ठा अपथ्बइ एणवसंथुया हवेज्जा । तेसिंइहलोइय फलठ्याए जे संथवं न करे इस भिख्खू ॥ १० ॥ सयणा सणपाण भोयणं त्रिविहं खाइभंसाइमं परेसिं । अदए पडिसेहिए नियंठे जेतथ्थनपओ सई स भिख्खू ॥११॥ ..०००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००००००.०० मंत्र, जडी बुटी, विविध वैद्यक, वमन, विरेचन अने धूम्र प्रयोग, आंखनां अंजन, विलाप अने शांत्वन, एटलां वानां पोताने रोग थवाथी करे नहि अने अन्यने माटे करावे नहि ते खरो साधु कहेवाय । [८]. क्षत्रिओ, २ उग्रलोको अने राज पुत्रोनी, तेमज राजा, भागलोको अने प्रधानादि के कारीगरो कोइनी प्रशंसा अथवा परवा करे नहि ते साचो साधु कहेवाय. [९] जे कोइ पुरुष दिक्षा लीधा पछी थीजा ग्रहस्थोना संसर्गमा आववा छता, अने तेपनी साथे साधु थया पहेलां सारो संबंध होवा छतां, आ लोकना लाभ अर्थे तेमनो परिचय सेवे नहि ते खरो साधु कहेवाय. (१०), कोइ ग्रहस्थ पोतानी इच्छा पूर्वक शयनाशन [पाट, बाजोठादि], आहार प.णी अथवा विविध प्रकारनां स्वादिष्ट भोजन आप नहि तो ते लेबानो निग्रंथने प्रतिबंध छ; एवे प्रसंग जे निग्रेथ कोपन करे ते खरो सावु कहवाय. (११). १.तेमां हिंसानो संभव होवाथी साधुन मना करी छे २. 'उग्र' अने 'भोग' बन्ने क्षत्रि कुळ हतां. उन जातिना बडवाओ 18| श्री ऋषभदेव भगवानना समयमां कोटवाळ हता अने भोग जातिना तेमना बाप दादाना राज्यमा मानवंता होदा भोगाता हता. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं किंचि आहारपाण विविहं खाइ मसाइन परेलिध्धु । जोतंतिविहेणनाणु कंपेमण वय कायसुसंवुडे स भिरखू॥१२॥ आयामगंचेव जवोदणंच सीयसो वीरं जबोगच । नोहीलर डि नरसंतु पंतं कुलाणि परिधए स भिख्खू ॥१३॥ सद्दा विविहाभवंतिलोए दिवामाणुस्साय तहातिरिछ । भीमाभयभेरवा उराला जे सोचा न विहिजाइ स भिख्खू ॥ १४ ॥ 00००००००००० ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० कोइ साधु ग्रहस्थने त्यांथी आहार पाणी अने सादिष्ट भोजन ला आवे, छतां वीजा(बाळ, वृद्ध, विमार साधु) उपर मन, वचन, कर्मथी अनुकम्पा लाव नहि अने तेना सरखा विभाग करीने वडेंची आपे नहि तो ते खरो साधु कहेवाय नहि पण जो ते पाताना मन, वचन, कमने संयममा राखीने ते प्रमाणे वर्ने तो ते खरो साथ कहेवाय.(१२). ओसामण २, जबर्नु ओदन, चोग्वानी: कांजी | जवर्नु धोवण आदि स्वादरहित ४ आहार पाणीने जे साधु निंदे नहि, अने एवां दुर्बळ घेर गोचरी अर्थे जाय ते खरो साधु कहवाय. (१३). आ लोकने विवे देव, मनुष्य अने तिथंच कृत विविध प्रकारना अति रौद्र, भयंकर अने चीहामणा शब्द (अवाज) थया करे छे, ते सांभळवा छतां जे साधु पोतानां धर्म ध्यानधी चलित न थाय ते खरो साधु कहवाय. (१४) १. जेकोबीकृत भाषान्तर अने संस्कृत टीक मां उपर प्रमाणे अर्थ करेले छे; पण भू..मां गाथानी नीचे 'भाषा' छे तेमां 18 एवो अर्थ करेलो छ के-“कोइ साधने ग्रहस्थाने त्यांथी आहार पाणी अने स्वादिष्ट भोजननी प्राप्ति थाय, पण भलो भुंडी आहार पामवा छतां मन, वचन, कर्मथी तेने निंदे नहि ते खरो साध कहेवा." २. मूळ पाठमा 'आयामगं' शब्द छ तेनो संस्कृत ६ शब्द 'आचमनं' होइ शके ज 'अवस्वान' Dish water ना अर्थमा अहिं परायेल जणाय छे. ३. Coll sour grul. 21 ४. Loathsome. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १५. 993 वायं विविहं समेच्चलोए सहिएखेयाणु गए कोवियप्पा | पन्ने अभिभूय सव्वदसी उवसंतेअ विहेडए स भिख्खू ॥ १५ ॥ असिप्पजीवीअ गिहेअमित्ते जिइंदिए सव्व ओविप्पमुक्के | अणुक्कसाइलहु अप्पभी चिच्चाहिं एगचरे स भि तिमि ॥ १६ ॥ ॥ इति भिख्खू झयणं पन्नरसमं सम्मत्तं ॥ १५ ॥ विविध प्रकारना धर्मवादने जे जाणे छे, सप्त दश विधे दृढ संयम २ पाळे छे, पोताना आत्माना उद्धारनुं चिंत्वन करे छे, बुद्धिमान छे, जेणे सर्व परिसहने जीत्या छे, जे सर्वदशी छे, अने जे शान्त अने हिंसा रहिन छे ते खरो साधु कहेवाय . [१५]. जे चित्रादि विद्याथी पोतानी आजीविका करतो नथी, जेणे घरवार अने सगां वहालांनो त्याग करेलो छे, जेणे इन्द्रिओने जीती छे, जे बाह्य अने अभ्यंतर गांठथी मूकाणो छे, जे रागद्वेष रहित अने अल्पाहारी छे अने जे घरवार त्यागीने एकलो विचरे छे ते खरो साधु कहेवाय. [१६]. ani * १. Religions disputations. २. मुळ पाठमा 'खेदाशुगये' छे. 'खेदानुगतः - संयम स्तेन अनुगतः ' खेदनो अर्थ अहिं संयम तररीके लेवानो छे. ३. आवा खरा साधुओनी संख्या वधवामांज शासननी उन्नति छे. श्री संघ ज्ञान बुद्धिनां साधनो का धुओने करी आपता जशे तो अने त्यारेज आवा खरा साधुओनी संख्या वक्ती जशे ४. 'जे वीजा साधुओ साथै रहे छे'Who lives together with fellow monks. आटला शब्दो कोइ प्रतमां पंदरमी गाथामां विशेष होवानुं मो. जेकोबी जणांवे छे. पण ते पाछळथी उमेराया लागे छे. Jain Educationa International ॥ पंदरम् अध्ययन संपूर्ण. ॥ For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६- अध्ययन १६. ब्रह्मचर्यनां दश समाधि स्थान'. सुर्यमेआउसंतेणं भगवया एवमख्खायं इहखलुथेरेहिं भगवतेहिंदसबंभचेर समाहिठाणापन्नत्ता ॥ जेभिख्खू सोच्चा निसम्म संजम बहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्तेगुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा ॥ कयरे खलुतेथेरेहिंभगवंतेहिं दसबंभचेरसमाहिठाणापन्नत्ता, जेभिख्खूसोच्चानिसम्मसंजमबहुलेसंवरबहुलेसमाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारिसयाअप्पमत्तेविहरेज्जा, इमेखलुतेथेहिंभगवंतेहिदसबंभचेरसमाहिठाणापन्नत्ता, जे भिख्खू सोच्चा- 18 | निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्तेगुतिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पम्मत्ते विहरेज्जा ॥ हे आयुष्मन (जंबु)! नीचेनुं व्याख्यान में (सुधर्माए ) श्री महावीर भगनान पाप्थी सांभळ्यु छे :- जिनशासनने विषे श्री । स्थविर भगवाने ब्रह्मचर्यनां दश समाधिस्थान प्ररुप्यां छे, जेनुं श्रवण करवाथी अने समजवाथी साधु संयम अने संवरने विषे सुदृढ रही शके छे. पोतार्नु चित्त स्थिर राखी शके छ, त्रण गुप्तिए सुरक्षित रही शके छ, पांचे इन्द्रिओने काबुमा राखी शके छे, ब्रह्मचर्य पाळी शके छे अने सदासर्वदा अप्रमत्त विचरी शके छे. ए सांभळीने शिष्य पूछे छे “हे पुज्य! श्री स्थविर भगवाने कहेला ए दश समाधिस्थान कयां कयां छे के जे सांभळवाथी अने समजवाथी साधु संयम अने संवरने विषे सुदृढ रही शके छे............वगेरे उपर प्रमाणे 46660००००००००००० 2000000000000000 000000000000000000000000 १. The ten conditions of perfect chastity. २. प्रमाद रहित Never be remiss ( in the at-al I tendance in their religions duties) पोतानां नित्य कर्तव्यामा प्रमाद न करता साधु जीवन गाळवानो बोध छे. Jain Educationa intematonal For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १६. ११५ तं जहा विवित्ताई सयणासणाई सेविज्जा सेनिग्गंथेनोइथ्थिपसुपंडग संसत्ताइ सयणासणाइंसेर्वित्ता हवइ सेनि - ग्गंथे तं कहमितिचेआयरियाह ॥ निग्गंथस्सखलु इथ्थि पसुपंडग संसत्ताई सयणा सणाइंसेवमाणस्सबं भयारिस्स बंभचेरेसंकावा कंखावा वितिगिलावा समुप्पज्जेज्जा, भेयंबाल भेज्जा उम्मायंवा पाउणिज्जा दीहकालियंवारो गायंक हविज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा तम्हाखलनो 'इथिवसुपडंग संसत्ताईसयणासणाई 'सेवित्ता हवइ सेनिग्गंथे ॥१॥ नोनिग्गंथेइथ्थीणं कहंकहित्ता हवइ सेनिग्गंथेतं कहमितेचे आयरियाह निग्गंथस्स खलुइथ्थीणं कहंकहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संकावा कखावा वितिगिछुवा समुप्पज्जेज्जा, भेयंवालंभेज्जा उम्मायंवापाउणेज्जा १. केटलीक प्रतोमां आ पेहेलां ' निमगंथे ' शब्दछे अने छेले ' सेवेज्जा' शब्दथी वाक्य पुरुं करेलछे. उपर प्रमाणे थवाने माटे ब्रह्मचर्यनां दश समाधिस्थान श्री स्थविर भगवाने नीचे प्रमाणे प्ररुप्यां छे :- १. निग्रंथे पोतानां शयन आसनादिने माटे गमे तेवां स्थाननो उपयोग करवो, पण स्त्री, पशु अने नपुंसकधी व्याप्त होय एवां स्थाननो उपयोग करवो नहि. श्री आचार्ये तेम न करवानुं कारण समजाच्युं छे के जो कोइ निग्रंथ पोतानां शयनासनादिने माटे स्त्री, पशु अने नपुंसकथी व्याप्त होय एवा स्थाननो उपयोग करे तो ते पोते ब्रह्मचारी होय छतां तेना ब्रह्मचर्यने माटे शंका उपजे छे, अथवा तो तेने स्त्रीयादि साथे भोग भोगववानी इच्छा थाय छे, तेने संदेह उपजे छे, चारित्रनो भंग थाय छे, उन्माद उपजे छे, लांबा काळ सुधी दाघ ज्वरादिक रोग थाय छे, अथवा तो श्री केवलीना भाखेला धर्मथी ते भ्रष्ट थाय छे; तेटला माटे निश्ये स्त्री, पशु अने नपुंसक जे स्थाने वसतां होय तेवां स्थान पोतानां शयनासनादिने माटे सेववां नहि. २ निग्रंथे स्त्री कथा-शृंगारी वात चित करवी नहि, श्री आचार्ये तेम न १. Become slave to passion. २. प्रो. जेकोबी “स्त्रीनी साथे वात करवी नहि " एवं भाषान्तर करे छे पण ते असंभवीत छे, कारण गोचरी वीगेरे घणे प्रसंगे स्त्रीनी साथे वात चीत करवानो तेमने प्रसंग पड्या विना रहेतो नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.rary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.. दीहकालियंचारोगायकंहवेज्जा केवलिपनत्ताओ धम्माओभंसेज्जा तम्हाखलुनोनिग्गंथे इथ्थीणं कहं कहेजा ॥ २ ॥ नोनिग्गंथे इथ्थीहिंसडिंसंनिसिज्जागए विहरेत्ता, हवइसेनिग्गंथे तं कहमितिचे आयरियाहनिग्गंथरस खलुइथ्थिहिंसद्धिंसंनि सेज्जागयस्स विहरमाणस्सबंभयारिस्सबंभचे रेसंकावाकखावा वितिगियावा समुपजेजाभयंवालभेज्जा उम्मायं वापाउणिज्जा दीहंकालियंवा रोग्गयंकहवेज्जाकवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा तम्हाखलुनोनिग्गंथे इथ्थीहिंसाळिसांने सेज्जागएविहरिज्जा॥३॥नोनिग्गंथेइथ्थीणंइंदियाइंमणोहराइमणोरमाइंआलोइत्ता,निझाइत्ताभवइसनिग्मथे।तंकहमितिचे आयरियाहनिग्गंथस्सखलुइथ्थीणंइंदियाइमणाहराइंमणोरमाइं,आलोए माणस्स निझाएमाणरसबंभयारिस्सबंभचे रेसंकावा कंखावावितिगिलावा समुप्पजेज्जाभेयवालभेज्जा उम्मायंबापाओणिज्जा।।दीहकालियंवारोगायक हवेज्जाकेवलिपन्नत्ताओ धम्माओभंसेज्जा तम्हा खलुनोनिग्गंथेइथ्थीणं इदियाइं मणोहराई मणोरमाइं आलोइत्तानिझाइत्ता ॥४॥ ००००००००००० ००००००००००००० १. केटलीक प्रतोमा ' आलोइत्ता निझाइ माणस्स'छे, अने केटलीकमां 'आलोए निझाए माणस्स' एम भेगुं लीधेलुछे. | करवानुं कारण समजाव्युं छे के जो निग्रंथ स्त्री कथा करे तो ते पोते ब्रह्मचारी होय छतां..........( उपर प्रमाणे ). ३. निग्रंथे स्त्रीनी संगाथे एकज आसने वेसवु नहि. श्री आचार्ये तेम न करवानुं कारण समजाव्युं छे के जो निग्रंथ स्त्रीनी संगाथे एकज आसने बेसे तो............(उपर प्रमाणे) ४. निग्रंथे स्त्रीनां सौंदर्य तथा मनोहरता तरफ नजर करवी नहि, तेमज तेनं चिंत्वन कर नहि. श्री आचार्ये............(उपर प्रमाण). १. शियळनी नव वाड. For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4200000 ००००००००००००००००००००० 20000000000 ०००००००००००००००००००००००००० नोनिग्गंये इथ्थीणं कुडंतरंसिवा,दूसंतरंसिवा, भित्तिअंतरंसिवा,कुइयंसंद्दवा,रुइयंसहवा,गीयसंहवा,हसियसद्वंवा,थणियस इंवा, कंदियसदंबा,विलवियसदवा,सुणित्ता हवइसेन्निग्गंथे।तं कहमितिचे आयरियाह निग्गंथस्सखलुइथ्थाणंकुडंतरंसिवा *दूसतरंसिवा॥ भित्तित्तरंसिवा कुइयंसहवां रुइयंसहवां गियसद्दवा हसियसवाथणियसबंवा कंदियसदंवा*विलवियसकंवा सणमाणसा बंग यारिस्सबंभचेरे,कावा कंखावा वितिगिछावा समप्पज्जेज्जा भयंवालभेज्जा ॥ उमायंवा पाउणिज्जा- 18 दीहकालिय् वा रोगायंकंहवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसज्जा, तम्हा खलु नोनिग्गंथे इथ्थिणं कुडंतरंसिवा,'दूसतरंसिवा भित्तिरि वा कुइयंसवा रुइयंसदंवा गीयस्सदंवा हसियसदवां थणियसदंवा कांदयसवां विलवियसदंवा 'सुणेमाणे विहरेज्जा ॥५॥ नोनिग्गंथे इथ्थीणं पुवरयं पुवकीलियं अणुसरित्ता भवइसनिग्गंथेतंकहमितिचेआयरियाह निग्रंथरस खलुइथ्थिणं पुवरयं पुव्वंकीलियं अणुसरमाणस्सबंभयारिस्स बंभचे रेसंकावा कंखावा वितिगिछावा समुष्प ज्जेज्जा,भेयंबालभेज्जाउमायंवा पाउणिज्जा दिहकालियंवा रोगायंकंहवेज्जा॥केवलीपन्नत्ताओधम्माओ भंसेज्जा, तम्हा खलुनोनिग्रंथे इश्थीणंपुव्वरयंपुबकीलियअणुसरेज्जा ॥ ६ ॥ * केटलीक प्रतोमां आ शब्दो फरीथी न मुकता 'जाव विलवियसवा' एम चलावी लीधुं छे. १. केटलीक मतोमां आ शब्दो न मुकतां 'जाव सुणेमाणे विहरेजा' एम चलावी ली, छे. ५. निग्रंथे पडदाने अथवा दिवालने आंतरे रहीने स्त्रीनां कलह, (कोप), रुदन, गीत, हास्य, विलाप (आक्रन्द) आदि शब्द सांभळवा नहि................(उपर प्रमाणे), ६. निग्रंथे पोताना ग्रहस्थाश्रममा पूर्वे स्त्री संगाथे जे भोग भोगव्या होय ते संभाळवा नहि............( उपर प्रमाणे), Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....००००० | नोनिग्रंथे'पणीयंआहार आहारित्ता हवइ सेनिगंथेतं कहमितिचे आयरियाह निग्रंथसखलुपणीयंआहार आहारेमाणरस | बंभयारिस्स बंभचेरे संकावाकखावा वितिगिछावा समुप्पज्जेज्जा ॥ भेयंवालभेज्जा उम्मायवापाउणिज्जा दीह कालियंवा । रोगायकहवेज्जा, केवलि पन्नताओ धम्माओ भंसेजातम्हा खलु नोनिग्रंथे पणीयं आहारं आहारिज्जा ॥७॥ नोनिग्रंथे । अइमायाए पाण भोयणं आहारित्ता हवइ से निग्रंथे तं कहमिति चे ॥ आयरियाह निग्रंथस्स खलु अइमायाए पाण भोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संकावा कंखावा वितिगिछावा समुप्पोला।मेयवालभेज्जा उम्मायंबा पाउरोजा दिहकालियं वा रोगायकहवेज्जा केवलीपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेजा तम्हा खलुनोनिग्रंथे अइमायाए पाणभोयणं । अँजिजा॥८॥नो निगथे विभू साणूबाई हवई सेनिग्रंथे॥ तं कहमित्तिचे आयरियाहनिगंथस्स खलु विभू सावत्तिए विभू सिय सरीरे इथ्थीजणरस अहिलसणि भवईतओणं तस्स इश्थिजणेण||अहिलसणजमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संकावा है। कंखावा वितिगिछावा समुप्पजज्जा भयंवालभेजा उम्मायं वा पाउणेजा हि कालिथं वा रोगायकं हवेज्जा केवलिप| न्नताओ धम्माओ भंसेज्जा, तम्हा खलुनोनिग्रंथे विभूसाणुवाइसिया ॥ ९ ॥ १. केटलीक प्रतोमा 'निग्गंथे शब्द नथी. २. केटलीक प्रतोमा अहिं 'अतिमायाए' शब्द वधारे छे. ७. निग्रंथे घीथी लचपचतो आहार (विगयवाळो माल मलीदो) खाचो नहि...........(उपर प्रमाणे). ८. निग्रथे अति खानपान सेवई नहि............(उपर प्रमाणे). ९. निग्रंथे पोताना शरीरने (सुशोभित वस्त्रालंकारथी) विभुषित कर नहि. श्री आचार्ये तेम न करवानुं समजाव्यु छ के जो साधु पोताना शरीरने अलंकारोधी विभुषित करे तो स्त्री जातिने तेनामां (तेने भोगववानी) अभिलाषा उत्पन्न थाय अने तेम थवाथी............ ( उपर प्रमाणे). Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोनिग्रंथे सदरूवरसगंधफासाणु वाइहवइ सेनिग्रंथे तं कहमितिचेआयरियाह निग्रंथस्स खलुसदरूव रसगंधफासाणु 8 वाइयस्सबंभयारिस्स बंभचेरे संकावा कंखावा वितिगिछा वा समुप्पजेजभियंवालभेजा उम्मायंवा पाउणिजा दीहका| लियं वा रोगायकं वाकहवेज्जा ॥ केवलि पन्नत्ताओ धम्माओ भंसेजा ॥ तम्हा खलु नोनिग्रंथे सदरूवरसगंधफासाणु वाइ, सेनिग्रंथेहवेचा दसमे बंभचेर समाहिठाणे भवइ ॥ १० ॥ भवइ इथ्थसिलोगो तंजहा जंविवित्तमणाइन्नं रहियं इथ्यीजणेणय बंभचेरस्सरख्खठ्ठा आलयंतुनिसेवए ॥१॥ । मण पल्हायजाणी कामराग विवढुणी । बंभचेर रओ भिख्खूथी कहंतु विवजए ॥ २॥ संमचं संथवंथीहिं संकहंच 1. अभिख्खणं । भचेर रओभिख्खू निच्चसो परिवजए॥३॥ अंगपञ्चंग संठाणं चारुल्लवियपेहीयं। बंभचेर रओथीणं च खूगिझं विवजए ॥ ४ ॥ *१०. निग्रंथे शद, रुप, रस, गंध अने स्पशेनी दरकार करवी नहि............(उपर ममाणे). आ प्रमाणे ब्रह्मचर्यनां दश समाधिस्थान वर्णव्यां छे, हवे ए वर्णन श्लोक [पद्य ]मां फरवामां आवे :साधुए पोताना ब्रह्मचर्यना रक्षणार्थे स्त्री रहित एकांतवासमां [उपाश्रयमां] रहे. [१]. शीलवत पाळनार साधुए स्त्री कथास्त्री संबंधी वात करवी नहि, कारण के ते मनने उश्केरनारी अने काम तथा रागने वधारनारी छे. [२]. शीलवत पाळनार साधुए स्त्रीनो परिचय सेववो नहि अने तेनी साथे वारंवार वातचित करवी नहि.[३]. ब्रह्मचर्यने विषे दृढ साधुए स्त्रीनां अंग प्रत्येग (कुच कटाक्षादि अवयवो) निहाळीने जोबां नहि, अने स्त्रीनां मनोहर मीठां वचन अने आंखोना अणसारा तरफ नजर करवी नहि.[४]. ___* आ अभ्ययननो आटलो भाग गद्यमां छे; त्यार पछीनो भाग पद्यमा छे. बन्ने तात्पर्य एक सरखं छे. Join Education Interational For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 कुइयंरुइयंगीय हसियंथणियंकंदियं । बंभचेर रओधीणं सोयगिझं विवज्जए ॥ ५ ॥ हासं किडुरइंदप्प सहसाभुत्ता सिणाणिय । बंभचेर रओथीणं नाणुचित्ते कयाइवि ॥६॥ पणीयंभत्तपाणंतु विप्पमय विवढणं । बंभचेर रओभित्रव निच्चसो परिवज्जए ॥ ७ ॥ धम्मलध्धुं मियंकाले जत्तथं पणिहाणवं । नाइमत्तंतुभुजोजा बंभचेर रओ सया ॥ ८ ॥ विभूसं परिवजेजा सरीर परिमंडणं । बंभचेर रओ भिख्खू सिंगारथ्थं न धारए ॥ ९॥ सहे स्वेय गंधेय रसेफासे | तहेवय । पंचविहेकामगुणे निच्चसो परिवजए ॥ १० ॥ ब्रह्मचर्यमा सुदृढ साधुएं स्त्रीनां कलह, [कोप], रुदन, गीत, हास्य, विलाप [ आक्रन्द], आदि शद्ध सांभळवा नहि. [4]. वि ब्रह्मचर्यना पाळनार साधुए स्त्री संगाथे पूर्वे [गृहवासमां करेलां हास्य, क्रीडा, मेथुन वगेरे संभाळवां नहि अने स्त्रीनुं मान मूकाववाने तथा तेने त्रास उपजाववाने पोते केवी केवी युक्तिओ रची हती तेनुं चिंत्वन कर नहि.[६]. शीलवत पाळनार साधुए मदने तत्काळ उत्पन्न करे एवां स्वादिष्ट खानपाननो त्याग करवो. [७]. ब्रह्मचर्यने विष सदा रक्त साधुए गोचरी वेळाए धर्मना नियम अनुसार मेळवेलो आहार, संयमना निर्वाह अर्थेज [बळ, विर्यनी वृद्धि अर्थे नहि) जोइए तेटला प्रमाणमा योग्य काळे खावो. चित्तनी स्थिरता साचवीने तेणे अति आहार करवो नहि. [८]. ब्रह्मचारी साधुए शरीरनी शोभानो (नख, केश, मूंछ वगेरे) त्याग 5 करवो. * शृंगार अर्थे तेणे पोताना शरीर उपर आभुषण धारण करवां नहि. [0]. शीलवत पालनार साधुए पांच प्रकारना काम | गुण एटले शब्द, रुप, गंध, रस अने स्पर्शनो सदा परित्याग करवो. (१०) * प्रो. जेकोबी लग्ये ले के 'शृंगारी लोकोनी माफक' Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ०००००००००००००००००००००० आलउथी जणाइन्नोथी कहाय मणोरमा । संथवो चेवनारीणं तासिंइंदिय दरिसणं ॥११॥ कुइयं रुइयंगीयं हसियं भत्ता सियाणिय । पणीयंभत्त पाणंच अइमायं पाणभायणं ॥१२॥ गत्तंभसणमिठं च कामभोगाय दुज्जया। नरस्सत्त गसिरस विसं तालउडंजहा ॥१३॥ दुज्जए कामभोगेयं निच्चसो परिवज्जए । संकठाणाणि सव्वाणि वजेज्जा पणिहाणवं ॥१४॥ धम्माराम चरेभिख्खू धिइमंधम्मसारही। धम्मारामे रएदंते बंभचेर समाहिए ॥ १५ ॥ देवदाणव गंधवा जख्खरखस्स किन्नरा । बंभयारिं नम रसंति दुक्करंजे करंतितं ॥१६॥ एसधम्मे धुवेनियए सासए जिणदेसिए सिद्धासिझंतिचाणेणं सिझिस्संतितहावरे तिबमि ॥१७॥ ॥ इति बंभचेर समाहि झयणं सोलसमं सम्मत्तं ॥१६॥ स्त्रीओनी ज्यां बहु आवजा होय तेवू स्थान, स्त्रीओनी मनोहर वाणी, स्त्रीनो परिचय अने तेनां इन्द्रिय दर्शन (कुच-कटाक्षादि) स्त्रीनां कोप, रुपन, गीत, हास्य वगेरे, अने तेनी साथे काम भोग, वळी स्वादिष्ट खानपान अने मात्राथी अधिक आहार पाणी, अने अलंकार तथा आभुषण; काम भोगनी आ सर्व वस्तुओ जे त्यागवी दुर्लभ छे, ते आत्माना गवेषीने *तालपुट विष समानछे. [११-१२-१३]. काम भोगनी ए सर्व वस्तुओ ज दुर्जय (जीतवी मुश्केल ) छे तेनो तेणे हमेशने माटे त्याग करवो जोइए; अने एकाग्र चित्तथी, पोताना ब्रह्मचर्य उपर जेथी शंका उपजे ते सर्व तेणे वर्जवां जोइए. (१४) खरो साधु धर्म रुपी उपवनने विषे धर्म || सारथी रुपे दृढताथी विचरेछे, अने धर्माराम, सन्तोष अने संयममां रहीने शुद्ध ब्रह्मचारी साधुना धर्म पाळेछे. [१५] देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस अने किन्नर ए सर्वे ब्रह्मचारी साधु जे पोतानां दुष्कर धर्म पाळेछे तेने नमस्कार करेछे. (१६). आ नित्य, शाश्वतो अने त्रिकाळे फळ दायक धर्म श्री तीर्थकर देवे भाख्योछे; पूर्वे अनेक जीव ए धर्म [ब्रह्मचर्य] पाळाथी सिद्धिने पाम्या | 18 छे अने हवे पछी पण पामशे. [१७] ॥ सोळमुं अध्ययन संपूर्ण. ॥ * तालुपट विष ताळवं फाडी नांखे एवं झेर Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १७. १२२ अध्ययन १७. पाप श्रमण. ( पापिष्ठ साधु ). जे नियंठे धम्मं सूणित्ता विणओववणे । सुदुछहं लहिओ बोहिलाभं विहरेज्ज पाय जहासुहंतु ॥१॥ सेज्जादढ्ढा पाउरणंमिअधि उप्पज्जई भोतुं तहेवपाउं । जाणाभिजंबट्टइ आउसोत्ति किंनामकाहामिसुएणभंते ॥ २ ॥ Gas easy निद्दासीले पगामसो भोच्चा । पिच्चासुहंसुबइ पावसमणेत्ति वुबई ॥ ३ ॥ आयरिय उवझाएहिं सुयं विणयंत्र गाहियं । तेचेवखिंसई बाले पाव समणेति वच्चई ॥ ४ ॥ कोइ निग्रंथे दिक्षा लीधी होय, धर्मनुं श्रवण कर्तुं होय, विनय-धर्म अंगीकार करीने वे पाळतो होय, अने बोधि-लाभ [ मम्यकलाभ] जे प्राप्त थवो दुर्लभ छे ते पाम्यो होय अने पछीथी ते यथेच्छ वर्ते; (१). पछीथी ते एम कहे के ' हे गुरु | मारे सारी शय्या छे, [ अथवा टाढ, ताप अने वर्षादथी मारुं रक्षण करवाने मजबूत उपाश्रय छे ], शरीर ढांकवाने सारां वस्त्रो छे, मने सारां खानपान मळे छे, जीवादि वस्तुओ केम वर्त्ते छे ते सर्व हुं जाणं हूं; तो पछी हे आयुष्मन् ! सिद्धांत भणीने मारे शुं काम छे ? [ २ ]. जे साधु दिक्षा लइने सदा निद्रामां ग्रस्त रहे अने मरजी मुजब खुब खाइ पीइने सुखे सूइ रहे ते पाप श्रमण [दुष्ट साधु] कहेवाय. [३] पोताना आचार्य अने उपाध्याय पासे सिद्धांत भणीने तथा विनय शीखीने पछीथी जे मूर्ख तेमने निंदे ते पाप श्रमण कहेवाय . [ ४ ]. १. दरेक संप्रदायना पुज्य श्री अने आचार्य श्री ओए आवी कुठेवोवाळा साधुओपर पुरतो अंकुश राखी, तेमने अभ्यासमां जोडवा जोइए जेथी पोताने अने पारकाने लाभ करी शके. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...०० आयरिय उवझायाणं सम्मंनो पडितप्पई। अप्पडिपूयएथडे पावसमणेत्ति वुच्चई ॥ ५॥ संमद माणेपाणाणि | बीयाणि हरियाणिय । असंजएसंजयमन्नमाणे पावसमणेत्ति वुच्चई ॥ ६ ॥ संथारं फलगंपीढं निसिज्जं पायकंबलं । 1 अप्पमज्जियमारुहई पावसमणेत्ति वुच्चई ॥ ७ ॥ दवदवस्स चरई पमत्तेय अभिख्खणं । उल्लंघणेयचंडेय पावसमणेत्ति वुच्चई ॥८॥ पडिलेहेइ पमत्ते अवउझइ पायकंबलं । पडिलेहणा अणाउत्ते पावसमणेत्ति वुच्चई ॥९॥ पडिलेहेइ पमत्ते सेकिंचिहु निसामिया । गुरुं परिभवेइ ' निच्चं पावसमणेत्ति वुच्चई ॥१०॥ १. केटलीक प्रतोमा 'परिभावइ' परिभासए' एम जुदा जुदा शद्धो छे. • पोताना आचार्य, उपाध्यायनी करवी जोइए तेम सम्यक प्रकारे सुश्रुषा न करे (प्रीति न मेळवे), अने अहंकारने लीधे गुरुथी विमुख रहे, (अथवा-पोताना उपर उपकार करनार तरफ प्रत्युपकार न करे), ते पप श्रमण कहेवाय. [५]. जे साधु प्राणीओने, बीजने (सचेत धान्यादिने) अने फळ, पुष्पादिने पीडा उपजावे, अने पोते आत्म-संयममा दृढ न होय छतां पोताने दृढ माने ते पाप श्रमण कहेवाय. [६]. जे साधु पाट, पथारी, बाजोठ, आसन अथवा रजोहरणादि । वस्तुओ सारी पेठे पुंज्या (जीवनी जतना कर्या) सिवाय पापरे ते पाप श्रमण कहेवाय. [७]. जे साधु भिक्षादि अर्थे उतावळो उतावळो अने प्रमाद सहित चाले, अने विनय रहित तथा क्रोध, उन्माद सहित विचरे ते पाप श्रमण कहेवाय. [८]. जे साधु वस्त्र, पात्रादिक वस्तुओर्नु पडिलेहण करवामां आळस करे, रजोहरण, कांबळ । इत्यादि गमे त्यां फेंकी दे, अने सावधान मनथी पडिलेहण कर नहि ते पाप श्रमण कहेवाय.९].जे साधु, ६ काइ कथा-वार्ता थती होय तेमां ध्यान खेचावाथी पडिलेहणमां प्रमाद करे, अने पोताना गुरुने सदा संताप उपजावे ते पाप श्रमण कहेवाय. [१०]. १. मुळ पाठमा 'पाय कंबलं' शब्द छे. टीकाकार तेनो अर्थ 'पाद पुच्छनं ' एटले पग पुजवान वस्त्र एम करे छे,एक टीकाकार 8 'पात्र कंबल' शब्दने बदले ते वपरायो बतावी पातराने ढांकवानुं वस्त्र एवो अर्थ करे छे. ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० Join Education Interational For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००० । बहुमाई पमुहरी थडेलुढे अनिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते पावसमणेत्ति वुचई ॥११॥ विवायचउईरेई अहम्मे अत्तपन्नहा । बुग्गहे कलहेरत्ते पावसमणेत्ति वुच्चई ॥१२॥ अथिरासणे कुकुईए जथ्थतथ्थनिसीयई । आसणंमिअ उत्ते णवसमणेत्ति बुच्चई ॥१३॥ ससरख्वपाओ सुबई सेज्जं नपडिलेहई । संथारए अणाउत्ते पावसमणेत्ति वुच्चई ॥१४॥ दुद्धदही विगइओ आहारेई अभिख्खणं । अरएय तवोकम्मे पावसमणेत्ति वुझाई ॥३५॥ अथ्थं तमियसूरंमि आहारेई अभिख्खणं । चोईओ पडिचोएइ पावसमणत्ति वुच्चई ॥ १६ ॥ १. केटलीक प्रतीमा 'उदेरेई छे. जे साधु मायाथी युक्त, वाचाळ, अहंकारी अने लोभी, लालचु] होय, जे इन्द्रिय-निग्रह करी शकतो न होय, जे संविभाग रहित होय (एटले-आहार वगेरे अन्य साधुओनी साथे सरखे भागे वहेंचीने खातो न होय), अने जे गुर्चादि साथे अमीति करे ते पाप श्रमण कहेवाय. [११]. जे साधु विवाद । करे, कलह करे, बुद्धिने भ्रष्ट करे अने विषवाद तथा विग्रहमां अनुरक्त रहे | ते पाप श्रमण कहेवाय. [१२], जे साधु अस्थिर-हालता आसनपर बेसे, फावे तेम चेष्टा को करे, अने ज्यां त्यां असावधपणे (पडिलेहण कर्या विना) बेसे, ते पाप श्रमण कहेवाय.(१३). जे साधु [सचेत रजथी भरेला पग सहित शय्यामां सूबे, उपाश्रयने पुने नहि अने संथारानो उपयोग राख नहि (पडिलेहण करे नहि), ते पाप श्रमण कहेवाय. [१४]. जे साधु दूध, दहि इत्यादि (विगय) वस्तुओनो वारंवार आहार करे, अने तप उपर प्रीति राखे नहि ते पाप श्रमण कहेवाय.२ (१५). जे साधु सूर्यास्त पछी आहार करे अने गुरु (तेम न करवानी) शाखामग दे त्यारे गुरुने सामो शीखामण देवाने तत्पर थाय ते पाप श्रमग कहेवाय. [१६]. १. Who is a controversialist. २. मिष्टान माल मलीदा खावाथी काम जागृत थाय छे काम-विषयने शान्त करवा तप एक उत्तम औषधी रुप छे. तपथी शरीरने शोसबामां न आवे-विकारने शान्त करवामां न आवे तो शियळ साचवी शकात नथी. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.का ०००००००००००००००००००००००० | आयरिय परिव्वाई परपासंड सेवए । गाणं गणिए दुम्भुए पावसमणेत्ति बुझाई ॥ १७ ॥ सयंगेहं परिष्वज्ज परगेहं | सिवावरे । निमित्तणय ववहरइ पावसमणत्ति बुच्चई ॥१८॥ सणाइ पिंडंजेमेइ ने इ सामुदाणियं । गिहिनिसेजंच- । वाहेइ पावसमणोत्ति वुच्चाई ॥१९॥ एयारिसेपंचकुसील संवुडे रुबंधरे मुणीपव राणहिछिमे। अयंसिलोए विसमेवगरहिए नसेइहनेव परथ्थलोए ।॥२०॥ जेवज्जए एएसयाओ दोसे सेसुव्वए होइ मुणीणमझे । अयंसिलोए अमयंवपइए आराहए दुहओ लोगनिणं तहापरं तिबेमि ॥ २१ ॥ ॐ ॥ इति पावसमणीयं झयणं सत्तरसंम सम्मत्तं ।। १७ ॥ जे साधु पोताना आचार्यनो परित्याग करीने परदर्शननी सेवा करे, अने छ, छ मासे (वारंवार) नवा नवा गच्छमां दाखल थाय, एवो दराचारी साध पाप श्रमण कहेवाय. [१७]. जे साधु पोतार्नु घर त्यागीने (दिक्षा लइने) पारके घेर काम करे, (अर्थात व्यवहारमा मच्यो रहे ), अने द्रव्य उपार्जन करवाने निमित्त प्रकाशे (शुभाशुभ भविष्य भांखे) ते पाप श्रमण कहेवाय.[१८]. जे साथ पातानां सगांवहलाने त्यांथी आहार लावीने जमे अने घरोघर भिक्षा मागवानुं पसंद न करे, अने ग्रहस्थने त्यां जहने तेनां (पलंगादि) आसने बेसे ते पाप श्रमण कहेवाय [१९]. आवा पंच-कुशील (पंच महावृतनो भंग करनार ) वेष धारी साधुओ अन्य । मनिवरोमां अधम गणायछे, आ लोकमां तेओ विषनी माफक निंदाय छे, परलोके सिद्धिने पामता नथी अने उभय भ्रष्ट्र थायछे. (२०). पण जे साध आ सर्व दोषने वर्जे छे अने अन्य मुनिवरोनी साथे रहीने सदाचारथी वर्तेछे, ते आ जगतमां अमृतनी माफक पूजायछे, अने आ लोक तथा परलोक साधी शकेछे. [२१]. * ॥ सत्तरमुं अध्ययन संपूर्ण ॥ * 20०००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र अध्ययन १८. संजय [ राजर्षि संयत ]. TE कंपिल्लेनयरे राया उद्विन्न बलवाहणे । नामेणं संजएनाम मिगव्वं उवनिग्गए ॥ १ ॥ हयाणीएगयाणीए रहाणीए तहेवय । पायत्ताणीए महया सब्बओ परिवारिए ।॥ २ ॥ भिएछुभित्ता हयगओ कंपिल्लुज्जाणकेसरि । भीएसंतेमिए तथ्थ बहेइरसमुछिए ॥३॥ अहकेसरं मिउज्जाणे अणगारे तवोधणे । सझायझाणसंजुत्ते धम्मझाणांझियायई ॥ ४ ॥ अफोव मंडवंमिझायईझवियासवे । तस्सागएमिए पास बहेइसे नराहिवे ॥५॥ * अध्ययन १८. ॐ AT काम्पिल्य नगरमां चतुरंग सेना अने युद्धवाहननो धणी संजय नामे राजा राज्य करतो हनो. एक दिवस ते मृगिया रमवाने नीकळ्यो. [१].- हयरे, हाथी, रथ अने पायदळनो सघळो परिवार तेना संगमां हतो. (२). काम्पिल्य नगरनी पडोशना केशरीनामे उद्यानमां ते अश्वारुढ थइने मृगोने क्षोभ उपजावतो हतो, अने मृगियारसमां मूर्छित थइने त्रास पामेला मगोने मारतो हतो. (३). ए केशरी उद्यानमां एक तपोधन अणगार (साधु) स्वाध्याय अने धर्म-ध्यानमां लीन थइने बेठो हतो. (४). जेणे सर्व आश्रव रुंध्याछे । एवा मुनि ४लतामंडपमां धर्म-शनमां बेठाछे, त्यां व्हीधेलो मृग न्हासी आव्यो, पण राजाए तेने मारी नाख्यो. [५]. ००००००००० १. War-Chariots २, अश्व ३. Annihilating sinful inclinations. ४. नागरवेल, द्राक्ष वीगेरेना वेला वृक्षोथी वाटायेला मांडवा नीचे. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000 उ.अ.10 >...............0000 अह आसगओ राया खिप्प मागम्मसो तहिं । हए मिएओपासित्ता अणगारं तथ्थपासई ॥६॥ अहराया तथ्थसंभंतो अणगारो मणाहओ मएउमंदपुन्नेणं रसगिद्धणघेतुणा ।७॥ आसं विसज्जइत्ताणं अणगाररस सोनियो । विणएणं वंदए पाए भगवं इथ्थमेखमे ॥८॥ अहमोणेणसोभगवं अणगारेझाणमसिए । रायाणं नपडिमतेइ तओराया भयहुओ ॥९॥ संजओ अहमरसीति भयवं वाहराहिमे । कुध्धेतेएण अणगारे डहेज नरकोडीओ ॥१०॥ अभओ पथ्थिवा तुझं अभयदाया भवाहिय । अणिच्चेजीवलोगंमि किंहिंसाए पसज्जासी ॥ ११ ॥ - अश्वारुढ थयेलो गजा मंडप समीपे उतावळो उतावळो आवीने जूए छे तो त्या मुएलो मृग तथा मुनिश्री तेनी नजरे पज्या. (६). Pए जोइने राजा गभराटभां पडी गयो अने विचारवा लाग्यो के 'आ मुनिराजनो में घात करी नांख्यो होत !हु केवो मंदभागी अने 18घातकी छ के मृगीया शिकारमा मदांध बनी गयो .! [७].घोडेथी उतरीने राजा ते अणगार पासे आग्यो अने विनय पूर्वक तेमना पगने वंदन करीने कहेवा लाग्यो के " हे भगवान! मारो अपराध क्षमा करो." (८). ते साधु मुनिराज धर्म-ध्यानमा मौन्य धारण करीने वेठा हता, तेथी तेमणे राजाने उत्तर आप्यो नहि; ते जोइने राजा भय-म्रान्त थइ गयो. [९]. राजा बोल्यो 18 "हे भगवान ! हुं संजय छं. मारी साथे आप बोलो. अणगार पोताना कोपाग्निथी करोडो मनुष्यने बाळीने भस्म करी शकेछे.? १०. ए सांभळीने मुनि बोल्या, " हे राजा ! अभय रहे. तुं पण अन्यने अभयदान देतां शीख ! आ अनित्य जीव लोकमां तुं हिंसामां आसक्त शामाटे रहेछे ? [११]. १. Mal for the sport. रसग्रही. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १८. १२८ जीवियंवरूवंच विज्जुजयासव्वं परिचज्ज गंतव्य मत्रसरसते । अणिन्चेजविलोगंमि किरउर्मि पसज्जसी ॥१२॥ संपायचंचलं । तं मुझसीरायं पेकाचं नावबुझसी || १३ || दाराणिय सूयाचेव मित्ताय तह बंधवा 1 जीवंत मणुजीवंति मनाव्यंतिय || १४ || नीहरंति मयंपुत्ता पियरं परमदुख्खिया । पियरोवि तहा पुत्ते बंधुरायं तवचरे॥ १५ ॥ तओतेणज्जिएदध् दारेय परिरख्खिए । कीलंतन्ने नरारायं तुङ मलंकिया || १६ || तेणा विजं कयकम्मं सुहंबा जइवादुहं । कम्मुणातेण संजुत्तो गछुइओ परंभवं ॥१७॥ " हे राजन ! आ अनित्य जेवा लोकमांथी सर्व त्यागीने एक दिवस अवश्य चाल्या जनुं छे, तो पछी राज्य मदम आसक्त शामा रहेछ ? [१२] . " हे राजा ! आयुष्य अने रुप जेमां तुं मोह पामी रह्योछे ते वीजळीना चमकारा जेवा चंचळछे; परलोकना लाभ अर्थे तारे शुं कर जोइये ते तुं समजतो नथी. (३). "स्त्री, पुत्र, मित्र अने सगांसंबंधी ए सर्वे माणस जीवतो होय त्यां सुधी तेनी सेवा करेछे, पण ते मरी जाय त्यारे तेनी साथै कोइ जतुं नथी. [१४]. “ पिता मरण पामे त्यारे पुत्रो परम दुःख सहित तेना शवने दूर करेछे, अने तेवीज रीते मावाप पोताना पुत्रो अने भाइभांडनां शबने वेगळां करेछे; माटे हे राजन! तप कर. (१५). " हे राजन ! मरी गयेला माणसे संग्रह करेलुं द्रव्य अने सुरक्षित राखेली स्त्रीओने अन्य पुरुषो हर्ष अने आनंदथी भोगवेछे, अने तेनां घरेणांगांठां पहेरीने मोज माणे छे. (१६). "अने मरनार माणसे जे शुभाशुभ कर्म कर्य होय ते साधे लइने तेनो जीव परभवने विषे जायछे, " [१७]. १. संसारनी अस्थिरता दृढ करवा आ द्रष्टांत नातरीया वर्गनुं टांकेलुं छे. अथवा केटलीक विधवाओ अनीतिने रस्ते चडेछे ए समजाववानो पण भावार्थ छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. | सोऊण तस्ससोधम्म अणगारस्स अंतिए । महया संवेग निव्वेयं समावन्नो नराहिवो ॥१८॥ संजओ चईओरज्जे । उ.अ. निख्खंतो जिणसासणे । गद्दभालिस्स भगवओ अणगारस्स अंतिए ॥१९॥ चिच्चारळंपव्वइएं खत्तिए परिभासई । जहाते । दीसईरूवं पसन्नते तहामणो ॥२०॥ किंनामे किंगोत्ते कस्सट्टाएवमाहणे । कहंपडिय रसीबुद्धे कहं विणीएत्ति वुच्चई। ॥२१॥ संजओ नामनामेणं तहा गोत्तेणं गोयमो। गद्दभाली ममायरिया विज्जा चारण पारगा ॥ २२ ॥ किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणंच महामुणी । एएहिं चउहिठाणेहिं मेयन्ने किंपभासइ ॥ २३ ॥ त्यार पछी राजाए ते अणगार पासेथी धर्मनुं श्रवण कर्यु अने तेथी तेने मोक्षनी तित्र इच्छा उत्पन्न थइ अने संसार उपर वैराग्य उपज्यो. (१८). संजय राजाए पोतार्नु राज्य तजी दीधुं अने गर्दभालि अणगारनी समक्ष जिनशासन अनुसार चारित्र धारण कयु. [१९]. कोइ एक क्षत्रि जेणे पोतानुं राज्यपाट तजीने प्रव्रज्या ग्रहण करी हती तेणे तेने ( संजय राजर्षिने ) पूछयु, आपनी बाह्याकृति विकार रहित दीसे छे ते उपरथी धारी शकाय छे के आपर्नु मन पण विकार रहित होवू जोइये. [२०]. " आपनुं नाम शुं? आपनुं गोत्र कयुं ? आपने साधु शा माटे यधुं पडयुं ? आचार्यादिकनी सेवा शी रीते करोछो ? अने आप विनीत [साधु] शी रीते कहेवापा" ?(२१). ए सांभळीने संजय राजर्षि बोल्या, " संजय मारुं नामछे गौतम मारुं गोत्रछे गर्दभालि मारा आचार्यछे अने तेओ विद्या-चारित्रम पारंगत छे." (२२) " हे महामुनि ! तत्वथी अज्ञान मनुष्यो नीचेना चार स्थानक [बाबत ना संबंधां मिथ्या भाषण करेछ:-१.क्रियावाद, २.२अक्रियावाद, ३. विनयवाद अने ४. अज्ञानवाद."(२३). (१) क्रियावादी-आत्मानुं अस्तित्व माननारा. (२) अक्रियावादी-आत्मानुं नास्तित्व माननारा. (३) विनयवादी-भकि मार्ग अथवा मूर्ति पुजाने माननारा. (४) अज्ञानवादी-मात्र तपनेज प्राधान्य आपनारा, ज्ञान-मुक्तिने माटे उपयोगी नथी एम माननारा. श्री सूत्र कृतांग सूत्रना प्रथम श्रुत स्कंधना बारमा अध्ययननी प्रथम गाथामां पण आ चार बावतर्नु विवेचन छे. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2004 १२० - उ.अ.] इइपाउकरे बुद्धेनायए परिनिव्वुए । विज्जाचरण संपन्ने सच्चेसच्च परक्कमे॥२४॥ पडंति भरएघोरे जेनरा पावकारिणो। दिव्यंच गई गछंति चरित्ता धम्ममारियं ॥ २५ ॥ माया बुइय मेयंतु मुप्ता भासा निरश्थिया । संजममाणोवि अहं वसामि इरियामिय ॥ २६ ॥ सव्वेते वेइया मझं मिछादठ्ठी अणारिया । विज्जमाणे परेलोए सम्म जाणामि अप्पयं ॥ २७ ॥ अह मासी महापाणे जइमं वरिस सओवमे । जा सा पाली महापाली दिवा वरिस सओवमे ॥ २८ ॥ "तत्वना जाण, महाबुद्धिमान, मोक्षने पामेला, विद्या चरण संपन्न, सत्यवचन वादी अने सत्य पराक्रमी श्री महावीर भगवाने आ प्रमाणे भाख्युं छे:-[२४]. "जे मनुष्यो पाप करेछे ते घोर नरकमां पडेछे; पण मेओ पवित्र धर्म-मागने पि विचरेछे तेओ उत्तम दिव्य गतिने पामेछ. [२५]. "क्रिया, अक्रिया, विनय अने अज्ञान वादीओनां ए कपट-वचन असत्य अने निरर्थकछे तेटला माटे तेवाओनी असत्य प्ररुपणाथी निवर्तिने हुं संयम मार्गे प्रवर्तु छं.[२६]. "ए सर्वेवाद मिथ्या छ ए हुं जाणुं छु, परलोक (पुनर्जन्म) विद्यमान छे ए पण हुँ जाणुछ अने मारा आत्माने हुं ओळ छं.२७), "पांचमां ब्रह्मलोकने विषे महाप्राण विमाने हुं महा धुतिमान (तेजस्वी) देवता हतो; अने आ लोके शत् वर्षनो मनुष्य वृद्ध कहेवाय छ तेवी वृद्धावस्थाने हुं प्राप्त थयो हतो. 5 पण देवता संबंधीना शत् वर्ष पालीर अने महापाली जेवा बहुज लांबा होय छे. [२८]. १. Conversant with the sacred lore and good conduct. २. पल्योपम-चार गाउ लांबा प्होळा कुवामा वाटना बारीक टूकडाओ भरी, अमुक मुदते एक एक टूकडो काढवाना अति लांबा वखतने पल्योपम कहेवामां आवे छे. अर्थात असंख्याता वर्ष आपणे कहीशुं तो चालशे. संस्कृतमां पाली शदनो अर्थ 'हद-सीमा' थइ शके छे. ३.सागरोपम-दश कोडा कोडी पल्योपमे एक सागरोपम थायछे. जैन सूत्रोमां कहेलु काळy कोष्टक जाणवा जवूछे. आ सूत्रना ७मा अध्ययनमा पूर्व' ने लगतुं कोष्टक आपेल छे. अहिं एक बीजू कोष्टक आपीशुं. अति सुक्ष्म काळने एक समय कहे छे. असंख्याता समये एक आकलिका थाय. एवी १६७७७२१६ आवलिकानुं एक मुहूर्त. त्रीश मुहूर्तनो एक दिवस-अहोरात्रि. ७०५६०००००००००० वर्षे एक पूर्व थाय. एवा असंख्याता पूर्वे एक पल्योपम थाय. दश कोडा कोडी पल्योपभे एक सागरोपम. दश कोडा कोडी सागरोपमें एक अवसर्पिणी अने, उत्सर्पिणी थाय. ए अवसर्पिणी उत्सर्पिणी मली एक काळ चक्र थाय. अनंता काळ चक्रे एक पुद्गल परावर्त थाय. आ काळ-= Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेचुए बंभलोयाओ माणुस्सं भव मागओ। अप्पणीय परेसिंच आउं जाणे जहा तहा॥२९॥नाणारुइंच छंदच परिवज्जेज्ज सजए । अणथ्था जेय सव्वथ्था इइविज्जा मणुसंचरे ॥ ३० ॥ पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो । अहो उठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे ॥ ३१ ॥ जंच मे पुछुसी काले सम्मं सुडेण चेयसा । ताइं पाओ करे बुद्धे तं नाणं जिणसासणे ॥३२॥ किरियंच रोयए धारे अकिरियं परिवजाए । दिछीए दिछी संपन्ने धम्म: ॥३३॥ एयं पुन्न पयं सोचा अथ्थ धम्मो वसोहियं । भरहोवि भारहं वासं चिच्चा कामाई पचहए ॥३४॥ "ब्रह्मलोकंथी चवीने हुँ मनुष्य भवमा आयो. मारुं तेमज अन्य मनुष्योतुं आयुष्य के टुंछे ते हुँ बरावर जाणुंछ. [२९]. ." साधुए क्रियावाद्यादि (परतीर्थी) नां नाना प्रकारना मतनो परित्याग करवो जे.इए अने स्वेच्छा तथा हिंसादि अनर्थनां मूळ रुप कृत्योनो त्याग करवो जोइए. आ ज्ञान अंगीकार करीने साधुए संम मार्ग ते प्रमाणे विचर. [३०]. "ग्रहस्थोनां शुभाशुभ व्हेमी) प्रश्नना उत्तर आपवाथी अने मंत्रादिथी हुँ निवयों ; (परांगमुख रहंछ) अने रात्रि दिवस धर्ममां सावधान रहीने तपश्चर्या करूं छ. [३१]. "अने जे (आयुष्यना ज्ञान) विषे तमे हमणां मने शुद्ध मनथी पूच्छ तेवं ज्ञान श्री तीर्थकरे (बुद्ध) प्रकट करेलुं छे, अने ते ज्ञान जीन शासनने विषेज रहेढुंछे.[३२]."*डायो पुरुप आत्माना अस्तित्व ने मानछे अने आत्माना अविद्यमानपणाना मिथ्यात्वने मानतो नथी, सम्यकदर्शन सहित साधु दुष्कर चारित्र धर्म पाळे छे. [31]. “परमपवित्र ( दुपण रहित ) जिनमार्गनां सिद्धान्त जे सत्य अने विशुद्धताथी सुशोभितछे तेतुं श्रवण करीने भरत पहेला चक्रवती ए भारत वर्षनो अने सकळ काम भोगनो त्याग करीने दीक्षा ग्रहण करी हती (३४). =अबजो वर्षथी पण माप थइ शकतुं नथी आ विषय विशेष पारिभाषिक छ. माटे गुरु गमथी अथ । लोक प्रकाश, प्रथम सर्ग, चतुर्थ कर्म ग्रन्थ वीगेरे पुस्तकोथी वाकेफ थवं. * अर्थात-पंडित पुरुष ज्ञान सहित क्रियानो स्वीकार करेछे अने अज्ञान क्रियानो परित्याग करेछे जिनमत आत्माना अस्तित्वनो अस्विकार करतो नथी पण आत्लाना अविकार्य लक्षगनो अस्विकार करेछ. १. प्रथम तीर्थकर श्रीरिषभदेव भगवानना ते पुत्र हता अने अयोध्यामा रहेता हता. चक्रवर्ती-Universal monarch. ००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ उ. अ. सगरोवि सागरं तं भरह वासं नराहियो । इस्सरियं केवलं हिचा दयाए परिनिब्बुओ ॥ ३५ ॥ च इत्ता भारहं वासं चक्कट्टी महिडिओ | पव्वज्जमझुवगओ मघवनाम महायसो || ३६ || सणकुमार मणुसिदो चक्कपट्टी महिडिओ | पुतं रज्जे ठवेऊणं सोविराया तवं चरे ॥ ३७ ॥ चइत्ता भारहं वासं चक्कबट्टी महडिओ | संतिसंति करेलोए पत्तो गइ मणुत्तरं ॥३८॥ इख्खागरायवसहो कुंथूनाम नराहियो । विखाय कित्तिभयवं पत्तोगइ मणुत्तरं ॥ ३९ ॥ १३२ सगर नामे बीजा चक्रवर्तीए पण पोतानुं समुद्र पर्यंत पथरायेलुं भरतक्षेत्रनं विस्तीर्ण राज्य तजी दी हतुं अने पोतानी सर्व रिद्धि अने ऐश्वर्यनो त्याग करीने संयम (दया) थी मुक्तिने प्राप्त करी हती. (३५) भारत वर्षनो त्याग करीने महारिद्धिवान अने महायशस्वी मघवानामेत्रीजा चक्रवर्ती राजाए दीक्षा ग्रहण करी हती. [ ३६ ]. महारिद्धिवंत मनुष्येंद्र उसनत कुमार नामे चोथा चक्रवती पोताना पुत्रने राज्य सॉपीने तपश्चर्या आदरी हती. [३७]." महा ऐश्वर्यना धणी शान्ति चक्रवती [तोळमा तीर्थकर ] जे जगत्ने शान्तिना आपनार हता ते भारत वर्षनो त्याग करीने अनुसर मुक्तिने प्राप्त थया हता. [३८]." इक्ष्वाकु कुळने विषे उत्पन्न थयेला वृषभ संमान कुंधु नामे विख्यात कीर्त्तिवान राजा (सत्तरमा तीर्थंकर) उत्तम गतिने पाम्पा हता. [३९]. १. वीजा तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवानना ते नाना भाई हता तेणे अयोध्यामां राज्य कर्तुं हतुं श्री अजितनाथ भगवाने तेने दिक्षा आपी हती. २. सावर्थी नगरीना राजा समुद्रविजयना ते पुत्र हता जेणे पोतानी पत्नि भद्रा साये दिक्षा ग्रहण करी हती. ३. हस्तिनापुरना राजा अश्वसेनना ते पुत्र हता तेणे पोतानी पत्नि सहदेवी साथे दिक्षा ग्रहण करी हती, आवधां जीवन चरित्रो टीकामां आपेलां छे अहिं विस्तारना भयथी लीधां नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरंतंचइत्ताणं भरहं नरवरीसरो। अरोय अरयंपत्तो पत्तोगइ मणुत्तरं॥४०॥ चइत्ता भारहवासं चक्वट्टी महिडिओ चइत्ताउत्तमेभोए महापउमे तवंचरे ॥ ४१ ॥ एगछुत्तं पसाहित्ता महिमाणंनिसृरिणो । हरिरेणो मणुरिंसदो पत्तोगइ मणुत्तरं ॥४२॥ अन्निओराय महस्सेहिं सुपरिच्चाई दमंचरे । जयनामोजिणख्खायं पत्तोगई मणुत्तरं ॥४३॥ दसन्नरजं १३३३ मुइयंचइत्ताणं मुणीचरे। दसन्नभदो निख्खंतो सक्कं सक्केण चोइओ ॥ ४४ ॥ नमिनमेइ अप्पाणं सकं सक्केण चोइओ | । चइऊण गेहंवइदेही सामन्ने पज्जुवडिओ ॥४५॥ "भारत नरेश्वर अर[अहारमा तीर्थकर] सागरांत पृथ्वी छांडीने अने अरजपणुं [शुद्धि ] प्राप्त करीने मुक्तिए पहोंच्या हता. ४. 1. "भरतक्षेत्र छोडीने अने पोतानी सेना, रथ अने उत्तम काम भोगनो त्याग करीने नवमा चक्रवसी महापा राजाए तप | आवयं हतं. (४१). " आख। जगतने एक छत्र तळे लाव्यापछी अने पोताना वेरीयोनुं मान खंडन का पछी *दशमा चक्रवर्ती हरिषेण राजा सिद्ध गतिने प्राप्त थया हता.[४२]. "जय नामे अग्यारमा चक्रवर्तीए वीग सहन नृपना समवाय साये राज्य छांडीने संयम लीधो अने जिनोक्त धर्म आचारीने मोक्ष गतिने पाम्यो. [४३]."दशाणे देशद् समृद्धिवान राज्य तजीने २ दशार्णभद्र राजाए साधु धर्म अंगीकार को हतो, अंने साक्षात शक्र (इन्द्र) नी प्रेरणाथी तेणे दीक्षा लीधी हती. [४४]. "विदेह देशना नमि राजा साक्षात शक्रनी प्रेरणाथी क्रोधादिक छांडीने अने गृहवास तजीने श्रमण थया हता. [४५. *संस्कृत टीक.मां महापद्म अने हरिषेण राजाने अनुक्रमे आठमा अने नवमा चक्रवर्ती गण्याछे, महापद्म विष्णुकुमारना मोटा भाइ हता. हारेषेण, कांपिल्प नगरीना राजा महाहरीना पुत्र हता. १. राजग्रही नगरीना राजा समुद्रविजयना ते पुत्र हता. २. दशार्णभद्र राजा श्री महावीर भगवानना समकालीन हता.३मूळमां अनुक्रप आ प्रमाणेछे. पण प्रो. जेकोकीए ४५ मी गाथाने ४६ मी अने ४६ मीने ४५ मी एम उलटा मूलटी मूकेली छे. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १८. १३४ aria लंगे पंचा दुम्मु । नमीराया विदेहे स गंधारे सुनगई ॥ ४६ ॥ एते नरिंद बसभा निख्खंताज रज्जे ठवेऊणं समन्ने पज्जुवठिया ।। ४७ ।। सोवीर राय वसभो चइत्ताणं मुणीचरे । उद्दा पवईओ पत्तोग मणुत्तरं ॥ ४८ ॥ तहेब कासी राया सेओ सच्च परकमे । कामभोगे परिच्चज्ज पहणे कम्म महावणे ।। ४९ ।। तव विजओ राया अण्डा कित्ति पव्वए । रज्जंतु गुण समिद्धं पयहितु महायसो || ५० ।। तहेवुग्गं तवं किच्या अवख्खित्तेण चेयसा । महब्बलो रायरिसी आदाय सिरसा सिरिं ॥ ५१|| "करकंडू राजाए कलिंग देश, 'द्विमुख राजाए पांचाळ देश, नाम राजाए विदेह देश अने नगति (निर्गति) राजाए गंधार देश छोड्या हता. [४६]. "ए चारे वृषभ समान राजाओए जिनशासनने विषे दिक्षा लोधी, अने पोताना पुत्रोने राज्य सोंपीने पोते श्रमण धर्मने विषे उपस्थित थया. [ ४७ ]. " सोवीर देशना वृषभ समान उदायन राजाए राज्य छोडीने दीक्षा लीधी; * अने प्रव्रज्या ग्रहण करीने उत्तम गतिने प्राप्त थयो. [४८]. "बळी जेनुं सत्य पराक्रम प्रशंसनीय छे एवा काशीना राजा (नंदनजी) काम भोग छोडीने कर्म रुपी महावनने कापी नांख्युं. (अर्थात- अष्ट कर्म दूर कर्या) [ ४९ ]. " वळी विजय नामे [बीजो वळदेव] राजा जेनी कुकीर्त्तिं सर्वथा नाश पामीछे. ते महायशस्वी राजाए पोतानुं समृद्धिवान राज्य तजीने दीक्षा लीधी. (५०). " बळी महावल राजर्षिए सावधान (स्थिर) चितथी उग्र तप करें अने पोताना शिरपर संयम रूपी लक्ष्मीने धारण करी. [५१]. १. ए चारे राजा प्रत्येक बुद्ध कहेवाय छे. २. सहन शीलता वीगेरे गुणोमां वृषभनी उपमा आपी छे. ३. उदायन राजा पण श्री महावीर भगवानना समकालीन हता. ४ ते राजा अग्नि शिक्षाना पुत्र अने सातमा वळदेव हता. ५ मो.' जेकोबी' आने बदले लखे छे के 'जेनां सर्व पाप क्षय थयां नथी.' पण टीका वीगेरे जोतां ते समज फेर थयेली जणायछे. ६. महावल राजा तेरमा तीर्थकर श्री विमलनाथना समकालीन हता. ते हस्तीनापुरना राजा बळराजाना पुत्र हता. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १८ १३५ कहं धीरे अहे ऊहिं उम्मुत्व महिंचरे । एए विसेस मादाय सूरा दढ परक्कमा ॥५२॥ अच्चंत नियाण रखमा सच्चा भासियाई । अरिंसुरिं तेगे तरिस्संति अणागया || ५३ ॥ कहं धीरे अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे । सव्वसंग विमुके सिद्धे व निरए तिमि ॥ ५४ ॥ ॥ इति श्री संजयनाम झयणं अठारस सम्मत्तं ॥ १८ ॥ "ज्यारे उपर कहेला [भरतादी] पुरुषो दृढ पराक्रमे करीने उत्तम गतिने पाम्याछे, तो पंछी धीर, पंडित पुरुषोए मूंडी क्रियाए [ मिथ्यात्वे ] करीने पृथ्वी उपर उन्मतनी पेठे शा माटे रखडवं जाइए ? (५२), "कर्म रुपी मळने शुद्ध करनार सत्य वचन में कहाछे, ते वचनेनुं मनन करवायी अनेक जीव [संसार समुद्रथी] तर्याछे, अनेक नरेछे, अने अनेक तरशे. (५३). "धीर पंडित पुरुषार कल्पित कारणाने लीधे (अर्थात- क्रियावाद आदि मिध्यात्वनी असत्य प्ररूपणाने लीघे) शा माटे पोताना आत्माने दुःखमां नांवो जोइए ? जे पुरुष सर्व संबंध अने पापोथी मुक्त थाय छे ते सिद्धगतिने पामेछे." [ ५४ ]. अहार अध्ययन संपूर्ण. १. ३४ मी गाथाथी ५१ मी गाथा सुधीमां जेटला राजाओनां नाम आवे छे ते समानी कथा संस्कृत ठीकामां आपेली छे. पण ते अहिं उतारी नथी. २. Free from all ties and sins. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १९. १३६ अध्ययन १९. मृगा पुत्रनुं दृष्टान्त. सुग्गी नरमे काणणुजाण सोहिए । राया बलभद्देति मिया तस्सगमाहिसी ॥ १ ॥ तेसिं पुत्ते बलसिरी मिया पुत्तेति विस्सूए । अम्मापिऊणदईए जुवरायादमीसरे || २ || नंदणे सोउपासाए कीलए सहइथ्थीहिं देवोदोगुंदगोचेव निच्चंमुइय माणसो ||३|| मणिरयण कुट्टिमतले पासाया लोयणेठिओ । आलोएइ नगरस्स चक्क तियचच्चरे ॥ ४ ॥ अहतथ्थ अछूतं पासइ समण संजयं । तवनियम संजम घरं सीलवं गुण आगारं ॥ ५ अध्ययन १९. सुग्रीव नामे मनोहर नगर जे वन उपवन अने बाग बगीचाथी शोभी रहयुं छे, त्यां बलभद्र नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने मृगावति नामे पटराणी हती. [१]. तेमने वल श्री नामे पुत्र हतो; लोको तेने मृगापुत्रना नामथी ओळखता. ते युवराज तेनां मातापिताने अति प्रिय हतो; अने ते (भविष्यमां) इन्द्रियोने दमनार यति पुरुषोनो स्वामी ( शिरोमणी ) थयो. [२]. ते मृगापुत्र पोताना नन्दन महलमां पोतानी स्त्रीओ संगा दोगुन्दक देवतानी माफक क्रीडा करतो हतो; अने सदा हर्षित मनथी भोग भोगवतो हतो. [३]. जेनुं आंगणं (फरस) मणि रत्नथी जडेलुं छे तेवा महेलना झरुखामां बेठो बेठो मृगापुत्र, शहेरनां चोक, हाट अने रस्तनुं अवलोकन करतो हतो. [४]. एक दिवस चोकने विषे मृगापुत्रे एक संयम धारी श्रमणने जतो जो यो; ते साधु तपनो करणहार, संयमनो पालणहार अने इन्द्रिओनो निग्रह करनार हतो; वळी ते सद्गुणथी भरेलो अने शीलादि गुणोना भंडार रूप हतो.[५] . १. त्रायत्रिशंक. २. भोयतळीडं Floor. Jain Educationa International 11 For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १९. १३७ देह मियापु दिए अणमिसाइए । कहिमन्नेरिसंख्वं दिट्ठ पुत्रं मएपुरा || ६ || साहुस्स दरिसणेतस्स अझवसाणं मिसोहणे | मोहंगयरस संतरस जाई सरणं समुप्पन्नं ॥ ७ ॥ देवलोग चुओसंतो माणुसंभव मागओ । सन्निनाण समुत्पन्ने जाइसरणं पुराणयं || ८ || जाईसरणे समुप्पत्ते मियापुत्ते महिदीए । सरईपोराणियं जाइ सामणंच पुराकयं ॥ ९ ॥ बिसहिंअरज्जंतो रज्जतोसंजमंभिय । अम्मापियरंउवागम्म इमंवयणमब्बवी ॥ १० ॥ सूयाणिमेपंचमहव्वयाणी नरएसुदुखं च तिरिख्खजोणिसु निव्वित्तकामोमि महन्नवाओ अणुजाणहपव्वइस्सामि अम्मो ॥ ११ ॥ मृगापुत्र ते मुनिनी सामे स्थिर द्रष्टिथी जोड रह्यो अने एवं स्वरुप (ए पुरुष ने) पोते पूर्व भत्रे क्यों दी हतुं ते याद करवा लाग्यो (६). साधुना दर्शने करीने तेतुं मन पवित्र थयुं; शुभ ध्यानथी तेनो मोह उपशम्यो। अने तेमां तेने पोताना पूर्व भवतुं जाति स्मरण थयुं. [७]. तेने 'जातिस्मरण थवाथी पोते देवलोकथी चवीने मनुष्यभवमां आग्यो हतो अने तेमां सम्यक ज्ञान उपजवाथी पोते पूभजे चारित्र पायुं हतुं ते तेने सांभरी आ. [८-९] विषय उपरथी तेनुं मन उतरी गर्छु अने तेते संगमने विषे रुचि उत्पन्न थइ, तेथी ते पोताना मातापिता पासे आवीने नीचे प्रमाणे कहेवा लाग्यो :- [१०]. “पंच महाव्रत मने सांभरी आव्यां छे, वळी नरक अने तिच योनिनां दुःखनुं पण मने भान थयुं छे; मने आ संसारसागरमा काम भोगनी लेश मात्र अपेक्षा नथी; मांट हे मातापिता! मने दिक्षा लेवानी आज्ञा आपो. [११]. आटलो १. मोह उपशमाथी ते मूर्च्छा पाम्यो एवो भावार्थ छे. प्रो. जेकोबी ते माडे He was plunged in doubt. ए शब्दो वापरे छे. २ पूर्व भवानी वातो याद आवे ते-संज्ञी पर्चेद्रिमांथी जे जीव आव्या होय तेनेज आ ज्ञान उत्पन्न थाय छे. भाग प्रो. जेकोब पोताना भाषान्तरमां छोडी दीघो छे. आ अध्ययननी ९९ गाथा छे तेगे ९८ लीधी छे, सुगमता खातर अहिं बने साथे मेळवी लोधी छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्मतायमएभोगा भुत्ता विसफलोवमा । पाकडुवविवागा अणुबंध दुहावहा ॥ १२ ॥ इमं सरिरं अणिकां असुई असुईसंभवं । असासया वासमिणं दुख्खकेसाणभायणं ॥ १३ ॥ असासएसरीरंमि रइंनोबलभामिहं । पछ।पुरावच. | इयव्वे फेणबुब्बुय संनिभे ॥ १४ ॥ माणुस्सत्ते असारंमि वाहि रोगाण आलए । जरामरणवथ्थंमि खणापि नरमामिहं ॥ १५ ॥ जम्मदुख्खं जरादुख्खं रोगाय मरणाणिय । अहो दुख्खोहु संसारो जथ्थकिसंति जंतुगो ॥ १६ ॥ नित्तं वथ्थु हिरणंच पुत्तदारंच बंधवा । चइत्ताणं इमं देहं गंतव्व मव्वसस्समे ॥ १७ ॥ “हे माता! हे तात! विष-फळ सरखां भोग में भोगव्या छे; तेनां परिणाम अति कडवां छे, कारण के ते निरंतर दुःखनां देनार छे. [१२]. "आ देह अनित्य छे, ते अपवित्र छ कारण के ते शुक्रशोणितर्नु बनेटुंछ, वळी तेमां आत्मानो अशाश्वत श्वास छे, अने ते दुःख अने क्लेशन भाजन छे. [१३]. " आ अशाश्वत शरीरमां माझं मन संतोष पामतुं नथी; कारण के वहे या मोई ए शरीर नक्की छोडबुं छे अने वळी ते पाणीना फीण अने परपोटा सरखुं छे.४ [१४]. "वळी आं असार मनुष्यपणुं, व्याधि अने रोगर्नु घर, जे जरा अने मरणे करीने ग्रस्त छे; तेने लीधे मारुं मन एक क्षण मात्र पण सुख पामतुं नथी.५ [१५]. "जन्म दुःख रुप छ, जरा दुःख रुप छ, रोग अने मरण पण दुःख रुप छ; आहा! आ संसार सर्व दुःख मूळ छे अने तेषां सर्व जीव क्लेश पामेछे.[१६]"क्षेत्र, गृह,सुवर्ण,पुत्र,स्त्री,भाइभांड, सर्वेने तजीने, आ देह छोडीने मारे एक दिवस अवश्य चाली नीकळपडशे.[१७] १. They entail continuous suffering. २. मांस रुधीर वागरे अशुचीमय पदार्थो. ३. Transitory residence [ of the soul ]. ४. “जेवो पाणीनो परपोटो, तेवो देह भरुसो खोटो." "आयुष्य ते तो जळना तरंग." ५.मो.जेकोबी आ माटे नीचे मुजब शद्रो वापरे छे." And this vain human life, an abode of illness and disease which is swallowed up by old age and death, does not please me even for a moment." ०००००००००००००००००० Jain Educati emational For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MA जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो । एवंभुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरो ॥ १८ ॥ अद्धाणंजो महंतंतु || अप्पाहिजो पवज्जइ । गछुतोसेदुही होइ छुहातएहाहि पीडिओ ॥ १९ ॥ एवं धम्मं अकाऊणं जो गछइ परंभवं । गछंतोसे दुहीहोइ वाहीरोगेहिं पीडिओ ॥ २० ॥ अहाणंजो महंतंतु सपाहेज्जो पवज्जइ । गछंतोसे सुही होइ छुहातएहावि वज्जिओ ॥२१॥ एवं धम्मंपिकाऊणं जोगछई परंभवं । गछंतोसे सुहीहोइ अप्पकम्मे अवेयणे ॥२२॥ जहागेहे पलितमि तस्सगेहस्स जोपहु । सारभंडाइं नीणेइ असारं अवरझइ ॥ २३ ॥ एवंलोए पलित्तंमि जराए | मरणेणय । अप्पाणं तारइस्सामि तुझेहि अणुमन्निओ ॥ २४ ॥ __“जेम किम्पाक-फळनुं परिणाम सारुं नथी, तेवीज रीते भोगवेला भोगर्नु परिणाम पण सारु आवतुं नथी. (१८). "जे 18! मनुष्य साथे भाएं लीधा सिवाय (संबल रहित) लांबी मुसाफीए नीकळे छे, ते मार्गमा सुधा अने तृषाथी पिडाय छे अने दुःखी 8 थाय छे. (१९). "तेवीज रीते जे मनुष्य धर्म कर्या सिवाय परभवने विषे जाय छे ते मार्गमां व्याधि अने रोगथी पिडाय छे अने | दुःखी थाय छे.(२०)." पण जे मनुष्य भाथु साथे लइने (संबल सहित) लांबी मुसाफरीए नीकळेछे, ते मार्गमां शुधा अने तृपाथी पि-. 18| डातो नथी अने सुखी थाय :.[२१]. " तेज रीते जे मनुष्य धर्म करीने परलोकने विषे जाय छे, ते जीव मार्गमां पापकर्म अने वेदनाथी पिडातो नथी अने सुखी थाय छे. (२२). "कोइ घरमा आग लागी होय त्यारे जेम घरधणी सार (कीमती) वस्तुओ बहार काढी ले छे, अने असार वस्तुओने ज्यांनी त्यां पडी रहेवा दे छे, तेम आ संसारने जरा अने मरणरुपी अग्नि लागेलो छे तो आ| पनो आदेश (आज्ञा) लइने हुँ मारा आत्माने तेमांथी तारवा इच्छं. [२३-२४]. १. देखावमां सुंदर अने आकर्षक खातां मीटुं लागे पण परिणामे झेर रुप थतुं एक जातनुं झेरी फळ. Cucumis T&I Colocynthus. ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० Jan Education International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००० ००००० | त बितम्मापियरो सामन्नं पुत्तदुच्चरं । गुणाणंतु सहरसाइं धारेयवाई भिख्खूणो ॥ २५ ॥ समया सब्वभूएसु सतुमित्ते सुवाजगे । पाणाइवाय विरइ जावजिव्वाए दुक्करं ॥ २६॥ निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं । भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाओतेण दुक्करं ॥ २७॥ दंतसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवजणं । अणवज्जे सणिज्जरस गिव्हणा अविदुक्कर ॥२८॥ विरई अबंभचेरस्स कामभोग रसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बभं धारेयव्वं सुदुक्करं ॥२९॥ धणंधन्नपेसवम्गेसु परिगह विवज्जणा । सव्वारंभ परिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥ ३० ॥ ___ए सांभळीने तेनां मातापिता कहे छे, "हे पुत्र! चारित्र (साधु-धर्म) पाळवं दोहिलं छे; साधुमां हजारो सद्गुणो होका जोइए। [२५]. "सर्व जीव, पछी ते शत्र होय के मित्र तेना उपर समता भाव राखवो, अने जिंदगी पर्यंत प्राणी मात्रने अशाता उपजाववाथी दूर रहे, ए दुष्कर धर्म छे. [२६]. "कदि प्रमाद पणे मृषावाद बोलवू नहि, अने सदा सावधान रहीने सर्व जीवने हितकर सत्य बोलq ए दुष्कर धर्म छे. [२७]. "दांत साफ करवानी सळी सुद्धांनु पण अदत्ता दान कदि लेवु नहि, अने मात्र सूझतां आहार पाणीज व्होरवां ए दुष्कर धर्म छे. [२८]. "काम भोगनो रस जाण्या पछी भोग विलासथी दूर रहेy, अने ब्रह्मचर्य, उग्र म. हाव्रत पाळg ए दुष्कर धर्म छे. (२९). "धन, धान्य अने दास दासिनो परिग्रह वर्जवो, सर्व आरम्भ छोडी देवो, अने ममत्वनो त्याग करवा, ए दुष्कर धर्म छे. (३०).. १. A monk must possess thousands of virtues. २. Free from faults.. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. चउबिहेवि आहारे राइ भोयण वज्जणा । संनिहीसंचओचेव वज्जेयव्यो सुदुक्करं॥३१॥ छुहातण्हायसीउण्हं दसमसग धेयणा । अक्कोसा दुख्खसेज्जाय तणफासा जल्लमेवयं ॥ ३२ ॥ तालणा तजणा चेव वहबंध परिसहा । दुख्खं | भिख्खायरिया जायणाय अलाभया ॥ ३३ ॥ काबोया जाइमावित्तिं केसलोओयदारुणो । दुख्खं बंभव्वयंघोरं धारेओ १४१ अमहप्पणो ॥३४॥ सुहोइओ तुमपुत्ता सुकुमालो सुमुज्जिओ । नहुसी पभूतुमपुत्ता सामन्न मणुपालिया ॥ ३५॥ जावज्जीव मविस्सामा गुणाणतु महझरा । गुरुओ लोहभारुव्व जोपुत्तोहोइ दुबहो || ३६ ॥ “चारमाथी एक प्रकारनो आहार रात्रिए करवो नहि, अने आगळ उपर जरुर पडशे एम धारीने (धृतादि) वस्तुओनो संग्रह करी राखवो नहि, ए दुष्कर धर्म छे..[३१]. " क्षुधा, तृषा, टाढ, तडको, डांस मच्छरादिनी वेदना, दुर्वचन, दुःखमय रहेठाण तृण-स्पर्श, शरीर-मल, चपेटादिकनो प्रहार, भय, मार वधबंधन भिक्षाचर्या, अलाभ-याचना आदि परिसह बेठवां ए अति दुष्कर छ. [३२-३३]. " हे पुत्र ! साधु-धर्म कपोत पक्षीनी पेठे सूझतो आहार व्होरवानो छ केशनो लोच करवो एपण अति दाख | दायक छ अने घोर ब्रह्मचर्य व्रत पाळवू ए महात्मा पुरुषोने पण दोहिलं लागेछे. [३४]. " हे पुत्र! तुं सुखमां उछर्योछे, सुकुमार छ, तने न्हाइ धाइने स्वच्छ रहेवानी टेवछे बेटा ! ताराथी साधु-धर्म पाळी शकाशे नहि, [३५]. "हे पुत्र ! जिंदगी पर्यंत विश्राम विना लोहनी पेठे चारित्रनो महाभार बहेवो ए अति कठिन छ,४ [३६]. १. अन्न, पाणी, मेवो अने मुखवास. २. गाथाओ २६, २७,२८, २९, ३०, ३१ मां पंच महात अने छठामां रात्रि भोजन की त्यागर्नु विवेचन छे. ३. कबूतर Pigeons. आ पक्षीओ भयथी हमेशां सावचेत रहेछे अने खाधा पछी पासे काइ राखता नथी. | अहिं आहार वहोरतां दोषोथी डरधानो भावार्थ छे. ४. चारित्र कठिन छे अने चारित्रलीधा बाद जिंदगी सुधीज ते निभाववं पडेछे माटे विशेष कठिन छे. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www.jainenthaliry.org Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. 0000000000000000000000 आगासे गंगसोउव्व पडिसो ओव्वदुत्तरो । बाहाहि सागरोचैत्र सरियथ्यो गुणोदही ॥ ३७॥ बालुया कवलेचे। निरस्साए उसंजमे । असिधारागमणं चेव दुक्करं चरिओतवो ॥ ३८ ॥ अहीवेगं तन्द्रिटीए चरित्ते पुत्तदुच्चरे । जवालोहमयाचेव चावेयव्या सुदुक्करं ।। ३९ ॥ जहा अग्गिसिहादित्ता पाउहोइ सुदुक्करं । तहा दुक्करं करेउंजे तारुणे समणत्तणं ॥४०॥ जहादुख्खंभरेउंजे होइवायरस कोथ्थलो। तहादुख्खंकरेउंजे कीवेण समणतणं ॥४१॥ | जहा तुलाएतोलेउं दुकरं मंदरोगिरी । तहानिहुयं निस्संकं दुकरं समणत्तणं ॥ ४२ ।। __ "आकाश-गगां पार उतरवी, सामा प्रवाहे तर अथवा तो भुजाना बळथी समुद्र तरी जवो ए जेटरों दोहिलं छे, तेटोज गुणोना समुहरुप चारित्र समुद्र तरी जर्नु काम दोहिलं छे. [३७]. "संयम वेळुना कोळिया जेवो निस्वाद छे, अने तप करतुं ए खांडानी धार उपर चालवा जेवू दुष्कर छे. [३८]. "हे पुत्र! सर्पनी माफक एकाग्र दृष्टिथी, सदा साधुमार्गे (मोक्ष-मार्गे) वि. वर अति दुष्कर छे, अने ते काम लोढाना चणा चाववा जे कठिन छे.(३९). "हे पुत्र! जेम अग्निनी बळती शिखानुं पान करवू al दुष्कर छे, तेम तरुणावस्थामा साधु-धर्म पाळवो दुष्कर छे. [४०]. “जेम वायरावति (हवाथी) कोथळो भरवो दोहिलो छे, तेम कायर पुरुषने साधु-धर्म पाळवो दोहिलो छ. (४१), "जेम मेरु पर्वतने त्राजवामां तोळवो मुश्कल छे, तेम निश्चळ अने निशंक मनथी साधु-धर्म पाळबो मुश्केल छे. [४२]. १. श्री चुल हेमवंत पर्वत उपरथी पडती गंगा नदीने आकाश गंगा कहे छे. २. आ माटे प्रो. जेकोबी नीचेना शब्दो वापरे 3. Self control is untasteful like a mouthful of sand, and to practise penance is as difficult alas to walk on the edge of a sword. ३. वीजा जानवरोनी पठे सर्व पोतानी आंखो बंध करता नथी. तेनी एकाग्रह ष्टिनी अहिं उपमां आपी छे. For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १९. १४३| जहाभुयाहिं तरिउंजे दुक्कुरं रयणायरो । तहा अणुवसंतेणं दुक्कुरं दमसायरो || ४३ ॥ भुंज्जमाणुस्सएभोए पंचलख्ख - तुमं । भुतोगी तओ जाया पछाधम्मं चरिस्ससि || १४ | सोवितम्मापियरो एवमेयं जहाफुडं । इहलोए निष्पिवासरस नथ्थि किंचिचिदुक्करं ॥ ४५ ॥ सारीर माणसाचेव वेयणाओ अनंतसो । मएसोढाओ भीमाओ असई दुख्ख भयाणिय ||४६ || जरामरणकंतारे चाउरंते भयागरे । मएसोढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणिय || ४७|| जहाइहं अगणी उणहो इतोणंत गुणोतहिं । नरएसुवेयणाउनहा असाया वेड्यामए ॥ ४८ ॥ 44 “जेम भुज(ए करीने रत्नाकर तरवो दोहिलो छे, तेम जेनुं चित्त विषयथी शान्त थयुं नथी, तेने ( इन्द्रीय दमवा रुप) चारित्र सागर तरवो दोहिलो छे.[४]. " हे पुत्र ! मनुष्यनां पंचलक्षणा ( शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श ) भोग भोगव; अने ए भोग भो गव्या पछी धर्म आदर जे." [४४]. ए सांभळीने कुमार कहे छे, “हे मातापिता! आप कहोछो ते बधुं खरं छे, पण जे मनुष्यने आ लोकनी स्पृहा नथी तेने कांइ पण दोहिलं नथी. [४५]. “ शरीर अने मन संबंधीनी महावेदनाओ में अनंत प्रकारे भोगवी छे, अने महारौद्र दुःख अने भय वारंवार सह्यां छे. (४६). "जरा - मरणना भयना आगर रूपी अटवीने विषे चतुर्गति (देव, मनुष्य, तिर्यंच अने नारकी) रुपे* संसारमां जन्म-मरणनां महा भयानक दुःख में सह्यां छे. [४७ ]. "अ मनुष्य लोकने विषे अग्नि जेटलो उष्ण , तेनां करतां नरकनो अग्नि अनंतगणो वधारे उष्ण छे; अने ए उष्णतानी वेदना पण में सहन करेली (अनुभवेली) छे. [४८]. १. The ocean of restraint २, मूळपाठमां भयागरे शब्द छे. A mine of dangers. * मो. जेकोबीए पोताना भाषान्तरमा आदß मूकी दीधुं छे, पण मूळपाठमा चाउरंते शब्द छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 जहाइहं इमंसीयं इत्तोणतगुणोतहिं । नरएसुवेयणासीया अस्साया वेइयामए ॥ १९ ॥ कंदतोकंदुकुंभीसु उट्ठपाओ अहोसिरो। हुयासणे जलंतमि पक्क पुब्बोअणंतसो ॥ ५० ॥ महादवग्गिसंकासे मरुमिवइ रवालुए । १४४० कलंब वालुयाएय दलूपुट्यो अणंतसो ॥ ५१ ॥ रसंतोकंदुकुंभीसु उढुंबंधो अबंधवो । करवत्तकरवयाईहिं छिन्नपुवो अणंतसो ॥ ५२ ॥ अइतिख्ख कंटकाइल्ने तुंगेसिंबलिंपायवे । खेवियं पासबद्धेणं कट्टे'कट्टाहिं दुकरं ॥ ५३ ॥ महाजतेसु उच्छुवा आरसंतो सुभेरव । पीलिओमि सकम्मेहिं पावकम्मो अणंतसो ०००००००००००० ___आ मनुष्य लोकने विषे जेटली टाढ छ, तेना करतां नरकने विपे अनंतगणी वधारे टाढ छ; अने ए टाढनी अशाता में भोगवेली छे. (४९). " उर्ध्वपाद अने अधोशिरे ( उंचा पग अने नीचा मस्तके) प्रज्वलित अग्नि उपर आकंद करतो अनंतवार हुँ | कडामां भुंजायो ढु. [५०]. " वज्रवालुका अने कदम्बबालुकाउ नदीओनी महा दवाग्नि सरखी गरम रेतीमा हुं अनंतवार दग्ध थयो छु. [५१]. " उकळता चरु उपर उंधे मस्तके लटकीने हाय पोकार करतो अने भाइ भांडुनी सहायता रहित, नाना मोटा करवतो वती हुँ अनंतीवार छिन्न भिन्न थयो छु. (५२). " अति तिक्षण कांटाघाळा शाल्मली नामे उंचा वृक्षनी डाळे पाश-बद्ध थइने | अने आम तेम झोलां खाइने में महा वेदनाओ भोगवेली छे. (५१). "हुँ घोर पापी, पोतानां पाप कर्मने लीधे, शेरडीनी पेठे महा यंत्रमा भयानक आनन्द करतो अनंतीवार पीलायो छ [२४]. ०००००००० १. Roasted. २-३. नरकनी बे नदीओनां नाम छे. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १९. १४५ कुतोकोलसुणएहिं सामेहिं सबलेहिय । पाडिओ फालिओछिन्नो विफुरंतो अणेगसो ॥५५॥ असीहिं अयसिवन्नाहिं भल्लेहिं पट्टिसेहिय । छिन्नोभिन्नो विभिन्नोय उइन्नो पावकम्मुणा ॥ ५६ ॥ अवसो लोहरहेजुत्तो जलंते समिलाजुए चोइ ओतोत्त जो तेहिं रोझोबा जहपाडिओ ॥ ५७ ॥ हुयासणे जलंतंमि चियासु महिसोविव । दढोपक्कायअवसो पावकम्मेहि पात्रिओ ॥ ५८ ॥ " श्याम अने संबल नामे परमाधार्मिक (अति अधम ) देवताओए सुअर अने कुतरां जेवां (विक्राळ ) म्होडाथी मने अनेकवार पुकार करतो धरती उपर पछाड्यो छे, फाड्यो छे, छेद्यो छे, (श्वान अने सूकरने खवडाव्यो छे ) अने छिन्न भिन्न करी नांख्यो छे. [ ५५ ]. "मारां पाप कर्मने लीधे ज्यारे हुं नरकमां उत्पन्न थयो हतो त्यारे खड्ग, खंजर, बरछी अने भालाथी हुं छेदायो हतो, भेदायो हतो अने छिन्न भिन्न थयो हतो. [ ५६ ]. “लालचोळ तपावेला अने वळतणथी भरेला लोहरथे मने वळात्कारथी अनेकवार जोडवामां आव्योछे, अने चर्म-बंध ( जोतर ) थी रांधीने परोणावति हांकवामां आव्योछे अने रोझ पशुनी माफक भने मार मारी नीच पाडवा आव्यो छे. [ ५७ ]. देवता ( परमाधामी) ए उत्पन्न करेली अमिनी जाजवल्यमान (सळगती) चितामा (होमना) पाडानी पेठे मने पराणे नांखवामां अने वाळवामां-सेकवामां आव्यो छे, मारां पाप कर्मोंने लइने आवी वेदना में सहन करी छे. [ ५८ ]. * आगाथानुं भाषान्तर प्रो. जेकोबी नीचे प्रमाणे करे छे :- "काळा अने कावरा जंगली कूतर ओए मने अनेकवार पछाड्यो छे, छिन्न भिन्न कर्पोछे अने हाय पुकार करतो फाडी तोडी नांख्यो छे. " १. प्रो. जेकोबी आ भागनो In atonement for my sins. 'मारां पाप कर्मना निवारण अर्थे' एवो अर्थ करे छे. पण मूळपाठमा “पावकम्पेहि पाविओ" शब्दो ले, जेनो अर्थ "ए वेदना पाप कर्मे करी पायो" एम थाय छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jaineibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. १९.४ ......... | बलासंडास तुंडेहिं लोहतुंडेहि पख्खिहिं । विलुत्तो विलवताहं ढंकगिडेहिणंतसो ॥ ५९॥ तएहा किलंतो धावतो पत्तोवेयरणीनइ । जलंपाहिति चिंतंतो खुरधाराहिं विवाईओ॥ ६० ॥ उहाभितत्तो संपत्तो असिपत्तं महावणं । असिपत्तेहिं पडतेहिं छिन्नपुव्यो अणंतसो ॥ ६१ ॥ मुग्गरेहिं मुसट्ठीहिं सूलेहिं मूसलेहिय । गया संभग्गगत्तेहिं पत्तदुख्खं अणंतसो ॥ ६२ ॥ खुरेहिं तिग्वधारेहिं छुरियाहिं कप्पणाहिय । कप्पिओ फालिओछिन्नो उक्त्तोय अणेगसो ॥६३॥ पामेहिं कूडजालेहिं मिओवा अवसो अहं । बाहिउ बहरुडोय बहुसोचेव विवाइओ ॥ ६४ ॥ 10000००००००००००००००० . सांडसी (चीमटा) जेवी जेनी वज्रनी चांच छे एवा पक्षीओए अने ढंक-गृद्ध (पिशाच जेवां गीध) पक्षीए मने वळात्कारथी अनंतीवार फाड्यो छ.। [५९]. "तृषाथी व्याकुळ थइने, पाणी पीवाना इरादाथी हुँ वैतरणी नदी तरफ दोडी जतो, पण त्यां छरी | सरखी पाणीनी धाराथी हुँ अनेकवार भेदाइ पड्यो छ. [६०]. " तापनी पिडाथी (विश्रांति लेवाने) हुं वनमां जतो, पण त्यां वृक्षनां पांदडां खड्ग सरखां हता; ए खड्ग जेवां पातरांना पडवाथी हुँ अनंतीवार छेदागो भेदायो छ. [६१]. "मुग्दल, छरा, त्रिशुल अने गदाना प्रहारथी मारां अंग-उपांग भांग्यां छे अने अनंतीवार में तेनी अनहद बेदना भोगी छे. [ ६२]. “तिक्षण धारवाळां अस्त्रा, छरी अने कातर वति हुं अनेकवार चीरायो छु, कपायो छ, कोतराई ओ मारा शरीर उपरनी चामडी कारवामां आवी छे. [६३]. "मृगला तरीके (पशु-योनिमा) हुँ धळात्कारथी पाश अने जाळमां वारंवार पकडायो छ, बंधायो छ, पिडायो छु अने मरायो छु. [६४]. १. नरकमा कोइ जातनां पक्षीओ के जानवरो होतां नथी परन्तु परमाधामीओ विक्रय शरीरथी जुदां जुदा रुप लइ, नारकीना जीवोने तेना पापनी शिक्षा करे छे. २. ए नदीनां पाणीमां Caustic Acid मिश्र होय छे जे मांसने वाळी नांखे छे. Jain Education intentional For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलेहिं मगरजालेहिं मध्येवा अवसोअहं । उल्लिओ फालिओ गहिओ मारिओय अणतलो ॥६५॥ विदसएहिं जालेहिं । लिप्पाहिंसउणोविव । गहिओलगोयबधोय मारिओयअणंतसो ॥ ६६ ॥ कुहाड फरुसमाइहि वट्टईहिं दुमोइव । कुडिओ फालिओ छिन्नो तथिओय अणंतसो ॥ ६७ ॥ चबेड मुछिमाइहिं कुमारेहिं अयंपिव । ताडिओ कुट्टिओ | भिन्नो चुन्निओय अणंतसो ॥६८॥ तत्ताइतंबलोहाइं तओयाइं सीसगाणिय । पाइउ कलकलंताई आरसंतोसुभेरवं ॥६९॥ तुहंपियाइं मंसाइं खंडाइं सोलगाणिय । खाविउमि समंसाई अग्गिवन्नाईणेगसो ॥ ७० ॥ ___"मच्छ तरीके हुँ अनेकवार गलथी पकडायो छ, जाळमां सपडायो छ, मारी चामडी उतारवामां आवी छे अने मारा टुकडे टुकडा करवामां आव्या छे. [६५]. "पक्षी तरीके हुँ अनंतीवार सींचाणा (बाज) पक्षीथी पकडायो छ, जाळमां फसायो छ अने 18 वज्रलेपमा सपडायो र्छ अने मरायो छै. [६६]. "वृक्ष तरीके (वनस्पति-कायगं) कुहाड/ अने फरसी आदि हथियारथी सूतारने | हाथे ई अनेकवार छेदायो छु, करवत वति व्हेरायो छ अने मारी त्वचा (छाल) उतारवामां आवी छे. [ ६७ ]. " लोह तरीके हुँ । अनंतीवार २लुहारने हाथे कुटायो छ, कपायो छ, चीरायो र्छ अने चूर्ण थयो ढु.[६८]. "त्रांबु, लाहुँ, उकथीर अने सीसाना धगधगता अने उकळता रस अति अक्रन्द साथे मने अनंतीवार पराणे पावामां आव्या छे. [६९]. " तने खीमो करेलु अने भूजेलं मांस (पूर्व भवे) प्रिय हतुं केम? एम कही कहीने *मने मारूं पोतानुन मांस* तोडी तोडीने अन लालचोळ करीने अनेकवार खवडाववामां आव्युं छे. [७०]. १. Bird-lime पक्षीओ पकडवानी चीकगो पदार्थ. २.लुहारने प्राचिन समयमा 'कुमार' कहेता. मूळपाठमा 'कुमारेहिं अयं. पिव'छे, जेना शब्दार्थथी संस्कृत टीकाकार एवो अर्थ करे छे के, जेम क्षत्री पुत्र-कुमार, अज-घेटां बकराने मारे तेम.३.कलइ-तरुआं 181 Tin. *आने बदले प्रो जेकोबी 'झेरी मांस' लखेछे. पण मूळपाठमा 'समसाई' शब्द छे, तेमां 'झेरी' भावार्थ नीकळतो नथी. ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० २०००००००००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ तुहंपिया सुरासीहू मेरओय महणिय । पाइओमिजलंतीओ वसाओ रुहिराणिय ॥७१॥ निश्चंभीएण तथ्येण दुहिएण वहिएणय । परमादुहसंबडा वेयणावेइयामए ॥ ७२ ॥ तिब्वचंडप्पगाढाओ घोराओ अइ दुस्सहा । महझयाओ भीमाओ नरएसुवेइयामए ॥७३॥ जारिसा माणुसेलोए तायादीसंति वेयणा । इतोअणंत गुणिया नरएसु दुख्खवेयणा ॥ ७४ ॥ सबभवेसु असाया वेयणा वेइयामए । निमिसंतरमित्तंपि जंसाया नथ्थिवेयणा ॥७५॥ तंतिम्मापियरो छंदेणं पुत्त पव्वया । नवरं पुणसामन्ने दुख्खं निप्पडिकम्मया ॥ ७६॥ .. "तने सूरा, मद्य, मदिरा अने मधु प्रिय हतां केम? एम कही कहीने मने उकळती चरवी अने रुधिर पावामां आव्यां छे. ७१]. "सदा व्हीतां, त्रास पामतां, ध्रुजता, दुःखी थतां अने पिडात में परमोत्कृष्ट रोग अने व्याधि सह्यां छे. [७२]. " नरक 18 लोकने विषे में तीव्र, उत्कट, सखत, घोर, असह्य, भयानक अने रौद्र वेदनाओ भोगवीछे. (७३). " हे तात! मनुष्य लोकने विषे जे वेदनाओ जणायछे तेना करतां नरक लोकमां अनंत गणां वधारे दुःख अने वेदनाओछे. (७४)*" हे पिता ! सर्व भवने विष में जे जे नेदनाओ भोगवीछे, तेमां निमेष मात्रपण सुख अथवा सातार्नु तो नामज नहो." [७]. ए सांभळीने माता पिता कहे छे, “हे पुत्र! तारी हच्छा होय तो सुखेथी दीक्षा ले; पण साधने कांइ रोग थाय त्यारे तेनाथी तेनी चिकित्सा अथवा उपचार 18| यइ शकतां नयी ए अति दोहिलुं छे." [७६]. * गाथा ४७थी ७१ सुधीमां नरकनी विविध वेदनाओर्नु वर्णन करेलु छे; ते पैकी गाथा ६३थी ६७ सुधीमा मृगापुत्रे धारण करेला स अने स्थावर भवनां दुःख वर्णन्या छ, जोके टीकाकारे तो ए गाथाओने पण नरकनां दुःख रुपे वर्गवेली छे. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.. सोबितम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं । परिकम्मकोकुणई अरणेमियपख्खिणं ॥ ७७ ॥ एगभूओ अरणेवा जहाओ ! चरइमिग्गो । एवंधम्मं चरिस्सामि संजमेण तवेणय ॥ ७८ ॥ जयामियस्स आयको महारन्नं मिजायई। अछंतं १४०६ रुख्खमूलंमि कोणताहे तिगिछुई॥७९॥ कोबासे उसहंदेइ कोवासे पुछुइ सुहं । कोवासेभत्तंचपाणंवा आहारित्तुपणामए ॥८०॥ जयायसेसुहीहोइ तयागछुइ गोयरं । भत्तपाणस्स अट्टाए वल्लराणि सराणिय ॥ ८१ ॥ खाइत्तापाणियंपाउं वल्रेहिं सरेहिंवा । मिगचारियं चरित्ताणं गछुइ मिग्गचारियं ॥ ८२ ॥ एवं समुठिओ एभिख्खू एवमेव अणेगगो । मिगचारियं चरित्ताणं उर्दूपक्कमइदिसं ॥ ८३ ॥ ००००००००००००००००००००००० ०००००००००390000 ००० ०.०० ए सांभळीने मृगापुत्र कहे छ, “हे मात! हे तात! आप कहोछो ते तदन सामु छे. पण अरण्यमां पशु पक्षीओनी संभाळ कोण लेछ ? (७७). “जेम मृग एकलो अरण्यमां भटके छ तेम हूँ पण संयम अने तपथी धर्मना मार्गमा विचरीश. [७८]. "ज्यारे महा अरण्यने विषे मृगने रोग उपजे छे अने ते वृक्षना थड पासे पड़ी रहे छे, ते वखत तेनी चिकित्सा कोण करे छे ? [७९]. " ते मृगने औषध कोण आपे छे? तेने शाता कोण पूछे छे ? तेने तृण पाणी कोण आणी आपे छे? अने कोण तेने खवडावेछे ?(८०). “जे करे ते मृग व्याधि-मुक्त थाय छे त्यारे ते बनमा फरीने लीलं घास चरे छे अने सरोवर तीरे जइने पाणी पीए छे. [८१]. "वनमा चरीने अने सरोवर तीरे पाणी पीइने ते पोतानी मरजी मुजब फरतुं फरछे अने अन्य पशुओनी माफक विश्राम लेछे.(८२). "ए मृगनी पेठे साधु पुरुष पण (सुख दुःख सहेतो) कोइ स्थले स्थिरवास करतो नथी अने मृगनी पेठे पोतानी इच्छानुसार भटक्या करे छ भने आखरे ते उर्व दिशा (मुक्ति-मार्ग) लरफ भयाण करे छ. [८३]. .. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०००००००० ०००००० जहामिए एगअणेगवारि अणेगवासे धुवगोयरेय । एवं मुणीगोयरियं पविठो नोहलिए नोविय खिसएज्जा1८४॥मिगचारियं चरिरसामि एवंपुत्ता जहासुहं । अम्मापिओहि अणुन्नाओ जहाइ उवहितओ ॥६५॥ मिगचारियं चरिस्सामि सव्व | दुख्ख विमोख्खणं । तुझेहिं समणुन्नाओ गछपुत्त जहासुहं ।।८६।। एवंसो अम्मापियरो अणुमाणित्ताण बहुविहं । ममत्तं छिंदइताहे महानागोव्वकंचुयं ।। ८७ ॥ इट्टीवित्तंचमित्तेय पुत्तदारंचनायओ। रेणुयंवपडेलग्गं निधुणीत्ताण निग्गओ ।। ८८ ।। पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तोय । सझिंतर बाहिरए तवोकम्ममि उज्जुओ ॥ ८९ ॥ समग पोतानी मे घणे ठेकाणे फरतं फरे के अन अनेक स्थाने वास करे के अने नित्य पोतानो खोकना साधुने भिक्षाचर्याने विषे गमे तेवो आहार मळे तो पण तेणे तेनो दोष काढवो नहिं अने तेनी निंदा करवी नहिं. (८४). "हुँ ए मृगनी माफक विचरीश" ए सांभळीने मातापिता कहेछे, "हे पुत्र! तमने जेम ठीक लागे तेम करो." आ प्रमाणे पोतानां मातापितानी आज्ञाथी तेणे सघळो परिग्रह छोडी दीयो.(८५]. पुत्र कहेछे, “जो आपनी आज्ञा होय तो हुँ ए मृगनी पेठे विचरीश; जेम करवायी सर्व दुःखथी मुक्त थवाय छे." ए सांभळीने मातापिता कहेछे, "हे पुत्र! तमारी एवी इच्छा छे, तो सुखेयी जाओ."(८६).आप्रमाणे पोतानां मातापितानी फरीथी आज्ञा लइने, सर्प जेस कांचळी मूकीने न्हासे तेम, मृगापुत्रे सर्व ममत्वना त्याग कयों. [८७ ]. जेम * वस्त्रने लागेली रज खंखेरी नांखवामां आवे छे तेम रिद्धि, धन, मित्र, स्त्री, पुत्र अने ज्ञाति-गोत्रादिनो त्याग करीने मृगापुत्र चाली नीकळ्यो. (दीक्षा लीधी) [८८]. तेणे पंच महाव्रत धारण की अने पंच समितिए समित अने त्रण गुप्तिए गुप्त रहीने बान। अने अभ्यंतर तप करवामां ते सावधान थयो. [८९]. *प्रोजेकोबी 'वस्त्र' ने बदले 'पग' लखे छे. मूळपाठमां पडेलग्गं छे-पटेलग्न-वस्त्रने लागेलं-अर्थ थइ शके छे, १.Bodilr. | २. Mental. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ०००००००००० ܀܀܀܀܀܀ Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १९. १५१ निमम्मो निरहंकारो निस्संगो चतगावो । समोय सव्वभूएस तसेसु थावरेय ।। ९० ।। लाभालाभे हे दुखे जीविए मरणेतहा । समोनिंदा पसंसासु तहामाणावमाणओ ।। ९१ ॥ गारवेस कसाएस दंडसल्लभए । नियतो हासोगाओ अनियाणो अबंधणो ||१२|| अणिस्सिओ इहलोए परलोए अणिस्सिओ । वासीचंदण कप्पोय असणे असता ||१३|| अप्पसध्येहिं दारेहिं सव्वओ पिहियासवो । अझप्पझाणजोगेहिं पसथ्य दमसासणे ।। ९४ ।। मृगापुत्र, ममत्वभाव, अहंकार), अनुराग अने गर्व' रहित थयो अने बस या स्थावर, सर्व जीव तरफ समता भावी वर्तवा - लाग्यो. [ ९०]. (भिक्षामा) लाभ अने अलाभ, सुख अने दुःख, जीवित अने मरण, निंदा अने प्रशंसा तथा मान अने अपमान तरफ तेनी समान वृत्ति हती (९१). ते ४त्रण गर्नथी. चार कषायथी, त्रण दंडथी, पण शल्यथी, 'सप्त भयथी, हर्ष शोकथी. नियाणाची अने राग द्वेषी बंधन रहित थयो. [ ९२]. तेने आ लोक या परलोकनी वांछना हतीज नहि तेना मनथी तो *वांसलावति शरीर छेदाय यातो तेनापर चंदननो लेप थाय ते सरखंज हतुं * अने आहार करवो या उपवास करबो ते पण तेना मनयी तो एक सरखुंज ह. [९३]. हिंसादिनां अप्रशस्त द्वार तेणे बंध कर्या, सर्व आश्रवने संध्या, अने अध्यात्म ध्यानना योगे करीने तेणे प्रशंसनीय विशुद्धता अने जिनशासननां पवित्र सिधान्त प्राप्त कर्या-शुभ उपशमवाळा या. [१४]. १. Egoism. २. Attachment. ३. Concert ४. त्रण गर्व:-रिधि, रस अने साता गर्व. ५. चार कपाय :-क्रोध, मान, माया, लोभ. ६. त्रण दंड :-मन, वचन अने कायाना असद्व्यापार. ७. त्रण शल्या :- माया निदान अपने मिथ्या दर्शन. ८. सप्त भय :- आलोक परलोक, आदान, अकमत, मरण, अपयश अने आजिविका भय. * मो. जेकोबी आने बदले लखे छे के " जेना मनथी सारी नरसी वस्तुओ समान छे." पण मूळ पाठमा 'वासी चंदन' शब्द छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ १९. १५२ एवं नाणेणचरणेण दंसणेण तत्रेणय | भावणाहिय विसुद्धाहिं सम्भावित अप्पयं ।। ९५ ।। बहुयाणियवासाणि सामन्नमनुपालया मासिएण उभत्तेणं सिद्धिपत्तो अणुत्तरं ||९६ || एवं करंनिसंबुच्या पंडियापवियख्खणा । विणियतिभोगेम मियापुत्ते जहा मिसी ॥ ९७ ॥ महापभात्रस्स महाजसस्स मियापुत्तस्सनिसम्मभातियं । तप्पहाणं चरियंच उत्तमं गइप्पहाणंचतिलोयविस्सुयं ॥ ९८ ॥ वियाणिया दुख्ख विवढणंधणंममत्त बंधंच महाभयावहं । सुहावहं धम्म धुरं अणुत्तरं धारेह निव्वाणगुणावहं महं तिमि ॥ ९९ ॥ ॥ इति श्री मियापुत्तियंनाम झयणं ओगणीसं संम्मत्तं ॥ १९ ॥ आ प्रमाणे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप अने निर्मळ भावनाए करीने ते पोते विशुद्ध थया अने घणां वर्ष सुधी चारित्र पाळीने अने एक मास असण करीने अनुक्रमे सर्वोत्तम सिद्धिने प्राप्त थया (९५-९६) तत्वना जाण पंडित अने विचक्षण पुरुषो आ प्रमाणे वर्ते छे अने मृगापुत्रनी पेठे तेओ संसारना भोगथी निवर्ते छे. [९७]. हे भव्य जीव ! महा प्रतापी अने यशस्वी मृगापुत्रनो उपदेश सांभळीने, अने तेणे उत्तम तपना प्रभावे त्रिलोक विख्यात मुक्ति प्राप्त करी ते चारित्र श्रवण करीने आदरे ते मोक्षनां सुख पामे. [९] दुःखने वधारनार, ममत्वने *बंधावनार, अने महा भयने उपजावतार, जे माया तेने तमे धिकारो अने धनी सर्वोत्तम सुखावह धूराजे मुक्तिना सुखने देनारी छे ते धारण करो . [ ९९ ]. ओगणीसं अध्ययन संपूर्ण. Jain Educationa International * Fetter of egoism. * For Personal and Private Use Only 000000 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. अध्ययन २०. * निग्रंथोनो महान् धर्म अथवा श्रेणिक - राजा अने अनाथि मुनि. .. १५०/ | सिद्धाणं नमोकिच्चासंजयाणंच भावओ । अथ्थधम्मगइतच्चं अणुसलुिसुणेहमे ॥ १ ॥ पभूय रयणोराया सेणिओ 7. मगहाहिवो । विहारजत्तं निजाओ मंडिकुछिसिचेइए ॥२॥ नाणादुमलया इन्नं नाणापख्खि निसेवियं । नाणाकुसुम संछन्नं उज्जाणं नंदणोधणं ॥ ३ ॥ हे शिष्य : सिद्ध अने संयत पुरुषोने (आचार्य, उपाध्याय अने सर्व साधुओने) भावथी नमस्कार करीन मारी सत्यशील शिक्षा श्रवण करो. जेम करवाथी अर्थ, धर्म अने ज्ञान प्राप्त थाय छे. [१] अनेक रत्नो (गज, अश्व, माण आदि) ने धारण करनार मगर देशनो अधिपति श्रेणिक राजा एक वखत मंडिकुक्षि उबानने (चैत्य )२ विपे क्रीडा अथै गो हतो. [२]. नाना प्रकारनां वृक्ष बेलाओथी सुशोभीत, विविध प्रकारनां पक्षीओनां आश्रमरुप, अंने भातभातनां फुलोथी छयायेलं ते उद्यान नंदनवन सरवू शोभी रहयुं हतुं. [३]. १. मूळपाठमां 'गई' शब्द छे. प्रो. जेकोबी ते माटे Liberation शब्द वापरे छे. धर्म, अर्थ अने मोक्षनो भावार्थ छै. मोक्ष प्राप्त करवानू परम साधन 'ज्ञान' होवाथी, टीकाकारोए ते माटे ज्ञान शब्दनो उपयोग कयों छ. २. आगळनी गाथाानो भावार्य जोतां चैत्य अहिं उद्यानना अर्थमां वपरायेल छ, नवमा अध्ययननी नवमी गाथमां पण ते आवाज भावार्थमां वपरापेल छे. ३. इन्द्रना बगीचाने नंदनवन कहे छे. 00000000000000000000000 For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. १५४ तथ्थसो पासईसाहुं संजयं सुसमाहियं । निसतं त्वमूलंमिमुकुमालं सुहोइयं ॥ ४ ॥ तस्सरूवंतुपासित्ता राइणोतं मिसंजए । अच्चंत परमोआसी अतुलो रूव विम्हओ ॥ ५ ॥ अहोवन्नो अहोरूवं अहोअज्जस्ससोमया । अहोखंती अहोमुत्ती अहोभोगे असंगया || ६ || तस्सपाए उवंदित्ता काऊणय पयाहिणं नाइदूरमणासने पंजली पारपुछई ॥ ७ ॥ तरुणोसि अज्जोपव्वइओ लोग कालंमिसंजया । उवडिओसि सामन्ने एयमहं सुणामिता ॥ ८ ॥ अगा होमिमहान विज्ई । अणुकंपगंसुहिं वाविकिंची नाभिसमेमहं ॥ ९ ॥ ते उपवनने विषेश्रेणिक राजाए एक संयमधारी अने समाधिग्रस्त साधुने एक वृक्षनी नीचे बेठेला जोया, जे शरीर सुकुमार अने सुख भोगववाने योग्य जणाता हता. [ ४ ]. श्रेणिक राजा ते साबुनुं परमोत्कृष्ट अने अनुपम रूप जोइने अत्यंत आश्चर्य पायो. [ ५ ]. ते राजा मनथी विचारवा लाग्यो के, 'अहा ! शुं तेना शरीरनो वर्ण! शुं तेनुं रुप ! शुं लावण्य! अहा ! are आर्य पुरुषनी सौम्यता ! अहा ! शी एनी शान्ति अने क्षमा शी एनी निलभता ! अने शी एनी विषयने विषे निस्पृहता. [६] साधुना पगने वांदीने अने तेनी प्रदक्षिणा करीने* श्रेणिक राजा नहि तेनायी अति दूर के नहि छेक नजिक एवी ते बेठो अने हाथ जोडीने प्रश्न करवा लाग्यो. (७). " हे आर्य ! आपे तरुणावस्थामां दीक्षा ग्रहण करीछे हे संयत ! युवावस्था ए भोग भोगववा योग्य काळखे, तेमां आप श्रवण धर्मे उपस्थित थयाछो, तेम करवानुं कारण आपना मुखेथी सांभळवाने हुं उत्सुक छं. " [८]. मुनि कहेछे, “हे महाराज ! हुं अनाथ हूं. मारे माथ कोइ नाथ नथी. मारा उपर अनुकम्पाला एत्रो मित्र पण मारे नथी. तेम लगार मात्र अनुकम्पा लावी सुख देनार कोइ नथी. (९). १. Restrained and concentraited. २. Accustomed to comfort ३.Disregard for pleasures. *आने बदले प्रो. जेकोबी लखेछेके' तेने पोतानी जमणी बाजुए राखीने' मुळ पाठमा 'पयाहिणं शब्दछ, जेनो अर्थ प्रदक्षिणा थायले. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .00 ००००० उ.अ. ००००००००००००००००००००००००० तओशेप हसिओराया सेणिओ मगहाहियो । एवंतेइट्ठिमंतस्स कहंनाहो नविजई॥१०॥होमि नाहो भयंताणं भोगे जा हिसंजया। मित्तनाई परिवुट्ठो माणुस्संखलुदुलहं ॥ ११ ॥ अप्पणा विअणाहोसि सेणिया मगहाहिवा अप्पणाअणा होसंतोकस्सनाहो भविस्ससि ॥१२॥ एलंबुत्तो नरिंदोसो सुसंभंतो सुविम्हओ वयणं असुयपुव्वं साहुणा विम्हयंनिओ ॥१३॥ अस्साहथ्थी मणुस्सामे पुरंअंतेउरंचमे । भुंजामि माणुसेभोए आणाइरसरियंचमे ॥ १४ ॥ एरिसेसंपयग्गंमि सव्वकाम समाप्पिए । कहं अणाहो भवईमाहुभंते मुसंवए ॥ १५ ॥ ए सांभळीने मगधाधिप श्रेणिक राजा हसी पडयो अने बोल्यो के "आप जेवा ऋद्धिना धणीने (सकळ गुण संपन्न पुरुषने) कोइ नाथ न होय ए केम संभवे ? (१०)."हे पुज्य ! आप जेवा साधु पुरुषोनो हुँ नाथ [रक्षक थइश; माटे आप मित्र ज्ञाति सहित भोग भोगवो; कारणके मनुष्यभव (वारंवार) प्राप्त थवो दुर्लभछे." [माटे भोग भागवी ल्यो]. (११). साधु कहे छे, “हे मगधाधिप श्रेणिक ! तुं पोतेज अनाथ छे; अने तुं पोते अनाथ होवा छतां बीजानो नाथ शी रीते थइ शकीश ?" (१२). पूर्वे कदि नाहि सांभळेलां एवां मुनिनां वचन सांभळीने राजा अति व्याकुळ थयो अने विस्मय पाम्यो. [१३]. राजा कहे छे, “मारे अश्व, हस्ति, मनुष्य, नगर, अंतःपुर वगेरे छे. * हुँ मनुष्यने लगता (सर्व) भोग भोग ; * अने आज्ञा तथा अश्वयनो धणी छ. (१४). "सर्व काम अने सर्व अभिलापाने तृप्त करे एवी महान संपत्तिनो धणी अनाथ केम कहेवाय? हे भगवंत : एवो मृपावाद (असत्य) बोलोमां." [१५]. * आ वाक्य प्रो. जेकोबीए गाथाने छेडे मूक्युं छे अने तेने आज्ञार्थमां लइने एवो अर्थ को छे के, 'तुं मनुष्यने लगता भोग भोगव' जे शब्दार्थ उचित जणातो नथी, कारण मूळपाठमां 'मुंजामि माणुसे भोए' शब्दो छ. 100००००००००००००००००००००००००० ܀܀܀܀܀܀܀܀ For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.. २०/ नतुम जाणे अणाहस्सअथ्थं पोथ्थंच पथिभवा जहा अणाही हबई सणाहोवानराहिवा ॥ १६ ॥ सुणेहमे महासयं अव्वख्खित्तेण नेयमा । जहा अणाहो भवई जहामेय पवत्तियं ॥ १७ ॥ कोसंबीनामनरी पुराण पुरभेयणी तथ्य आसीपियासट प्रभूयधणसंचओ ॥१८॥ पढमेवए महारायं अतुलामे अश्थिवेयणा । अहोश्था विउलोदाहो सव्वगत्तेसु पश्यिया ।। ३६ ॥ सथ्यंजहा परम तिखं सरीर विवरंतरे आवीलिज्ज अरीकुडो एवंमे अश्थिवेयणा ॥ २० ॥ तियंमे अंतरिलंच उत्तमंगंचपीडई। इंदासणिसमा घोरा वेयणा पमदारुणा ॥ २१ ॥ । मुनि कहे छे, “हे राम! तुं 'अनाथ' शब्दनो अर्थ या उत्पत्ति (मूळ) जाणतो नयी; तेमज है ग़जन : सनाथ अने अनाथ । केम थवाय छे (अथवा कोने कहेवाय छे) ते पण तुं जाणतो नथी. [१६]. "हे महाराजा. कोइ मनुष्य ' अनाथ' केवी रीते कहेवाय छे अने में शा हेतुथी कहेलुंछे, ते हुँ तने कही संभळावं छं ते तुं एकाग्र चित्तथी श्रवण कर. [१७]. " आ भरतक्षेत्रने विषे कौशाम्बी नामे * (पुराण पुर भेदनी) पुराणी इन्द्रपुरी सरखी शोभायमान नगरी हती. त्यां मारी पिता जेणे धननो म्हटो संचय को हतो ते रहेतो हतो. [१८]. "हे महाराजा: हे पार्थिव प्रथमावस्था ने विषे मने आंखनी अतुल पिडा उपजी; अने पारां सर्व गात्र सखत ज्वरथी बळवा लाग्यां. [१९]. "कोपायमान थयेलो शत्रु घणा जोरथी अति तिक्षा शास्त्र शमीला विनर (आंग्व, कान, नाक)मां घोचतो होय, एवी असह्य वेदना मने था लागी.[२०]. "मारी पीठमां, हृदयमा अने माना 7 ममान अति दारुण अने तिक्ष्ण वेदना थती हती. [२१]. *"पुराण पुर भेदनी' नो शब्दार्थ स्पष्ट समजातो नथी छतां ,आसपासन संबंध विचाराने इमपुरी माली शोभायमान' एवो अर्थ कर्योछे. पुराणी घणा काळनी जुनी-पुर भेदनो अर्थ कील्लानो नाश एवो थइ शके छ पण ते पूर्ण वा इदन लागु पडाय छे. १. आने बदले प्रो. जेकोबी लखे हेतु के 'विजीना आघात समान' मूलपाठमा उदासणी सपा पोरा' शन्दछ, Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २०. १५७ उवट्ठियामे आयरिया विज्जामंत तिगिळगा । अधीया सथ्थकुसला मंतमूल विसारया ॥ २२ ॥ तेमेतिगिद्धं कुप्यंति उपायं जहाहियं । नयदुख्खा विमोयंति एसामझ अणाया ॥ २३ ॥ पियामे सव्वसारपि देज्जाहि ममकारणा । नयदुख्खा विमोति सामझ अणाया ||२४|| मायामे महारायं पुत्त सोम दुहडिया | नयदुख्खा विमोयंति एसामझ अणाया ॥ २५ ॥ भायरामे महारायं सग्गाजिह कणिडुगा । नय दुख्खा विमोयंति एसामझ अणाया ॥ २६ ॥ भइणीओमे महारायं मग्गाजिड कणिडुगा । नयदुख्खाविमो यति एसमझ अणाया ॥ २७ ॥ "हे राजन | यार पछी मारा निमित्ते विद्वान वैद्याने बोलाववामां आव्या, जेओ चिकित्सा अने मंत्र विद्याना जाण हता, वैद्यकशास्त्र हा अन मंत्र तथा जडीबुटीना गुणने जाणनारा हता. [२२] “ ते वैधोए मारा रोगनी चिकित्सा करीने, मने आराम याय एवा उपकर चारे का करवा मांडया, पण तेओ मने व्याधि मुक्त करी शक्या नहि; अने तेथी हुं कहुंछ के हुँ माथ है. (3) "हे राजा ! भारा पिताए मारा निमित्ते पोतानी सर्वसार वस्तुओ [सपलं धन] आपी दीघी होत, छतां ते मने दुःख नहीं थी हूं कई के हुं अनाथ हूं. [२४]. "हे महाराजा! मारी माता पोताना पुत्रमी पीडा जोइने अति दुःखी ती हवी, छतां ले भने दुःखी छोडावी शकी नहि, तेथी हुं कहुंछ के अनाथ हूं. [२५]. " हे महाराजा ! मारा अनेक मने दुःखी छोडावी शक्या नहि, तेथी हुं कहुंछ के हुं अनाथ है. [२६]. “हे महाराजा ! मारी अनेकfty affaओ मने दुःखी मुकावी शकी नहि, तेथी हुं कछु के हुं अनाथ हुँ. [२७]. १ वचन, विरेचन, गर्दन अने स्वेदन, बीजा चार प्रकार, अंजन, बंधन, लेपन अने मर्दन, आ सिवाय चार अनुकूलता पण टीकाकार विवेचन करेछे, १. वैद्यनी अनुकुलता. २. औषधिनी अनुकूलता. ३. दरदी दवा करावया उत्सुक अने ४. प्रतिचारक प्रेमधी सारचार करना बाळा पण तैयार. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.8 भारियामे महाराय अणुरत्त मणुव्वया । अंसुपुन्नेहिं नयणेहिं उरमे परिसिंचई ॥२८॥ अन्नपाणंचएहाणंच गंधमल्ल विलेवणं । मएनायमनायंवा सावालानोव जई ॥२९॥ खणंपिमे महारायं पासाओ विन फिटुई । नयदुख्खाविमोयति एसामझ अणाहया ॥ ३० ॥ तओहं एवमाहंसु दुख्ख माहुपुणो । वेयणा अणुभविउंजे संसारंमि अणंतए ॥ ३१ ॥ सइंच जइमुच्चेजा वेयणा विउलाइओ। खंतोदंतो निरारंभो पत्रइए अणगारियं ॥ ३२ ॥ एवंच चिंतइत्ताणं पसुत्तोमि नराहिवा । परियत्नंतीइ राइए वेयणा मेखयंगया ॥ ३३ ॥ तओकल्ले पभायम्मि आपुछित्ताण बंधवे । खंतोदता निरारंभो पव्वइओ अणगारियं ।। ३४॥ ____“हे महाराजा ! मारी स्नेहाळ अने पतिव्रता स्त्री पोताना नेत्रनां अश्रुए करीने मारा हृदयने सींचती हती. (२८). " ते | सुज्ञ बालाए खान, पान, स्नान, सुगंध, पुष्पमाल अने अर्चनादिनो उपयोग मारा जाणतां या अजाणतां कदि कयों नहि. [२९]. 18" हे महाराजा! ते बाळा मारी पासेथी एक क्षण मात्र पण उठीने जती नहि, छतां ते मने मारा दुःखथी मुकावी शकी नहि, 18| तेथी हुँ कहुंछ के हुं अनाथ . [३०]. " ते वारे हुँ एम कहेवा लाग्यो के आ अंतर हित संसारमा भव-चक्रमां] फरी फरीने वेदना भोगववी ए अति दोहितुं छे. [३१]. "जो एकबार हुँ आ असह्य वेदनाथी मुक्त थाउं, तो हूं क्षमावंत, जितेन्द्रिय अने निरारम्भा [आरंभरहित] अणगार थाउं. (३२). " हे नराधिप ! आ प्रमाण चिंत्वन करतो करतो हूं निद्रामां पडयो. तेज रात्रिने विषे मारी सर्व वेदना समी गइ. [३३]. " बीजे दिवसे प्रभातमां, सगांसंबंधीनी आज्ञा लइने, क्षमावंत, जितेन्द्रिय अने निरारम्भ 18 साधु पणुं में आदर्यु. (३४). १. Ceasing to act. राजा ! मारी स्नेहाळ अने पाने अर्चनादिनो उपयोग मारा 0000000000000000000०००००००००००००००० ने मारा दुःखथी मुकावा ने ०००००००००००००००००००००००००००००००००० Jain Education intonational For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . 8 .00848 ०००००००००० तओहं नाहोजाओ अप्पणोय परस्सय । सव्वेसिंचेव भूयाणं तसाणं थावराणय ।। ३५ ।। अप्पानई वेयरणी अप्पामे || कुडसामली । अप्पाकाम दुधाधेणू अप्पामेनंदणंवणं ॥३६॥ अप्पाकत्ता विकत्ताय दुहाणय मुहाणय । अप्पामिर, सवितंच दुपठिय सुपठिओ ॥३७॥ इमाहु अन्नोविअणाहया निवा तमेक चित्तेनिहुओ सुणेहिं नियधम्म लभियाण वीजहा सीदंतिएगे बहुकायरानरा ।। ३८ ॥ जोपव्वइत्ताण महव्वयाइं सम्मनोफासईपमाया । अणिग्गहप्पाय रसेसुगिडे नमूलओ छिंदइ बंधणंसे । ३९ ॥ " आ प्रमाण दीका ग्रहण कर्या पछी हुँ मारो पोतानो तेमज अन्यनो (शुद्ध प्ररुपणाने लीधे) नाथ रक्षक थयो, अने त्रस तथा स्थावरादि सबै जीवनो नाथ थयो. [३५]. "मारो आत्मा एज वैतरणी नदी समान छे, एज शाल्मली वृक्ष छे ; एज आत्मा कामदुधा धेनु समान छ अने एज नंदनवन छे. (३६). "एज आत्मा सुख अने दुःखनो कर्त्ता अने अकती छे; एज आत्म सदाचारथी वर्ते तो मित्र समान छे अने दुराचारथी वर्ते तो शत्रु समान छ, (७). "हे राजन! एटलं छतां पण अनाथता रही जाय छे; ते अनाथता हुँ तने कही संभळावं; ते तुं सावधान थइने एकाग्र चित्तथी श्रवण कर :-निग्रंथ (साधु ) धर्म प्राप्त थया छतां केटलाक कायर मनुष्यो साध्वाचार पाळवामां शिथिलता दर्शाये छे. (३८).* “दीक्षा ग्रहण को छतां जे साधु प्रमादने लीधे . पंच महाव्रत बराबर पाळतो नथी, जे आत्म-निग्रहकरतो नथी, अने भोगनी इच्छा करे छे, ते (राग द्वेषरुपी) संसारनां बंधनने जड मूळथी छेदी शकतो नथी. (३९). *मो. जेकोबीवीका करे छ के गाथा ३८ थी ५३ पाछळथी उमेराइ होय एम जणाय छ; अने तेना कारणमा ते जणा। छ के प्रथमनी ३७ गाथाओमां वर्णवेल विषय साथे आ गाथाओनो संबंध बराबर सचबातो नर्थी अने वळी आ गाथा आनुं माप आगला श्लोको करतां जुदा प्रकार छ. १. An ordained Monk. ००००००००००००००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अशा ०००००००००००००००००००20 आउत्तयाजस्सयनश्थि काई इरियाए भासाए तहेसणाए । आयाण निख्खेव दुगंझुणाए नवीरजायं अगुजाईमार्ग ॥४०॥ चिरंपिसेमुंडरुई भवित्ता अथिरब्बए तव नियमेहिं भट्टे । चिरंपि अप्पाणकिले सइत्ता नपाए होइ हुसंपराए ॥ ४१ ॥ पोलेवमुट्टी जहासे असार अयंतिए कुडकहावणेवाराढामणी घेलियष्पगासे । अमहागए होइ हुजगएनु ।। ४२ ॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता इसिझयं जीवियवृहइत्ता असंजए संजयजष्यमाणो विणिहायमान इसे विति 8/11 ४३ ॥ 0 "जे साधु इर्या (गमनागमनमा), भाषा (बोलवा चालवामा), एपणा (आहार व्होरवामां), आदान--निक्षेप (वन्त्र पात्रादि वस्तुओ लेवा राखवामां), अने परिष्टापन (मळ-मूत्रादि क्रियामां), ए पांच समितिने विषे सदा सावधान रहेतो नथी, ते धीर पुरुषोना (तीर्थंकरोना) मार्गने (मोक्षने) प्राप्त करी शकतो नथी. [४०]. "कोइ साधु चिरकाल सुधी मुंटन करे अने गाने क्लेश उपजावे, पण जो ते व्रत पाळवामा अस्थिर रहे, अने तप नियमथी भ्रष्ट थाय तो ते कहि संसारनो पार पामी शके नहि. [११]. "पोली मृठी, ४अयंत्रित कूट-कापण (छाप वगरनु कुटुं नाj), अने वय-मणि (नीलम)ना जेवा देखावलो काचनो करको जेम असार गणाय छे, तेम धर्महीन मुनिने गुणज्ञ पुरुषो वंदनीय गणता नथी. [४२]. "जे सावाचार रहित कुशील सातु, आजीविकाने अर्थे, रजोहरणादिक चिह्न धारण करीने भेख धारी बने छे, अने पोते असंयत होवा छता संपत होवानो डोल पाले. ते दीर्घ काळ सुधी नरकमां पडे छे. [४३]. ००० २००००००० १. The road trod by the Lord. २. दिक्षा पाले. ३. Clenched fist. . Uncoincil, Jan Education international For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००००० | विसंतुपीय जहकालकूट हणाइ सथ्थं जहकुग्गहीयं । एसोवधम्मो विसओवसणो हणाइ वेयालवा विवणो ॥४॥ २०१३ जे लख्खणं सुविणं पउंजमाणे निमित्तको ऊहल संपगाढे । कुहेडविज्जा सवदारजीवी नगछई सरणं तंमिकाले॥४५॥ तमंतमेणेवउसे असीले सयादुही विपरिया समुवेइ । संधावई नरयतिरिख्खजोणी मोणविराहित असाहुरूवे॥४६॥ १६|उद्देसियं कीयगडं नियागं नमुच्चई किंचिअणे सणिज्ज । अग्गीविवासव्व भख्खीभवित्ताईओ चुओ गछह कट्टपावं॥४७॥ | "जेम कालकूट विष तेना पीनारने मारे छे, जेम विपरीत रीते पकडायलं शस्त्र तेना पकडनारने हणे छे, अने ज़म वेताल तेनुं निवारण न करनारने मारी नांखे छे, तेम जे कोई धर्मने विषय । सुखनी वासना साथे मिश्र करे छे, तेने ते धर्म हणे छे. [४४]. "जे साधु शरीरनां शुभाशुभ चिह्न प्रकट करे, स्वमनां फलाफल कहे, भूकंपादिकुतूहल लोकोने देखाडे, पुत्र प्राप्तिने माटे स्नानादि क्रिया करावे, अने कुहेटक विद्या (एटले नजरबंदी,मंत्र,तंत्र) आदि आश्रवद्वारो सेवीने आजीविका करे, तेने जे काळे तेनां पाप कर्मनो उदय काळ आवे त्यारे कोइर्नु शरणुं मळतुं नथी.२ [४]. " आचार भ्रष्ट साधु सदा दुःखी थइने अज्ञानरुपी अंधकारमा भ्रमण करे छे अने विपरीत गतिने प्राप्त थाय छे; संयमनी विराधना करनार कुसाधु नरकने विषे धसे छे अने तिर्यंच योनिने | पामे छे. [४६]. " जे साधु असूझतो आहार व्होरे-एटले के पोताने मन गमतुं भोजन मागीने ले ( अथवा साधुने उद्देशीने तैयार करेलु भोजन ले ), मूल्य आपीने साधुने निमित्ते लीधेलो खोराक व्होरे, अथवा नित्य-पिंड [ एटले अमुक घेरथी हमेशा आहार | व्होरे ] ग्रहण करे, अने अग्निनी पेठे सर्व-भक्षी होय ते आ मनुष्य भवमा भ्रष्ट थइने छूट्या बाद दुर्गतिने विषे जाय छे. [४७]. १. Sensuality. २. प्रो. जेकोबी आ माटे नीचे मुजब शब्दो वापरे छे. He who practises divination from bodily marks and dreams, who is well versed in angury and superstitious rites, who lol gains a sinful living by practising magic tricks, will have no refuge at the time of ( re tribution.) ३. दरेक संप्रदायना आचार्यश्रीए आवी शिथिलता प्रवेशवा न पामे ते माटे खास सावधानी राखवी घटे छे. 10.०००००००००००० - 0000०००००००००००००००००००००० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २० १६२ नतं अरीकंठछेत्ता करेइ जंसेकरे अप्पणिया दुरप्पया सेनाहई मच्धुमहंतु पते पाणुतावेण दयाविहृणो ॥ ४८ ॥ निरठ्ठिया निग्गरुई तस्सजेउत्तमठ्ठे विवज्जासमेई । इमेविसेनथि परेविलोए दुहओ विसेखिझइतथ्थ लोगे ॥३॥ एमेवहा छंदकुसीलरूवे मग्गविराहित्तु जिणुत्तमाणं कुररी विवाभोग रसाणुगिन्छा निरनुसोयापरि यावमेइ || ५० ॥ सोचाण महाविसुभासि इमं अणुसासणं नाणगुणो बवेयं । मग्गं कुसीलाण जहायसव्वं महानियं ठाण वएपणं ॥ ५१ ॥ वरित्तमायार गुणण्णिएतओ अणुत्तरं संजमपालियाणं । निरासवेसंख्खवियाणकम्मं उवेइठाणं विउलुत्तमं धुवं ॥ ५२॥ [दुरात्मता [ दुष्टाचार ] जे दुःख उपजावे छे तेवं दुःख गळु वाढनार बेरी पण उपजावी शकतो नथी १ दयारहित मनुष्यने मरण समये पश्चाताप थाय छे. [४८ ]. “ जे साधु संयमरुपी उत्तम मार्गने विषे विपरीत गतिथी बर्ते छे, तेनुं चारित्र [नग्न-सा ] निष्फळ थाय छे; ते आ लोक के परलोक साधी शकतो नथी, अने उभय लोकनां सुखधी भ्रष्ट थाय छे. [४९]. " आ प्रमाण जे स्वच्छंदी, कुशील साधु उत्तम जिन-मार्ग विराधीने टीटोडीनी पेठे रस-भोगमां ग्रस्त रहे छे, तेने [पछीथी थतो ] शोक, पश्चात्ताप निरर्थक छे. (५०), “ हे पंडित ! हे राजन ! आ शुभाषित अने ज्ञान दर्शन चारित्रना गुणवाळो उपदेश सांभळे छे, ते कुशील मार्ग तजे छे अने महा निग्रंथनो मार्ग सेवे छे. [५१]. “जे कोइ चारित्राचारना गुणे करीने सहित छे, जे सर्वोत्तम संयम पाळे छे, जेणे सर्व आश्रव संध्या छे, र अने जेणे हिंसारहित आठ कर्मने खपाच्यां छे, ते विपुल, उत्तम अने निश्चळ मुक्तिने पामे छे. " [५२]. 66 1. A cut throat enemy will not do him such harm as his own perversity will do him. 2. Who keeps from sinful influences.. The permanent place. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवुगदंतेविमहातवोधणेमहामुणी महापदण्णे महायसे । महानियंठिज्जमिणं महासुयंसेकहि एमहयाविश्वरेणं ॥५३॥ २०१३ तुठोयसेणिओ रायाइणमुदाहु कयंजली । अणाहत्तं जहाभूय सुठेमेउवदंसियं ॥ ५४ ॥ तुझंसुलरखुमणुस्सजम्म लाभासुलद्धाय तुमेमहेसी । तुम्हेसणाहाय सबंधवाय जंभेठिया मग्गजिणुत्तमाणं ॥ ५५ ॥ तसिणाहो अणाहाणं ३सव्व भूयाण संजया खामेमिते महाभागा इच्छामि अणुसासिउं ॥ ५६ ॥ पुछिऊणंमएतुझंझाणविग्यो उजोकओ । निमं तियाय भोएहिं तसव्वं मरिसेहिमे ॥ ५७ ॥ एवं थुणित्ताण सरायसीहो अणगारसीहं परमाइभत्तिए । सउरोहो सपरियणो सबंधवों धम्माणुरत्तो बिमलेण चेयसा ॥ ५८ ॥ उग्र तपस्सी अने इन्द्रियोने दमनार महामुनि अने महा पंडित जेणे पंच महावृत सेव्यां छे अने जे महा यशना धणी छे, तेणे उपर प्रमाणे श्रेणिक राजाने महा निग्रंथना महान धर्मनी विस्तारथी उपदेश कर्यो. [५३]. श्रेणिक राजा संतुष्ठ थइने, हाथ जोडीने आ प्रमाणे बोल्यो, " अनाथत्व सुं ? तेनुं आपे मने बराबर दर्शन [ भान ] कराव्युं छे. [५४]. " हे महर्षि! आपे मनुष्य जन्मनुं सार्थक कर्यु छे, आपें धर्म-लाभ बराबर लधिोछे, आप पोते सनाथ छो, अने बांधव, ज्ञाति, कुटुंबादिकना पण नाथ छो, कारण के | आप श्री तीर्थंकरोना भाखेला उत्तम मार्गने विषे रह्या छो. [५५.." हे संयत ! आप अनाथ प्राणीओना नाथ छो; हे महाभाग ! हुँ आपने खमा छु, अने मने आप खरे रस्ते चडावो एम इच्छं छु. (५६). "आपने प्रश्नो पूछीने में आपना ध्यानमां विघ्न कर्यु छे, अने आपने में भोग भोगववानुं निमंत्रण कीधुं छे, ते सर्वे मारा अपराध क्षमा करो." (५७). आ प्रमाणे राजाओमां सिंह समान श्रेणिक साधुओमां सिंह समान मुनिवरनी परम भक्ति पूर्वक स्तुति करीने, पोतानी स्त्रीओ, परिवार अने बांधवो सहित | श्री जिन धर्मने विषे शुद्ध मनथी अनुरक्त थयो. * (५८). * Became a staunch believer in the Law. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.। उस्ससिय रोमकुवो काऊणय पयाहिणं । अभिवंदि ऊणसिरस्सा अझ्याओ नराहिओ ॥ ९ ॥ ईयरोवि । गुणसमिद्धोतिगुत्तिगुत्तोतिदंड विरओय विहंगइव विप्पमुक्को विहरइव सुहं . विगयमोहो तिबेमि १६४ ॐ ॥ इति श्री महाभियंठिज्ज झयणं बीसमं सम्मत्तं ॥ 0000000000000000000000000000000000००००००००० हथी जेना शरीरना रोयांच उभा थयां छ एषो श्रेणिक नराधिप मुनिश्वरने प्रदक्षिणा दइ*, मस्तक नमावी बंदणा करीने पोताने घेर गयो. [१९]. अने गुणे करीने समृद्ध, प्रण गुप्तिए गुप्त, मन, वचन, कायाये करीने पाप कर्पथी निकृत, एवा ममत्वभाव 8 अने मोह रहित मुनि पक्षिनी पेठे जगतने विषे विचरवा लाग्या..(६०). ** वीसमें अध्ययन संपूर्ण. ** - 1000०००००००००० AAM * आने पदले आगळ माफक मोफेसर जेकोबी लखे छे के " पोलानी जमणी बाजुए राखीने ". Free like a bird. Jain Education International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A अध्ययन २१मुं. * समुद्रपाल.... चपाए पालिए नामसावए आसिवाणिए । महावीरस्स भगवओ सीसोसोओ महप्पणो ॥१॥ निग्गंथे पावयणेसावए १६० सेविकोविदे । पोएणं. वबहरते पिहुंडनगरमागए ॥२॥ पिहुंडे ववहरंतस्स वाणिओ देइधूयरं । तं ससत्तं पइगिझसदेसं | अहपश्चिए ॥३॥ अहषालियरस घरणी समुदम्मिपसवई । अहदारए तहिंजाए समुद्दपालोत्तिनामए ॥ ४ ॥ खेमेणं Ma आगए चंपसावए वाणिए घरं । संवढ़ई घरेतस्स दारएसे सुहोइए ॥५॥ बाबत्तरी कलाओय सिख्खिए नीइकोविए । जोधणेणयसंपण्णे सुरूवे पियदसणे ॥ ६ ॥ . अध्ययन २१.७ चंपा नगरीने विषे पालित नामे श्रावक बाणियो (व्यापारी) रहेतो हतो. ते महापुरुष श्री महावीर भगवाननो शिष्य हतो (१). 18 ते श्रावक तरीके श्री वितरागनां सिद्धांतमां (जिन शास्त्रमा) प्रवीण हतो. ते एक वखत व्यापार अर्थे वहाण लइने पिहंड नगरमां गयो.[२]. ते पिइंडमां व्यापार करतो हतो एवामां त्यांना कोइ वेपारीए तेने पोतानी पुत्री परणावी. से स्त्री ज्यारे सगर्भा थइ त्यारे ते वाणिओ तेने साथे लइने स्वदेश जवा नीकळ्यो.(३). पालितनी स्त्रीने समुद्ने विषे प्रसव थयो से बाळक समुद्रमा जन्मेलं होवाथी तेनु नाम समुद्रपाल पाडवामां आव्युं. [४], ते वणिक-श्रावक चंपा नगरीमा कुशल क्षेम पोताने घेर आवी पहच्यो. त्यां खे बाळक सुख व्हेनमा वृद्धि पामवा लाग्यो. [५]. ते बाळक बहोतेर कळा शीख्यो, अने नीति शास्त्रमां* निपुण थयो से अनुक्रमे युवावस्थाने पाम्यो; तेनु स्वरुप अति सुंदर अने मुखाकृति मनोहर हती. [६]. * Knowledge of the world. ०० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरसरूवबई भज्जपिया आणेइ रूविर्णी । पासाए कीलए रम्मीदेवो दोगुंदगो जहा ॥ ७ ॥' अह अन्नया कयाई पासाया लोयणेठिओ । वझ मंडणसोभागं बझंपासइ बझगं ॥ ८ ॥ तं पासिऊणः संवेगं समुद्दपालोइण मव्ववी। अहो अमुहाणकम्माणनिजाणं पावगंइमं ॥ ९॥ संबुद्धोसो तहिं भगवं परमंसंबेगमागओ आपुलम्मापियरो पब्बइए । अणगारियं ॥ १० ॥ जहित्तु संगंथ महाकिलेसं महंतमोहं कसिणं भयावहं । परियाय धम्मंच भिरायएज्जा वयाइंसीलाई परीसहेय ॥ ११ ॥ ....०००००० तेना पिताए तेने रुपिणी नामे अति रुपवती भाया परणावी; ते पोताना रमणीक महेलमा पोतानी स्त्री संगाथे दोगुंदक। । देवनी पेठे क्रीडा करवा लाग्यो. (७). एक समये ते पोताना महेलना झरुखामां बेठो बेठो नगरमी शीमा जोतो हतो एवामां तेणे देहांत दंडनी सजा पामेला एक चोरने वध-शणगारयुक्त * वध-भूमिने विषे लइ जतो जोयो. [८]. ते जोइने समुद्रपाल वैराग्यवंत थयो अने बोली उठ्यो के " पाप कर्मनुं आ अशुभ फळ छे." [९]. ते समुद्रपाल महात्मा त्यांधीज प्रतिबुद्ध । थयो अने तेने परम संवेग (वैराग्य ) उपज्योः पोताना माता पितानी आज्ञा लइने तेणे साधु-धर्म अंगीकार क. (१०). स्वजनादिनो सम्बन्ध जे महा क्लेश अने महा मोहना कारण रुप छे, अने कृष्णलेश्या तथा भयना हेतुरुप छ, तेनो त्याय करीने, परियाय २ [प्रव्रज्या धर्म उपर रुचि राखवी जोइए, पंच महावृत अने शीलाचार सेवयां जोइए अने बावीश परिसह सहेवां जोइए. [११]. ___* मोतनी सजा माटे लइ जती वखते आगळना वखतमा केदीने चंदन वीगेरे चोपडतां, करेणनां फूलनी माळा तथा वस्त्रो पहेरावता. १. Enlightened. २. Law of the monks. Jain Education Intemattonel For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २१ १६७ अहिंस सच्चंच अतेणगंच तत्तो यब अपरिग्गर्हच । पडिवज्जिया पंचमहव्वयाइंचरिज्ज धम्मंजिणदेसियंविऊ ॥१२॥ सब्वेहिं भूएहिंदयाणुकंपी खंतिखमे सजयबंभयारी सावज्जजोगं परिवज्जयंतो । चरिज्ज भिख्खूसु समाहिइदिए ॥ १३ ॥ काले कालं विहरिज्जरठ्ठे वलावलं जाणिय अप्पणोय । सीहोव्ब सद्देण नसंतसेज्जा वयजोग सोच्चाण ॥ १४ ॥ उवेहमाणो उपरिव्वज्जा पियमप्पियं सव्व तितिखखएज्जा । न सव्व सब्बध्थभिरोयएज्जा नयाविपूयंगरहंच संजए ॥ १५ ॥ 'जीव दया पाळवी, सत्य बोलवं, अदत्ता दान न लें, ब्रह्मचर्य सेववं अने परिग्रह न राखवो; ए पंच महाहृत अंगीकार करीने जिन-भाषित धर्म पंडित साधुए सेबवा. (१२). साधुए सर्व जीव प्रति दया राखवी, क्षमावान थवं, संयम पाळवो, ब्रह्मचर्य सेवयुं अने जेथी पाप लागे ते सर्व त्यागनुं अने इन्द्रिय-दमन करीने देशने विषे विचर. [१३] + प्रत्येक पहारे ते काळने योग्य [ ध्यानानुष्ठान तपादि ] कार्य पोताना आत्मानुं बलाइल विचारीने कर+ भयानक शब्द सांभळीने सिंहनी माफक चमकं नहिः अने कोनां गमे तेवां कठोर वचन सांभळवा छतां असभ्य वचन उच्चारखुं नहि. (१४) प्रिय अने अप्रिय सघकुं एक सरखी रीत सहन करीने, मनमां कांइ पण आण्या सिवाय, गामो गाम विचरखं सर्वत्र सर्व वस्तु तरफ अभिरुचि राखवी नहि, अने कोइ पोतानी स्तुति करे या निंदा करे ते उपर समान भाव राखवो. (१५). + आने बदले प्रो. जेकोबी एवो अर्थ करे छे के " प्रत्येक देशनां साधन अने पोतानी शक्तिनो विचार करीने साक्षर तो वखत ते देशमां विचरनुं. " Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 6000066 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ १६८ अदा इमाण जेभाव ओलंपकरेइ भिख्खू । भयभेरवा तथ्य उवैति भीमा दिव्या मणुस्वायत हातिरि ॥ १६ ॥ परीसहा दुव्त्रिसहा अणेगेसीयंतिजथ्था बहुकायरानरा । सेतथ्यपत्तेन वहिज्ज भिख्खू संगाम सीखेइव नागराया ॥ १७ ॥ सीओसिणा दंसमसाय फासा आर्यका विविहा फुसति देहं अक्कुक्कुओ तथ्यहिया सएज्जारयाई खेविजपुरे कडाई || १८ || पहाय रागंचतहेव दोसं मोहंच भिख्खू सययंवियख्खणो । मेरुव्ववारण अकंप माणो परीसहे आय गुंत्तेसहेज्जा ।। १९ ।। आ संसारमां जुदाजुदा मनुष्यना जुदाजुदा अभिप्राय होय छे; ते सघळाने साबुए तेना खरा स्वरुपमां समजवा [ मूकवा ] जोइए ; देव, मनुष्य अने तिर्येच संबंधीना महा घोर अने भयानक दुःखो उपजे छे, ते परिसहो सहन करवां अति कठिन छे अने . कार माणसो तेनाथी हारी जाय छे; पण जेम संग्रामने मोखरे रहेलो राज-हस्ति [ मार पडवा छतां पण ] न्हासतो नथी, तेमजे भिक्षुक एवा परिसह आवी लाग्या छतां पण तेनाथी चलित थतो नयी ते खरो साधु कहेवाय. (१६-१७), शीत, उष्ण, डांस, मच्छरादि अने नाना प्रकारना रोग आवीने शरीरने स्पर्श करे छे ; कांइपग दुःखोद्गार काढ्या सिवाय ए सघळा परिसह तेणे सहन करवा अने पूर्वे करेलां पापरूपी मळनो क्षय करवो. (१८). राग, द्वेष अने मोह छोडीने, पंडित साधुए निरंतर सावधान अने हे अने जेम मेरु पर्वत वायराथी चलित थतो नथी तेम तेणे पग कोइ उपसर्गथी चळवं नहि, अने आत्म-गुप्त थइने ( सावध रहीने) सघळा परिसह सहन करवा. [१९]. * आने बदले मो. जेकोची एवो अर्थ करे छे के - " पूर्वे भोगवेला भोगनुं स्मरण कर नहि. " मूळ पाठमा 'रयाईखे विज्ज' छ जेनो अर्थ कर्मरुपी रज खपावे एम थइ शके छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...] अणुनए नावणए महेसीनयाविपूयंगरहंच संजए । सेउज्जुभाव पडिवज्ज संजए निव्वाणमग्गं विरएउवेइ ॥२०॥ २१|| अरइरइ सहेपहीणसंथवे विरए आयहिए पहाणवं परमठ्ठप एहि चिठ्ठई छिन्नसोए अममे अकिंच॥ ॥ २१ ॥ 18| विवित्त लयणाई भएज्जताई निरोवलेवाइं असं घडाइं इसीहिं चिन्नाइं नहायसेहिंकाएण फासेज परिसहाई ॥२२॥ सन्माण नाणोवगओ महेसी अणुत्तांचरिओ धम्मसंचयं अणुत्तरेनाणधरेजसंसी । उभासईसूरिएवंतरिख्खे ॥ २३ ॥ महर्षि अभिमानथी अति उच्च, अथवा आतेदीन थता नथी; पोतानी स्तुतिथी हर्ष पामता नथी, अने निंदाथी दुःख आणता 18 नथी. उन्नत अने अवनत भाव रहित [ अथवा विरक्त थयेल] साधु [समुद्रपाल] पोतानी सरळताए करीने निर्वाण-मार्गने प्राप्त करी शकशे. [२०]. विद्वान साधु रति अरति सहन करे छे, कोइनो परिचय सेवतो नथी, सर्व वस्तुथी विरक्त रहे छे, पोताना | आत्मानु हित विचारे छे अने संयम सहित परमार्थ पदे [ मोक्ष मार्गे] विचरे छ; अने शोक, ममत्व तथा परिग्रहथी मुक्त रहे छे. [२१]. *जीवदया प्रतिपाल साधु एकान्त, निर्लेप अने जीव जंतु रहित उपाश्रयने सेवे छे* अने महर्षिओए सहन करेला सर्व परिसह कायाये करीने सहे छे. (२२). महर्षि समुद्रपाल ज्ञान-बोध श्रवण करीने अने सर्वोत्तम चारित्र संपूर्ण रीते पाळीने, जेम आकाशमां सूर्य वीराजे छे, तेम ते केवळ ज्ञान अने तपना प्रभावे करीने बीराजवा लाग्या. [२३]. * आने बदले प्रो. जेकोबी एवो वाक्यार्थ करे छ के ' दयाळु साधुए बीजा साधुओथी दूर पोतानी शय्या करवी जोइए, जे शय्या तेने माटे खास तैयार करेली अने जीवजंतु वाळा पदार्थोनी बनेली न होवी जोइए !'. १. साधुओने माटे खास साफ 18/ करेल न होय एवो भावार्थ कोइ टीकामांथी मळे छे, Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० उ... दुविहंखवेउणयपुन्नपावं निरंगणे सवओ बिप्पमुक्के । तरित्तासमुदंच महाभयोहंसमुहपालो अपुगागमंगइंगए २२ त्तिबेमि ॥ २४ ॥ । इति श्री समुद्दपालियनामं झयणं एकवीसमं सम्मत्तं ॥५ अध्ययन २२. रथनेमि ( रहनेमि ). सोरियपुरंमि नयरे आसिराया महलिए । वसुदेवेत्तिनामेणं रायलख्खण संजुए ॥ १ ॥ तस्सभज्जा दुवेआसा रोहिणी देवइतहा १ तासिंदुएहंपिदोपुत्ता इठाराम केसवा ॥ २ ॥ शुभ अने अशुभ बन्ने प्रकारनां कर्मने खपावीने, संयमने विषे निश्चळ रहीने, अने सर्व बंधनथी मुक्त थइने, समुद्रपाल साधु संसार-समुद्र तरीने अपुनरागम गतिने [ मुक्तिने ] प्राप्त थया. [२४]. * एकवीसमुं अध्ययन संपूर्ण. * अध्ययन २२. *सौर्यपुर नगरने विषे वसुदेव नामे महा ऋिद्धिवान राजा राज्य करतो हतो; ते राज-लक्षणे करीने (छत्र, ध्वजा, चामरादि) 8 सहित हतो. [१]. ते राजाने रोहिणी अने देवकी नामे वे राणीओ हती. ते प्रत्येकने राम अने केशव नामे अकेक प्रिय पुत्र हतो. | [ रोहिणीने राम अथवा बलभद्र अने देवकीने केशव अथवा कृष्ण ]. (२). *. ब्राह्मण ग्रंथो प्रमाणे वसुदेव मथुरामा रहेता हता. सौर्य र ए मथुरांनुं प्रशंपक नाम होवू जोइए, जरासंध मथुरांपर वारंवार हमला कर्या तेथी श्रीकृष्णे द्वारका नगरी वसाची अने आ अध्ययनमा प्रकाशेली हकीकत श्री द्वारकामा बनेलीछे. .040८००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २२ १७१ सोरिय पुरंमिनयरे आसिया महिदिए । समुद्दविजएनामं रायलख्खणसंजु ॥ ३ ॥ तरसभज्जा सिवानाम तीसे पुत्ते महायसे । भयत्रं अरिठ्ठनेमित्ति लोगनाहे दमीसरे ॥४॥ सोरिडुनेमिनामाउ लख्खणस्सरसंजु । अनुसहस्सलख्खधरो गोमो कालवी ॥ ५ ॥ वज्जरि सहसंघयणो समचउरंसो फसोयरो । तस्सरायमइकन्नं भजाइ के सत्रो ॥ ६ ॥ अहसाराय वरकन्ना सुसीला चारुपेहिणी । सव्वलख्खणसंपन्ना विज्जूसोया मणीप्पभा ॥७॥ अहाहजणउ तिसे वासुदेवं महद्वियं । इहा गडओ कुमारो जासेकन्नं दलामहं ॥८॥ सौर्यपुर नगरने विषे समुद्रविजय नामे बीजो एक महा ऋिद्धिवान राजा हतो; ते पण राज लक्षणे करीने युक्त हतो. [३]. तेनी राणीनुं नाम शिवादेवी हतुं तेने महायशस्वी भगवंत अरिष्टनेमि (नेमीनाथ ) नामे पुत्र हता जे लोकनाथ अने 'दमीश्वर ( एटले आ लोकने तारनार अने जितेन्द्रिय पुरुषोना इश्वर समान ) हता. [४]. आ अरिष्टनेमि उत्तम स्वर-लक्षणे करीने सहित एक हजार आठ शुभ लक्षणना घरणहार हवा; ते गौतम गोत्रना अने श्याम कान्तिवाळा हता. [५] तेमनुं शरीर वृषभना जेवं मजबूत अने वचना जेवं सखत हतं; तेमनां अवयवो प्रमाणशुद्ध हतां अने तेमनुं उदर मत्स्यना उदर सरखं हतुं केशवे नेमिनाथ नी भार्या तरीके राजिमती कन्यानुं मागुं कर्यु. (६). आ उत्तम राज कन्या ( २ उग्रसेन राजानी पुत्रि ) सुशील अने सुंदर हती; सर्व 'शुभ 'लक्षणे संपूर्ण हती अने सौदामिनी विद्युत प्रभाना सरखी तेनी कान्ति देदीप्यमान हती. (७). राजिमतीना पिता उग्रसेने महा ऋद्धिवान कृष्ण वसुदेवने कहयुं के “नेमि-कुमार मारी पासे आवे एटले हुं तेमने मारी कन्या आपीश. " [4]. * Savior of the world. १. Lord of the ascetics. २. श्री कृष्णे कंसने मारीने उग्रसेनने गादी आपी हती एम विष्णुपुराण कहे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब .00000००० सव्वोसहिहिंन्हविओ कयकोऊय मंगलो । दिवजुयलं परिहिउ आभरणेहिं विभूति ॥ ९ ॥ मत्तंच गंधहथिच वासुदेवस्स जिगं । आरूढो सोहए अहियं सिरे चुडामणीजहा ॥१०॥ अह ऊसिएण छ तेणं चामराहि यसोहिओ। दसारचक्केण यसो सबउ परिवारिओ ॥ ११॥ चउरंगिणीए सेणाए रइयाए जहकमं । तुरियाण संन्निनाएणं दिव्वेणं गगणंफुसे ॥ १२ ॥ एयारिसीए इवीए जुइए उत्तमायर । नियगाओ भवणाओ निज्जाओ वहिपुंगवो ॥ १३ ॥ अहसोतथ्थ निजतो दिरसपाणे भयडुए । वाडेहिं पंजरेहिंच संनिरुद्धे सुदुख्खिए ॥ १४ ॥ जीवियं तंतुसंपत्ते मंसठ्ठा भख्खियव्यए । पासित्तासे महापन्ने सारहिं इणमव्वधी ॥ १५ ॥ ते उपरथी नेमि-कुमारने सर्व सुगंधी औषधिथी स्नान कराववामां आव्यु, लोकिक मंगळ क्रियायो करवामां आवी, दिव्य वस्त्र धारण कराववामां आव्यां अने अलंकारोथी शणगारवामां आव्या.[९] वसुदेवना उत्तम गंध-हस्ति उपर ते आरुढ थया, अने मस्तक 18 उपर जेम चूडामणि [ मुकुट ] शोभे तेम शोभवा लाग्या. [१०]. माथे छत्र धारण कर्यु छे, बे पासे चामर ढोळाय छे, दशाई (यादवो)नो समुदाय चौतरफ विटळायेलो छे, चतुरंगिणी सेना यथाक्रम गोठवायेली छे, अने विविध प्रकारनां वाजिबोनां दिव्य नाद आकाशे पहोंची रह्या छे. [११-१२]. आवी उत्तम ऋिद्धि अने कान्ति सहित वृष्णिपुंगव ( यादव-कुळ १५० पोताना मन्दिरेथी बहार नीकळ्या.(१३).आगळ चालतां तेमणे अनेक प्राणीओने पांजसमां अने वाडामा पूरेला जोयांते अति ५५ धान थयेला अने दुःखी देखाता हता.[१४]. तेमने मारीने पछीथी ते मांस भक्षण कराववानी खातर आटलां बधां प्राणीगो अंतकाळ नजीक जोइने ते महा बुद्धिशाळी पुरुष पोताना सारथीने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या.[१५]. *१०मी गाथामां हाथीपर बेठेला जणावे आमां रथपर जणावे छे. शेहेरमाथी नीकळ्या त्यारे हाथीपर होय अने पछी रथमा बेठेला होय एम अनुमान थाय छे. प्रो. जेकोबी तो दशमी गाथा पाछळथी उमेरायेली माने छे. ००००००००००००००००००००००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. कस्सहाइमेपाणा एएसव्वे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिंघ संनिरुडेय अथ्थइ ॥१६॥ अहसारहीतओ भणई एएभदाउ | पाणिणो । तुझं विवाहकांमि भोयावेउं बहुजणं ॥ १७ ॥ सोऊण तस्स सोवयणं बहुपाणिविणासणं । चिंतेइसे | महापन्ने साणुकोसे जिएहिउ ॥ १८ ॥ जइमझ कारणाएए हम्मंतिसु बहुजिया। नमे ए यंतु निस्सेसं परलोए भविरसई ॥ १९ ॥ सोकुंडलाण जुयलं मुत्तगंच महायसो । आभरणाणिय सव्वाणि सारहिस्सपणामए ॥ २० ॥ मण परिणामोयकए देवाय जहोइयं समोइन्ना । सबढीए सपरिसा निख्खमणं तस्सकाउंजे ॥२१॥ -1000000०००००००००० "आटलां बधां पाणीओ, जे सर्वे सुखनी अभिलाषा राखता हशे, तेमने पांजरामां अने वाडामां शामाटे पूरी राखवामां आव्यां हशे?" (१६). सारथीए उत्तर आप्यो के, " हे स्वामिन् ! आ प्राणीओ पूरा भाग्यशाली के आपना विवाह प्रसंगे अनेक जनोनां भोजनना उपयोगमा तेओ आवी शकशे!" (१७). सारथीनां आवां वचन सांभळीने, अने घणां प्राणीओनो विनाश थतो जाणीने सर्व जीव तरफ दया राखनार अने पाणी मात्रनुं हित बिचारनार ते महाप्राज्ञ पुरुष आ प्रमाणे विचारवा लाग्या :-(१८). "जो मारा [विवाह ] निमित्ते आटलां बधां प्राणीओ हणाशे तो परलोके मारुं कल्याण थशे नहि." (१९). ते उपरथी महायशस्वी नेमिनाथे पोताना कानना बन्ने कुंडलो, *कटि-सूत्र ( कडनो कंदोरो) अने सर्व आभरणो उतारीने सारथीने आपी दीधां. (२०). नेमिकुमारनुं मन-परिणाम जोइने, देवताओ यथोचित समये पोतानी सकल ऋिद्धि अने परिवार साथे, तेमनो दीक्षा महोत्सव उजववाने आव्या. [२१]. ०००० ०००० * मो. जेकोबी Neck-Chain अर्थ करे छे. For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ उ. अ. देव मस्स परिवुडो सिवियारयणंतओं समारूढो । निख्वमिय बारगाउ स्वयं मिठिउ भयवं ॥ २२ ॥ उज्जाणंमि संपत्तो उइन्नो उत्तमाओसीयाओ । साहस्सीए परिवुडो अहनिखमइउ चित्ताहि ॥ २३ ॥ अहसो सुगंधिगंधिएँ तुरियं मिउय कुंचिए । सयमेव लुंचिह्न के पंचमुठ्ठीहिं समाहिए ॥ २४ ॥ वासुदेवोइणं भणइ लुत्तके संजिइंदियं । इयमणो रहेतुरियं पात्रेसुतं दमीसए ॥ २५ ॥ नाणेणं दंसणेणंच चरितेणं तत्रेणय खंतीए मुत्तीए व माणो भवाहि ॥ २६ ॥ एवंते रामकेसवा दसाराय बहुजणा । अरिनेमिं वंदिता अ गयाबारगापुरिं 11 29 || १७४ देव अने मनुष्योथी विंढळायेला भगवान नेमि-कुमार उत्तम शिविका [ पालखी ]मां बेसीने, द्वारिकांथी नीकळीने रेवतक [ गिरनार ] पर्वते चढया. [२२]. रेवताचलना उद्यानयां (सहस्रावनमां) आवीने श्री नेमिकुमार पोतानी उत्तम शिबिकामांथी नीचे उतर्या अने चित्रा नक्षत्रने विषे तेणे एक हजार राजविओ संगाये दीक्षा ग्रहण करी. (२३). त्यारपछी नेमिनाथे स्वहस्थे पोताना मृदु सुगंध वाळा, सुकुमार, वांकडिया वाळनो पंच मुष्टिए लोच कर्यो. [२४]. त्यारपछी कृष्ण-वासुदेव, समुद्रविजय आदि नृपतिओ ते जिते.न्द्रिय पुरुष जेणे केश लोचन कर्तुं छे तेने कहेवा लाग्या हे दमीश्वर ! आपना इप्सित मनोरथ शीघ्र सफळ थाओ. [२५]. “ आ. नां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा अने निर्लोभ सदा वृद्धि पामो.” (२६). आ प्रमाणे राम, केशव, दशार्ह [ यादवो ] अने बीजा, अनेक लोको श्री अरिष्टनेमिने वांदीने द्वारिकापुरीमां पाछा आव्या. [२७]. * प्रो. जेकोबी Surrounded by thousands अर्थ करेछे पण मूळ पाठ अने टीकामां जे शब्दों छे ते परथी, अर्थ न कळे छे के एक हजार राजवी प्रधान पुरुष साथै दिक्षा ग्रहण करी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २२ १७५ सोऊन रायवरकन्ना पव्वज्जंसा जिणस्सओ । निहासाय निराणंदा सोगेणउ समुध्या ॥ २८ ॥ रायमइ विचितेइ धिर ममजीवि । जाहंतेणं परिचत्ता सेयंपव्वइओमम ॥ २९॥ अहसा भमरसंनिभे कुछ फणगपसाहिए । सयनेत्र इसे घिइता ववस्सिया ॥ ३० ॥ वासुदेवोइणं भणई लुतकेसंजि इंदियं । संसार सागरं घोरं तरकन्नेलहुलहु ३१ सापव्वइयासंती पव्यावेसी तहिंबहु । सयणं परियणंचेत्र सीलवंता बहुस्सुया ॥ ३२॥ राज कन्या राजिमतीए ज्यारे नेमिनाथे दीक्षा ग्रहण कर्यानुं सांभळ्युं, त्यारथी तेनो हर्ष अने आनंद उडी गयो अने ते शोकम गिरफतार थह गई. [२८], राजिमती पोताना मनथी विचारणा लागी के 'नेमिनाथे भारो परित्याग क्यों तेथी मारा जीवितने धिकार छे. हवे मारुं श्रेय (पण ) दीक्षा लेवामांज समायेलुं छे. ' [२९]. पोताना काळा भ्रमर जेवा केश जे कूर्च-फनकथी [ दांति[] समारेला हता तेनो राजिमतीए धैर्य अने दृढताथी पोताने हाथे लोच कर्यो. (३०). राजिमती जेणे केशनो लोच को छे अने जेणे पोतानी इन्द्रिओने वश करेली छे तेने कृष्ण वासुदेव कहे छे " हे कन्या ! घोर संसार-समुद्री शीघ्र पार उ जाओ. " ( ३१ ). दीक्षा ग्रहण कर्याी पछी ते शीलवती अने बहुश्रुत कन्याए पोतानां स्वजन, परिजनादि द्वारिकांना बहु जनाने दीक्षा लेवडावी. (३२). * आ प्रसंग, विक्रम नामना कविए 'श्री नेमीदूत काव्य ' नामना अभूत संस्कृत काव्यमा गुंथलो छे, पादपूती जेवी पथ्यतिए योजना थयेली छे. दरेक काव्यनी छेक्ली लींटी कवि कालीदासना मेघदूतमांथी लइने, आ प्रसंगनी त्रण ऋण लीटीओ बनाववामां आवी छे. १. ' लोच कर्यो ' ने बदले मो. जेकोबी लखे छे के ' कापी नांख्या' अने एवो अर्थ करवाना आधारमा पोतानी मा न्यता जगावे छे के स्त्रीओ लोच करती नयी, पण बाळ कपावी नांखे छे; पण ए एनी मान्यता भूल भरेली छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.भ. २२ १७६ गिरिरेवयजंती वाणीला अंतरा । वास्ते अंध्यारंमि अंतो लयणस्स सादिया ॥ ३३ ॥ चीवराई विसारंती जहा जाइति पासिया । रहनेमी भग्गचित्तो पचादिट्टोयती एव ॥ ३४ ॥ भीयाय सातहिंद एगंतेसं जयंतयं । बाहाहिं काओ संगोकं वेवमाणी निसीयई ॥ ३५ ॥ अहसोविराय पुतो समुदविजयंगओ । भीयंपवेइयं दटुं इमंत्रक मुदाहरे ||३६|| रहनेमी अहंभ सुरू चारुभासिणि । ममं भयाहि सुतणुन ते पीला भविस्सई ॥ ३७ ॥ एहिता भुंजिमोभोए माणुस्संखु सुदुलहं । भुत्तभोगी तओ जिणमग्गं चरिस्सामो ॥ ३८ ॥ एक वक्त ते रेवतक पर्वत उपर (स्वामि वंदनार्थे ) जती हती एवामां मार्गमां वरसाद वरसवा लाग्यो. पोतानां वस्त्र भींजाइ यहां अने मेघ दृष्टिने लीधे अंधकार छवाइ रहयुं हतुं तेथी राजिमती एक गुफामा पेठी. [३३]. त्यां तेणे पोतानां वस्त्रो (सूकवा माटे ) उतारी नांख्यां अने जन्म-समये होय तेवी निर्वस्त्र (नग्न) थइ रही. एवी स्थितिमां रथनेमिए तेने जोइ; तेथी तेनुं चित्त चलित थइ गयुं. एवामां राजिमतीनी नजर पण तेना उपर पडी. [३४]. ते गुफामां ( रथनेमि ) साधुनी साधे पोते एकलीज छे ते जोइने राजिमती भय पामी पोवाना बाहुवति छाती ढांकीने श्रुजती जती नीचे बेसी गइ. (३५). जिमतीने भयथी ध्रुजती जो समुद्रविजय राजानो पुत्र [ रथनेमि ] तेने नीचे प्रमाणे कहेवा लाग्यो. (३६). "हे भद्रे ! हुं रथनेमि हूं. हे सुरुपे ! हे चारुभाषिणी ! हे सुतनु ! तारा भर्त्तार तरीके मारो अंगीकार कर; तेम करवाथी तने कांइ हानी थशे नहि. (३७). मनुष्य भव मळवो दुर्लभ छे, माटे आव आपणे भोग भोगवीए; अने भोग भोगव्या पछी आपणे जिनमार्गने विषे विचरीशुं. " [३८]. 44 * ते राजेमतिनो 'जेट' थतो हतो. श्री दश वैकालीक सूत्रनी श्री हरीभद्रजीनी टीकामां विशेष विस्तार छे के राजेमतीए सरबत पीधुं अने तेनी उलटी करी ते रहनेमिने पीवा आप्यो अने बुझव्यो, जुओ आ अध्ययननी गाथा ४२ १. विष्णुपुराण कछे के राजिमतीनुं बीजं नाम सुतनु हतुं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दणं रहनेमित भग्गुजोय पराइयं । रायमइ असंभंता अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३९॥ अहसाराय वरकन्ना सुटिया है। नियमव्वए । जाइंकुलंच सीलच रख्खमाणी तयंवए ॥ ४० ॥ जइसिरूवेण वेसमणो ललिएण नलकूबरो । तहावि तेनइच्छामि जइसिसख्खं पुरंदरो ॥४१॥ पख्खंदे जलियंजोई धूमकेउं दुरासयं । नेष्टुतिवंतयंभोत्तुं कुलेजाया अगंधणे ॥४२॥ धिरथ्थुते जसोकामी जोतंजीविय कारणा । वतंइछुसि आवेउं सेयंते मरणंभवे ॥ १३॥ १७७ समा रथनेमिने संयम भंग थयेलो अने स्त्री परिसहथी ललचायेलो जोइने राजिमती सती निर्भयपणे पोताना आत्मानुं संरक्षण कर वाने तत्पर थइ. [३९]. ते उत्तम राज-कन्या पोताना वृत्त नियममा अडग रही*, तेणे पोतानी जात अने कुळनी लाज राखी, तेणे पोतातुं शील साचव्युं अने ते रथनेमिने कहेवा लागी:- (४०). "हे. रथनेमि ! तुं रुपमा वैश्रमण [धनंद अथवा कुबेर] सरखो होय, विलासमां नल-कूबेर सरखो होय, अने तुं साक्षात पुरंदर (इन्द्र) होय, तोपण हुँ तारी इच्छा करती नथी." (४१)." हे | रथनेमि ! बळता धूमकेतुना अग्निनी ज्वाळाओ जे सहन करवी दुःसह छे, ते कदाच सहन करे, परंतु अगंधन कुळने विषे उत्पन्न थयेला सर्प, वमन करेलु विष पार्छ पीवानी इच्छा करता नथी. "हे अयश ( अपयशने इच्छनार ) धिक्कार छ तारा पुरुषत्वने के तं आ जिवितने अर्थे, वमन करेलो आहार फरी खावानी इच्छा करे छे ! तारे माटे तो मोतज सारुं छे.[४३]. * True to self-control and her vows. १. आ आखी गाथा प्रो. जेकोबीए पोताना भाषान्तरमा मूकी दीधी छ 1 तेथी नेने अहिं अनुक्रम नंवर चडाव्यो नथी. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only www.jainellorary.org Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २२ १७८ अहंच भोगरायस्स तंचसि अंधगवन्हिणो । माकुलेगंधणाहोमो संजमं निहुउचरं॥ ४४ ॥ जइतका हिसिभावं जाजादिछसिनारीओ | वायाविडोव्हडो अड्डअप्पा भविस्ससि ॥ ४५ ॥ गोवालो भंड वालोवा जहा तदवनिस्सरो । एवं अणिस्सरोतंपि सामन्नस्स भविस्ससि ॥ ४६ ॥ कोहंमाणं निगिव्हित्ता माया लोभंच सव्वसो । इंदियाई बसेकाउं अप्पा उवसंहरे ॥४७॥ “हे रथनेमि ! हुँ भोग-राजानी [ उग्रसेननी ] पुत्रि हुं अने तुं अन्धक-वृष्णिनो (समुद्रविजयनो) पुत्र छे. आपणे बन्ने गन्धन कुल [ उमदा ]मां उत्पन्न थयेला होइने अगन्धन* कुलोत्पन्न सर्प जेवा न थवं जोइए. माटे संयमने विषे स्थिर चित्त राख. (४४). " जो तुं हरकोई रुपाळी खीने जोइने भोगनी इच्छा करीश तो जेम हठ-वनस्पति [ शेवाळ ] दावा आम का पलाय मान थाय छे ते तुं पण अस्थिर आत्मा [वृत्ति ] वाळो थइश. (४५). "जेम कोइ गोवाळ अथवा भांड पाठक करियां साचवनार ते मालनो धणी गणातो नयी [ पण मात्र रखवाळज गणाय छे ] तेम तुं पण श्रमण धर्मनो खरो मालेक गणाइश नहि. [अर्थात्-तारूं चारित्र मात्र उदर पोषण अर्थेज तने काम लागशे, मोक्ष प्राप्ति अर्थे काम नहि लागे ]. " (४६). क्रोध, मान, या अने लोभी पोतानी इन्द्रिओने वश करीने रथनेमिए पोताना आत्माने धर्मने विषे दृढ कर्यो २ *. सर्प वे प्रकारना छे. गन्धन सर्प दंश दइने पछी पोतानुं झेर चूसी लेछे. अगन्धन मरे पण पाहूं शेर चुसता नथी. १ पाणीमां उगती वनस्पति Pistia Stratiotes. २. आ गाथा पण प्रो. जेकोबीए पोताना भाषान्तरमा सूकी दीधी हे मूळमां ? गाथा छे. प्रो. जेकोबी कृत भाषान्तरमा ४९ छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me. तीसेसो वयणं सोचा संजयाए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ ॥ ४८ ॥ मणगुत्तो वयगुत्तो उ.अ. M कायगुत्तो जिइंदिओ । सामणं निच्चलं फासे जावजीवं दढव्यउ॥४९॥ उग्गं तवं चरित्ताणं जाया दुन्निवि केवली। सव्वं कम्मं खवित्ताणं सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ॥ ५० ॥ एवं करंतिसंबुद्धा पंडियापवियख्खणा । विणियति भोगेसु जहासेपुरिसोत्तमो तिबेमि ॥५१॥ *६॥ इति रहनमियनाम झयणं बाविसं सम्मत्तं ॥ २२ ॥ TNA ०००००००० 000000000000000000000000000००००००००० राजिमती साध्वीनां आवां सुभाषित वचन सांभळीने हस्ति जेम अंकुशथी पाछो फरेछे तेम रथनेमि धर्म मार्गमा पाछो फर्यो.* [४८]. मन, वचन, कायाये गुप्त रहीने, इन्द्रिओने वश राखीने, अने पंच महाव्रतमा दृढ रहीने, रथनेमिए निश्चळ मनथी जींदगी । पर्यंत श्रमण-धर्म पाळ्यो. [४९]. उग्र तप१ आदरीने तेओ बन्ने ( राजिमती अने रथनेमि ) केवली पदने पाम्यां अने सर्व कर्मनो क्षय करीने सर्वोत्तम सिद्ध गतिने प्राप्त थयां.(५०]. तत्वना जाण पंडित, विचक्षण अने विवेकी पुरुषो आ प्रमाणे वर्ने छ. तेओ पुरुष वर्यमा उत्तम एवा रथनमिनी पेठे निवर्ने छ.२ [२१]... __ * वावीसमुं अध्ययन संपूर्ण. * * टीकाकार देवेन्द्र अहिं नूपुर पंडित, दृष्टांत टांके छे जे विस्तारथी श्रीमद् हेमचंद्राचार्य कृत परिशिष्ट पर्वमां छे. १. Severe austerities. २. नवमा अध्ययननी छली गाथा साथे सरखावो. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २३ १८० अध्ययन २३. * केशि अने गौतम ( नो संवाद ). जिणे पासित्ति नामे अरहालोग पूइए । संबुद्धप्पाय सव्वन्नू धम्मतिय्थयरे जिणे ||१|| तस्स लोगपइवरस आसीसीसे महायसे । केसीकुमार समणे विज्जाचरणपारगे || २ || उहिनाणा मुरबुद्धे सीससंघ समाउले । गामाणुगाम ते सावथि नगरमाए ॥ ३॥ तिंदुयं नामउज्जाणं तंमिनयर मंडले । फासएसेज्जसंथारे तथ्थवास मुवागए ॥४॥ अह तेणेव काले धम्मतिथ्ययरेजिणे । भगवं वध्यमाणोच सव्वलोगंमि बिस्सू ॥ ५ ॥ अध्ययन २३. जिन मार्गने विषे श्री पार्श्वनाथ नामे तीर्थंकर थइ गया छे ते पोते अरिहंत ( कर्मरुपी शत्रुओने हणनार), भव्य लोकोने पूजवा योग्य, संबुद्ध [ तत्वना जाण ], सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थंकर (धर्मरुपी तीर्थना करण हार ), अने केवलि हता. ( १ ) ते लोक-प्रदीप [ जगत् ज्योति ] पार्श्वनाथने केशि कुमार श्रमण नामे महायशस्वी शिष्य हता, जे ज्ञान, दर्शन, चानः पारगामी () हता. [२]. ते केशि-कुमार श्रुत अने अवधि ज्ञाने करीने सहित हता अने तेमने शिष्य वर्ग के छोटो दागम arai एक समये श्रावस्ती नगरीने विषे आवी चढ्या . ( ३ ). ते श्रावस्ती नगरीना प्रदेशमां तिन्दुक नागे एक जीव रहित विभागमां तेमणे वास कर्यो. [४]. ते अवसरे श्री जिन धर्मना तीर्थंकर भगवान वीराजमान हता, ते विषे श्री वर्धमानना नामथी सुविख्यात दता. [५] . या * ती चार छे. श्रावक, श्राविका साधु ने साध्वी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only न 2000.00 vacc०००० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २३ १८१ तरस लोग पईवर आसिसिस्से महायसे । भगवंगोयमोनामं विज्जाचरण पारगे ॥६॥ बारसंगविओबुध्धे सीससंघस माउले । गामाणुगामं रीयंते सेविसावीमागए ॥ ७ ॥ कोडगं नामउज्जाणं तंमिनयर मंडले । फासूएसेज्जसंथारे तथ्यवास सुवाग ||८|| केसीकुमार समणे गोयमेय महायसे । उभओवितत्र्थविहरिंसु अल्लीणासुसमाहिया ॥ ९ ॥ उभओ सीससंघाणं संजयाणं तबरिसणं । तथ्यचिंता समुप्प | गुणवंताणंताणं॥ १० ॥ केरिसोवाइमो धम्मो इमोधम्मो रिसो । आयार धम पणिही इमावासावकेरिसी ॥ ११ ॥ ते लोक-प्रदीप महावीर भगवानने गौतम नामे महायशस्वी शिष्य हता. जज्ञान, दर्शन, चारित्रना पारगामी हता. ६). ते गौतम द्वादश अंगना जाण अने संबुद्ध हता; अने तेमने शिष्य वर्गनी म्हाटी समुदाय हतो. तेओ पण गामो गाम विहार करतां श्रावस्ती नगरीने विषे आवी चढ्या [७]. ते श्रावस्ती नगरीमा प्रदेशमां कोष्टक नामे एक उद्यान छे; ते उद्याना जीव रहित एक भागमा मणे वास क. (८). केशि-कुमार भ्रमण अने यशस्वी गौतम वन्ने मन, वचन, कायानी गुप्तिथी रक्षाता, सावचेतीथी (समाधि युक्त रहने) त्यां विचरखा लाग्या. [९] बन्नेनो शिष्य वर्ग जे संयत, तपस्वी, साबुना सर्वे गुणे करी सहित अनेस जीव रक्षक* छे तेमने नीचे प्रमाणे विचार उपज्यो. (१०). ' आपणो धर्म साचो हशे के तेमनो धर्म साचो हो ? ( पार्श्वनी के महावीरनो ); आपणा आचार विचार खरा हशे के तेमना ? [११]. १. Light of the world. * आन बदले मो. जेकेोषी ' आत्म-रक्षक लखे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jain y.org Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ... चाउज्जामोयजो धम्मो जोइमो पंचसिख्खिउ। देसिउ वध्धमाणेणं पासेणय महामुणी ॥१२॥ अचेलओय जो धम्मो । | जो इमो संतरुत्तरो एक कज पवन्नाणं विसेसे किंतु कारणं ॥ १३ ॥ अहसे तथ्थ सीसाणं विन्नाय पविय कियं । समागमे कय मइ उभउ केसि गोयमा ॥१४॥ गोयमो पडिरूवा नू सीस संघ समाउलो । जिठं कुलमवेखवतो तिंदुयं वण मागउ ॥ १५॥ केसीकुमार समणे गोयमं दिस्स मागय । पडिरूवं पडिवर्ति समं संपडिवजह ___महा मुनि श्री पार्श्वनाथ भगवाने प्ररुपेला धर्ममा *१चार महादृतनो स्वीकार करेलो छे, ज्यारे श्री वर्द्धमान भगवाने प्ररुपेला धर्ममा *१पंच महावृत स्वीकारेला छे. श्री महावीर भगवाने [ साधुने ] *२अचेल (वस्त्र रहित ) रहेवार्नु फरमान करेलुं छे; | ज्यारे श्री पार्श्वनाथे *२अन्तरोत्तरं [ उपरतुं अने अंदरतुं ] वस्त्र राखवा फरमावेलुं छे. बन्ने एका कार्यने विषे उद्यत होवा छतां आवो मत भेद शाथी उत्पन्न थयो हशे ? [१२-१३]. पोताना शिष्योनो आवो अभिमाय जाणी लइने केशि अने गौतम बन्नेए एक वीजाने मळवानो निश्चय कयों. (१४). विनय स्वरुप विचारीने अने ज्येष्ट (वडा) कुळतुं मान साचवीने, गौतम पोताना शिष्यवृंद सहित तिन्दुक बनने विषे आव्या. (१५). गौतम स्वामिने आवता जोइने केशि-कुमार श्रमणे तेमन योग्य सन्मान कयु. (१६). *(१) श्री महावीर भगवाने प्ररुपेला पंच महासत पैकी मैथुन-परिहार मृत श्री पार्श्वनाथना चार महाव्रतमा नथी. परंतु 'परिग्रहत्याग' व्रतमा तेनो समावेश थतो होवो जोइए. *(२) आने बदले संस्कृत टीकाकार एम लखे छे के-श्री महावीर भगवाने जीर्ण, देत वस्त्र धारण करवानुं फरमावेलुं छे, अने श्री पार्श्वनाथे विविध वस्त्र पहेरवा कहेलुं छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tal-पलालं फासुयं तथ्य पंचमं कुस तणाणिय । गोयमस्स निसिज्जाए खिप्पं स पणामए॥१७॥ केसीकुमार समंणे गोयमेय महायसे । उभओ निसन्ना सोहंति चंद सूर समप्पभा ॥१८॥ समागया बहु तथ्य पासंडा कोउगा मिया । गिहथ्थाणं 18 अणेगाउ साहस्सीउ समागया ॥ १९ ॥ देव दाणव गंधवा जख्ख रख्खस्स किंनरा । अदिस्साणय भूयाणं आसी १८३० तथ्य समागमो ॥२०॥ पुछामि ते महाभाग केसी गोयम मब्बवी । तओ केसी बुवंतंतु गोयमो इण मब्बवी॥२५॥ 8 पुछु भंते जहिईते केसी गोयम मब्बवी । तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इण मब्बवी ॥२२॥ चाउ जामोय जो धम्मो जो इमो पंचसिख्खिओ { देसिओ वध्धमाणेणं पासेणय महामुणी ॥ २३ ॥ केशि-कुमारे तरतज गौतमने सवा माटे *पांच प्रकारचें बीज रहित पलाल [ घास ] अने दर्भर्नु आसन हाजर कयु. [१७]. केशि-कुमार श्रमण भने यशस्वी गौतम बन्ने साथे साये बेसवाथी चंद्र अने सूर्यना सरखी कान्तिथी शोभवा लाग्या. [१८]. आ कौतुक जोवाने त्यां घणा पाखंडी लोको अने हजारो ग्रहस्थो एकठा मळ्या. [१९]. देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर अने। 8 अदृश्य रुपवाळां भूत-व्यंतर पण त्यां आवी लाग्यां॰ [२०]. केशि-कुमार गौतमने कहे छ, “हे पवित्र पुरुष ! हुं आपने काइक पूछया इच्छं छु." कशिना आवां वचन सांभळीने गौतम कहे छे, " हे महाभाग ! यथा रुाचे प्रश्न करो." पछी गौतमनी आज्ञायी केशि कुमार नीचे प्रमाणे पूछवा लाग्या. [२१-२२]. " महा मुनि श्री पार्श्वनाथे उपदेशेला धर्ममां चार महातनो स्वीकार करेलोछे, ज्यारे श्री वर्द्धमान भगवाने पंच महाव्रतनो उपदेश करेलो छे. (२३). : * साली, धीही, कोदव, राग भने पांचसु रम्नेसणा ए पासनी जातो छ. ०८ Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.हा एककज पवन्माण विसेसे किंतुकारणं । धम्मे दुविहेमेहावी कहविप्पञ्चउनते ॥ २४ ॥ तउकेसि बुवंतंतु || गोयमोइण मब्बवी । पन्नासमिख्खए धर्म तत्तंतत्त विणिछुयं ॥ २५ ॥ पुरिमा उज्जुज डाउ वंकजड्डाय पछिमा । मज्जिमा उज्जु पन्नाओ तेण धम्से दुहा कउ २६ ॥ पुरिमाणं दुव्विसोझोओ चरिगाणं दुरणु पालए । कप्पो मझिमगाणंतु सुवि सुझो सुपालए ॥ २५ ॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नो मे संसओ इमे । अन्नोविसंसओ मझं तं मे कहसु गोयमा ॥ २८ ॥ ___बन्ने एकज कार्यने विषे उद्यत होवा छतां आवो मत भेद शाथी उत्पन्न थयो हो ? हे मेघाविन ! आवो द्वी गुण [बे प्रकारनो ] धर्म जोइने आपना मनमां कोई संदेह नथी उपजतो ? " (२४). केशि कुमारनां आवां वचन सांभळीने गौतम कहेछे, " बुद्धि •वडे धर्मर्नु रहस्य पारखी शकाय छे अने बुद्धि वडेज जीवादि तत्वनो निश्चय करी शकाय छे. [२५]. " प्रथम तीर्थकर मा समयनां मनुष्यो सरळ प्रकृतिना अने जड बुद्धिनां अता छल्ला तीर्थकरना समयना जीव वक्र अने जड बुद्धिना हता; अने ते नी बच्चेना समयना जीव सरळ अने पंडित हता. तेथी धर्म द्वी गुणो [वे प्रकारनो] भाखेलो छे. [२६]. " प्रथम तीर्थकरना समयना साधु ओने धर्म प्रमजवो दोहिलो जणातो हतो; गेला तीर्थकरना समयना साधुओने ते पाळवो दोहिलो लागतो हतो; पण ते वेनी वचेना समाना माधुभोने धर्म समजवो अने पाळवो ए वन्ने सरळ लागतां हतां." [२७]. ए सांभळीने केशि कुमार कहे छे, " हे गौतम ! आप प्रज्ञावंत ( युद्धिशाळी ) छो; आपे मारो संशय दूर कर्यो छे. पण हे गौतम ! मने बीजो एक संशय उपजे छ तेनो आप उत्तर | आपो. (२८). ००००००००००००००००0%00000000000000000000000 Jain Educationa interational For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. । अचेलउय जो धम्मो जो इमो संतरूत्तरो। देसिउ वध्धमाणेणं षासेणय महामुणी ॥ २९ ॥ एककजा पान्नाणं | | विसेसे किंतु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी कहं विप्पच्चओ न ते ॥३०॥ केसि एवं बुवाणंतु गोयमो इण मब्बवी। विन्नाणेण समागम्म धम्म साहण मिछियं ॥ ३१ ॥ पच्चयश्थंच लोगस्स नाणाविह विगप्पणं । जत्तथ्थं गहणथ्थंच लोगे लिंगप्पउयणं ॥३२॥ अह भवे पइन्नाओ मोख्खस झूय साहणे । नाणंच देसणं चेव चरित्तं चैव निलियं ॥३३॥ साहु गोयम पन्नाते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसउ मझं तं मे कहसु गोयमा ॥ ३४ ॥ ०००००००००००००००000000000००००००००० __"श्री वर्द्धमान भगवाने *अचेल [वस्त्र-रहित] धर्मनो उपदेश करेलो छ, ज्यारे महा मुनि श्री पार्श्वनाथे अन्तरोत्तर ( उपरर्नु । अने अंदरनु ) वस्त्र पहेरवा फरमान करेलुं छे. बन्ने एकन कार्यने विषे उद्यत होवा छतां आवो मत भेद शाथी उत्पन्न भयो हशे? हे मेघाविन ! आवोद्वी गुण धर्म जोइने आपना मनमा कांइ संदेह नथी उपजतो?" [२९.३०]. केशि-कुमारनां आवां वचन सांभळीने गौतम कहे छे, " तीर्थकरोए पोताना केवल-ज्ञान वडे | कर उचित छे ते विचारीने धर्मनां साधनो नक्की करेलां छे." (३१). " साधुओनां नाना प्रकारनां बाह्य लक्षणो [ चिन्हो] लोको तेमने ओळखी शके तेटला माटे दाखल करवामां आवेलां . संयमना निर्वाह अर्थे अने ज्ञान ग्रहणने अर्थे भिन्न भिन्न बेष योजायेला छे. [३२]. " परंतु हे केशि-कुमार! श्री पार्श्वनाथ अने श्री वर्द्धमान भगवाननी एवी आज्ञछ के ज्ञान, दर्शन अने चारित्र एज मोक्षनां साधन रुप छे, बाह्य लक्षणो मुक्तिनां साधन नथी." (३३). ए सांभळीने केशि-कुमार कहेछे, “ हे गौतम !........वगेरे गाथा २८ प्रमाणे. [३४]. ०००००० * जुओ गाथा १२-१३नी फुट नाटे. १. Religious life. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००००००30666 उ.अ.।। अणेगाणं सहस्साणं मझे चिठसि गोयमा तेय ते आमि गछंति कहते निज्जिया तुमे ॥ ३५ ॥ एगे जिए | जिया पंच पंच जिए जिया दरस । दसहाओ जिणित्ताणं सव्य सत्तू जिणामिहं ॥ ३६ ॥ सत्तूय इइ के कुत्ते केसी गोयम मब्बवी । तउ केसि बुवंतंतु गोयमोइणमब्बबी ॥३७॥ एगप्पा अज्जिए सतू कसाया इंदियाणिय । तेजिणी ताजहानायं विहरामि अहंमुगी ॥३८॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसओ इमो । अन्नोवि संसउ मझं तमे कहसु। गोयमे ॥३९॥ दीसंति बहवेलोए पास बधा सरिरीणो । मुक्कपासो लहुभूओ कहंत विहरसी मुगी ॥४०॥ " हे गौतम ! आप हजारो शत्रुओनी बच्चे उभा छो, अने ते शत्रुओ आपनी सन्मुख धसी आवे छे, तेने आप शी रीते जीती शकया छो? [३५].* गौतम कहेछ," एकने जीतवाथी पांचने जीती शकाय छे. अने पांचने जीतवाथी दशने जीती शकाय छ । अने आ दश गणी जीतथी सर्व शत्रुओने जीती शकाय छे." [३६]. ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम ! आप शत्रु कोने कहो छ। ? " केशि-कुमारनुं आ वचन सांभळीने गौतम कहे छ :- [३७]. " एक आत्मा जे अजित श गणाय छे तेने जीतवाथी चार कपायने (क्रोध, मान, माया अने लोभने ) जीती शकाय छ; अने सेने जीतवाथी पांच इन्द्रिओने वश करी शकाय छे. ए रीते दश शत्रुओ[१ आत्मा+४ कषाय+५ इन्द्रिओ ने जीतवाथी सर्व शत्रुओ जीताय छे, अंने तेमने यथा न्याय जीतीने हुँ सुखे विचरुं छु. (३८). ए सांभळीने केशि कुमार कहे छे, " हे गौतम .........वगेरे गाथा २८ प्रमाणे, (३९). " हे मुनिश्वर ! आ. लेकिने विषे अनेक जीव पाशथी बंधायेला नजरे आवे छे. आय ते बंधन तोडीने शीरीत मुक्त धया छोते मने कहो." [४०]. *श्री पार्श्वनाथ अने महावीर भगवानना अनुयायीओ बच्चे चार अने पांच महावृत तथा साधुओना बाह्याचार संबंधी मत भेदर्नु आगली गाथाओमां समाधान कर्या पछी, आ गाथाथी जिन धर्मना सामान्य सिद्धांतोनु शिष्य-श्रोता वर्गनी जाण अने उपदेशने माटे । मिरुपण करेलुं छे. AAA८29000000000000000 Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.anelbrary.org Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेपासे सव्वसो छित्ता निहतूण मुवायउ । मुक्कपासो लहुभूओ विहरामि अहंमुणी ॥ ४१ ॥ पासाय इइकेवुत्ता केसी २३ । गोयम मब्बी । तओकेसि बुवंतंतु गोयमो इणमब्बवी ॥ ४२ ॥ रागदोसादयो तिव्या नेहपासा भयंकरा । तेछि.. दित्त जहानायं विहरामि जहक्कमं ॥४३॥ साहु गोयमपन्नाते छिन्नोमे संसओइमो । अन्नोवि संसउ मझं तमेकहसु गोयमा ॥ ४४ ॥ अंतोहियय संभूया लया चिठई गोयमा । फलेइ विसभख्खीणं साउ उहरिया कहं ॥ ४५ ॥ तलयं सव्वसोछित्ता उद्धरित्ता समूलियं । विहरामि जहानायं मुक्कोमि विसभख्खणं ॥४६॥ लयाय इइकाबुत्ता केसी गोयम मब्बवी । केसिमेवं बुवंतंतु गोयमोइण मब्बवी ॥ १७ ॥ 088202 ००००००००००००० गौतम कहे छे, "हे मुनिश्वर : सर्व पाश छेदीने अने बुद्धि पूर्वक उपायो* वडे ते थकी मुक्त थइने हुं सुखेथी विचरं छं." (४१) केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम ! आप पाश [बन्धन ] कोने कहो छो ?" केशिनु आ वचन सांभळीने गौतम कडे छे:(४२). " राग, द्वेषादि अति तित्र पाश छे अने [पुत्र कलत्रादिनां] स्नेह पाश अति भयंकर बंधन छे; तेने यथा न्याय 1 छेदीने हुँ साध्वाचारे २ विचरूंछ." [४]. ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, “हे गौतम .............वगेरे गाथा २८ प्रमाणे. [४४. " हे गौतम ! अंतर-हृदयने विषे एक लता उत्पन्न थाय छे जेने विषमय फळ लागे छे. ए लता आपे शीरीते उखाडी नांखी छे ? " [४५]. गौतम कहे छे, " ए लताने में मूळथी छेदी नांखीछे अने तेने समूळ उखाडी नांखी छे. अने ए रीते तेनां विषरुप फळथी मुक्त थइने हुँ विचरुं छं." (४६). केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम : ए लताने आप शं नाम आपो छो?" केशिनं आवं वचन सांभळीने गौतम कहे छे :- [४७]. * By the right means, i Regularly: २ The Rules of conduct. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ./ 640041840 भवतहालया वृत्ता भीमाभीम फलोदया । तमुद्वित्तु जहानायं विहामि जहरूमं ॥४८॥ सागोयमपाते छिन्नोमे संसउ इमो। अन्नोवि संसउ मझं तंमेकहसुगोयमा ॥ ४९ ॥ संपज्जलियाघो। अग्गीचिहइगोयना । जेडहति सरीरथ्या कहंविझा वियातुने ॥५०॥ महामेहपसुत्ताओ गिझ वारिजलुत्तमं । सिंचामि सययंतेउ सित्तानोवडहंतिमे॥५१॥ अग्गीय ३इकेयुत्ते केसीकोयम मब्बवी । तउकेसिं बुवंतंतु गोयमो इणमब्बबी ॥ ५२ ॥ कस्साया अग्गिणोवुत्ता सुयसील तवोजलं । सुयधाराभिहयासंता भिन्नानय डहंतिमे ॥ ५३ ॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसउ इमो । अन्नोवि संसओ मझं तंमेकहसुगोयमा ॥ ५४ ॥ ०००००००००००० 000000००००००००००० "भव तृष्णा*रुपी ए भयंकर लता छ अने दुष्ट कर्मना विपाकरुपी भयंकर फळ तेने लागेला छे. ए लताने मूळमाथी छेदीने हुँ सुख समाधिमां विचरूं छु." (४८). ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम....वगेरे गाथा २८ प्रमाणे.[४९]. "हे गौतम! जाज्वल्यमान घोर २ अग्नि संसारमा सळगी रह्यो छे, जे शरीरने दहेछे; ते अग्निने आप शीरीते बुझावी शक्या छो?"(५०).गौतम कहे छे, " महामेघथी उत्पन्न थयेली नदीना उत्तम जळवडे हुँ ए अग्निने निरंतर सींचु छु, तेथी ते अग्नि मने बाळी शकतो नथी. [५१]. केशि-कुमार कहे छ, “ए अग्नि आप कोने कहो छो?" केशिनुं आईं वचन सांभळीने गौतम कहे छे :-( ५२ ). " चार कषाय अग्नि रुप छे, अने ज्ञान, शील तथा तप जळ रुप छे. ज्ञान रुपी जळ धाराए सींचायेलो अग्नि ओलाइ जाय छे तेथी मने बाळी शक्तो नथी." (५३). ए सांभळीने कोशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम........वगेरे गाथा २८ प्रमाणे. [२४]. * Love of existence. 1 Frightfal. २. मूळ पाटमा अग्नि बह वचनमां छे. चार करायो तरीके ते होवाथी बहु वचन वापरेल जणाय छे. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००० १८९ ०००००००००००००० | अयं साहसिउभीमो दुट्ठस्सो परिधावइ । जसिगोयम आरूढो कहं तेण नहिरसी ॥ ५५ ॥ पहावंतं निगिण्हामि सुयरस्सी समाहिया । नमे गछुइ उम्मगां मग्गंच पडिवजई ॥५६॥ अस्सेय इइकेबुत्ते केसीगोयम मब्बवी । तउ १ केसि बुवंतंतु गोयमोइण मब्बवी ॥५७॥ मणोसाहसिउ भीमो दु[सो परिधावई । तं सम्मं तुनिगिण्हामि धम्मसि। ख्खाय कथगं ॥५८॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसउ इमो । अन्नोवि संसउ मझं तमे कहंसगोयमा ॥५९॥ कुप्पहा बहवेलोए जेहिनासंति जंतुणो । अडाणे कहबढतो तं न ना सिगोयमा ॥ ६० ॥ जेयमग्गेण गधंति जेय उम्मग्ग पठ्ठिया । तेसवे वेइयामझं तो न नास्सा मिहंमुणी ॥६॥ "हे गौतम ! * अति साहसिक, भयंकर अने दुष्ट अश्व उन्मागने विषे दोडे छे; एवा अश्व उप आरुढ थयल होवा छतां आपने ते उन्मार्गने विषे केम घसडी जतो नथी?" (५५). गौतम कहे छे, " ज्ञानरुपी लगामथी हुँ न अश्वने उम्प गने विषे जता अटकावं छ. तेथी ते मने आडे मार्गे लेइ इ शक्तो नधी, पण ते सन्मार्गे चाले छे." [५६]. केश- पार करने, “हे गौतम ! 8 ए अश्व आप कोने कहो छो ? " केशिनुं आवं वचन सांभळीने गौतम कहेछे :- (५७). " मन ए और सामिक, भयंकर अने। | दुष्ट अश्व छ. ए मनरुपी अश्वन हुँ धर्म-शिक्षा [रुपी लगाम ] वडे वश १ करुं छु, तेथी ते [ कंथकना जवा ] जातवंत अश्व बनी रहे छे." (५८), ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम !........वगेरे गाथा २८ प्रयाणे. (५९). " हे गौतम ! आ लो8 कने विष कुमार्गो घणा छे, जे मनुष्योने आडे मागे दोरवी जाय छे एम छतां आप उन्मार्गे न दोरबाइ जता सन्मार्गने विषे शीरीते | रही शको छो?" [६०]. गौतम कहे छे, " हे महामुनि! जेओ सन्मार्गे (जिन-मार्गे ) चाले छे अने जेयो उन्मार्ग ( जिन मार्गथी विपरीत रीते ] प्रवाछे त सर्वेने हुं सारी पेठे जाणुं छं; तेथी हुँ उन्मार्गे दोरवाइ जतो नथी." (६१). * Unruly--वश न थइ शके एवो. १. I govern it by the discipline of the Law. ००००००००० 000००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न.अ. २३ १९० मग्गेय इइके केसीगोयम मन्त्रवी । तउकेसिं बुवंतंतु गोयमो उम्मग्ग पहिया । सम्मगंतु जिणख्खायं एसमग्गेहि उत्तमे ॥ ६३ ॥ अन्नो मध्वी ॥ ६२ ॥ कुप्यण पाडी स साहु गोयम पन्ना छिन्नो मे संसउइमो । मेहसु गोयमा ॥ ६४ ॥ महाउद्गवेगेणं बुझमा गाण पाणिणं । सरणंगई पहुंच दीवंकमणसे मुणी ॥ ६५ ॥ अथ एगो महादीवो वारिमझे महालउ । महाउद्ग वेगन गइतथ्य नविझइ ॥ ६६ ॥ दीवेय इइ har केसीगोयम मब्बी । तओकेसिं बुवंतंतु गोयमोइण मन्त्रवी ॥ ६७॥ जरामरण वेगेणं बुझमाणाण पाणिणं । मोदी पाय गइसरण मुत्तमं ॥ ६८ ॥ केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम! आप मार्ग [ सन्मार्ग अने उन्मार्ग ] कोने कहो छो ? " केशिनुं आवं वचन सांभळीने गौतम कहे छे : - [ ६२] . " कुमार्गीओ अने पाखंडीओ ( कपिलादि मतानुवर्त्तिओ ) उन्मार्गने विषे स्थापित थयेला छे, अने जिनो मार्ग ए सन्मार्ग छे अने ते मुक्तिनो दाता छे. " [ ६३ ]. ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम !... . वगेरे गाथा २८ प्रमाणे. (६४), " हे गौतम! महा जळ प्रवाहे घसडातां प्राणीओना निवारण अर्थे कोइ आधार, शरणुं अथवा दृढ स्थानक छे ? एवो कोई द्वीप आपना जाणवामां छे?" [ ६५ ]. गौतम कहे छे, “ समुद्रनी बच्चे एक प्रौढ अने विस्तीर्ण द्वीप छे; महा जळ प्रवाहनी रेल ते द्वीप उपर फरी वळी शक्ती नयी. "३ (६६) केशि-कुमार कहे छे, “हे गौतम! आप ए द्वीप कोने कहो छो ? " केशिनुं आवं वचन सांभळीने गौतम कहे छे: - (६७). “ जरा अने मरण ए जळ प्रवाह छे अने तेमां प्राणीओ घसडाय छे, ए जळनी बच्चे धर्मरूपी महाद्वीप छे; अने ते दृढ स्थानक, आधार अने उत्तम शरणुं छे. " [ ६८ ]. * Heterodox १. Is not inundated by the great flood of water. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसउ इमो । अन्नोवि संसउ मझं तंमेकहमु गोयमा ॥ ६९ ॥ अन्नवंसि महोहंसि || नावावि परिधावइ । जंसिगोयममारूढो कहंपारं गमिस्ससि ॥ ७० ॥ ज्जाउ आसीविणीणावा नसा पारस्सगामिणी । जानिरास्सा विणीनावा साउपारस्सगामिणी ।। ७१ ॥ नावाय इइकावुत्ता केसीगोयम मब्बवी । तओ केसिं बुवंतंतु | गोयमो इणमब्बवी ॥७२॥ सरीरमाहुनावित्ति जीवो वुच्चइ नाविउ । संसारो अन्नवोवुत्तो जंतरंति महेसिणो ॥ ७३ ॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसउ इमो । अन्नोवि संसउ मझं तंमेकहसुगोयमा ॥ ७४ ॥ अंधयारे तमे घोरे चिठ्ठति पाणिणो बहु । को कारिस्सइ उज्जोयं सबलोगमि पाणिणं ॥ ७५ ॥ ____ ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम .......वगेरे गाथा २८ प्रमाणे. [ ६९ ]. " हे गौतम ! महासागरना महा प्रवाहोमा एक नाव परिभ्रमण* करे छे, ते नाव उपर आरुढ थइने आप समुद्रनो पार शीरीते पामी शकशो?" अथवा-सामे तीरे शीरीते पहोंची शकशो!) (७०). गौतम कहे छे, “जे नाव श्राविणी [गावडावाळी-छिद्रवाळी] छे ते पार पहोंचशे नहि; पण जे नाव निश्राविणी (छिद्र रहित) छे ते समुद्रने सामे तीर पहोंची शकशे. [७१]. केशि कुमार कहे छे, " हे गौतम ! आप ए नाव कोने कहो छो ?" केशिनु आ वचन सांभळीने गौतम कहे छे:-[७२], "शरीर नाव रुप छे जीव नाविकप छ; अने । संसार [भव-भ्रमण] समुद्ररुप छे ते संसार समुद्रने महर्षिओज तरी शके छ." (७३). ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, " हे गौतम ! ........वगेरे-गाथा २८ प्रमाणे. (७४). " हे गौतम ! आ घोर अने भयोत्पादक अंधकारने विषे अनेक प्राणीओ बसेछे ए सकळ । लोकमां सर्व प्राणीओ माटे प्रकाश कोण करशे?" (७५). 3000000000000 .००० * Drifts. P. Circle of Births. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200200०००००००० उगाओ विमलोभाणू सव्वलोगप्पभं करो । सोकारस्सइ उज्जायं सब्धलोगमि पाणिणं ॥ ७६ ॥ भाणूय इइकेवुत्ते केसीगोयम मब्बवी । तउकेसी बुवंतंतु गोयमो इणमब्बवी ॥ ७७॥ उग्गउ खीणसंसारो सध्यन्नू जिणभाखरो । J8 सोकरिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं ॥७८॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसउ इमो । अन्नोवि संसओ मझं । तंमेकहसू गोयमा ॥ ७९ ।। सारिरमाणसे दुख्खे बझ माणाण पाणिणं । खेमंसिर्व अणाबाहं ठाणं किं मन्नसेमुणी ॥८॥ अथिएगं धुवं ठाणं लोगग्गमि दुरारुहं । जथ्थ नश्थि जरामच्चू वाहिणो वेयणा तहा ।। ८१ ॥ ठाणेय इइकेवुत्ते केसीगोयम मब्बवी । तउकेसि बुवंतंतु गोयमो इण मब्बवी ॥ ८२ ॥ गौतम कहे छ, " सर्व लोक प्रकाशक निर्मळ भानु [ सूर्य ] उग्यो छे, ते सकळ लोकनां सर्व प्राणीओ माटे प्रकाश करशे." (७६). केशि कुमार कहे छ, " हे गौतम ? आप ए सूर्य कोने कहो छो?" केशिनु आवं वचन सांभळीने गौतम कहे छे:-(७७).8 “संसारमां भव-भ्रमणनो अंत आणवाने सर्वज्ञ.१ जिन-भास्कर (सूर्य) उग्यो छे, जे सकळ लोकनां सर्व प्राणीओनो उद्योत करशे." (७८). ए सांभळीने केशि-कुमार कह छ, “हे गौतम .........वगेरे-गाथा २८ प्रमाणे. [७९]. "हे गौतम! प्राणीओ शारीरिक अने मानसिक दुःखोथी पीडाय छे, तेमने वास्ते कोइ क्षेम [निर्भय, व्याधि रहित ], शिव ( कल्याणकारी, जरा मरणादि उपद्रव रहित), अने अनावराध [पीडा रहित ] स्थानक आपना जाणवामा छे ? " (८०). गौतम कहे छ, “लोकोनी नजर आगळ एवं एक निश्चळ [निर्भय ] स्थान छ, पण ते प्राप्त थर्बु दुर्लभ छ. ते स्थानकने विषे जरा, मरण, व्याधि अने वेदना क\ए नथी." [८१]. केशि-कुमार कहे छे, "हे गौतम! ए स्थानकनुं नाम शं?" केशिनु आवं वचन सांभळीने गौतम कह छ :-[८२].. १. सर्व पदार्थ वेत्ता. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. आएका ००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only wwwjanelibrary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.भ.IN 406.००.०० । निव्वाणंति अबाहंति सिद्धीलोगरगमेवय । रेमं वं अपाबाहं जंचरति महेसिणो ॥ ८३ ॥ तंठाणं सासर्यवास लोगग्गमि दुरारुहं । जसंपत्त .से.ति भवत करामुणी १८४॥ साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसउ इमो। नमो ते संसया तीत सवत्तम मदही ॥ ८५ ॥ एवंतु संसए छि. केसी घोर परक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा गोयमंतु महायसं ॥ ८६ ॥ पंच महव्वयं धम्म पडिवज्जइ भावउ । पुरिमस्स पछिमंमि मग्गे तथ्थ सुहावहे ॥ ८७ ॥ "ए स्थानक- नाम निर्वाण अश्या व्याधि रहित स्थळ, अथवा सिद्धि स्थानक छ; अने ते लोकना अग्र भागे नजर आगळ छ; ते स्थानक क्षेम, शिव अने अनाबाध (निर्भय, कल्याणकारी अने उपद्रव रहित) छे, अने त्यां महर्षिओज पहोंची शके छे. (८३) "हे केशि-मुनि ! ते स्थानक शाश्वतुं छे; ते सौनी नजर आगळ हे, पण प्राप्त थर्बु दुर्लभ छ; जे मुनिश्वरो त्यां पहोंच्या छे ते शोच मुक्त थया छ अने संसार-प्रवाहनो । [भव-भ्रमणनो] अंत आणी शक्या छे." (८४). ए सांभळीने केशि-कुमार कहे छे, 18 " हे गौतम ! आप प्रज्ञावंत छो; आपे मारो संदेह दूर को छे. आप संदेह रहित अने सर्व सूत्रना महोदधिरुप पारगामी] होवाथी हुँ आपने नमस्कार करुं छ." (८५). गौतमे पोताना संदेह टाळ्या तेथी [कर्म टाळवामां] घोर पराक्रमी केशि-कुमार श्रमणे महायशस्वी गौतमने मस्तक नमावीने अभिवंदन कयु. (८६). ते तिन्दुक उद्यानने विषे श्री केशि-कुमार श्रमणे, पहेला अने छल्ला तीर्थकर (श्री आदीवर अने श्री महावीर ) भगवान प्ररुपेला पंच महाव्रतरुप धर्मनो, पूर्ण श्रद्धाथी अंगीकार कर्यो [८७]. * Eternal. 1. Stream of existence. २५ Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसी गोयमउ निच्चं तंमि आसि समागमे । सुय सील समुक्कारसो मह थ्थथ्थ विणिछु॥८८॥तोसिया परिसासव्या समग्गंतु समुवठिया । संथुया ते पसीयंतु भगवं केसि गोयमो तिबेमि ॥ ८९ ॥ . ॥ इति केसि गोयम नाम झयणं तेविसमं सम्मत्तं ॥ २३ ॥ अध्ययन २४. समिति (पांच समिति अने त्रण अठ्ठ प्पवयण मायाओ समिई गुत्ती तहेवय । पंचेवय समिइओ तओ गुत्तीओ आहिया ॥१॥इरिया भासे सणादाणे उच्चारे सामईडय । मण गती वय गत्ती कायगत्तीय अठ्ठमा ॥२॥ .ते नगराने विष केशि अने गौतमनो समागम थवाथी ज्ञान अने चारित्र [ शील नो उत्कर्ष थयो * अने तत्वादि अगत्यना विषयोनो निर्णय थयो [८८. सकळ सभा अति प्रसन्न थइ अने सम्यक मार्गने विषे उपस्थित( सावधान )थइ. अने सौ कोइ केशि अने गौतमनी प्रशंसा करवा लाग्या के 'ते ज्ञानवंत भगवंतो आपणा उपर प्रसन्न रहो.'(८९), * त्रेवीसमें अध्ययन संपूणे. * ® अध्ययन २४. ७ श्री जिन शासनने विष समिति अने गप्ति मळीने अप्र प्रवचन कहां छे. तेमां पांच समिति अने त्रण गप्ति जे. (१), पांच समिति नीचे प्रमाणे छ :-(१) इया-समिति, (२) भाषा-समिति, (३) एषणा-समिति, (४) आदान-समिति, अने (५) उच्चार*मिनि. प्रण गुप्ति नीचे प्रमाणे छे :-[१] मनो-गुप्ति, [२] वचन-गुप्ति अने [३] काय गुप्ति. (२). * Brought to eminenee. 4001 Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 एयाउ अठ समिईओ समासेण वियाहिया । दुवालसंगं जिणखायं मायं जथ्थउपवयणं ॥३॥ आलंबणेण कालेण । २४ मग्गेण जयणायय । चउ कारण परिसृद्ध संजए ईरियं रिए ॥४॥ तथ्या लंबणं नाणं दसणं चरणं तहा। कालेय। दिवसे वुत्ते मग्गे. उप्पह वज्जिए ॥५॥ दवओ लिखत्तओ चेव कालओ भावओ तहा ! जयणा चउबिहा बुत्ता तं १९५० मे कित्तयउ सुणे ॥६॥ दव्वओ चख्खुसापेहे जुगमित्तं चखितओ। कालओ जाव रीएज्जा उत्रउत्तेय भावओ॥७॥ 8 इंदियथ्थे विवजित्ता सझायं चेव पंचहा । तम्मत्ती तप्पुरकारे । उवउत्ते रियं रिए ॥ ८ ॥ 200००००००००००. 9००००००००००००००० ए रीते आठ समिति संक्षेपे वर्णवी छे; जेमां श्री तीर्थकर भगवानोनां भाखेलां द्वादश अंग अने जिन धर्मनां सर्व सिद्धांतोनो समावेश थइ जायछे. [३]. १ इयर्या -समिति :-संयमधारी साधुए (१) आलंबन, (२) काल, [३, मार्ग अने (४) यत्ना ( जतना, जीव दया ) ए चार प्रकारे शुद्ध रहीने विचरवू जोइए. [४]. आलंबन एटले ज्ञान, दर्शन अने चारित्रने अनुसरवं ते; काळ एटले दिवसना भागमा [ रात्रिए नहि ] विहार करवो; अने मार्ग एटले उन्मार्गनो त्याग. [५]. यत्ना चार प्रकारनी छ :-[१] द्रव्य ३-यत्ना, ( २ ) क्षेत्र-यत्ना, [३] काळ-यत्ना, अने [ ४ ] भाव-यत्ना. ते चारे हुं समजावू छु ते सांभळो. [६]. द्रव्य-यत्ना १ एटले चक्षुवडे जीवादि द्रव्य, ध्यान राखीने, क्षेत्र-यत्ना एटले युग-मार्ग [ चार हाथ जमीन ] तपासीने, काळ-यत्ना एटले जेटलो | काळ विचर पडे ते दरमियान, अने भाव-पत्ना एटले सावधान रहीने, साधुए विचर. (७). इन्द्रिओना विषयो त्यागीने अने 8 पांच प्रकारे स्वाध्याय अंगीकार करीने जे साधु काय-चापल्य रहित सावधानपणे विचरे छे, ते इयर्या-समिति बराबर पाळी शके छे. [८]. ००.०० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ उ. अ. कोहे माणेय मायाय लोभेय उवउत्तया । हासे भय मोहरिए विहासु तवय || ९ || एयाई अड्ड ठाणाई परिवज्जित संजए । असावज्जं भियं काले भासं भासेज्ज पन्नव ॥ १० ॥ गवेक्षणाय गहणेय परिभोगे सणायजा । आहारो वहि सिज्जाए एर तिन्नि बिसोहि ॥ ११ ॥ उग्गमु पायणं पढमे बीए मोहिज्ज एरुणं । परिभोगंमि चउक्कंच १९६ 000000000000 २. भाषा समिति - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय वाचालपणुं अने विकथा (निंदा, बडाइ ) ए आठ [ पाप] स्थानको प्रज्ञावंत साधुए त्यागवां जोइए अने योग्य काळे (जरुरना प्रसंगे ) निर्दोष संक्षिप्त भाषा बोलवी जोइए. (९-१० ). ३. एषणासमिति- आहार, वस्त्र-पात्रादि अने शय्या उपाश्रय एत्रण प्रकारनी वस्तुओनी गवेषणा [विशुद्धतानी तपास ], ग्रहण- एषणा (स्वीकार) अने परिभोग- एपणा (उपभोग) ना दोष साधुए त्यागवा जोइए. [१]. यत्नवान साकुर प्रथममां एटले गवेषणामां उद्गम [ आपनार] उत्पादन] [लेनार]ना (सोळxसोळ) दोप टाळवा जोइए; बीजी ग्रहण- एष गामा एटले आहारादिनो स्वीकार करवामां रहेला [दशx ] * मोहरिए ए आठमा व्रतनो त्रीजो अतिचार छे, जेम तेम बोल्या कं. × आपनार अने लेनारना सोळ सोळ दोष नीचे मुजब छे. १ - साधु निमित्ते, छकायनो आरंभ करी निपजावेलो आहार वोहोरावे तो 'आधाकमी ' दोष, २ - साधु निमित्ते वधारे तैयार करावेल आहार वहोरावे तो ' उद्देशिक' दोष. ३ - बहोरावत्रा खातर वेळासर तैयार करेलो आहार आपे ते 'पुड़कर्म ' दोष [ पूतिक ]. ४ - शुद्ध अने अशुद्ध भळी गयेल आहार आपे ते 'मिश्र' दोष. ५ - साधु माटे केउलोक वखत सुधी खास राख। मूकेल आहार आपे ते 'ठवणा' [स्थापना ] दोष. ६ - साधुने आन्या जाणी वस्तु आगळ पाछळ मूके अथवा गाममां साधुनी हाजरीनो लाभ लेवा विलंब छता विवाहादिक आरंभे ते 'पाहुडीआ ' [प्राभृतिका] दोष. ७ घरमा सावुने आववानी सगवड खातर के अजछाती हिंसा करे ते, 'पाउर' (पादुःकरण) दोष. ८-साधुने माटेज पैसा खरचीने लीबेली चीज वहोराववी ते 'कृत गड? [क्रीत] दोष. ९ - साधुने मांटेज उधार उछिनी लील चीज आपकी त 'पामिच्य' (प्रामित्य) दोष. १० - साधुने माटेन अदल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ama ००००००००००० S ०००००००००० 00000०१००००० विसोहिज्ज जयं जई ॥ १२॥ उहो वही वग्गहियं भंडग दुविहं मुणी । गिर्हतो निख्खवंतीय पउंजिज्ज इमविहि ॥ १३ ॥ चख्खुसापडिलेहित्ता पमजिज जयंजई । आइएनिख्खिविजावा दुहओविसमिओसया ॥ १४ ॥ उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाण जल्लियं । आहारं उवहिंदेहं अन्नवावि तहाविहं ॥१५॥ दोष टाळवा जाइए; अने त्रीजी परिभोग-एषणा एटले मळेली वस्तुओनो उपभोग करवामां रहेला(चार)दोष टाळवा जोइए.[१२]. ४ आदान-समिति-साधुए सामुदायिक रजहरणादि] अने उपग्रहिक (दंडादि) बन्ने प्रकारनी वस्तुओ लेतां-मुकतां नीचनी विधिए वत्त जाइए. (१३). यत्नवान साधुए प्रत्येक वस्तु प्रथम आंखवती तपासवी, पछीथी तेनुं पडिलेहन करई (पूंज) अने त्यारपछी आदान-निक्षेपणा समिति युक्त [द्रव्ये अने भावे समित रहीने] तेने लेवी अथवा मूकवी. [१४]. ५ उच्चार-समितिःमळ, मूत्र, बलगम [वळखा] नासिकानो मळ, देह-मळ, आहार-उपधि एठवाड] अने देह [२संथारा समये] एवा प्रकारनी अन्य वस्तुओ नीचेनी विधिए परठवी. (१५.) १ सोळ उद्गम दोष, सोळ उत्पादन दोष, दश ग्रहण-एषणा दोष अने चार परिभोग-एपणा दोप ए प्रमाणे कुल ४६ दोपछे. ते रहित आहार-पाणी आदि साधुए व्होरवां जोइए अने तनो उपयोग करवो जोइए. २. When he is about to die. x=बदल करेली चीज आपली ते 'परिपट्ट' पराकृत दोष. ११-साधुने भाटेज सामा लाबी आपे ते अभिहड' अभ्यात दोप. १२साधुने माटेज ताळां, दाटा उघाडी चीन आपे तो 'अभिन्न दोष. १३-साधुने माटेज मेई के भोयरांमांथी लावी आप तो 'मालोहड'मालाहत दोष. १४-साधुने माटेज कोइना हाथमाथी झुटावेलो आहार आपे ते अछि ज(आछीद्यादोष.१५.साधुने माटेज,सह यारी मझीयारी वस्तुमाथी भागीआनी रजा विना चीज वहोरावे ते 'आणतिउ' दोष. १६-साधुने माटेज, आंधण वीगेरे उमेरेल होय तो ते 'अनीयर' [अव्यवपुर] दोष. - ००००० ००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 900600.000000१00 अणावाय मसलोए अणावाए चेवहोइ संलोए । आवाय मसलोए आवाए वसलोए ॥ १६ ॥ *स्वपक्ष या परपक्षना लोको ज्या आवता जता न होय अथवा देखाता न होय, जे जगोए तेमनु आवQ जवु यतुं न होय पण तेओ देखी शकता होय, अथवा तो आवQ जव थतुं होय पण तेओ देखी शकता न होय,अथवा तो भाववं जवू अने देखवू बन्ने होय. (१६). ___*.आ गाथा बीजी गाथाओथी जुदाज छदमा [ आर्या ] छे; वळी गाथा १७ अने १८मां सर्व स्थळोनो समावेश थड़ जतो होवाथी देनी जरुर पण जणाती नथी. माटे ते पाछळथी उमेराइ होय एवं अनुमान थाय छे. x-१-गृहस्थनां बाळको रमाडीने आहार ले ते 'धाइ' (धात्री) कर्म दोष. २-ग्रहस्थना संदेशा कहीने आहारादि ले ते 'यति' कर्म दोष. ३-निमित्त प्रकाशी आहारादिक ले ते 'निमित्ति दोष. ४-जाति कुळनां वखाण करी आहारादिक ले ते 'आजीविका दोष. ५-रांकनी पेठे करगरी आहारादिक ले ते 'वणिमग वयनीक दोष. ६-वैदूं करी आहारादिक ले ते 'तिगिछ' [चिकित्सा दोष. ७-क्रोध करी कांइ ले ते 'क्रोध पिंड. ८-मान करी काइ ले ते 'मान' पिंड. ९-माया करी कांड ले ते 'माया' पिंड. १०लोभ करी कांड ले ते 'लोभ' पिंड. ११-आगला पाछला परिचयना पीछान काढी खुशामत करी काइ ले तो 'पूर्वपश्चात संस्तव' दोष. १२-विद्यानो डोळ करी आहारादिक ले तो 'विद्या पिंड' १३-मंत्रनो डोळ करी आहारादिक ले तो मंत्र दोष'. १४-चूर्ण औषधि वागरे आपीने आहारादिक ले तो 'चूर्ण योग'. १५-वशिकरण करी आहारादिकले तो 'योग पिंड' दोष. १६-गर्भ पाटे औषध आपी आहागदिक ले तो ' मूळ कर्म ' दोप. x=१-दातार वहोरावतां ते लेतां साधुने उद्गमादिक दोषनी शंका उपजे हतां आहार ले ते 'शंकित' दोष. २-सचितथी हाथ खरडाया होय ते हाथे आहार ले तो 'मखित' (प्रक्षित्प) दोष. ३-नीचे सचित्त उपर अचित होय तेवो आहार ले तो 'निधित: -००००००००० Jain Education Intemasional For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणावाय मसंलोए परस्सणु वघाइए । समे अझसिरेयावि अचिर कालकयमिय ॥१७॥ विछिन्ने दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणबीय रहिए उच्चाराइणिवोसिरे ॥ १८ ॥ 6/ जे गोए अन्य लाको आवतां जतां न होय अने तेओ ते देसी शकतो पण न होय, ज्यां संयमनो उपघात थतो न होय, ज्यांनी जमीन उंची नीची न होय [ सपाट धरती होय ,जे तृण-पत्रादिी छवायेली न होय, जे थोडा समय पहेला अचेत [आगथी बाळीने ] करवामां आवेली होय, जे विस्तारवाळी होय, जेर्नु उपरतुं पड (अमुक आंगळ) अचेत होय, जे गामनी छेक नजीकमां न होय, जेमा उंदर वगैरेनी बखोलो [दर न होय, अने जे त्रस-जीव तथा बीज रहित होय एवी दस गुण युक्त जगोए उच्चारादि (मळ-मुत्रादि) परठवु-यत्नाथी नारखी आव. (१७-१८). .. .. x=निक्षिप्त दोष. ४-नीचे अचित उपर सचित होय तेवो आहार ले तो 'पिहित 'दोष.५-वासणमां सचित होय ते ठलवी तेमां B आहार नाखी पे ते, ले तो 'सारहि' (सद्धत) दोष, ६-आंखे अखम होय ते उठी आहारादिक वहोरावे ते लेवो ते 'दायगा' वा (दायक) दोष. ७-सचित अचित भेळा होय तेवो आहारदिक ले ते 'मिश्र' दोष.८-भागीदारनी इच्छा विरुद्ध आपेटु ले ते 'अ-18 परणीत' दोष. ९-हाथ धोइने आपे अथवा आप्या पछी हाथ धोवे ते लेबु ते 'लिप्त' दोष. १०-चेरातुं रातुं लावी आपे ते ले तो 'छडुक' दोष. x१. श्वाद खातर बे चार वस्तु मेळवी आहार करे तो 'संजोग' (संयोजना) दोष. २-प्रमाण उपरांत ठांसी ठांसी आहार करे तो 'अप्रमाण' प्रमाणाति क्रम दोष. ३-आहार आप तेनां वखाण करे ते 'इंगाल कर्म' दोष. ४-आहार न आपे तेनी निंदा करे ते 'घून' दोष. परिभोग-एषणाना त्रीजाने चोथा दोपने केटलाक ग्रंथोमां एक तरीके जोवामां आवे छे. ५-छ कारण विना आहार करे तो 'कारण 'दोष. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ००००००००००००००००००००००० एयाओ पंचसमिईओ समासेण वियाहिया । इत्तोय तओगुत्तीओ पुष्ट्यामि अणुपुव्वसौ ॥ १९॥ सच्चातहेबमोसाय ३ सच्चामोसा तहेवय । चउथीअसच्चमोसा मणगुत्ती चउव्विहा ॥ २० ॥ संरंभ समारंभे आरंभेय तहेवय । मण है. पत्तमाणंतु नियत्तिज्ञ जयंजई ॥२१॥ सच्चातहेब मोसाय सच्चामोसा तहेवय । चउथ्थी असम्झामोसाउ वय गुत्ती चउबिहा ॥२२॥ संरंभ समारंभे आ भेय तहेवय । वयं पवत्तमाणंतु नियतिज जयंजह॥२३॥ ठाणे निसीयणेचेव तहेबय तुयट्टणे । उहंधण पल्लंघण इंदियाणयजु जणे ॥२४॥ संरंभ समारंभे आरंभेय तहेवय । कायं पबत्तमाणतु | नियत्तेज्ज जयंजइ ॥ २५ ॥ पांच समितिनुं आ प्रमाणे संक्षिप्त व्याख्यान करीने हवे त्रण गुप्तिनुं अनुक्रमे वर्णन करुं छु. (१९). १ मनो-गुप्ति --[१] सत्य, (२) असत्य, (३) सत्यासत्य, अने (४) असत्य-मृषा ए रीते चार प्रकारनी मनो गुप्ति छे. [२०]. यत्नवान साधुए पोताना मनने संरम्भ १ ( अन्यने उपद्रव थाय एवा मनोभाव संकल्पथी ), २ समारम्भ-जीवोने दुःख उपजे एवां कृत्योना विचारथी अने 3 आरंभथी जीवोनो घात थाय एवां कृत्योना विचारथी पार्छ वाळवू-निवर्ताव_ जोइर. २१. २ वचन-गुप्ति-ए पण गाथा २०मा वर्णव्या प्रमाणे चार प्रकारनी छे. २२ . यत्नवान साधुए पोताना वचनने गाथा २१ प्रमाणे निवर्ताच जोइए. २३. ३ काय-गुप्ति :-यत्नवान साधुए उठता, बेसतां, मूतां अनें ४उंचा-नीचा थतां इन्द्रिओने शब्दादि विषयने विषे जती अटकाववी जोइए,५ अने अन्य जीवोने उपद्रव थाय अथवा तेमनो घात थाय एवां कृत्योधी पोतानी कायाने निवर्तावची जोइए. २४-२५ . १. Desires for the misf rtune of somebody else. २. Thoughts on acts which cause misry to living beings, .. Which cause their distinction. ४. आने बदले प्रो. जेकोबी (Jumping: 'कूदतां 'लखे छे, पण साधुने कूदाप संभवतुं नयी. ५. Prevent froni intimating obnoxious desires. . ६0000000 Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २५ २०१ याओ पंचसमिईओ चरणस्सय पवत्तणे । गुत्तीनियत्तणेत्ता असु भध्येसु सव्वसो ॥ २६ ॥ एया पत्रयणमाया जोसम्मं आयरे मुणी । सोखिप्पं सव्वसंसारा विष्पमुच्चइ पंडिए तिबेमि ॥ २७ ॥ || इति अठपवयणनाम झयणं चोविस संम्मत्तं ॥ २४ ॥ अध्ययन २५. खरो यज्ञ. माहण कुल संभूओ आसी विप्पो महायसो । जायइ जम्म जन्नंमि जयघोसेत्ति नामओ || १ || इंदियग्गाम निग्गाहि मग्गग्गाभी महामुनी । गामाणुगामं रीयंतो पत्तो वाणारसिं पुरिं ।। २ ।। चारित्रमां प्रवर्त्तमान रहेवाने माटे आ पंच समिति कही छे, अने सर्व प्रकारना अशुभ व्यापारथी [ पाप-कर्मथी ] निवचवाने माणगुप्तिओ कही छे. [२६]. आ अष्ट प्रवचन रूपी 'जिनाज्ञा जे तत्वज्ञ मुनिए रुडी रीते पाळवी जोड़ए तेथी [ जन्म-मरण] संसार भ्रमणथी? शीघ्र मुक्त थवाय छे. [२७] . || चोवीस अध्ययन संपूर्ण ॥* अध्ययन २५. जयघोष नामे एक महायशस्वी ब्राह्मण हतो; ते ब्राह्मण कुळने विषे उत्पन्न थयो हतो, पण ते पंच महावृत (जिन धर्मन पाळतो हतो. [१]. ए इन्द्रिय निग्रही अने समार्ग ( मुक्ति मार्ग ) गामी महा मुनि ग्रामानुग्राम विहार करतां एक दिवस वाणारसी [काशी] नगरीने विषे आवी पहोंच्या. [२]. Essence of creed २ Circle of births. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only バラクラゆゆゆき Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ०००००००००००००००००००००00000 बाणारसीए बहिया उज्जाणमि मणोरमे । फासूए सिज्जा संथारे तथ्य वास मुवागए ॥३॥ अह तेणेव कालेणं पुरीए तथ्थ माहणे । विजयघोसेत्ति नामेण जन्नं जयइ वेचनी ॥४॥अह से तथ्य अणगारे मासखमण पारणे । विजयघोसरस जन्नमि भिख्खमठ्ठा उवछिए ॥ ५ ॥ समुवष्ट्रिय तहिंसतं जायगो पडिसेहइ । नहु दाहामि ते भिखग्वं भिख्खू जायाहि अन्नओ ॥ ६ ॥ जेय वेयविऊ विप्पा जन्नट्ठाय जे दिया। जोइसंग विऊ जेय जेय धम्माण पारगा ॥ ७ ॥ जे समथ्था समुडतुं परं अप्पाण मेवय । तेसिं अन्न मिणं देयं भो भिखु सव्व कामियं ॥ ८ ॥ सो तथ्य एवं पडिसिहो जायएण महामुणी । नवि रुठो नवि तुठ्ठो उत्तम गवेसओ ॥ ९॥ वाणारसी नगरीना बहारना भागमा एक मनोहर उद्यानमां ते आवी रह्या अने त्यां तेमणे एक निर्जीव अने निर्दोष जग्यामा वास कर्यो. (३). तेज काळे अने तेज नगरीमा विजयघोष नामे एक वेदज्ञ ब्राह्मण यज्ञ करतो हतो. [४]. हवे ते अणगार ( जयघोष ) मासखमणने पारणे विजयघोष ब्राह्मणना यज्ञवाडे भिक्षार्थे आवीने उभा रह्या. [२]. भिक्षाने अर्थे ते साधुने आवतो देखीने पेलो यज्ञ करनार ब्राह्मण [विजयघोष] तेने काढी मूकवाने बोल्यो, " हे भिक्षुक ! हुँ तने भिक्षा नहि आपुं; बीजे ठेकाणे भिक्षा मागवा जा." (६). " हे भिक्षुक ! जे ब्राह्मणो वेद पारंगत, गज्ञार्थी अने जितेन्द्रिय छ, जेओ ज्योतिष शास्त्रमा निपुण छे अने धर्म शास्वना पारगामी छ. अने जेओ पोताना तेमज अन्यना आत्माने संसार समुद्रथी तारवाने समर्थ छे, तेवा ब्राह्मणोने अर्थ आ पटरस युक्त भोजन नीपजावेलुं छे." (ते तारे माटे नथी). [७-८]. यज्ञ करनार विजयघोपे आ प्रमाणे ते महा मुनिने ना पाडी ते छतां ते साधु रुठ्या [ क्रोधायमान थया] या त्रुठ्या (खुशी थया) नहि, कारण के ते उत्तमार्थ गवेषक (मोक्षाभिलापी) हता. [९]. 1 Strove for the highest good. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18न न्न; पाण हेऊंवा नवि निव्वाहणायवा । तेसिं वि मुख्खण ठाए इमं वयण मब्बवी ॥ १०॥ नवि जाणसि वेय उ.अ मुहं नवि जन्नाण जं मुहं । नख्खत्ताण मुहं जंच जंच धम्माण वा मुहं ॥११॥ जे समश्या समुदतुं परं अप्पाण मेवय । न ते तुमं वियाणासि अह जाणासि तओ भण ॥ १२ ॥ तस्सख्खेव प्पमोख्खंच अचयंतो तहिं दिउ । स परिसो पंजलिहोउ पुजुई तं महामुणिं ॥ १३ ॥ चेयाणंच मुहंबूहि बूहि जन्नाण जं मुहं । नख्खत्ताण मुहंबूहि बृहि धम्माण- ज मुहं ॥१४॥ जे समथ्था समुहतुं परंअप्पाण मेवय । एयमे संसयंसव्वं साहुकहय पुछिओ ॥१५॥ अग्निहोत्त मुहावेया जन्नठीवेयसामुहं नख्खत्ताणं मुहंचंदो धम्माण कासवोमुहं ॥ १६ ॥ ____ अन्न पान अथवा तो पोताना निर्वाह माटे भोजन वस्त्रादिनी प्राप्ति अर्थ नहि, पण ते लोकाने कर्म बन्धनथी मुकाववाने माटे 1 ते महामुनि ब्राह्मणो प्रति कहेवा लाग्या :-(१०). हे विजयघोष! तुं वेदतुं, यज्ञर्नु, नक्षत्रनुं तेमज धर्मनु मुख [ मूळ तत्व जाणतो MB नथी. [११. “वळी जेओ पोताना तेमज अन्यना आत्माने तारवाने समर्थ छे तेने पण तुं ओळखतो नथी. जो तुं जाणतो होय 18 तो कहीं दे." [१२]. मुनिना आक्षेपनो उत्तर देवाने ते ब्राह्मण असमर्थ हतो. तेथी ते पोते अने त्यां भेगा थयेला अन्य ब्राह्मणो हाथ जोडीने ते महामुनिने प्रश्न करवा लाग्या:-[१३]. हे महामुनि ! वेद, यज्ञर्नु, नक्षत्रनुं तेमज धर्मर्नु मुख शुं छे ते आप अमने कहो. (१४). "वळी पोताना तेमज अन्यना आत्माने तारवाने कोण समर्थ छे ते पण अमने कहो. हे साधु ! अमारा सघळा सन्देह आप टाळो.” (१५). मुनि कहे छे, "हे विजयघोप! वेदर्नु मुख अग्निहोत्र [एटले-धर्म ध्यानरुपी अग्निमां कर्मरुपी इन्दननो होम करवो ते] छ; यज्ञर्नु मुख उत्तम भावना एटले दश प्रकारनो धर्म-सत्य, तप, संतोष, क्षमा, चारित्र, मार्जव, श्रद्धा, घृति, अहिंसा, अने संवर) छे नक्षत्रनुं मुख चंद्र छ; अने सर्व धर्मर्नु मुख काश्यपनो [श्री ऋपभदेव भगवाननो] धर्म छे. [१६]. 1 To save these people. २ Constancy. ०००००० Jan Educationa interational For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जअ ००००००० जहाचंदं गहाईया चिठ्ठति पंजलिउडा । वंदमाणा नमसंता उत्तम मणहारिणो ॥ १७ ॥ अजाणग्ग जन्नवाइ वि. ज्जामाहण संपया । मूढा सझाय तवसा भास छन्नाइवग्गिणो ॥ १८ ॥ जोलोए बंभणो वुत्तो अग्गीवा महिउ जहा । सयाकुसल संदिळं तंवयं बूममाहणं ॥१९॥ जोन सज्जइ आगंतुं पव्वयंतो न सोयई । रमइ अज्जवयणमि तंवयं बूममाहणं ॥ २० ॥ जाय रूवं जहामढ़ निर्धात मलपावगं । रागदोसभयातीतं तंवयं बूममाहणं ॥ २१ ॥ ___जेम ग्रहो, नक्षत्रो अने तारा, चंद्रनी आगळ हाथ जोडीने उभा रहे छे अने नमस्कार करतां यका तेनी सेवा करेछे, तेम.18 मनोहर देवताओ (इन्द्रादि) श्री ऋषभदेव भगवानने विनय पूर्वक वांदीने तेमनी स्तुति करे छे. (१७), तत्वना ज्ञान रहित, यज्ञवादी ब्राह्मणो यज्ञना जाणपणानो डोळ करेछे, पण तेओ अग्नि विद्या अने ब्राह्मण सम्पदायी अज्ञान होय छे अने अग्नि जेम। राखमां ढंकाइ रहे छे तेम तेश्रो स्वाध्याय अने तपमा ढंकायेला (बहारथी शान्त पण अंतस्मां क्रोध, मान, माया, लोभादियी दग्ध) से छे. [१८]. "जेने लोको ब्राह्मण कहेछे अने अग्निनी पेठे पूजे छे ते खरो ब्राह्मण नथी. पण जेने कुशळ [ विद्वान ] पुरुषो ब्राह्मण कहे छ तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. (१९). “जे दीक्षा लीधा पछी संसारीनो संग करतो नथी, जे साधु थया बाद 18 स्थानान्तर थवाथी शोच करतो नथी अने जे २ आर्य (तीर्थंकरना) वचनथी संतोष पामे छे, तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. (२०). जे राग, द्वेष अने भय रहित होय अने जे अग्निमां शुद्ध करेला अने ओप चढावेला सुवर्णनी माफक पाप मळथी रहित होय तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. (२१). ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० १. संस्कृत टीकाकार आनो एवो अर्थ करे छे के "स्वजन मळवाथी जे तेने भेटी पडतो मथी अथवा तो तेमनाथ विखुटो पडती वखते शोच करतो नथी." २. Noble words. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २५ २०५ 1 तवस्सियं कितं अवचिय मंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तंवयं बूममाहणं ॥ २२ ॥ तसेपाणे वियाणित्ता संगहेणयथाबरे । जोन हिंसइतिविहेणं तंवयं बूममाहणं ॥ २३ ॥ कोहावा जइबाहासा लोहावा जइवाभया । जो तंत्रयं बूममाहणं ॥ २४ ॥ चित्तमंत मचित्तंवा अप्पंवा जइवा बहु । न गिरहइ अदत्तंजो तंवयं बूममा || २५ || दिव्यं माणुस्मतिरि जोनसेवइ मेहुणं । मणसा कायवण तंत्रयं वृममाहणं ॥ २६ ॥ जहांपउम जलेजायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं तंवयं बूममाहणं ॥ २७ ॥ 66 कुश (दुर्बळ) अने जितेन्द्रिय तपस्वी जेणे पोतानुं मांस अने लोही शोषी नांख्यां होय, जेणे कपाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) अग्निनुं शमन करे होय, अने जेने निर्वाण प्राप्त ययुं होय तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२२]. “ जे अने स्थावर (हालत चालतां अने स्थिर) सर्व जीवने बराबर जाणे छे, अने तेनो त्रणे प्रकारे ( मन, वचन, कायाये) विनाश करतो नथी तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२३]. " जे क्रोधथी, हास्यथी, (मकरीमां पण ) लोभथी अथवा भयथी मृपावाद बोलतो ard अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२४]. " जे अदत्तादान लेतो नथी-पछी ते सचेत होय के अचेत होय, अथवा थोडं होय के घणं होय-तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२५]. “जे देव, मनुष्य अथवा तिर्यचनी साथै मन, वचन, कायाये करीने मैथुन सेवतो नथी, तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२६]. " जेम कमल पाणीमां उगे छे छतां तेनाथी अलिप्त (भींजाया वगरनुं रहे छे, म जे काम - भोगथी अलिप्त रहे छे तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२७]. १. Does not carnally love. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठ, अ २५ २०६ raig महाजी अणगारं अकिंचनं । असंसतं गिध्ये तंत्रयं बूममाहणं ॥ २८ ॥ जहिता पुष्यसंजोगं नाइ संगेय बंधत्रे । जोनसज्जइ एएस तंवयं बूममाहणं ॥ २९ ॥ पसूबंधा सव्ववेया जहुंच पावकम्मुणा । तं 1 1 दुस्सी कम्माणि बलवंति ॥ ३० ॥ नवि मुंडिएण समणो नओं कारेण बंभणो । न मुणी रन्नवासेण न कुस चीरेण तावसो ॥३१॥ समयाए समणो होइ बंभचरेण बंभणो । नाणोणए मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥ ३२॥ " जे (आहारा दिने विषे) लोलुप रहेतो नथी, जे अजाण्याने त्यांथी आहारादि व्हारी लावीने संयमनो निर्वाह करे छे, जे परिग्रह रहित होय छे, अने जे ग्रहस्थनो परिचय सेवतो नथी तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए. [२८]. “ जेणे पोतानो ( माता पितादि सानो) पूर्वसंयोग छांडी दीधी छे, जेणे ज्ञाति अने बांधवोनो संग छोडी दीघो छे अने जे काम भोगने विषे तत्पर रहे तो नथी, तेने अमे खरो ब्राह्मग कहीए छीए. [२९]. " हे विजयघोष! वेद पशु वध करी यज्ञ करवानुं कहे छे पण ते पापनां कारण रुपछे; ते दुःशील (पाप कर्म करनारनुं)रक्षण करी शकता नथी (हीणाचारी पुरुषने नर्के पडता रोकी शकता नथी) कारणके करेलां कर्म अति घळवान छे. (अर्थात- कर्मथी बचावनार कोइ नथी) [३०]." माथे मुंडन कराव्याथी कांइ श्रमण थत्रातुं नथी ओंकार (ॐ) भणह्मण वा नथी, अरण्ययां वास करवाथी कांई मुनि श्रवातुं नथी अने दर्भ (नुं आसन) अने वलकल धारण करवाथी कांड तापस (तपस्त्री) त्रातुं नथी. [३१]. “ (परंतु) समता मात्र राखे ते श्रमण, ब्रह्मचर्य सेवे ते ब्राह्मण, ज्ञान प्राप्त करे ते मुनि अने तपश्चर्या करे ना कवा छे. (३२). *मो. जेकोब एवो अर्थ करेछे के Who lives unknown जे अज्ञात रहिने पोतानुं जीवन गाळे छे. मूळ शब्द 'मुहाजीवी' छे. संस्कृत 'सुधाजीविनं', दीपीका टीकामां लखेलुं छे के 'अज्ञात गृहेषु आहारादि गृहीत्वा आजीविका कुर्वाणं संयम जीवितव्य धारकं . १ By the tonsure. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०० उ.अ./81 Sd a कम्मुणा बभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मणा ॥ ३३ ॥ एए पाउ करे बुद्धे जहिं होइ रिणायओ । सव्व कम्म विणिमुकं तंवयं बूममाहणं ॥ ३४ ॥ एवं गुण समाउत्ता जे भवंति दिउ त्तमा । ते सनथ्थासमुध्धतुं परं अप्पाण मेवय ॥३५॥ एवं तु संसए छिन्ने विजयघोसेय माहणो । समुदाय तउ ०७॥ तंतु जयघोसं महामुणिं ॥३६ ॥ तडीय विजयघोसो इण मुदाहु कयंजली | माहणत्तं जहाभूयं सुठु मे उब दसिय ॥३७॥ तुझे जइया जन्नाणं तुझे वेय विउविऊ । जोइसँग विऊतुझे तुझे धम्माण पारगा ॥ ३८ ॥ तुझे समथ्था समुध्धतुं परं अप्पाण मेवय । त मणुग्गहं करेअम्हं भिल्वेणं भिख्खु उत्तमा ॥३९॥ " कर्म प्रमाणेज ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य अने शुद्र कहेवाय छे. [ अर्थात-ब्राह्मणादि कुळमां जन्म थवाथी नहि, पण जेना जेवां लक्षण अथवा कृत्य होय तेवो ते गणावो जोइए 3]." [३३]. श्री तीर्थकर भगवाने उपर जे गुणो वर्णव्या छे ते सेववा थकी स्नातक (केवळी) थवाय छे जे सर्व कर्मथी मुक्त थयेलो होय तेने अमे खरो ब्राह्मण कहीए छीए." [३४]. “जे उपरना सर्व गुणे करी रे । युक्त होय ते द्विजोत्तम [उत्तम ब्राह्मण कहेवाय छे. अने ते पोताना तेमज अन्यना आत्माने तारवाने समर्थ थाय छे." [३५]. आ प्रमाणे पोताना संशयो दूर थवाथी विजयघोष ब्राह्मणे जयघोष मुनिनो सत्कार कर्यो अने तेमनो उपदेश स्वीकार्यो.२ [३६].: विजयघोष ब्राह्मण संतुष्ट थयो तेथी ते हाथ जोडीने कईवा लाग्यो के, “आपे ब्राह्मणत्वनुं खरं स्वरुप मने समजाव्युं छे." [३५]. " हे महामुनि: आप [कर्म] यज्ञना करणहार छो, वेदज्ञ पुरुषोमां आप सौंथी श्रेष्ट छो, आप ज्योतिष शास्त्रना जाण छ। अने आप धर्मना पारगामी छो." [३८]. आप पोते संसार-समुद्र सरवाने अने अन्यने तारवाने समर्थ छो; हे भिक्षुत्तम! कृपा करीने अमारे त्यांथी भिक्षा ग्रहण करो." [३९]. १.कूळनुं अभिमान राखी अनर्थ सेवनाराओए कृपालु भगवनना आ शब्दो हृदयमां कोतरी राखवा मोहए. २. Assented. mere ०००००००००००००००0000000000 1000००००.56 Jain Education Intemattonel For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prernamsut 2010 उ... न कजं मझ भिख्खणं विप्पं निख्खभसूदिया । माभमिहि भयाव घोरे संसार सागरे ॥४॥उबलेनी होइ भांगेमु 18 अभोगी नोव लिप्पइ । भोगी भमइ संसारे अभोगी विष्पमुच्चइ ॥४१॥ उल्लो सुकोय दो छूढा गोलया मट्टियामया। दोवि आवडिया कुडे जोउल्लो सोतथ्थ लगइ ॥४३॥ एवं लग्गति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा । विरत्ताउ नलग्गंति जहा सुकेउ गोलए ॥ ४३ ॥ एवं सो विजयघोसे जयघोसरस अंतिए । अणगारस्स निख्खंतो धम्मंसुच्चा अणुत्तरं 8॥ ४४ ॥ खवित्ता पुव्व कम्माइं संजमेणतवेणय। जयघोस विजयघोसा सिध्धिपत्ता अणुरारं तिबेमि ।। ४५ ॥ ॥ इति जन्नइज्जंनाम झयण पचविसमं समत्तं ॥ २५ ॥ ए सांभळीने मुनि कहेछे, “ भिक्षानी मने जरुर नथी. पण हे द्विज ! तुं शीघ्र दीक्षा ग्रहण कर; अने घोर संसार सागरने विषे परिभ्रमण करतो अटक, कारण के तेनुं [ सप्तभयरुपी ] क्मळ अति भयानक छे. [४०]. "काम भोगने विषे लेपरहेलो छे; जेओ भोग भोगवता नथी तेओ ए लेपथी खरडाता नथी अने जेओ भोग भोगवे छे तेओने संसारमा भ्रमण कर पडे छ; जेओ अभोगी छे तेओ संसारथी मुक्त थाय छे. (४१). "एक लीलो (भीनो) अने बीजो सूको एम माटीना बे गोळा लइने भीत साथे अफाळीए तो लीलो गोळो भीतने चोंटी रहे छ (अने मूको खरी पडे छे).[४२]. "एवी रीते दुष्ट बुद्धिनां अने काम लालसाबाळां 81 मनुष्यो संसारमा [कर्मने चोंटी रहे छे; पण जेभो काम भोगथी विरक्त छे तेओ माटीना सूका गोळानी पेठे चाँटी रहेता नथी." (४३). आ प्रमाणे जयघोष मुनिनी पासेथी सर्वोत्तम धर्म श्रवण करीने विजयघोष ब्राह्मणे दीक्षा ग्रहण करी. (४४). जयघोष अने विजयघोष बन्ने सत्तरभेदे संयम अने वार भेदे तप आदरोने, पोतानां पूर्व कर्मनो क्षय करीने, सर्वोत्तम सिद्ध गतिने प्राप्त थया. * पचीसमुं अध्ययन संपूर्ण. * * Glue. ०००००००००००००००००००००० ०००००००००००००००० an Educationa intematonal For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.8 अध्ययन २६. सामाचारी (शुद्ध आचार). ००००००००००००००००००००००००००० सामायारिं पवख्खामि सव्व दुख्ख पिमोख्खणिं । जंचरित्ताण निग्गंथा तिन्नासंसारसागरं ॥ १ ॥ पढमा आवसिया नामं बिइया होइ निसीहिया । आपुछणाय तइया चओथ्थी पडिपुछणा ॥ २ ॥ पंचमा छंदणानाम इछ्याकारोय छछ । सत्तमो मिछकारोय तहक्कारोय अठ्ठमो ॥ ३ ॥ अझुठाणंचनवमं दसमाउवसंपया । एसादसं गासाहुणं सामायारी पवेइया ॥ ४ ॥ गमणे आवस्सियं कुज्जा ठाणेकुज्जा निसीहियं । आपुछुणा सयंकरणे परकरणे पडि 9 अध्ययन २६. सामाचारी एटले शुद्ध करणी अथवा जे क्रिया सर्व दुःखथी मूकावे छे, तेनु हुं ( सुधर्मा स्वामी ) वर्णन करुं छ; जे अंगीकार करवायी निग्रंथो संसार-सागर तरी गया छे. [१], श्री तीर्थकर भगवाने साधुने माटे दश प्रकारनी सामाचारी कही छे :-(१) आवश्यकी, (२) नैपेधिकी, [३] आपृच्छना, (४) प्रतिपृच्छना, [५] च्छंदना, [६] इच्छाकार, [७] मिथ्याकार, (८)तथाकार, (९) अभ्युत्थान, अने [१०] उपसंपद [२-४]. कांइ आवश्यक (जरूरना) कार्य निमित्ते उपाश्रय थकी बहार जतां आवश्यकीनी, स्थानकमां प्रवेश करती वखते नैपेथिकीनी, पोताने करवाना कार्यमां गुरुनी आज्ञा मागवी तेमां आपृच्छनानी, अन्यना कार्य कारणे गुरुनी आज्ञा लेवामां प्रतिघृच्छनानी, पोतानी पासे [ अन्न, पाणी, आदि ] जे वस्तुओ होय ते लेवाने अन्य साघुओने निमंत्रण करवामां च्छंदनानी, पोतार्नु अथवा पोताने सोंपायेखें काम बीजानी इच्छानुसार सोपवामां इच्छाकारनी, कांइ अयोग्य कार्य थइ जाय तो 'मिच्छामी दुकडं ' देवामां मिथ्याकारनी, गुरु का कार्य बतावे ते 'तथास्तु' कही अंगीकार करवामां तथाकारनी, गुरु, आ ००००००००००००० 20कर ०००००००००००० 60९ Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ पुछुणा ॥ ५ ॥ छंदणा दव्य जाएणं इवाकारोय सारणे । मिलाकारोय निदाए तहकारो पडिस्सुए ॥६॥ अझुठाणं गुरुपूया अखणे उबसंपया । एवं दुपंचसंजुत्ता सामायारी पवेड्या ॥ ७ ॥ पुब्धिलंमि चउझार आइञ्चमि समुठ्ठिए । भंडयं पडिलेहित्ता बंदित्ताय तओगुरुं ॥ ८ ॥ पुछिज्जा पंजलिउडो किंकायचं मएइह । इछु निउइउभंते वेयावच्चे वसझाए ॥ ९ ॥ वेयावच्चे निउत्तेणं कायब मगिलायउ । सझाएवा निउत्तेणं सव्वदुख्ख विमोख्खणे ॥ १० ॥ दिवसस्स चउरोभाए कुज्जाभिख्खू वियख्खणे । तउ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसूावे ॥ ११ ॥ र्यादिनी विनय पूर्वक सेवा करवामां अभ्युत्थाननी अने ज्ञानादि मेळववाने माटे अन्य आचार्योनी पासे जवामां उपसंपद सामाचारीनी जरुर पडे छे. आरीते सामाचारीना द्विपंच दश बोल श्री तीर्थकर भगवाने वर्णव्या छे. १५-७]. सूर्योदय पछीना पहेला प्रहरना प्रथम भागमा एटले प्रत्येक प्रहरना चार सरखा भाग पाडी, तेना पहेला चोथा भागमां]पात्रादि वस्तुओ तपासीने तेनुं पडिलेहन कर. (पूंजवी); अने पछी गुरुने वंदन कर. [८]. त्यारपछी हाथ जोडीने गुरुने पूछवं के, " हे पूज्य ! शी आज्ञा छे? हे भन्ते! काइ कार्य [वैयावच ने विषे अथवा तो स्वाध्यायने विपे मने कामे लगाडो." [९]. गुरु काइ कार्य करवानो आदेश दे, तो ते कार्य ग्लानि रहित करवू, अथवा जो पापने निमूळ करनार* [ अथवा दुःखथी मूकावनार ] स्वाध्यायमा रोकावानी आज्ञा आपे तो तेम कर. [१०]. क्रिया-कुशळ साधुर दिवसना चार सरखा भाग [ प्रहर-पौरुषी] पाडीने प्रत्येक १ पौरुषीमां तेने योग्य उत्तर गुण [कर्तव्य कर्म ] आदरवा. [११]. २०००० ___ * आन बदले प्रो. जेकोबी एम अर्थ करे छे के सुख दुःखनो विचार कर्या सिवाय स्वाध्यायमां रोकावं. पण ते भुलछे 'सव्व दुक्ख विमोक्खणं' ए शब्दो स्वाध्याय-सझायना विशेषण रुपे छे. १. The fourth part of a day or night. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. पढमं पोरिसि सझायं विवियांझाणं झियायइ । तइयाए भिख्खायरियं चउथी भुज्जोवि सझायं ॥ १२ ॥ आसाढेमासे २६ दुपया पोमासे ओपया । चित्तासोएस मासेसु तिपया हवइ पोरिसी ॥ १३ ॥ 0000000 २११ प्रथम पौरुषीने विषे स्वाध्याय कर, वीजी पौरुषीने विषे ध्यान कर, श्रीजी पौरुपीने विषे भिक्षाचर्याने विषे जवं अने चोथी पौरुपीने विषे पाछा स्वाध्याय ( स्थंडिल, प्रतिलेखनादि ) मां मन लगाडं. [१२]. आषाढ मासमां रात्रिनी पौरुषीने वे पाया [द्विपाद] होय छे; पौष मासमां चार अने चैत्र तथा आश्विन मासमां त्रण पाया होय छे. (१३). पौरुपी एटले et अने प्रहर एटले रात्रि या दिवसनो चौथो भाग. अहोरात्रिना आठ भाग योजेलाछे. चार दिवसना अने चार रात्रिना एटले सामान्य रीते एक महर वग कलाकनो गणी शकाय. विषुवकाळमां एटले चैत्र अने आश्विन मासमां ज्यारे रात्रि अने दिवस सरख होय हे त्यारे दरेक पौरूषीना लग पाया-पग गाथामां कह्या छे, ते उपरथी सिद्ध थाय छे के प्रत्येक पायो एक कलाकat होत्रो जोइए. आषाढ मासमां रात्रिनी पौरुपीने वे पाया कथा छे ते उपरथी जणाय छे के सूत्र लखायां ते वखते आषाढ rani fat १६ काकनो अने रात्रि ८ कलाकनी होवी जोइए. अने पोष मासमां चार पाया कद्या छे तेथी ते मासमां दिवस ८ कलाको अने रात्रि १६ लानी होवी जोइए. वेदिक ज्योतिषमां पण आवीज गणतरी छे. हालना समयमा विषुवकाळ [ Equinox ] ता. २१ मार्च अने ता. २२ सप्टेम्बरना अरसामां आवे छे जे वखते दिवस रात्रि सरखां होय छे. लांबामां लांबो दिवस (Summer solstice ] ता. २१ जुन अने डंकामां को दिवस [Winter solstice] ता. २१ डिसेम्बरना अरसमां आवे छे. हालना अने गायामां दर्शाल समयनी गणतरीथी सूत्रो लखायाना काळं निर्माण शक्य होय तो तम करवानुं काम ज्योतिष अने गणित शास्त्री विद्वानोनुं छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000000 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुलं सत्तरत्तेण पख्खेणय दुअंगुलं । वढए हायए वावि मासेणं चउरंगुलं ॥ १४ ॥ आसाढे बहुलपख्खे भद्दवए कत्तिएय पोसेय । फगुण वइसाहेसुय नायव्वाउमरत्ताओ ॥१५॥ जेठामूले आसाढे सावगेछहिं अंगुलेहिं पडिलेहा। अहि बिइयतियंमी तइए दसहिंअहिं चउथ्थे ॥१६॥ रतिपि चउरो भाए भिख्खूकुज्जा वियख्खणो । तओ ओत्तर गुणे कुजा राइ भागेसु चउसुवि ॥ १७ ॥ पौरुषीमां प्रत्येक सप्तरात्रिए (सात सात दिवसे )एक *अंगुलनी प्रत्येक, पखवाडीए वे अंगुलनी अने प्रत्येक मासे चार अंगुलनी वधघट थायछे.(१४). आषाढ, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन अने वैशाख मासना कृष्णपक्ष अवमरात्रि एटले एक रात्रि ओछीनां होय छे. [ अर्थात ए महिनाओमां कृष्ण-पक्ष १४ रात्रिनु, अने महिनो २९ दिवसनो होय छे. [१५].. प्रथम त्रिमासिक १. एटले ज्येष्ठ, आपाढ अने श्रावण मासमां [ सुर्योदय पछीनी प्रथम पौरुषीना पहेला चोथा भागनी ] पडिलेहनादि क्रिया छ अंगुल [३० मिनिट ] सुधी वधारे लंबाववी; बीजा त्रिमासिकमां आठ अंगुल [४० मिनिट], त्रीजा त्रिमासिकमां दश अंगुल [५० मिनिट ] अने चोथा त्रिमासिकमा आठ अंगुल (४० मिनिट) सुघी लंबाववी.(१६). क्रिया-कुशळ साधुए रात्रिना पण चार सरखा al भाग पाडवा, अने चारे भागमा ( प्रत्येक पौरुषीने योग्य ) कर्त्तव्य-कर्म करवू. (१७). * A digit अंगुल एटले एक आंगळ-एक इंच-फूटनो बारमो भाग ए हिसाबे एक कलाकनो बारमो भाग. पायोकलाक अंगुल-पांच मिनिट. १ गाथामां दर्शावेल छ महिनानां पखवाडियां चौद दिवसनां होय छ भने बाकीना छ महिनानां पख्वाडियां | पंदर दिवसनां होय छे ए हिसावे चंद्र वर्ष ३५४ दिवसर्नु गणाय. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ०००००००००००० पढमे पोरिसि सझायं बिइयंझाणंझियायइ । तइयाए निदमोख्खंच चउथ्थी भुज्जोविसझायं ॥१८॥ जंनेइ जयारतिं ।। उ.अ.2 नख्खत्तंतंमिनह चउझाए । संपत्ते विरमिज्जा सझायं पउसकालंमि॥१९॥तम्मेवय नख्खत्ते गयण चउभाग सावसेसमि। वेरत्तियांप कालं पडिलेहित्ता मुणीकुब्जा ॥२०॥पुविल्लंमि चउम्भागे पडिलेहिताण भंडगं। गुरुं वंदितु सझायं कुज्जा | दुख्ख विमोख्खणं ॥२१॥ पोरसीए चउझाए वंदित्ताण तओगुरुं । अपडिक्कमित्ता कालस्स भायणं पडिलेहए ॥२२॥ प्रथम पौरुषीमा स्वाध्याय करवो, बीजी पौरुषीमां ध्यान धर. त्रीजी पौरुषीमां (ने अंते) निद्राथी मुक्त* थर्बु अने चोथी 8 पौरुषीने विषे पार्छ स्वाध्यायमा मन लगाडवं. (१८). जे नक्षत्रे रात्रि पूर्ण थती होय ते नक्षत्र ज्यारे आकाशना चतुर्भागे पहोंचे त्यारे स्वाध्यायथी विरम.[१९]. आकाशना जे चतुर्भागमां ते नक्षत्र होय तेनो शेष भाग बाकी रहे ते वैरात्रिक अथवा प्रदोषकाळ (सुर्योदय पहेलांनो काळ एटले परोढी) गणातो होवाथी तेमां मुनिए प्रतिलेखन (पडीलेहन) करवं. (२०). प्रथम पौरुषीना प्रथम पायामां ( कलाकमां ) वस्त्रादि तपासीने तेनु पडिलहण करवू, पछी गुरुने वंदन करवु अने त्यारपछी पापने निमूळ करनार [ दुःखथी मूकावनार ] जे स्वाध्याय ते आदर,२ (२१). प्रथम पौरुषीना चोथा भागमां गुरुने वंदन करवू अने आलोयणा लेवा (काल प्रतिक्रमण करवा ) न रोकाता 3 साधुए पोतानां पात्रादि विधि पूर्वक पडिलेहन कर. [२२]. ____* मुनिओए केटले सुधी प्रमादने पडखे न च्डर्बु ए आ उपरथी समजी शकाय छे. वपोरे निरांते पोढी जनारने आ शब्दो सविनय समर्पण हो. जे नक्षत्र सूर्यनी बराबर सन्मुख होय ते एटले स्वाभाविक रीते ते नक्षत्रनो सूर्यास्त समये उदय थाय अने सूर्योदय समये तेनो अस्त थाय. २ मो. जेकोबी अहिं पण दशमी गाथा जेबो अर्थ करेछे. प्रथम पौरुषीना प्रथम त्रण भागमा का वस्त्रादितुं पडिलहन तथा स्वाध्याय करेल तेमा लागेला दोषो आळोववा प्रतिक्रमवा ते वखते न रोकातां काम आगळ चलाववं कारण दीवस दरम्पाननां बधा कार्योनी आलोयणा सांजरे भेगी लेवानी छे. ००००००००००००००० For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००० ००००००००००००००००००००००००००००००. मुहपोति पडिलेहिता पडिलहिज गुगं ।गुडगलाइयंगुलिउ वथ्थाई पडिलेहए ॥ २३ ॥ उद्बुधिरं अतुरियं पुव्वं तावथ्थमेव पहिलेहे । तोबिइयं पपफोडेज्जा तइयंच पुणो पमज्जिज्जा ॥ २४ ॥ अणचावियं अवलियं अणाणुबंद्धि अमोसलिं चेव । छप्पुरिमानवरकोडा पाणिपाणि विसोहणं ॥ २५ ॥ आरभडा सम्महा वज्जयब्वाय मोसली तइया। पपफोडणा च उथ्थी विस्वीचा वेइयाछठा ॥२६॥ प्रथम मुख बलिका [मुहपत्ती] अने पछी गुच्छार्नु पडिलेहन करवं. त्यारपछी गुच्छाओ आंगळीओ वति झालीन वस्त्रना पड पडिलेहवा. [२३]. जमीनने अडके नहि ? एवी रीते प्रथम वस्त्रने स्थिर अने दृढ पकड अने धीमे रहिने तपासवं, पछीथी तेनां पड पहोळां करवां अने छेवटे पुजबु. (२४). वस्त्रने हलाव्या अथवा मसळ्या विना एवा रीते पहोळु कर के जेथी तेनी घडी छूटी थइ जाय अने वस्त्रना पड एक वीजा साथे घसाय नहि. नव २ अखाड, नव पखोड अने छ ४ पूरिमानी पद्धतिए द्रष्टियी बराबर तपास्या पछी तेनुं पडिलेहन कर अने पछीथी हाथने विषे जीव जंतु होय ते शोधीने दूर करवां [२५]. [2] कार्यनो आरंभ करवामां, ६.(२) वस्त्रना खुणा परस्पर मेळववामां, [३] वस्त्रनी घडी करवामां, (४) रज खंखेरवामां, [२] चारे वाजु नजर फेरवतां बनने नीचे मुकवामां, (पडिलेहेला वस्त्रने अग पडिलेहेलां वस्त्र के धरती उपर मूकवामां) अने [६]वेदिका५ (घुटणभर वेसी पडिलहन करवामां)ए छ प्रकारे पडिलहन करवाया गमावनो दोष टाळवी. (२६). १. आने बदले प्रो. जेकोबी लाखे छे के-सीधा उभा रहीने. २-३-४ 'आच्छोहन, पस्फोहन, पूरिभा' वस्त्राने झाटकवां फेरवां वीगरेनी वारिक विधिो छे. ए संभदाय गम्य होवाथी अत्र विस्तार कर्यों नथी शिथिलता छांडी सावधानता राखवा माटेज पाये विशेष स्पष्टिकरण करेलुछे. श्री ठाणांगजी सूत्रमा आ संबंध विस्तार पूर्वक विवेचनछे जे श्रावको करतां साधु मुनीराजने विशेष उपयोगी छे. आ पछीनी त्रण गाथामां पण एज बावतंछ. ५ वेदिकानो मूळ अर्थ ओटलो. अहिं धुंटणपर बेसवानो भावार्थ लेवानो छे. दीपिका टीकाशं पांच प्रकारे वेदिका वर्णवेली छे. " उधवेदिका, अधोवेदिका, तिर्यगवेदिका, उभयवेदिका, एकवेदिका" घंटण उपर बे के एक हाथे जुदी जुदी रीते राखीने पडिलेहन करे तो दोप लागे छे. ०००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २६ २१५ पसिढिल पलंच लोला एगा मोसा अणे गुरुव धुणा । कुणइ पमाणे पमायं संकिए गणणोगं कु ॥ २७ ॥ अणुणाइ रित्त पडिलेहा अविवच्चासा तहेवय । पढमं पयं पसथ्यं सेसाणिउ अप्प सथ्याणि ॥ २८ ॥ वस्त्रने शिथिलपणे पकडे, अथवा वखने मात्र एक खुणेथीज पकडे, अथवा तो जमीन साथे तेने फडफडवा दे-घसावादे, ' अथवा छेडा झाली एकदम खने पहोकुं करे अथवा तेने त्रण पुरिमानी विधि उपरांत आम तेम हलावे अथवा तो खोडादी प्र पाणने विषेप्रमाद करे अने भुल पडवाची आंगळी वति गणे आ सवळा प्रतिलेखनना दोष गणीने ते त्यागवां जोइए. १ (२७), पडिल हन न्यूनाधिक एटले वतुं हुं करं नहि भने विपरित रीते पण करतुं नहि. पडिलेहन करवानो ए खरो मार्ग छे, बीजा वधा भांगा खोटा छे. (२८). १.२५,२६,२७ बीगेरे गाथानी बारीकीथी प्रो. जेकोत्री पण मुंझाइ जायंछ अने जाहेर वारेछे के Much in my translation is conjectural. There are some technicalities in these |_understand_clearly........I am not sure of having bit the true meaning. verses which I fail to Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Scorecor♠♠♠♠♠♠♠♠♠००० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०० १०००००००००००० ०००००००००० पडिलेहणं कुणतो मिहो कहं कुणइ जणवय कहवा । देइ वपञ्चखाणं पाएइ सय पडिलाइवा ॥२९॥ पुढवी आउ काए तेउ वाउ वणस्सइ तसाणं । पडिलेहणा पमत्तो छण्हंपि विराहउ होइ ॥३०॥ पुढवी आउ काए तेऊ वाऊ वण. रसइ तसाणं । पडिलेहण आउत्तो छण्हांप आराहउ होइ ॥३१।। तइयाए पोरसीए भत्तपाणं गवेसए । छह मन्न| यरागंमि कारणं मिसमुट्ठिए।।३२॥वेयण वेयावच्चेइरियठाएय संजमठाए । तह पाण वशियाए छटुंपुणधम्मचिंताए ॥३३॥ पडिलेहन करती वखते कोइनी साथै वातचित करे, * कोइने पञ्चखाण करावे* अथवा ते वखते पोते काइक वांचे अथवा 8 वीजा वांचे ते पोते सांभळे प्रतिलखन करवामां एवो प्रमादवंत साधु [१] पृथ्वीकाय, (२) अपकाय, [३] तेउकाय, [४] वायुकाय, 18 (५) वनस्पतिकाय अने (६) सकाय ए षटकायनो विराधक (हिंसक) थाय छे पण जे साधु सावधानपणे पडिलहन करे छे ते ए पटकायनो रक्षक थाय छे. (२९.३१)१.त्रीजी पौरुषीने विष ध्यान मुक्त थइने]साधए गोचरीनां नीचे लखेलां छ कारण पैकी एकाद कारणने लइने आहार पाणीनी गवेषणा करवी :-[३२]. (१) वेदनानु उपशमन [शान्ति] करवा माटे, [२] गुरुने वास्ते आहारपाणी लाववा माटे, [३]२ इर्यासमिति बराबर पळाय तेटला माटे [४] संयमना निर्वाह अर्थे (५) ४ पोतानो जीव बचाववा अर्थे अने [६] धर्म-ध्यान करी शकाय तेटला माटे. (३३). * आने बदले प्रो. जेकोबी एको अर्थ करेछे के पोते काइक वस्तुनो त्याग करे' Renounces something. 'देइ पच्चख्खाणं' ए शब्दोनो भावार्थ पोते नहि पण बीजाने पच्चखाण कराववानोछे. मतलब ए छे के ए वखते बीजे क्यांइ पण ध्यान दोडवू न जोइए. १ प्रो. जेकोबीए गाथा ३०-३१ उलटी सुलटी लखी छे, पण आ भाषान्तरमा सूत्रनो अनुक्रम साचव्यो छे अने त्रणे गाथानो परस्पर संबंध होवाथी ते भेगी लखी छे. २ भूख तरसथी पाडातो साधु इर्यासमिति (हालवा चालवामां सावचेती) पाळी शके नहि.३ Self control बहु भुखथी पीडायतो प्रसंगे असुझतो आहार लेवा आकर्षाय, ४ भूख तरस वेठीने जीव काढवाथी आत्महत्यानो दोपं लागे तेनाथी बचवा माटे. 98००८ ००००००० ०००००००००००००००००००००० For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथो धिइमंतो निग्गथिपि नकरिज्ज छहिंचेव । ठाणेहिंतु इमेहिं अणइक्कमणाय से होइ ॥ ३४ ॥ ओयक | उवसग्गे तितिवया वंभचेरगुत्तिसु । पाणिदया तवहेऊ सरीर वुच्छेयणठाए ॥ ३५ ॥ अवसेसं भंडगं गिझ चख्खूसा पडिलेहए । परमड जोयणाओ विहारं विहरए मुणी ॥ ३६ ॥ चउथ्थीए पोरिसीए निखिवित्ताण भायणं । संझायं २११३ तउ कुज्जा सव्वभावविभावणं ॥ ३७॥ पोरिसीए चउझाए वंदित्ताण तउ गुरुं । पडिक्कमित्ता कालस्स सिज्जंतु पडिलेहए ॥ ३८ ॥ धैर्यवान निग्रंथ अथवा निग्रंथी [ साधु अथवा साध्वी ] नीचेनां छ कारणोने लीधे आहार पाणीनी गवेषणा न करे तो तेणे संयम योगर्नु अतिक्रमण ( उल्लंघन ) कयु गणाय नहि :-(३४). (१) ज्वरादि रोगने लीधे, (२) उपसर्ग [आफत] ने लीधे, [३] १ ब्रह्मचर्य अने गुप्तिनी तितिक्षा रक्षण ने लीधे, [४]२जीवदया अर्थे, (५) तपश्चर्या अर्थे अने (६)3 शरीर-विच्छेद अर्थे.[३५]४ सर्व भांडक पात्र उपगरणादि साधुए प्रथम पोतानां चक्षुवति पडिलेहवां अने त्यारपछी [भिक्षार्थे] विचर, पण अरधा योजनथी वघारे दूर जवू नहि. (३६). चोथी पौरुषीने विषे आहार पाणी करी लइने पातरां वगेरे पडिलेहीने मूकी देवां अने त्यारपछी सर्व I पदार्थर्नु प्रकाशक जे स्वाध्याय ते आदर. [३७]. चोथी पौरुषीना छल्ला भागमा गुरुने वंदणा करवी अने पछी काल-प्रतिक्रमण करीने पाट वगेरेनु पडिलहन करवं. (३८). १जे वखते खानपानथी इन्द्रिओ काबुमा रही शक्ती न होय अने ब्रह्मचर्य अने गुप्तिनी रक्षा थइ शके तेम न होय तेवे प्रसंगे आहार पाणीनो निषेध ए दोष गण्यो नथी. २. वर्षा रुतुमा व्होरवा जवू पडे तो वनस्पति, अपकायादि जीवनी विराधना थाय मारे. ३. उचित काले खानपान तजीने, अनशन करीने, संथारो करवो तेमां दोष गणेलो नथी. ४. आ अध्ययनमा १५, १६, १९,२०, २४, २६, २७, २९, ३३, ३४, ३५ ए गाथाओ आर्या छंदमा छे. बाकीनी गाथाओ श्लोकोमा छे. ०००००००००००००००००००००००००००००० ।२८ For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २६ २१८ पासवणुच्चार भूमिं पडिले हिज्ज जयं जई । काउसग्गं तओ कुज्जा सब दुख्ख विमोखणं ॥ ३९ ॥ देसियंच अइयारं चिंतिजा अणुपुव्वसो । नाणेय दंसणेचेव चरित्तमि तहेवय ॥४०॥ पारिय काउस्सगो वंदिताण तओ गुरुं । देवसितु अइयारं आलोएज्जजहक्क || ११|| पडिक्कमित्ता निसो वंदिताण तर गुरूं । काउस्सग्गं तर कुज्जा सव्व दुख्ख विमखणं ॥ ४२ ॥ पारिय काउस्सग्गो बंदिताण तउ गुरूं । थुइ मंगलंच काओणं कालं संपडिलेह ॥ ४३ ॥ पढमं पोरिसि सझायं बिइयंझाणंजियायई । तइयाए निदमोख्खंतु सझायंतु चउथ्थी ॥ ४४ ॥ पनवासाळ मूत्रादि नांखवानी जगो तपासी लेवी अने त्यारपछी [ सूर्यास्त थतां सुधी ] सर्व दुःखथी मूकवनार काउसग ( कायोत्सर्ग ) करवो. [३९]. त्यारपछी आखा दिवस संबंधी अनुक्रमे ज्ञान, दर्शन अने, चारित्रने विषे जे जे २ अतिचार लाग्या होय तेनुं चिंत्वन कर. (४०) काउसम्म पारीने अने गुरुने वंदना करीने पछीथी दिवस संबंधी जे जे अतिचार लाग्या होय ते यथाक्रमे आलोचवा ( क्षमा माटे मनमां कबुल करी जवा). [४१]. प्रतिक्रमण सूत्र भणीने अने शल्य (पाप) रहित थइने गुरुने वंदणा करवी अने त्यारपछी सर्व दुःखथी मूकावनार काउसग्ग करवो. (४२). काउसम्म पारीने अने गुरुने वंदना करीने स्तुतिना त्रण पाठ भणवा अने पछी उ काल-पडिलेहन कर. (४३). रात्रिनी प्रथम पौरुषीमां स्वाध्याय करवुं, बीजी पौरुषीमां ध्यान धरयुं, त्रीजी पौरुषीमां [ने अंते] निद्रार्थी मुक्त थवं अने चोथी पौरुषीमां पाछा स्वाध्यायमां मन लगाडं. [४४ ] . १. आने बदले प्रो. जेकोबी आगळ माफकज अर्थ करे छे के ' सुख दुःखनो विचार कर्या बिना ' जुओ गाथा १० मी. २. Transgressions ३. असझाय दोष न लागे माटे दिशाओ मां झाकळ, धुमस वीगेरे छे के नहि ते तपासी जवं, कारण पछी 'सझाय' करवानुं फरमान छे. प्रो. जेकोबी ए माटे 'Wait for the proper time' ए शब्दो वापरे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २६ २१९ पोरसि चउथिए कालंतु पडिलेहए । सझायंतु तउकुज्जा अबोहंतो असंजए ॥ ४५ ॥ पोरसिए चउझाए वंदित्ताण तउगुरूं । पडिक्कमित्ता कालरस कालंतु पडिलेहए ॥ ४६ ॥ आगए कायबोसग्गे सव्य दुख विमोख्खणे काउरसगं तओ कुज्जा सव्वदुख्खविमोख्खणं ॥ ४७ ॥ राइयंच अईयारं चिंतिज्जा अणुपुव्यसो नाणंमि दंसंणमि चरितंमि तवंमिय ॥ ४८ ॥ पारिय काउसग्गो वंदिताण तउगुरूं । राइयंतु अइयारं आलोएज्ज जहक्कमं ॥ ४९ ॥ पडिक मितु निसल्लो वंदिताण तउगुरुं । काउसग्गं तउकुज्जा सब्बदुख्ख विमख्खणं ॥ ५० ॥ चोथी पौरुषीने विषे १काल - पडिलेहन करीने? असयंती एटले २* ग्रहस्थाने जाग्रत कर्या सिवाय २* स्वाध्याय कर. (४५). चोथी पौरुषीना छल्ला पायामां गुरुने वंदना करीने काल-प्रतिक्रमण करं अने * ३ते समयने योग्य क्रिया करवी ३* [ ४६ ]. सनो समय आवी पहोंचे त्यारे सर्व दुःखथी मुक्त करनार जे काउसरग ते करवो. [ ४७ ]. त्यारपछी रात्रि संबंधी अनुक्रमे ज्ञान, दर्शन अने चरित्रने विषे जे जे अतिचार लाग्या होय तेनुं चिंत्वन कर. [४८]. काउसग्ग पारीने अने गुरुने वंदना करीने पछी रात्र संबंधी ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना जे अतिचार लाग्या होय ते यथा क्रमे आलोचवा. (४९) प्रतिक्रमण पूर्ण करीने गुरु वंदन की बाद, दिवस संबंधी जे जे अतिचार लाग्या होय ते यथाक्रमे आलोचवा [क्षमा माटे मनमां कबुल करी जवा]. ५०. १४३मी गाथा मुजब असझाय दोष न लागे माटे दिशाओ तपासवी. २उंचे स्वरे वांचे तो ग्रहस्थो जागी जाय अने पोताना धानो आरम्भ करे तेनो दोष साधुने लागे माटे. ३ आने बदले प्रो. जेकोबी लखे छे के “ योग्य काळनी राह जोइने बेसं ". Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. किंतवं पडिवजामि एवंतथ्थ विचिंतए । काउस्सग्गंतु पारित्ता वंदइय तउगुरुं ॥५१॥ पारिय काउसग्गो वंदित्ताण । तओगुरुं । तवं संपडिवजित्ता करिज्जसिद्धाण संथवं ॥ ५२ ॥ एसा सामायारी समासेण वियाहिया । जंचरित्ता | बहुजीवा तिन्ना संसारसागरं तिबेमि ॥ ५३ ॥ ॥ इति सामायारीनाम झयणं छविसमं सम्मत्तं ॥ २६ ॥ ॥ मारे केवा प्रकारनुं तप करवू ते बाबत चिंत्वन कर. काउसग्ग पार्या पछी गुरुने वंदणा करवी. [११]. कायोत्सर्ग कर्या 18 पछी अने गुरुने वंदणा कर्या पछी उपवासादि जे तप करवानुं नक्की कर्यु होय ते आदरयुं अने सिद्ध पुरुषोनी ( तीर्थकरोनी ) स्तुति करवी. (५२). आ प्रमाणे सामाचारी, संक्षिप्त वर्णन कर्यु छ, जे अंगीकार करवाथी घणा जीवो संसार-सागर तरी गयाछे, cooooooooooosepotrsons * छब्बीसमें अध्ययन संपूर्ण.. * For Personal and Private Use Only www.o rary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २७ २२१ अध्ययन २७. गलिया बळद. थेरे गहरे गग्गे मुणी आसि विसारए | आइन्ने गणभावमि समाहिं पडिसंघ ॥ १ ॥ वहयेवमाणस्स कंतारं अइवचइ । जोए वहमाणस्स संसारो अइवतई ॥ २ ॥ खलुंके जोओ जोएइ विहमाणो किलिस्सई । असमाहिंच बेएई तोत्तएय सेभज्ञ्जइ ॥३॥ एवं डंसइ पुलमि एगं विधइ अभिख्खणं । एगोभंजइ समिलं एगो उपह 11811 अध्ययन २७. गर्ग नामे १ स्थविर, २ गणधर अने सर्व शास्त्र निपुण मुनि हता. ते गर्ग गणधर एक वखत निचे प्रमाणे चिंत्वन करवा या :- (१). 'रथने सारा वळद जोडवाथी अटवी (अरण्य )नो पार पमाय छे; तेम संयम मार्गने विषे ( सदाचारथी ) गार्ड चाववाथी संसारनो पार पमाय छे. ' (२). ' पण जे कोइ ४ गलिया बळदने पोताने गाडे जोडे छे ते तेमने मारी मारीने थाकी जाय छे, तेने क्लेश उपजेछे अने भाखरे तेनो परोणो पण भांगी जाय छे. ' [३]. '" रुठेलो सारथी दांतवति गलिया बळदनुं पूंछ करडे छे अने तेने आरवति दधे छे; ते वळद धुंसरीनी समिला (मेख) भांगी नांखे छे, अने आडे मार्गे (उन्मार्गे) दोडवा मांडेछे. ४ १ स्थविर =धर्मने विषे स्थिर अथवा द्दढ. २ गणधर गण अथवा गच्छनो धारक, तीर्थंकर भगवानना गणधरना अर्थमा ए शब्द अहिं वपरायेल नथी. ३ आने बदले प्रो. जेकोबी एम लखे छे के 'गाडामां बेसवाथी अटवीनो पार पमाय छे. ४ Strong but lazy bull. ५ आटला भागनुं भाषान्तर मो. जेकोबी एवी रीते करे छे के ' गलियो चळद पोताना जोडिया बळदनुं पूंछ करडे छे अने तेने घायल करेछे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jairy.org Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । एगोपडइ पासणं निवेसे निवज्जइ । उक्कुइइ उफ्फिडइ सढे बालगविचए ॥ ५॥ माइ मुद्धेण पडइ कुद्धे गड्डइ पडिपहं । मयलख्खेण चिद वेगेणय पहावइ ॥६॥ छिन्नालेछिदइ सिल्लिं दुईते भंजइजुगं । सेविय सुरसु । २२२६] याइत्ता उज्जहित्ता पलायइ ॥ ७ ॥ रूग्लुका जारिसाजोज्जा दुस्सिसाविहुतारिसा । जोइया धम्मजाणंमि भजतिधिइ al दुब्बला ॥८॥ इवीगारविए एगे एगेथ्य रसगारवे । साया गारविए एगे एगेसुचिर कोहणे ॥९॥ गलियो बळद पडखा भेर पडी जाय छे, अथवा बेसी जाय छ, अथवा सूइ जाय छे, अथवा कूदवा अने ठेकवा मांडे छे, 18 | अथवा तो ए बाल गायने देखीने तेनी पाछळ दोडे छे. (५). “गलियो बळद कोइ उपर हुमलो करवा जतो होय तेवी रीते माथु । 18 नीचुं नमावीने जुस्साथी आगळ धसे छ, अथवा तो क्रोधी पाटो हठे छ; अथवा तो मृत्यु पाम्यो होय तेवो ढोंग करीने १ पृथ्वी 18 | उपर पडे छे अथवा तो वेगथी दोडे छे. (६). ते दुष्ट बळद राश तोडी नाखे छे अथवा तो ते शिरजोर बळद धुसरी भांगी नांखे । छ; अने ते बराडा पाडतो छूटो थइने न्हासी जाय छे. [७]. जेवी रीते गलियो बळद रथमां जोडावाथी क्लेश उपजावे छे, तेम दूष्ट [विनय-रहित ] शिष्यो पण धर्मरुपी रथमां जोडाइने पोतानी अस्थिर २ वृत्तिने लीधे संयम मार्गनो भंग करे छे. (८). कोद शिष्य मानरुपी रिद्धिनो गर्वित होय छे, कोइ रस-गर्वित [ स्वाद लंपट ] होय छे, कोइ शाता-गर्वित होय छे तो कोइ सुचिर-क्रोधी [ दीर्घ-रोपी ] होय छे. [९]. ०७ 00000000००००००००००००००० १ आने बदले प्रोफेसर जेकोबी लखे छे के “ स्थिर उभो रहे छे" पण मूएलो बळद स्थिर उभो रहे ते संभवे नहि. 1:1 ? Want of Zeal. Jan Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २७ १२३ भिख्खालसिए एगे एगे उमाणभीरुएथडे । एगंच अणुसासंमि हेऊहिं कारणेहिय ॥१० ॥ सोविअंतर भासिल्लो दोसमेव पकुवइ । आयरिआणं तंत्रयणं डिकूलेइ अभिख्खणं ॥ ११ ॥ नसामंमं वियाणाइ नविसा मझंदाहिइ । निग्गयाहो हिमन्ने साहु अन्नो वच्च ॥ १२ ॥ पेसियापलिउंचति ते परियंति समंतओ । रायवेठ्ठीच मन्नंता करिति भिडिंमुहे ||१३|| वाइया संगहियाचेत्र भत्तपाणेय पोसिया । जाय पख्खा जहाहंसा पक्कमति दिसोदिसिं ॥ १४ ॥ अह सारहिं विचिंतेइ खलुकेहिं समागओ । किंमझ दुठुसीसेहिं अप्पामे अवसीयइ ॥ १५ ॥ कोइ भिक्षा मागवा जवाना आळसु होय छे, तो कोइ अपमानथी डरीने स्तब्ध बेसी रहेछे; एवा कुशिष्योने हेतु अने कारणोथी हुं केवी रीते समजावी शकुं ?' [१०]. 'एवा कुशिष्यो गुरुना शिक्षणमां दोष काढे छे, तेमांथी खोटी खोटी कल्पीत मुइकेलीओ काढी बतावे छे अने आचार्यनां वचनथी वारंवार प्रतिकुल रीते वर्त्ते छे. [११]. 'गुरु तेने कोइ ग्रहस्थने त्या आहारादि व्होर ने मोकले तो एम कछे के 'ते श्राविका मने ओळखती नथी; ते मने कांइ देशे नहि ; हुं धारुं छं के ते घेरथी बहार गइ शे; ए कार्यने माटे बीजा कोइ साबुने मोकलो. ' (१२). ' गुरुए एवा कुशिष्योने का काम करवा मोकल्या होय तो ते बतावे काम करता नथी, पण पोताने फावे त्यां भटक्या करे छे, अथवा तो राजाना वेठिया ( नोकरो ) नी माफक (स्वावथी) बर्सेछे अने भ्रकुटी चढावे छे. [१३]. ' एवा कुशिष्योने शास्त्राभ्यास कराव्यो, सम्यक धारण कराव्युं, खानपानथी पोषण कर्यु; पछी हंसनां चांने पांखो आववाथी जेम [ पोतानां मावापने छोडीने ] ते उडी जाय छे, तेम एवा कुशिष्यो ( पोताना गुरुना त्याग करीने) दशे दिशामां यथेच्छ विहार करे छे. [१४]. हवे ते सारथी (गर्गाचार्य) विचार करे छे के 'मन गलिया बळद जेवा कुशिष्यो मळेला छे. एवा दुष्ट शिष्योनुं मारे शुं कर ? तेमनाथी मारो आत्मा केश पामे छे. [१५]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २८ २२४ जारिसा ममसीसाओ तारिसा गलिगद्दहा । गलिगदहे चहत्ताणं पगिन्हइतकं ||१६|| मिउ मद्दवसंपन्ने गंभिरे सु समाहिए । विहरइ महिं मइप्पा सीलभूएण अप्पणो सिबेमि ॥ १७ ॥ ॥ इति खलुकियंनामं झयणं सत्ताविसं सम्मतं ॥ २७ ॥ अध्ययन २८. मोक्ष मार्गनी प्राप्ति. मोख्खमग्गगई तच्चं सुणेह जिणभासियं । चउकारण संजुत्तं नाण दंसण लख्खणं ॥ १ ॥ नाणंच दंसणंचैव चरितंच तोता । एस मग्गोति पन्नतो जिणेहिं वरदं सिंहिं ॥ २॥ ' मारा शिष्यो गलिया बळद जेवा छे; माटे ए सुस्त गधेडाओनो त्याग करीने हुं दृढ तप आदरीश. (१६). मृदु मार्दव गुण संपन्न, [ एटले विनयवान अने कोमळ अंतःकरण वाळा ] गंभीर अने समाधि संयुक्त महात्मा [ गर्गाचार्य ] शीलयुक्त वर्तनथी पृथ्वीने विषे विचरवा लाग्या. (१७). *।। सत्तावीशमं अध्ययन संपूर्ण ॥* अध्ययन २८. हे भव्य जीवो ! श्री जिन-भाषित मोक्ष-मार्गनी सत्य गति तमे सांभळो; तें चार कारणे करीने संयुक्त छे अने ज्ञान, दर्शननां लक्षणे करीने सहित छे. (१). [१] ज्ञान १, [२] दर्शन २, [३] चारित्र अने [४] तप; ए मुक्ति-मार्ग, विशिष्ट, सम्यक ज्ञानना धरणहार श्री तीर्थंकर भगवाने को छे. (२), Right knowledge. Faith. Conduct, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २८ २२५ नाणंच दंसणंचे चरितंच तवोतहा । एयमग्ग मणुप्पत्ता जीवा गर्छुति सुग्गई ॥ ३ ॥ तथ्थ पंचविनाणं सुयं आभिणिबोहियं । उहिनाणं चतइयं मणनाणंच केवलं ॥ ४ ॥ एयं पंचविह्नाणं दव्वाणय गुणाणये । पज्जवाणंच सव्वेसिं नाणं नाणिहिं देखियं ॥ ५ ॥ गुणाण मासयो दव्यं एगदव्वसिया गुणा । लख्खणं पज्जवाणंतु उभउ अस्सियाभवे ॥ ६ ॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप; ए मुक्ति-मार्गने विषे चालनारा जीव १ सद्गतिने पामे छे. [३] १ ज्ञान :- ज्ञानना पांच भेद छे:- (१) २ श्रुत ज्ञान, (२) अभिनि बोधिक अथवा मति ज्ञान, (३) अवधि ४ ज्ञान, [४] मनः पर्यव-ज्ञान) अने [५] केवल-: ज्ञान. [ ४ ]. ए प्रमाणे पांच प्रकारनुं ज्ञान छे. द्रव्य, गुण अने पर्याय ए सघळा भेदनुं ज्ञान श्री ज्ञानी पुरुषोए कहयुं छे. [५]. गुणनो आश्रय ते द्रव्य रूपादिक गुण एक द्रव्यने आश्रये रहे छे; पण पर्यायनुं लक्षण एवं छे के ते द्रव्य अने गुण बन्नेनुं आश्रित छे.७ [६]. १ Will obtain beautitude. २ श्री नंदी सूत्र वीगेरेमां प्रथम मति ज्ञान अने बीजुं श्रुत ज्ञान लेवामां आवेल छे. सर्व ज्ञानना हेतु रुप सूत्र ज्ञान होवाथी ते विशेष उपकारी गणाय छे ए अपेक्षाए अहिं प्रथम लीघेल छे. सूत्रो सांभळवाथी जे ज्ञान प्राप्त थाय ए श्रुत ज्ञान कहेवाय छे. ३ पांच इन्द्रि अने छठा मनथी जे ज्ञान थाय ते. ४ इंद्रियादिकनी अपेक्षा विना आत्माने विषे जे साक्षात् प्रत्यक्ष ज्ञान थाय ते. अवधिनो अर्थ मर्यादावाचक पण थाय छे. अमुक हद सुधीनं जाणे देखे वे ज्ञान. ५ ते 'मन पर्याय' नामी पण प्रसिद्ध छे. संज्ञी पर्चेद्रि जीवना मनना भाव जाणी शकाय ते ज्ञान. ६ सर्वोत्तम ज्ञान. सर्व स्थळे सघळु जाणे देखे ते. ७ प्रो. जेकोबीना आ माटेना शब्दो असरकारक छे. Substance is the substrate of qualities, the qualities are inherent in one substance; But the characteristic of developments is that they inhere in either (viz substances or qualities). Jain Educatiemational For Personal and Private Use Only www.jejnary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००००.... उ.अ. धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एसलोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिंवर दसहि ॥ ७ ॥ धम्मो अहम्मो 8 आगासं दव्य इक्विकमाहियं । अणंताणिय दव्याणि कालो पुग्गल जंतवो ॥ ८ ॥ गइ लख्खणोउ धम्मो अहम्मो 8 18 ठाण लख्खणो। भायणं सव्व दव्वाणं नहं ओग्गह लख्खणं ॥ ९ ॥ वत्तण लख्खणो कालो जीवो उबओग8 लख्खणो । नाणेणं दसणेणंच सुहेणय दुहेणय ॥ १० ॥ नाणंच दसणचेव चरितंच तवोतहा। बीरियं उबउगोय एवं जीवस्स लख्खणं ॥ ११ ॥ सबंधयार उज्जोओ पहा छाया तवोविय । वन्न रस गंध फासा पुग्ग लाणंतु । लख्खणं ॥१२॥ एगत्तंच पुहत्तंच संखा संठाण मेवय । संजोगाय विभागाय पज्जवाणंतु लख्खणं ॥१३॥ (१) धर्मास्तिकाय, [२] अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्ति-काय, [४] काल-समयादिरुप, () पुद्गल अने [६] जीव :-ए षट्-द्रव्योर्नु आ जगत बनेटु छ एम वस्तुओना यथास्थित ज्ञानवाळा श्री केवलि भगवाने कहयुंछे. [७]. धर्म अधर्म अने आकाश ए प्रणे एक द्रव्यरुप छेपण काल, पुद्गल अने जीव ए अनंत द्रव्यरुप ( पुद्गालिक ) कह्यां छे.[८]. धर्मनुं लक्षण २ गति, अधर्म old लक्षण जडता, अन नभ अथवा आकाश जे षद् द्रव्यर्नु भाजन-स्थान छे तेनुं लक्षण अवगाह एटले सर्व द्रव्यने अवकाश आप18 वानुं छे. [९]: कालतुं लक्षण वर्त्तना एटले ४ अविराम छे; ज्ञान, दर्शन, सुख अने दुःखनां ज्ञाननो ५ उपयोग ए जीवनुं लक्षण छे. [१०]. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य अने उपयोग ए जीवनां लक्षण छे (११). शब्दनो ध्वनि, अंधकार, उद्योत, प्रभा,छाया, प्रकाश, वर्ण, रस, गंध अने स्पर्श ए सर्व ७ पुद्गलना लक्षणो छे. (१२). एकत्व, ( एकत्रपणुं ) पृथकत्व, [छूटापणुं] संख्या, आकार, संयोग अने वियोग अथवा विभाग ए८पर्यायनां लक्षण छे. (१३).. . १ Six substances realities. २ चलन स्वभाव Motion ३ स्थिरता-Immobility.४ Duration y Rea| lisation { Energy ७ Matter 4 Development. Jain Educatio m ational For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा जीवाय बंधोय पुन्नंपावा सवीतहा । संवरो निजरामोख्खो संतिएए तहिया नव ॥ १४ ॥ तहियाणंतु भावाणं सझावे उवएसणं । भायेण सदहंतस्स समत्तं तं वियाहियं ॥ १५ ॥ निसग्गुवएसरुइ आणारुइ सुत्तबीयरुइमेव । अभिगम विथ्थार रुइ किरिया संखेव धम्मरुइ ॥ १६ ॥ भूयथ्थेणाहिगया जीवा जीवाय पुन्नपावंच । सहसंमुइया सव संवरोय रोएइउ निस्सग्गो ॥ १७ ॥ १ जीव, २ अजीव, ३ बन्ध', ४ पुण्य, ५ पाप, ६ आश्रव, ७ संवर, ८ निर्जरा अने ९ मोक्ष ए नव तत्व ? जाणवा. २(१४). उपप कहेला जीव-अजीवादि नव तत्वनो सत्य उपदेश शुद्ध भावथी अंगीकार करवो तेर्नु नाम सम्यक्त ज्ञान कहेवाय.(१५) २ दर्शन:-सम्यक्तना दश भेद छ [अथवा रुचि दश प्रकारनी छे ]:-१ निसर्ग-रुचि, २ उपदेश-रुचि, ३ आज्ञा-रुचि, ४ सूत्र| रुचि, ५ बीज-रुचि, ६अभिगम रुचि, विस्तार-रुचि, ८क्रिया-रुचि, ९संक्षेप-रुचि अने १० धर्म-रुचि.[१६]3. जे जीव, अजीव, पुण्य, पापादि तत्वनो सत्यार्थ पोतानी स्वबुद्धिए ४ करीने समजे अने पापना अंतःप्रवाहने ५ रोके तेनी निसर्ग-रुचि कहेवाय. |१७]. ___ *श्री ठाणांगजी वीगरे सूत्रोमा नव तत्वोमां बंधनो नंबर आठमो छतां आहे काव्य क्रम जाळववा तेने त्रीजो मुकवामां आवेल छ ए उपरांत जीव अजीवनो बंध समजाववा अमुक अपेक्षाए पण आह अने बीजी जग्योए क्रम बदल्यो जणाय छे. १ Nine truths. २ (1) Soul, (२) inanimate things, (3) binding of the soul by Karman, (४) Merit, (५) demerit, (8) that which causes the soul to be affected by sins (७) the prevention of Asrava by watchfulness, (4) the annibilation of Karman (c) final deliverence. 3. (१)Nature(२)instruction (3) command (४) study of the sutras (५) suggestion (8) comprehension of the meaning of the sacred lore (७) complete course of study (८) religions exercise (e) brief exposition (१०) The BI Law. ४. By a. spontaneous effort of his mind. ५. Sinful influences. ००००००००००००००००००००००००० Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २८ २२८ जोजिदिठ्ठे भावे चउबिहेवि सदहाइ सयमेव । एमेव नन्नहत्तिय सनिसग्ग रुइत्ति नायवो ॥ १८ ॥ एएचैव भावे उass जोपरेण सह । छओमथ्थेण जिणेणवा उवदेस रुइत्ति नायवो ॥ १९ ॥ रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुईनाम ॥ २० ॥ जो सुत्त महिज्जतो सूएण उग्गहइओ समत्तं । अग्गेण बाहिरेणवा सो सुत्त इति नायव्यो ||२१|| एगेण अणेग्गइं पयाइ जो पसरइओ समत्तं । ओदएव तिलबिंदु सोबीयरु इत्तिनायव्बो॥२२॥ सोहोइ अभिगमरुइ सुयनाणं जेण अध्यउ दिठ्ठे । इक्कारस अंगाई पइन्नगं दिठिवाउय ॥२३॥ जे मनुष्य श्री तीर्थकर भगवाने भारथेला तत्वोने चतुर्विधाने एटले द्रव्ये, क्षेत्रे, काळे अने भावे करीने स्वयंमेव (पोतानी मेळ ) माने अने श्री भगवाननां भारखेला तत्वो अन्यथा न होय एम जाणे, तेनी निसर्ग-रुाचे कहवाय. [१८]. पण जे मनुष्य उपर कहेलां नत्र तत्वो अन्यना एटले 'छद्मस्थ अथवा केवलिना उपदेशयी जाणे अने माने तेनी उपदेश - रुचि कहेवाय. [१९]. जेणे राग, द्वेष, मोह अने अज्ञाननो त्याग कर्यो होय अने श्री भगवाननी आज्ञा छे माटे नव तत्वने माने तेनी आज्ञा-रुचि कहेवाय. [२०]. जे सूत्रो, तेनां अंग अने उपांग भणीने सम्यक्त - ज्ञान प्राप्त करे तेनी सूत्र - रुचि कहेवाय. [२१]. जे एक पदार्थनुं सत्य ज्ञान थवाथी, पाणी उपर मसरतां तेलना बिन्दुनी माफक अनेक पदार्थोंनुं सत्य-ज्ञान प्राप्त करी शके तेनी बीज-रुचि कहेवाय. [२२]. जे अगियार अंग, प्रकीर्णो अने दृष्टिवाद आदि श्रुत - ज्ञानयी सत्यार्थ समजे छे तेनी अभिगम - रुचि कहेवाय. [२३]. १ जेने केवल ज्ञान नथी उपज्युं ते हृद्मस्थ कहेवाय. २ अंग प्रविष्ट. ३ अंग बाहिर. ४ पइन्ना सूत्रो. आ सूत्रो जीर्ण थइ जवाथी पाळी मां धं नवं उमेरायुं मनाय छे. एटले ते प्रमाण रूप मनातां नथी. ५ बारमुं अंग जेमां चौद पूर्व समाइ गयेल मनात पण कम नशीबे आ अंग विच्छेद गयुं छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दव्वाण सव्वभावा सव्व पमाणेहि जस्स उवलडा । सव्वाहि नयविहीहिय सो विश्थार रुइत्ति नायव्यो ॥ २४ ॥ Full देसण नाण चारते तब विणए सव्वसमिइ गुत्तिसु । जो किरिया भावरुइ सो खलु किरिया रुइ नाम ॥ २५ ॥ । अणभिग्गहिय कुदिट्ठी संखेव रुइत्ति होइ नायव्यो। अविसारउ परयणे अणभिग्गहिओय सेसेसु ॥ २६ ॥ जोअथिकाय धम्मं सुयधम्मंखलु चरित्तधम्मंच । सहहइ जिणाभिहियं सोधम्म रुइत्तिनायव्वो ॥ २७ ॥ परमथ्थ संथवोवा सदछपरमथ्थसेवणावावि । वावन्न कुदंसण वज्जणाय सम्मत्त सहहणा ॥२८॥ नश्थि चरित्तं समत्त विहुणं दसणेउभइयव्वं । समत्त चरित्ताइ जुगवं पुवंच समत्तं ॥ २९॥ सर्व पदार्थना भाव प्रत्यक्ष प्रमाणथी अने निय-विधियी जाणे तेनी विस्तार-रुचि कहेवाय. [२४]. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप 8 अने विनयपी समिति अने गुप्तीने विषे रहीने सर्व क्रिया शुद्ध भावथी करे तेनी क्रिया-रुचि कहेवाय. [२५]. जे प्रवचन (सि द्धांत) ने विषे कुशळ होतो नथी, अने जेने बुद्धादिक मत मतांतरोनुं ज्ञान होतु नथी, छतां जने अन्य- दर्शनने माटे अनादर होय | तेनी संक्षेप-रुचि कहेवाय. [२६]. जे धर्मास्ति कायादि छ द्रव्य श्रुत-धर्म अने चारित्र-धर्म जेम श्री तीर्थकरे भाखेला छे तेम सत्य माने तेनी धर्म-रुचि कहेवाय. [२७]. जीवादि तत्वोना स्वरुपर्नु ज्ञान, मव तत्वोनुं ज्ञान धरावनारनी सेवा अने कुदर्शनी तथा भ्रष्टाचारीनो त्याग ए सम्यक्तना लक्षण छे. (२८). सम्यक्त बिना (शुद्ध) चारित्र संभवे नहि ; सम्यक्तथी चारित्र प्राप्त थाय छे. सम्यक्त अने चारित्र समकालिन होइ शके, अथवा तो सम्यक्त चारित्रना पहेलुं होय. [२९]. १ नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, रुजुमूत्रनय, शब्दनय, संभीरुढनय, अभूतनय ए सात नय छे. डॉ. भांडारकर तेनी al एवी व्याख्या करे छे के The seven Nayas are “points of view or principles with reference to which certain judgments are arrived at or arrangements made. ?, By discipline. 3. Avoiding of schismatical and heretical tencts. 10.०००००००००००००००००० Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ... नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा नहुँति चरणगुणा । अगुणस्स नथ्थि मोख्खा नाथ अमोख्खस्स निव्वाणं ॥३०॥ निस्संकियं निकंख्खियं निवितिगिला अमुढदिठीय । उवबृह थिरीकरणे बछुल प्पभावणे अठ्ठ ॥ ३१॥ सामाइयश्थ || पढमं छेउवठ्ठावणं भवेबिइयं । परिहारविसूद्धियं सुहुमंतह संपरायंच ।। ३२ ॥ अकसाय महख्खायं छउमथ्थस्स ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० . सत्य-दर्शन विना सत्य-ज्ञान संभवे नहि सत्य-ज्ञान रिना शुद्ध-चारित्र संभवे नहि; शुद्ध-चारित्र विना कर्मनो क्षय संभवे नहिः अने कर्म-क्षय विना निर्वाण (मुक्ति) संभवे नहि. [३०. सम्यक्तनां आठ लक्षण:-१ धर्म-तत्वो तरफ शंकारहित भाव, | २ अन्य धर्मनी वांच्छना न राखे, ३ निर्वितिकित्सा एटले फळ प्रति संदेह न आणे, ४ कुतीर्थीओनी रिद्धि देखीने ते तरफ मोह रहित (अमूढ) दृष्टि राखे, ५ धर्मवंत पुरुषोनी प्रशंसा करे, ६ स्वधी भाइओने सहाय करे, ७ साधर्मिकोर्नु पोषण करे अने तेमना तरफ भक्तिभाव राखे अने ८ स्वधर्मनी उन्नति करे. [३१]. ३. चारित्र:-चारित्रना भेदः-१ सामायिक २ (एटले राग द्वेष रहित मन परिणामे सर्व पापकारी कामोथी निवृति), २ छेदोपस्थापन (एटले महाव्रत आरोपणा) ३ परिहार-विशुद्धिक ५ एटले १ सम्यकत्वनां ते आठ कोट छे. निशंका, निकखा, निवितिगिच्छा, अमूढ दृष्टि, दोषा कथन, स्थिरता, वात्सल्य, प्रभावना. २ The avoidance of everything sinful. ३ The initiation of a novice. ४ संस्कृत टीकामा 'परिहार-विशुद्धिं आ प्रमाणे समजावेलछ:-नव साधुओ अढार मास मुवी साथे रहेवानो निश्चय करेछे. तेमांनो एक कल्पस्थित (आचाय)बनेछ, चार परिहारिक थायछ; अने बाकीना चार अनुपरिहारिक थइने पहेला छ मास सुधी परिहारिक तथा कल्पस्थितनी सेवा करे छे. पछीना छ मासमां परिहारिक होय ते अनुपरिहारिक बनेछ अने अनुपरिहारिक परिहारिक वनेछ. छल्ला छ मासमां कल्पस्थित तप करेछे अने वाकीना आठे साधु परिहारिक बनीने तेमनी सेवा करे छे. ५ Purity produced by peculiar austeritics ००००००००००००००० Jan Education Interational For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ जिणसवा । एयंचयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं ॥३३॥ तवोय दुविहो वुत्तो बाहिरंझिं तरो तहा। बाहिरो छवि | होवुतो एवमझिंतरो तवो ॥ ३४ ॥ नाणेण जाणइ भावे दसणेणय सहहे । चरित्तेण नगिण्हाइ तवेण परिमूझइ ॥ ३५ ॥ खवित्ता पुवकम्माइं संजमेण तवेणय । सव्वदुख्खप्पहिणठा पक्कमति महेसिणो तिबेमि ॥ ३६ ॥ ®। इति मोख्खग्ग झयणं अठाविस सम्मत्तं ॥ २८ ॥७ ००००००००००००००००००० । अमुक तपथी प्राप्प थती विशुद्धता) ४ सूक्ष्म-१ सम्पराय ( एटले इच्छाओ स्वल्प करवी ते ), ५ यथाख्यात-२ अकषाय [ एटले | क्रोध,मान,माया अने लोभर्नु उपशमन];ए पांच प्रकारे चारित्र पाळवाथी कर्मनो क्षय थायछे एम श्री तीर्थंकर भगवाने भाख्युंछे.३२-३३. ४ तप:-तपना वे प्रकार छ :-१ बाह्य-तप अने २ अभ्यंतर-तप. वाद्य अने अभ्यंतर प्रत्येक तपना छ छ । भेद छे. [३४]. ज्ञानथी जीवादि भाव जाणी शकाय छे ; दर्शनयी तेमां श्रद्धा उत्पन्न थाय छे, चारित्रथी कर्मनो क्षय थाय छे अने तपथी आत्मा विशुद्ध थाय छे. [३५]. संयम अने तपथा पूर्व कर्म खपावीने अने सर्व दुःखनो क्षय करीने महर्षिओ सिद्धिने प्राप्त थायछ. (३६). ॥ अठ्ठावीशमें अध्ययन संपूर्ण. ॥ ०००००००० ? Reduction of desire ? Annibilation of sinfulness. ३ आ सूत्रनुं त्रीशमुं अध्ययन 'तप'मुंज छे तेमां विस्तार पूर्वक विवेचन छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००००००..... अध्ययन २९. सम्यक्त पराक्रम. सूर्यमे आउसंतेणं भगवया एवमख्खायं । इह खलुसमत्त परक्कमे नामअझयणे समणेणं भगवया महाविरेणं कासवेणं पवेइयं जं सम्मं सदहित्ता पत्तिय इत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पालइत्ता तीरइत्ता किट्टइत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिनिव्वायति सम्बदुख्खाण मंतंकरिंति तस्सणं अयमठे एवमाहिज्जइ तंजहा ७ अध्ययन २९. ® हे आयुष्मन् ! नीचेनुं व्याख्यान में श्री महावीर भगवान पासेथी सांभळ्युं छे :-आ सम्यक्त पराक्रम नामर्नु अध्ययन काश्यप गोत्रने विषे उत्पन्न थयेला श्रमण भगवंत श्री महावीरे कहयुंछे ; जे अध्ययन श्रध्धा पूर्वक मानवाथी, तेना प्रति रुचि राखवाथी, तेनो स्वीकार करवाथी, ते रुडी रीते पाळवाथी, ते प्रमाणे वर्तवाथी, तेनो अभ्यास करवाथी, ते समजवाथी, तेनी आराधना करवाथी अने गुरुनी आज्ञानुसार तेनुं सेवन करवाथी अनेक जीव सिधिने पाम्या छे, तत्वज्ञान प्राप्त करी शकया छे, कर्म बन्धनथी मुक्त थया छे, निर्वाण पहोंच्या छे अने सर्व दुःखनो अंत आणी शकया छे. आ सम्यक्त पराक्रम अध्ययनमां नीचेनी बाबतोन वर्णन करेलु छ : ०००००००००००००००००००० ००००० १ श्री सुधर्मास्वामी जंबुस्वामी प्रत्ये कहेछे, Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००००००००० 10000 संवेगो १ निव्वेगो २ धम्मसहा ३ गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणया४ आलोयणया ५ निंदणया ६ गरहणया ७ सामाइए ८ चउवीसथ्थए ९ वंदणे १० पडिक्कमणे ११ काउसग्गे १२ पञ्चख्खाणे १३ थयथुइ मंगले १४ कालपडिलेहणया १५ पायछित्तकरणे १६ खमावणया १७ सझाए १८ वायणया १९ पडिपुष्णया २० परियट्टणा २१ अणुप्पेहा २२ धम्मकहा २३ सुयरस आराहणया २४ एगग्गमणसं निवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ वोदाणे २८ १ सम्वेग एटले मोक्षनी अभिलाषा. २ निर्वेद एटले संसारथी विरक्तता. ३ धर्म-श्रद्धा. ४ गुरु-साधर्मिक शुश्रूषणा एटले गुरु अने स्वधर्मी भाइओनी सेवा. ५ आलोचना एटले गुरुनी समक्ष पाप आलोववां ते, अथवा पाप-निवेदन कर ते. ६ निन्दा एटले पापने माटे आत्म निन्दा करवी.ते. ७ गही एटले गुरु पासे स्वदोष निवेदन करवा ते. ८ सामाविक एटले शत्र-मित्र तरफ 18 समान वृत्ति राखवी ते, अथवा आत्मानी नैतिक अने मानसिक विशुद्धता करची ते. ९ चतुविशतिस्तव एटले चोवीश जिनवरोनी तीर्थकरोनी] स्तुति. १० वंदन. ११ प्रतिक्रमण 1. १२ कायोत्सर्ग एटले काउसग्ग. १३ प्रत्याख्यान एटले पञ्चखाण. १४ स्तव स्तुति मंगल एटले कल्याणकारी स्तवन अने स्तुति. १५ काल प्रतिलेखना एटले योग्य काळे पडिलेहनादि करवू ते. १६ प्रायश्चित करण एटले पापनी निवृत्ति अर्थे तप कर ते. १७ क्षमापना एटले अपराधनी क्षमा मागवी ते. १८ स्वाध्याय. १९ वाचना एटले गुरु पासेथी सूत्रना बोल लेवा, देवा ते. २० प्रतिपृच्छना एटले संदेह उपजे ते बावत गुरुने पूछबुं ते. २१ परावर्तन एटले सूत्रना पाठ वारंवार वोली जवा ते. २२ अनुप्रेक्षा एटले सूत्रनुं मनन करवू ते. २३ धर्म-कथा. २४श्रुत-आराधना एटले मूत्रनी आराधना. | २५ एकाग्र मनः संनिवेशना २ एटले मनने एकाग्र वृत्तिमां राख ते. २६ संयम. २७ तप. २८ व्यवदान एटले कर्मनो अंत आणवो ते-कर्म कापवां ते. १ Expiation of sins पाप माटे प्रायश्चित.२ Concentration of thoughts. . 90 ००००००००० Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ०००००००००००० सुहसाए २९ अप्पडिबद्धया ३० विवित्तसयणासणसेवणया ३१ विणिवट्टणया ३२ संभोगपञ्चख्खाणे ३३ उवहिपच्चख्खाणे ३४ आहारपञ्चख्खाणे ३५ कसायपच्चख्खाणे ३६ जोगपञ्चख्खाणे ३७ शरीर पञ्चख्खाणे ३८ सहाय पञ्चख्खाणे ३९ भत्त. पञ्चख्खाणे ४० सझावपच्चख्खाणे ४१ पडिरुवणया ४२ वेयावच्चे ४३ सव्वगुणसंपन्नया ४४ वियरागया ४५ २९ सुखशाता एटले विषय सुखनी इच्छा निवारण करवी ते. ३० अप्रतिवद्धता १ एटले प्रतिबंधरहित थर्बु ते. ३१ विविक्त शयनासन सेवना एटले स्त्री, पशु, पंडकादि रहित शयनासन सेव, ते. ३२ विनिवर्तना एटले विषयथी परांगमुख रहे ते. ३३ * सम्भोग-प्रत्याख्यान एटले मंडळीमा आहार करवानां पञ्चखाण करवां ते.* ३४ उपधि प्रत्याख्यान एटले[रजोहरण, मुखवत्रिका पात्रादि जरुरनी वस्तुओ सिवाय बाकीनी] वस्तुओ राखवाना पञ्चखाण करवां ते. ३५ आहार प्रत्याख्यान एटले (सदोष)आहारना पञ्चखाण करवां ते. ३६ कषाय प्रत्याख्यान एटले क्रोध, मान, माया अने लोभना पचखाण करवां ते. ३७ योग प्रत्याख्यान एटले मन, वचन, कायाना योग अथवा व्यापारना पच्चखाण. [ अर्थात मन, वचन, कायानो निरोध करवो ते ]. ३८ शरीर प्रत्याख्यान एटले योग्य काळे शरीरनो त्याग करवो ते. ३९ सहाय प्रत्याख्यान एटले सहायक साथे राखवाना पच्चखाण करवा ते. ४० भक्त प्रत्याख्यान एटले भात (आहारपाणी )ना पच्चखाण करवा ते. ४१ सद्भाव प्रत्याख्यान एटले सर्व संवर रुप पच्चखाण. ४२ प्रतिरुपता एटले स्थविर कल्पि साधुने योग्य वेष धारण करवो ते. ४श्वयात्त्य एटले साधुओने आहारादि आणी आपवामां सहाय करवी ते. ४४ सर्व गुण सम्पन्नता एटले ज्ञानादि सर्व गुणे करीने सहित होवू ते. ४५ वीतरागता एटले राग द्वेषनुं निवारण करते. Mental independence. * आने बदले प्रोफेसर जेकोबी एवो अर्थ करे छ के-'एकज मंडळी अथवा विभागमाथी आहारपाणी व्होरवानां पच्चखाण करवां ते." ०००००००००००००० For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. खंती ४६ मुत्ति ४७ अज्जवे ४८ महवे ४९ भावसच्चे ५० करणसच्चे ५१ जोगसच्चे १२ मणगुत्तया ५३ २९ वयगुत्तया ५४ कायगुत्तया ५५ मणसमाधारणया ५६ वयसमाधारणया ५७ कायसमाधारणया ५८ नाणसंपन्नया ५९ दंसणसंपन्नया ६० चरित्तसंपन्नया ६१ सोइंदियनिग्गहे ६२ चख्खुंदीय निग्गहे ६३ घाणिदियनिग्गहे ६४ २३५३ जिझिंदियनिग्गहे ६५ फासिदियनिग्गहे ६६ कोहविजए ६७ माणविजए ६८ मायाविजए ६९ लोभविजए ७० पेज्जदोसमिला दंसणंविजए ७१ सेलेसी ७२ अकम्मया ७३ ००००००००००००००००००००००००००००००००००० ४६क्षान्ति एटले क्षमा. ४७ मुक्ति एटले निलोभता. ४८ आर्जव एटले सरलता. ४९ मार्दव अने निराभिमान. ५० भाव सत्य एटले अंतरात्मानी विशुद्धि. ५१ करण-सत्य एटले प्रतिलेखनादि क्रिया यथा विधि अने आळस विना करवी ते. ५२ योगसत्य एटले मन, वचन, कायाना व्यापारमा साचापणुं राख ते. ५३ मनो-गुप्ति एटले मनने अशुभ पदार्थोथी संभाळवू ते. ५४ वाग-गुप्ति एटले वचनने अशुभ पदार्थोथी संभाळवू ते. ५५ काय-गुप्ति एटले कायाने अशुभ व्यापारथी संभाळवी ते. ५६ मनः समाधारणा एटले मनने शुभ स्थानने विषे स्थिर करवं ते. ५७ वाक-समाधारणा एटले वचनने शुभ कार्यमा स्थापq ते. ५८ काय समाधारणा एटले कायाने शुभ कार्यमा स्थापवी ते. ५९ ज्ञान-संपन्नता.* ६० दर्शन-संपन्नता. ६१ चारित्र-संपन्नता. ६२ श्रोतेन्द्रिय-निग्रह. ६३ चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह. ६४ घ्राणेन्द्रिय-निग्रह. ६५ जिहेन्द्रिय-निग्रह. ६६ स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह. ६७ क्रोध-विजय. ६८ मान-विजय. ६९ माया-विजय. ७० लोभ-विजय. ७१ प्रेम-द्वेष, मिथ्या दर्शन विजय. ७२ शैलेशी। एटले चतुर्दश गुणस्थानने विषे स्थायिपणुं अने ७३ अकर्मता एटले कर्मनो अभाव अथवा कर्म-रहितपणं. * Possession of knowledge. 9. Stability. Jain Education intomational For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000०००००००००००००००००००० संवेगेणं भंते जीवे किं जणयइ । संवेगेणं अणुत्तरं धम्म सद्ध जणयइ । अणुत्तराए धम्म सडाए । संबंगे हब्ध मागछुइ । अणंताणु बंधी कोहमाण माया लोभे खवेइ नवंच कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं चणं मिछुत्त विसोहिं काऊणे । दसणाराहए भवइ । दंसण विसोहीएणं विसुद्धाए। अथ्थेगइए तेणेव भवगहणेणं सिझइ । सोहीएणं विसुडाए । तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ १ ॥ निव्वेएणं भंते ज्जीवे किं जणयइ । निच्चेएणं दिव्य माणुस तिरािछिएमू कामभोगेसु । निव्वेयं हव्यमागछुइ । सव्व विसएसु विरज्जइ। सव्वविसएसु विरज्जमाणे ।आरंभ पारग्गह परिचायं करेइ । आरंभपरिग्गरंपरिच्चायंकरेमाणे । संसारमग्गं वोछिंदइ । सिध्धिमग्गं पडिवन्नेय भवइ ॥ २ ॥ *शिष्य पूछे छे, " हे भदन्त ! मोक्षनी अभिलाषा करवायी जीव शुं उपार्जन करी शके छ ?" गुरु कहेछे, “ हे शिष्य ! मे.मामिलापथी जीव अनुत्तर धर्म-श्रद्धा उपार्जे छे. अनुत्तर धर्म-श्रद्धाए करीने विशिष्ट २ वैराग्य शीघ्रपणे प्राप्त थाय छे; त्यार पछी ते (जीव) क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चारे अनंतानुबंधी 3 कपायनो क्षय करे छे, नवां अशुभ कर्म बांधतो नथी, अने कषायना परिणामरुप जे मिथ्यात्व ते त्यागवाथी विशुद्ध थइने ते शुद्ध सम्यक्तनो आराधक थाय छे ; आ प्रमाणे आत्मा [दर्शन] शुद्ध करवाथी केटलाक जीव एकज जन्ममां सिद्धि प्राप्त करी शके छे; एम नहि तो सदर्शनथी त्रीजे भवे तो जरुर मुक्ति प्राप्त करे छे. (१). २ निर्वेद एटले संसारनी विरक्तताथी देव, मनुष्य, अने तिर्यंचने लगता कामभोगथी जीवने शीघ्र त्याग बुद्धि उपजे छे४ सर्व विषयथी ते विरक्त थाय छ; अने तेम थवाथी ते आरम्भ परिग्रहनो त्याग करे छे, अने तेम करवाथी जीव संसार 8 मार्गने छोडीने मुक्ति मार्गमा प्रवेश करे छे. (२). प्रत्येक गाथानी शरुआतमां आ प्रमाणे प्रश्न पूछेलुछे अने गुरु तेनो उत्तर आपछे. परंतु आ भाषान्तरमा मात्र उच्चरज लखेलछे, प्रश्ननी पुनरुक्ति करी नथी.. Intense. २. Increased. "एवो गाढ के जेथी अनंता संसार षधे. ४ Feels disgust. ००००००००००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000 धम्म सध्धाएणं भंते जीवे कि जणयइ । धम्म सध्धाएणं साया साख्खेसुरज्जमाणे विरज्जइ । आगारधम्मं चणं । उ.अ.1 चयइ । अणगारेणं जिवे सारीर माणसाणं दुख्खाणं छेदणं भेदणं संजोगादिणं बोलेयं करेइ। आव्याबाहंच सुहं निवत्तेइ ॥ ३ ॥ गुरु साहम्मिय सूसूसणयाएणं भंते जीवे किं जगयइ । गुरु साहम्मिय सूरसूसणयाएणं विणय २३७ पडिवत्तिं जणयइ । विगय पडिवन्नेयणं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइय तिरिख्खजोणिय मणुस्सदेव दुग्गईउ निरंभइ । वण संजलण भत्ति बहुमाणयाए जणयइ । वण संजलण भत्ति बहुमाणयाए मणुस्सदेव सुग्गइउ निबंधइ । सिध्धि सुग्गइं च विसोहइ । पसथ्थाई चणं विणय मूलाई सव्व कज्जाइं साहेइ । अन्नेय बहवे जीवे | विणइता भवइ ॥ ४ ॥ ३. धर्म-श्रद्धाथी जीवने मोज शोख अने सुख शाता उपर प्रथम जे राग होय छे तेनाथी ते विरक्त थाय छे ; तेथी ते गृहal स्थाश्रमनो त्याग करे छे अने अणगारपणुं अंगीकार करीने छेदन, भेदन, संयोग, वियोगादि शरीर अजे मननां दुःखनो अंत आ णेछे अने अवरोध रहित* मोक्ष सुखने पामेछे. (३). ४. गुरु अने साधर्मिकोनी सेवा करवाथी जीव विनय प्राप्त करी शके छ | विनय अंगीकार करवाथी अने देव-गुरुनी अशातना न करवायी जीव नक तियेच योनिमां अथवा तो मनुष्य अने देवतानी [चाडाल, किल्विषादि ] कुगतिमा उत्पन्न थतो नथी. गुरुनी प्रशंसा, भक्ति अने सत्कार करवायी जीव देवता अने मनुष्यनी उत्तम गतिन पामेछे, मोक्ष अने निर्मळ सद्गतिने प्राप्त थाय छे अने प्रशस्त विनय मूल सर्व कार्य साधे छे अने अन्य जीवोने पण विनयने विष स्थापे छे. [४]. * Unchecked happiness. ०००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20००० आलोयणयाएणं भंते जीवे कि जणयइ । आलोयणयाएणं माया नियाण मिला देसणं सूल्लाणं मोख्खमग्ग विग्धाणं। 81 । अणंत संसार वध्धमाणाणं । उध्धरणं करेइ उज्जुभावंचणं जणयइ । उज्जुभाव पडिवन्नएयणं जीवे अमाइ इथ्थिवेयं नपुंसक वेयंच नबंधइ पुवबंधंचणं निजरइ ॥५॥ निंदणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । निंदणयाएणं पञ्चाणुतावं जणय३ । पछाणुत्तावेणं विरज्जमाणे करणगुण सेढिं पडिवज्जइ । करणगुणसेढिं पडिवणेय अणगारे मोहणिज्ज कम्म उग्घाएइ ॥ ६॥ गरहणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । गरहणयाएणं अपुरकारं जणयइ । अपुरस्कार गएणं जीवे अप्पसथ्थेहितो जोगेहिंतो नियत्तेइ पसथ्थेहिय पवत्तेइ पसथ्थ जोग पडिवणेयणं अणगारे अणंतघाइ पज्जवेखवेइ ॥७॥ ५. गुरुनी पासे पाप निवेदन [ आलोयणा ] करवाथी माया निदान अथवा तप-विक्रय एटले इन्द्रादि पद लेवाने माटे करेठे तप, अने मिथ्यात्व दर्शनरुपी शल्य, जे मोक्ष मार्गने विषे विघ्न करनारां छे अने अनंत भवनां *वधारनारां छे, ते दूर थइ | शके छ ; अने जीव सरलपणु उपार्ने छ अने ते वडे माया-रहित थइने स्त्रीवेद अने नपुंसकवेद बांधतो नथी अने पूर्व बांधैलां कर्मनो क्षय करे छे. (५). ६. पोते करेला पापनी पोतानी मेळे निंदा [आत्म निंदा ] करवाथी जीवने पश्चात्ताप थाय छे , पश्चात्ताप थवाथी ते वैराग्य पामे छे, अने वैराग्यपी अपूर्व-करण गुण श्रेणी १ अंगीकार करे छे, अने ते वडे मोहनी कर्म खपाचीने मुक्ति मेळवे छे. [६]. ७. गर्दा एटले गुरु समक्ष स्वदोष निवेदन करवाथी जीव अपुरस्कार [गर्व-भंग] पामे छ । अने गर्वभंग [ निराभिमानी] थवाथी अपशस्त [भंडां] कर्मना योगथी ते निवर्ने छ अने प्रशस्त योग अंगीकार करे छे. अने प्रशस्त योगन प्राप्त थयेलो अणगार ज्ञानावरणादि अनंत घाति कर्मनो क्षय करे छे. [७]. *Migration of soul. १क्रमे क्रमे अशुद्धता अदृश्य थती जतां सरवाळे सद्गुणोनुं त्राजवू उच्चु चडतुंजायछे ते. By successively destroying moral impurities one arrives at higher and higher virtues. 2 Humiliation. ००० For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. सामाइए भंते जिवे कि जणयइ सामाइएणं सावजं जोग विरई जणयइ ॥ ८ ॥ चओविसथ्थएणं भंते जीवे किं जणयइ । चओविसंथ्थएणं दंसण विसोहिं जणयइ ॥ ९॥ वंदणएणं भंते जीवे किं जणयइ । वंदएणं निया गोयं कम्म खवेइ उच्चागोयंकम्मनिबंधइ सोहगंचणं अप्पडिहयं आणाफलं निवत्तइ दाहिणभावंचणं जगयइ ॥ १० ॥ पडिक्कमणेणं भंते जीवे किं जणयइ पडिक्कमणेणं वयछिदाई पिहेइ पिहिय वय छिदे पुण जीवे निरुध्यासवे असबल चरित्ते अठ्ठस पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पगिहिए विहरइ ॥ ११ ॥ ८. सामायिक एटले समता, समानवृत्ति अथवा नैतिक अने मानसिक शुद्धिथी जीव सावध * पाप-योगथी निवर्ने छे. (८). 18 ९. चतुर्विश (चोवीश) जीनवरो (तीर्थकरो)नी स्तुति करवाथी जीव दर्शन-विशुद्धि अथवा सम्यक्तनी निर्मळता मेळवी शके छे. [९]. १०. गुरुने वंदन करवाथी नीच गोत्रमा जन्म अपावनार कर्मनो क्षय थाय छ; अने उच्च गोत्रनां (मां जन्म थाय एवां) कर्म बंधाय छे.. ते सर्व लोकनी प्रीति मेळववाने भाग्यशाली बनेछे अने अप्रतिहत आज्ञा ! फळ [प्रभुत्व] पामे छे तथा सर्व लोकनी शुभेच्छा मेळवी शके छे. (१०).११. प्रतिक्रमण पिडिक्कमणु] करवाथी जीव व्रतमां थता अतीचारनुं २ निवारण करी शके छे; बळी ते बडे जीव आश्रवोने ३ रुंधी शके छ, निर्मल चारित्र पाळी शके छ, अष्ट प्रवचनने ४ विषे सावधान रही शके छे, संयम पाळवामां आळस करतो नथी; परंतु सन्मार्गने विषे इन्द्रियोने स्थापित करीने संयम मार्गे विचरे छे. (११). ___ *Sinful. 1 Looked upon as an authority लोक प्रियता अने बहु मानपणानी परिसीमा बतावीछे. २ Trans18 gressions व्रतनी विराधना चार प्रकारे थइ शके छे. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतीचार, अणाचार ते पिनल कोडना, Intention, preparation, attempt and completion ने मळता छे. ३ कर्मोनो चाल्यो आवतो प्रवाह Flowing of the Karmans ४ पांच सुमिति अने प्रण गुप्ति २४मा अध्ययनमा ते विषे विस्तार पूर्वक विवेचन छे. ००००००००००००००००००००० Jain Educationa intematonal For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. काउस्सग्गेणं भंते जीवे कि जणयइ । काउस्सग्गेण तीयपडुप्पन्नं पायचित्तं विसोहेइ । विसुध्ध पायचितेय जीवे ।। निव्वुयहिथए । उहरिय भरोब्व भारवहे । पसथ्यझाणो वगए सुहं सुहेणं विहरइ ॥ १२ ॥ पश्चाखाणणं भंते जीवे किं जणयइ । पच्चख्खाणणं आसवदाराई निरुंभइ पचाख्खाणेणं इवानिरोहं जणयइ इङ्लानिरीहंगएणं जीवे सव्वव्वेसु विणीयतहे सीलभूए विहरइ ॥१३॥ थयथुइ मंगलेणं भंते जीवे किं जणयइ । थयथूय मंगलेणं नाणदसण चरित | बोहिलाभं जणयइ नाणदंसण चरित्त बोहिलाभं संपणेण जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणो वत्तियं आराहणं आराहेइ . ॥ १४ ॥ कालेपडिलेहणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । कालपडिलेहणयाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ ॥१५॥ १२. कायोत्सर्ग [काउसग्ग]थी पूर्वनां अने वर्तमान कालनां अतीचार दूर थायछे, अने आ प्रमाणेना प्रायश्चित (आलोचना) थी आत्मा विशुद्ध थाय छे, अने ते वडे जेम भारवाहक (मजूर ) पोताना शिर परनो वोजो उतरवाथी स्वस्थ थाय छे, तेम तेनुं हृदय पण स्वस्थ थाय छे मन स्वस्थ थवाथी प्रशस्त ध्यान धरी शकाय छे अने तेथी सुखमां विचरी शकाय छे. [१२]. १३.प्रत्याख्यान एटले पच्चखाणथी आश्रवद्वारो बंध करी शकाय छे. पच्चखाणथी इच्छानो निरोध करी शकाय छे इच्छानो निरोध करवाथी जीव सर्व द्रव्य तरफ निस्पृही अने तृष्णारहित थइने विचरी शके छे. (१३). १४. स्तवन अने स्तुतिथी ज्ञान दर्शन अने चारित्रनो लाभ प्राप्त [ धर्म-प्राप्ति ] करी शकाय छे बोधि-लाभ प्राप्त थवाथी जीव ज्ञान साधी शके छे, अने तेम थवाथी संसार कर्मनो अंत आणी शके छ, अथवा तो कल्प अने विमानादि देव लोकमां उत्पन्न थाय छे. [१४]. १५. काल-प्रतिलेखन (प्रत्युपेक्षणा) एटले योग्य काळे पडिलेहण करवाथी ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षय थाय छे. [१५]. Jan Education Interational For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.. | पायछित्तकरणेणं भंते जीवे किंजणयइ । पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मं विसोहि जणयइ निरईयारेयावि भवइ । समंचणं | पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गंच मग्गफलंच विसोहइ आयारंच आयारफलंच आराहेइ ॥ १६ ॥ खमावणयाएणं भंते जीवे किंजणयइ खमावणयाएणं पल्हायणभावं जणयइ । पल्हायणभाव मुवगएय सबपाण भूय जीवसत्तेसु २४१३ मेत्तीभावंच उप्पाएइ मेत्तीभाव मुवगएयावि जीवेभाव विसोहिं काउण निझए भवइ ॥ १७ ॥ सझाएणं भंते जीवे किंजणयइ । सझाएणं नाणावरणिज्जं कम्म खवेइ ॥ १८ ॥ वायणयाएणं भंते जीवे किंजणयइ वायणयाएणं निज्जरं जणयइ । सुयस्स अणासायणाए वट्टइ सुयस्स अणासायणयाए वट्टमाणेतिथ्थ धम्मं अवलंबइ । तिथ्थ धम्म अवलंब माणे महानिज्जरे महारज्जवसाणे भवइ ॥ १९॥ १६. प्रायश्चित्त करवाथी पाप छेदाय छे अने अतीचार रहित थवाय छे. जे सन्मार्गे रहीने प्रायश्चित्त करे छ ते ज्ञान मानो हेतु अने फळ ( अर्थात-सम्यक्त ) प्राप्त करी शके छे, अने (शुद्ध) आचार अथवा चारित्रनुं फळ [ अर्थात-मुक्ति] मेळवी शके छे. [१६]. १७. क्षमापना एटले खमाववाथी अथवा अपराधनी क्षमा मागवाथी मानसिक सुख [उल्लास-भाव ] भाप्त करी शकाय छे, अने ते मळवाथी सर्व प्राण, जीव, भूत अने सत्व [ प्राणी मात्र ] तरफ मित्र भाव उत्पन्न थाय छे आवा मित्र भावी जीव राग द्वेष त्यागीने सप्त भय रहित थाय छे. (१७). १८. स्वाध्यायथी जीव ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षय करी शके छे. [१८]. १९. वाचना एटले सूत्र-पठनथी कर्मनो क्षय करी शकाय छ भने मूत्र-सिद्धांतोनी अनाशातना (रक्षण) थइ शके छे ; सिद्धांतोनी अनाशातनाने विष वर्तवाथी जीव श्री तीर्थकरोना धर्मने पामी शकेछ, जे धर्म बडे महान कर्मोनोअने भव सागरनो अंत आणी शकाय ३ छे. ( अर्थात-मुक्ति मेळवी शकाय छे ). (१९).. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. उ.अ. ०००००००००००००००००००० पडिपुछणयाएणं भंते जीवे किंजणयइ पडिपुठ्ठणयाएणं सुत्तथ्थ तदुभयाई विसोहेइ । कंखा मोहणिजां कम्मं 81 वोछिंदइ ॥२०॥ परियट्टयाएणं भंते जीवे किंजणय३ । परियट्टयाएणं वंजणाइ जणयइ। वंजण लद्धिं च उप्पाएइ | ॥ २१ ॥ अणुप्पेहाएणं भंते जीवे किं जणयइ । अणुप्पेहाएणं आओयवज्जाउ सत्त कम्म पगडीओ धणिय बंधण बधाओ सिढिल बंडण बद्धाउ पकरेइ । दीहकालठिइ याओ रहस्स कालठिइयाओ पकरेइ । तिव्वाणुभावाओ मंदाणु भावाउ पकरेइ । बहु पएसगाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ । आओयं चणं कम्मं सिय बंधइ सियनो बंधइ । अशाया वेयणिज्जं चणं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवाच णाइ । अणाइयं चणं अणवदगं दीहमद्धं चाउरंत संसार कतारं खिप्पामेव वीइवयइ ॥ २२॥ | २०. प्रतिपृच्छना एटले संदेह उपजे ते गुरुने पूछवाथी सूत्र अने सूत्रार्थ स्पष्ट समजी शकाय छे, अने शंका (संदेह) तथा मोहनी कर्मनो नाश थाय छे. [२०]. २१. परावर्तन एटले सूत्र वारंवार पाठे करवाथी व्यंजनादि अक्षरोर्नु ज्ञान थाय छे अने तेम | यवाथी पदनां पद याद रही शके छे. (२१). २२. अनुप्रेक्षा एटले सूत्रोनुं मनन करवाथी आयुःकर्म सिवाय बाकीनां सप्त कर्म, जेना गाढ बंधन वडे जीव बंधायेलो छे, तेनी गांठ ढीली करी शकाय छे, ते कर्मोनी दीर्घ स्थितिने ढूंकी करी शकाय छे, तेना तीव्र भावने मंद करी शकाय छे अने " जीवना घणा प्रदेशोने [ भागोने] ए कर्म लागेला होय ते ओडां करी शकाय छे."* ते वडे आयुःकर्म बंधाय या न बंधाय परंतु वेदनी कर्म तो फरीथी बंधाता नथी, अने आदि तथा अंतरहित, चतुर्गतिरुप संसार अटवीनो शीघ्र पार पामी शकाय छे. (२२). ०००००००००००००० *दीकाकार कहेछे के आ वाक्य केटलीक मतोमा पाछळथी दाखल करायु छे. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २९ २४३ धम्म कहाणं भंते जीवे किं जणयइ । धम्म कहाएणं निज्जरं जणयइ पत्रयणं पभावेइ । पवयणं पभावएणं । जीवे आगमिसरस भत्ताए कम्मं निबंधइ ॥ २३ ॥ मुयरस आराहणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । सुयरस राहण्याणं आणाणं खोइ नय संकिलिस्सइ ॥ २४ ॥ एगगामण संनिवेसणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । गगामण संनिवेसणयाणं चित्त निरोहं करेइ ॥ २५ ॥ संजमेणं भंते जीवे किं जणयइ । संजमेणं अणएहयत्तं जय ॥ २६ ॥ तवेगं भंते जीवे किं जणयइ । तवेणं वोदाणं जणयइ ॥ २७ ॥ वोदाणणं भंते जीवे किं जय बोदा अकिरियं जणयइ । अकिरियाए भवित्ता तओपल्या सिझई बुझई मुच्चई परिनिव्वायइ सव्त्र दुखाण मतं करेई ॥ २८ ॥ I २३. धर्म - कथा करवायी जीव कर्मनो क्षय करी शके छे; धर्म-कथाथी सिद्धांतोनो प्रभाव वधारी शकाय छे। अने जिनशासननो प्रभाव वधारवायी जीव आवता कालने माटे शुभ कर्म उपाजेंछे. [२३]. २४. श्रुत-आराधनायी जीव अज्ञानताना क्षय करी शके छे अने रागादिके करीने क्लेश पामतो नथी. (२४) २५. एकाग्र मनः सन्निवेशनाथी चित्त निरोध यह शके छे एटले के मन उन्मार्गे जतुं अटकावी शकाय छे. [२५]. २६. संयम अथवा चारित्र वडे पांचे आश्रवोने रुंधी शकाय छे, अर्थात- पाप कर्मथी मुक्त रही शकाय छे. [२६]. २७. तप वडे पूर्वे बांधेलां कर्मनो क्षय अने आत्मानी शुद्धि करी शकाय छे. ( २७ ), २८. व्यवदान एटले कर्मने छेदवायी जीव शुक्ल ध्याननो चोथो पायो जे अक्रिया छे ते उपार्जे छे; अक्रियापणुं पामवाथी जीव सिद्धि, बुद्धि, मुक्ति अने निर्वाण प्राप्त करी शके छे अने सर्व दुःखनो अंत आणी शके छे. [२८] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २९ २४४ सुहसाएणं भंते जीवे किं जणयइ सुहसायाएणं अनुरसुयन्तं जणयइ । अणुस्सरणं जीवे अणुकंपए अणुझडे विगयसोए चरित मोहणिज्जं कम्मं खवेई ॥ २९ ॥ अपडिबन्डयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । अपडिबद्धयाएणं निरसंगतं जणयइ । निस्सं गत्तेणंगणं जीवे एगे एगगाचित्ते दियाय राओय असज्जमाणे अपडिबध्धेयावि विहरइ ॥ ३० ॥ विवित्त सयणासण सेवणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । विवित्त सयणालण सेवणयाएणं चरित गुतिं जणयइ गुणं जीवे वित्ताहारे दढचरिते एगंतरए मोख्ख भावपडिवणे अह विहकम्म गंठि निज्ञ्जरेइ ॥ ३१ ॥ वियिणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । विणियट्टणयाएणं पावाणं कम्माणं अकरणयाए अझुठेइ पुव्वबध्धाणय निज्जरणया तंनियत्तइ त पडा चाउरंत संसार कंतारं विश्वयइ ३२ ॥ २९. सुखशाता एटले विषय सुखनी इच्छा निवारण करवाथी जीव विषय सुख प्रति निस्पृहा [इच्छा रहितपणुं ] उपार्जे छ अने एवं अनुत्सुकपणुं प्राप्त थवाथी जीव दयावान, अभिमान रहित अने शोक रहित थाय छे अने चारित्र मोहनी कर्मने खपावे छे. [२९]. ३० अप्रतिबद्धता एटले प्रतिबंध रहित थवाथी जीव निस्संगत्व एटले संग रहितपणुं [ निग्रंथपणुं ] उपार्जे छे, अने ते बडे धर्म विषे एका वृत्ति राखी शके छे, अने रात्रि दिवस [ निरंतर ] राग द्वेष रहित थइने अप्रतिबद्धपणे विहार करे छे. [३०]. ३१. विविक्तु शयनासन सेवना एटले स्त्री, पशु, पंडकादि रहित शयनासन सेववाथी जीव चारित्र गुप्ति [रक्षण] प्राप्त करी शके छे, सूझतो [ शरीरने पुष्ट बनावे एवो नहि ] आहार करे छे, चारित्रमां दृढ रहे छे, संयमने विषे सावधान रहे छे, मोक्षने विषे मति राखे छे, अने अष्ट प्रकारनां कमनी गांठने तोडी नांखे छे. (३१) ३२. विनिवर्त्तना एटले विषयथी परांगमुख रहेवाथी जीव पाप कर्म रहित थाय छे अने पूर्वे बांधेलां कर्मनो क्षय करी शके छे, अने त्यार पछी चतुर्गति रूप संसार-कान्तार ( अटविनो ) पार पामी शके छे. [३२]. * जे मोहनी कर्मथी धर्म ध्यान आचरी न शकाय - तेना २५ भेद छे कषायनी चोकडीना सोळ भेद अने नवनो कषाय. १ उत्कंठा Yearning. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. संभोग पञ्चख्खाणेणं भंते जीवे कि जणयइ । संभोग पञ्चख्खाणेणं आलंबणाई खोइ निरालंबणस्सय आयतठिया । 18 जोगा भवति सएणं लाभेणं संतुस्सइ । परस्सलाभंनो आसाएइ नोतकेइ नोपिहेइ नोपथ्थेइ नोअभिलस्सइ । परस्सलाभंअणासाएमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपथ्थेमाणेअणभिलस्समाणे दोहां सुहसेज्जं उवसं पज्जित्ताणं | विहरइ ॥ ३३ ॥ उघहिपच्चख्खाणेणं भंते जीवे किं जणयइ । उवहि पञ्चख्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ निरुवहिएणं जीवे निकंख्खे उवहि मनरेणय नयसंकिल्लिस्सइ ॥ ३४ ॥ आहार पच्चख्खाणेणं भंते जीवे किं जणयइ आहारपञ्चख्खाणेणं जीवियासंसप्पउगं वोछिंदइ जीवियासंसप्पउग्गं वोच्छिंदित्ता जीवे आहारमंतरेणनय संकिलिस्सइ ॥ ३५ ॥ ३३. सम्भोग-प्रत्याख्यान एटले *मंडळमां [सौनी साथे बेसीने] आहार करवाना पच्चखाण करवाथी* जीव आलम्बना दूर करी शके छ; अनालम्ब थवाथी ते आत्मानो अर्थ ( मोक्ष ) साधी शके छ, पोताने मळेला लाभमांज संतोष माने छे; पारकाने थयेला लाभने ते वांछतो नथी, तेनी इच्छा करतो नयी, स्पृहा करता नथी अथवा तो तेनी याचना करतो नथी% अने बीजा साधु-18 ओनी इपी कर्या सिवाय ते जुदा उपाश्रयने विषे रहे छे. (३३). ३४. उपधि-प्रत्याख्यान एटले रजोहरण, मुख बस्त्रिका, पात्रादि जरुरनी वस्तुओ सिवाय बीजी वस्तुओ राखवाना पच्चखाण करवाथी निर्विघ्ने स्वाध्याय [ अभ्यास ] करी शकाय छे उपधि रहित जीव वस्त्रादिनी इच्छा-रहित थइ शके छे अने क्लेश पामतो नथी. [३४]. ३५. आहार-प्रत्याख्यान एटले (सदोष) आहारना पञ्चखाण करवाथी जीव जीवितव्यनी आशा राखतो नथी, अने जीवितव्यनी आशारहित जीव आहारना अभावे क्लेश पामतो नथी.(३५). *आने बदले प्रो. जेकोबी एवो अर्थ करेछे के 'एकज मंडळ, अथवा विभागमांथी आहार व्होरवाना पच्चखाण करवाथी." Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. कसाय पच्चख्खाणेणं भंते जीवे किंजणयइ । कसाय पञ्चदखाणेणं वीतराग भावं जणयइ । वीतराग भाव पडिवणेयणं जीवे समसूह दुख्खे भवइ ॥ ३६ ॥ जोगपञ्चख्खाणेणं भंते जीवे किं जणयइ जोगपच्चस्खाणेणं अजोगत्तं जणय अजोगणिं जीवे नवंकम्मं नबंधइ पुव्वबंधंनिज्जरेइ ॥ ३७ ॥ सरिरं पञ्चख्खाणेणं भंते जीवे किं जणयइ सरिर पञ्चख्खाणेगं सिध्धाइसय गुणत्तं निव्वत्तेइ । सिध्धाइसय गुणसंपणेयणं जीवे लोगग्ग मुवगए परम सुहीभवइ ॥३८॥ सहाय पच्चख्खाणेणं भंते जीवे किंजणयइ । सहाय पच्चख्खागेगं एगीभावं जगयइ । एगीभावं भूरणंजीवे एगगं भवे मागे अल्पप्तद्दे अपझंझे अप्पकलहे अपकलाए अब तुमं तुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले समाहिएयावि भवइ ॥३९॥ भत्तपच्चख्खागणं भंते जीवे किं जगयइभत्तपच्चख्खाणेणं अणेगाई भवसयाई निरंभइ ॥४॥ ३६. कषाय-प्रत्याख्यान एटले क्रोध, मान, माया अने लोभना त्यागी जीवने वीतराग-भाव उत्पन्न थाय छे, अने तेम थवाथी ते सुख दुःखने समान गणे छे. [३६].३७. योग-प्रत्याख्यान एटले मन, वचन, कायानो निरोध करवाथी जीव अयोगित्व पामे छे अने एवो अयोगी (क्रियारहित) जीव नवां कम बांधतो नथी, अने पूर्व बांधेलां कर्मनो क्षय करी शक छे. [३७]. ३८.शरीर-प्रत्याख्यानथी जीव सिद्धना सर्वोत्कृष्ट गुणो प्राप्त करी शकेछ अने तेम थवाथी ते लोकाग्रे रहेला मुक्ति पदने पामेछे अने परम सुखी थाय छे. [३८].३९. सहाय-प्रत्याख्यान एटले सहायक साथे राखवाना पच्चखाणथी जीव एकी भाव उपार्जे छ; एकत्व प्राप्त थवाथी ते एकाग्रति * राखी शके छे, अने ते थोडा बोलो [ अल्प-शब्द] तथा कलह, कषाय अने पर परिवाद रहित थाय छे, अने संयम, संवर अने समाधिमां सुदृढ थाय छे. [३९]. ४०. भक्त-प्रत्याख्यान एटले भात [ आहार-पाणी ना पच्चखाणथी जीव हजारो भव करतो अटके छे. [४०]. . * Concentrating his mind. 0000००००००००००००० For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9660 उ.अ.1.1 6006०००००००0000 सझाव पच्चखाणेणं भंते जीवे किं जणयइ । सझाव पच्चख्खाणेणं । अनियट्टि जणयइ अनियहि पडिवन्नेय अणगारे । चत्तारि केवलि कम्मसे खवेइ तंजहा वेयणिज्ज आओयं नाम गोत्तं तओ पछा सिझइ बुझइ मुच्चइ परिनिव्वायइ । सव्व दख्खाणं मंतं करेड ॥४१॥ पडिरूवयाएणं भंते जीवे कि जणयड । पडिरूवयाएणं लाघवियंजणयड लहुभूएणंजीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसथ्थलिंगे विसूद्ध समत्ते सत्त समिइ समत्ते सव्वपाण भूयजीवसत्तेसु विससणिज्ज रूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउल तव समिइ समन्नागएयावि भवइ ॥ ४२ ॥ वेयावच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ यावच्छोणं तिथ्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ ॥ ४३ ॥ सव्वगुण संपन्नयाएणं भंते जीवे किं जणयइ सव्वगुण | संपन्नयाएणं अपणरावर्ति जणयइ । अपुणरावत्तिं पत्तएणं जीवे सारीर माणसाणं दखाणं नो भागीभवइ ॥४४॥ ४१. सद्भाव-प्रत्याख्यान एटले सर्व संवर रुप पच्चखाणथी [अथवा चतुर्दश गुण स्थाने रहीने वर्तवाथी] जीव [अनिवृत्ति शुक्ल ध्याननो चोथो पायो उपार्जे छ शुक्ल-ध्याननो चोथो भेद प्राप्त थवाथी केवलि पण जे चार कर्मनो क्षय न करी शके | ते :-(१) वेदनीय कर्म, (२) आयुः कर्म, (३) नाम कर्म अने (४) गोत्र कर्म. ए चारे कर्म खपावीने जीव सर्व दुःखनो अंत आणी शके छे. [ अर्थात-सिद्ध गतिने पामेछे . [४१]. प्रतिरुपता एटले स्थविर कल्पि साधुने योग्य वेष धारण करवाथी जीव लघुत्व [सरळपणुं ] उपार्जे छ तेम थवाथी ते अप्रमत्त रहे छे, साधुपणानां चिह्न [ रजोहरणादि] प्रकटपणे धारण करे छे, विशुद्ध सम्यक्त साचवे छे, सत्व (धैर्य) अने समितिमा परिपूर्ण रहेछे, सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्वनो विश्वास संपादन करे छे, तेने उपगरण थोडां होवाथी पडिलेहण पण थोडं कर पडे छे, ते इन्द्रियोने जीती शके छ अने विपुल तप करतो थको पांच समिति सहित वि चरे छे. (४२). ४३. वैयात्त्य एटले अन्य साधुओने आहारादि आणी आपवामां सहाय करवाथी जीव तीर्थकर, नाम अने गांवनां 8 कर्म बांधे छे.[४३]. ४४. सर्व गुण संपन्नता एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि सर्व गुणे करीने सहित होय ते जीव अपुनराशत्ति एटले मुक्ति उपार्जे छ; अने अपुनराति एटले मोक्ष प्राप्त थयेला जीवने शरीर अने मननां दुःख भोगववां पडतां नथी. (४४). है ०००००००००००००००००० ००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०००००० स.अ. वीयरागयाएणं भंते जीवे कि जणयह वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणिय तएहाणु बंधणाणिय बोछिदइ मणुणा मणुणेसु सदफरिस रसरुव गंधेमु चेव विरज्जइ ॥ ४५ ॥ खंतीएणं भंते जीवे किं जणयइ । खंतीएणं परीसहे जिणयइ ॥ ४६॥ मुत्तीएणं भंते जीवे किं जणयइ । मुत्तीएणं अकिंचणं जणयई। अकिंचणेय जिवे अथ लोलाणंपुरिसाणं अप्पथ्थणिज्जे हवई ॥ ४७ ॥ अज्जवयाएणं भंते जीवे कि जणयइ अजवयाएणं काउजययं भावजूययं भासुजूययं । आविसंवायणंजणयइ अविसंवायण संपन्नयाणं जीवे धम्मस्सु आराहए भवइ ॥ ४८ ॥ महवयाएणं भंते जीवे किं जणयइ महवयाएणं अणुस्सियसं जणयइ अणुस्सियत्तेणं जीवे मिउमहव संपन्ने अठमयठाणाई निठवेइ ॥ ४९ ॥ ४५. वीतरागता एटले राग द्वेष रहित थवाथी जीव स्नेह अने तृष्णानां बंधन छेदी शके छ; अने शुभाशुभ शब्द, स्पर्श, रस, 18] रूप अने गंधथी विरक्त थाय छे.[४५]. ४६.शान्ति एटले क्षमा राखवाथी जीव परिसहने जीती शके छे,(४६). ४७. मुक्ति एटले निर्लोभताथी जीव अकिंचनता(परिग्रहरहितपणु) उपार्जे छ; अने एवो अकिंचन एटले अर्थरहित जीव द्रव्यार्थी लोको चौर वगेरे] 18 ने अप्रार्थनीय थाय छे.* [४७]. ४८. आर्जव एटले सरलताथी जीव कायानी [ अथवा कार्यनी ], भावनी अने भाषानी सरलता माप्त करी शके हे, अने अविसम्वाद (सत्य-शीलता) पामे छ; अने अविसंवाद संपन्न जीव धर्मनो आराधक बने छे. [४८]. ४९. मार्दव एटले निराभिमानथी जीव अहंकारनो अभाव उपाजे छे अने एवो मान त्यागी जीव मृदु अने कोमल स्वभावनो थाय छे, अने अष्ट। मद् स्थाननो क्षय करी शके छे. [४९]. * आने बदले प्रो. जेकोबी एवो अर्थ करे छ के 'द्रव्यनी इच्छाने वश थतो नथी.' १ आठ मद-जाती मद, कूळ मद, तप मद, रुप मद, बळ मद, लाभ मद, ज्ञान मद अने ऐश्वये मद. ०००००००००००००००००००००००००० 3.०००००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. | भावसंच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ भावसकोणं भावविसोहिंजणयइ भावविसोहिंए वट्टमाणे जीवे अरहंत पणत्तरस धम्मस्स आराहणयाए अझुठेइ अरहंत पणत्तस्स धम्मस्त आराहणयाए अझुठित्ता परलोगस्स धम्मरस आराहए A भवइ ॥ ५० ॥ करणसच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ करणसच्चेणं जीवे करणसत्ति जणयइ करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाइ तहाकारियावि भवइ ॥ ५१ ॥ जोगसच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ । जोगसच्चेणं विसोहेइ ॥ ५२ ॥ मणगुत्तयाएणं भंते जीवे किं जणयइ मणगुत्तयाएणं जीवे एगग्ग चित्तं जणयइ एगग्ग चित्तेणंजीवे मणगुत्तेसंजम माराहए भवइ ॥ ५३ ॥ वयगुत्तयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । वयगुत्तयाएणं निविकारत्तं जणयइ । निधिकारेणं जीवे वयगुत्ते अझप्प जोग साहणजुत्तेय वि भवइ ॥ ५४ ॥ ००००००००००००००००००. 10०००००० ०००००००००००००००००००००००० ५०. भाव-सत्य एटले साचा भावथी जीव मननी विशुद्धि प्राप्त करे छ; अने भाव विशुद्ध जीव श्री जिन-भाषित धर्म आराधे छ; अने धर्मने विष सावधान रहेबाथी परलोके पण ते श्री अईत प्रणीत धर्मनो आराधक थाय छे. [५०]. ५१. करण अथवा क्रिया-सत्य एटले प्रतिलेखनादि क्रिया यथाविधि करवायी जीव क्रिया-सामर्थ्य मेळवे छे; अने क्रिया-सत्य जीव जे प्रमाणे बोले ते प्रमाणे वर्ने छे. (५१). ५२ योग-सत्य एटले मन, वचन, कायाना सत्य व्यापारथी मन, वचन, काया निर्दोष थाय छे. (५२). ५३. मनो-गुप्ति एटले मनने अशुभ पदार्थोथी संभाळवाथी एकाग्रवृत्ति प्राप्त थाय छ; अने एवो एकात्ति वाळो जीव संयमनो आराधक [ पालक ] थाय छे. [५३]. ५४. वाग-गुप्ति एटले वचनने अशुभ पदार्थोथी संभाळवाधी जीव. निर्विकारपणु प्राप्त करी शके छ : अने निर्विकारपणुं पामवाथी जीव अध्यात्म-योग साधी शके छे. (५४). ०००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. कायगुत्तयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । कायगुत्त्याएणं संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते पुणोपावासबनिरोहं करेइ ॥ ५५ ॥ मणसमाहारणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । मणसमाहारण्याएणं एगगा जणयइ एगा जणइत्ता नाण पज्जवे जणयइ नाण पज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहइ मित्तंचनिजरेइ ॥ ५६ ॥ वइसमाहारणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । वइसमाहारणयाएणं दसणपज्जवेविसोहेइ दंसणपज्जवेविसोहित्ता सुलभबोहियत्तनिव्वत्तेइ दुल्लभ बोहियत्तं निज्जरेइ ॥५७॥ कायसमाहारणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । कायसमाहारणयाएणं जीवे चरित्तपज्जवे विसोहेइ । चरित्तपज्जवे विसोहित्ता अहख्खाय चरित्तपजवे विसोहेइ अहरुखाय चरित्तपज्जवेविसोहित्ता चत्तारिकेवलि । कम्मसे खवेइ । तउ पल्ला सिझइ बुझइ मुच्चइ परिनिव्वायइ सयदुख्खाण मंतंकरेइ ॥ ५८ ॥ ५५. काय-गुप्ति एटले कायाने अशुभ व्यापारथी संभाळवाथी जीव संवर-योग उपार्जे छे, अने तेम थवाथी पापाश्रवनो निरोध करी शके छे. [१५]. ५६. मन-समाधारणा एटले मनने शुभ स्थानने विषे स्थापवाथी जीव धर्ममां स्थिर हात्त अथवा एकाग्रपणुं पामे छे, अने एवी एकाग्रहात्ति प्राप्त थवाथी ज्ञानना पर्याय पामी शकाय छ जे सम्यक्तने निर्मल करे छे अने मिथ्यात्वनो क्षय करे छे. [२६]. ५७, वाक-समाधारणा एटले वचनने शुभ कार्यमा स्थापवाथी दर्शन विशुद्ध थाय छे; सम्यक्त निर्मल थवाथी सुलभ बोधित्व प्राप्त थाय छे अने दुर्लभ बोधित्वनो नाश थाय छे. (५७), ५८. काय-समाधारणा एटले कायाने शुभ कार्यमां 8 स्थापवाथी चारित्र निर्मल थाय छे, अने तेम थवाथी जीव यथाविधि संयम पाळी शके छे अने ते वड़े चार केवलि कर्मना अंश 8 (वेदनी, आयु, नाम अने गोत्र )नो क्षय करी शके छे. त्यारपछी जीव सिद्धि, बुद्धि, मुक्ति अने निर्वाण प्राप्त करी शके छे अने 8 सर्व दुःखनो अंत आणी शके छे. [५८]. *सुमिति अने गुप्तिथी आश्रवने रोकवू ते. ००००००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ./ २५१ 20100.... १९९००० नाणसंपन्नयाएणं भंते जीवे कि जणयइ नाणसंपन्नयाएणं जीवे सव्वभावाभिगमं जणयइ नाणसंपन्नेणं जीवे चाउरंत । संसार कंतारे नविणरसइ जहासुइ ससुत्ता पडियाविनविणस्सइ । तहा जीवो विससुत्तो संसारे नविणस्सइ नाण वि-8 णय तवचरित्राजोगे संपाउणइ ससमयपरसमय संघायणिज्जे भवइ ॥ ५९॥ दसण संपन्नयाएणं भंते जीवे किं जणयइ दंसणसंपन्नयाएणं भवमिछुत्तयणंकरेइ । परं नविझायइ परं अविझायमाणे अणुत्तरेणंनाणदसणेणं अप्पाणं संजोएमाणेसम्मभावेमाणे विहरइ ॥ ६ ॥ चरित्त संपणयाएणं भंते जीवे किं जणयइ । चरित संपणयाएणं सेले सीभावंजणयइ । सेलेसीभावं पडिवणेय अणगारे चत्तारि केवलि कम्मंसे खवेइ। तओ पछा सिझइ बुझइ मुञ्चइ परिनिव्वायइ सव्वदुख्खाण मंतं करेइ ॥ ६१ ॥ ५९. ज्ञान-संपन्नताथी *जीव-अजीवन स्वरुप ( तत्व ज्ञान ) जाणी शकाय छे.* अने एवो तत्व ज्ञान संपन्न जीव चतुर्गति संसाररुप अटविने विषे भटकी मरतो नथी. जेम सूत्र [ दोरो] परोवेली सोय कचरामा खोवाइ जती नथी तेम सूत्र [सिद्धान्त ] ज्ञाने करीने सहित जीव संसारमा गुम थतो नथी. ते ज्ञान, दर्शन, तप अने चारित्रना योग सम्यक प्रकार साधे छे, अने पोतानां | तेमज पर धर्मनां शास्त्रामा निपुणता भेळवे छे अने प्रधान १ पुरुष [ अजीत ] गणाय छे. [५९. ६०. दर्शन-संपन्नताथी भव (भ्रमण न कारण जे मिथ्यात्व तेने छेदी शकाय छे अने आत्मामा ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनो ] जे प्रकाश होय छे तेनो नाश थतो नथी; परंतु ते पोताना आत्माने ज्ञान दर्शन युक्त राखीने सम्यक्त भावथी विचरे छे. [६०]. ६१. चारित्र-संपन्नताथी जीव शैलेशीभाव एटले मेरु पर्वतना जेवी दृढता उपार्जे छ; अने ते वडे जीव चार केवलि कर्मना अंशनो क्षय करी शके छ; अने त्यार पछी सिद्धि, बुद्धि, मुक्ति अने निर्वाण पामे छे अने सर्व दुःखनो अंत आणी शके छे. (६१). *आने बदले मो. जेकोबी एवो अर्थ करे छे के ' शब्द भने शब्दार्थ जाणी शके छे. १ Invincible 2००००० ००००००००००००००००० ०००००००0-3-6 Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २९ २५२ सोइदिय निग्गणं भंते जीवे किं जणयइ । सोइंदिय निग्गहेणं मणुन्ना मणुन्नेसु ससु रागदोस निग्गहं जणया । तपच्चइयंच कम्मं नबंधइ पुव्वबडंच निज्जरेइ ॥ ६२ ॥ चखिदिय निग्गणं भंते जीवे किं जणयइ । चख्खि दिय निग्गणं मणुन्ना मणुन्नेसु रुखेस रागदोस निग्गहं जणयइ तप्पञ्चइथंच कम्मं नबंधइ पुष्वबद्धंच निज्जरेइ ॥ ६३ ॥ घाणिदिय निग्गणं भंते जीवे किं जणयइ । घाणिदिय निग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु गंधेसु रागदोस निग्गहं जणयइ । तप्पच्चइयंच कम्मं नबंधइ पुव्वबद्धंच निज्जरे ॥ ६४ ॥ जिनिंदिय निग्गहेणं भंते जीवे किं जणयह जिभिदिय निग्गणं मणुन्नामणुन्नेसु रसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ । तप्पच्चइयंच कम्मं नबंधइ पुव्वबद्धंच निजाइ ॥ ६५ ॥ फासिंदिय निग्गहेणं भंते जीवे किं जणयइ । फासिंदिय निग्गहेणं मणुन्ना मणुन्नेस फासेसु दोस निहं जणय तप्पच्चइयंच कम्मं नबंधइ पुव्वबद्धंच निज्जारेइ ॥ ६६ ॥ कोहविजएणं भंते जीवे किं जणयइ । कोहविजएणं खंति जणयइ कोहवेयणिज्जां कम्मं नबंधइ पुव्यबद्धंच निज्जरे ॥६७॥ ६२. श्रोत्रेन्द्रिय - निग्रह एटले कानने वश राखवाथी जीवने भला मूंडा शब्द उपर रागद्वेष उपजतो नथी, अने तेथी ते संबंधीनां कर्म जीव बांधतो नथी अने पूर्वे बांधेलां कर्म खपावी शके छे. [ ६२ ]. ६३-६६. चक्षुरिन्द्रिय- निग्रह, घ्राणेन्द्रिय - निग्रह, जिह्वेन्द्रिय - निग्रह अने स्पर्शेन्द्रिय - निग्रहथी एटले आंख, नाक, जीभ अने त्वचा वश राखवाथी अनुक्रमे भला मूंडा रुप उपर, गंध उपर, रस उपर अने स्पर्श उपर रागद्वेष उपजतो नथी, अने तेथा ते ते संबंधीनां कर्म जीव वांधतो नथी, अने पूर्वे बांधेां कर्म खपावी शके छे. (६३-६६). ६७. क्रोध विजयथी जीव क्षमा उपार्जे छे; क्रोधने जीतवाथी जीव क्रोधना वेदनी कर्म बांधतो नयी अने पूर्वे वांधेलां कर्मनो क्षय करी शके छे. [ ६७ ]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. २९ २५३ माण विजएणं भंते जीवे किं जणयइ माण विजएणं मद्दवं जणयइ मागवेयणिज्जं कम्मं नबंधइ पुव्वबद्धंच निज्जरेइ ॥ ६८ ॥ माया विजएणं भंते जीवे किं जणयइ मायाविजएणं अज्जवं जणयइ माया वेयणिज्जं कम्मं नबंधइ पुव्यबर्द्धच निज्जरेइ ॥ ६९ ॥ लोभ विजएणं भंते जीवे किं जणयइ लोभ विजएणं संतोसभावं जणयइ लोभ वेयणिज्जं कम्मं नबंधइ पुव्यबर्द्धच निज्जरेइ ॥ ७० ॥ पेज्जदोस मियादंसण विजएणं भंते जीत्रे किं जणयइ दोस मिलादंसण विजएणं नाण दंसण चरित्ता राहणयाए अझुडेइ अठ्ठाविहस्स कम्मरस कम्मगंठिस्स विमायण ६८-७०. मान, माया अने लोभने जीतवाथी जीव अनुक्रमे मार्दव, सरलता अने संतोष उपार्जे छे; अने मान, माया अने लोभनां वेदनी कर्म बांधतो नथी, अने पूर्वे वांधेलां कर्मनो क्षय करी शके छे. [ ६८-७० ]. ७१. राग, द्वेष अने मिथ्या दर्शन विजयी जीव ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी आराधनामां सावधान रहे छे अने अष्ट विध कर्मनी गांठने [ अथवा अष्ट प्रकारनां घाति कर्मनी कठिन जालने ] तोडवाने सावधान वने छे. अनुक्रमे प्रथम ते अहावीश [ १६ कपाय + ९ नोकपाय + ३ दर्शन मोहनी कर्म ] मोहनी कर्मने खपावे छे; पछीथी पांच ज्ञानावरणीय, २ नव दर्शनावरणीय अने पांच अंतराय कर्मने खपावे छे, छेला त्रण प्र कानां कर्मनां अंश ते एकी साथेज खपावे छे; त्यारपछी ते सर्वोत्कृष्ट अनन्तार्थ, संपूर्ण, निरावरण, विशुद्ध, दोषरहित अने लोका * मोहनी कर्मना वे भेद छे. दर्शन मोहनी अने चारित्र मोहनी. दर्शन मोहनीना त्रण भेद-सम्यक्त मोहनी, मिश्र मोहनी अने मिथ्यात्व मोहनी. चारित्र मोहनीना २५ भेद-१६ कपायनी चौकडी अने ९ नोकषाय. १. मति ज्ञानावरणीय, श्रुत ज्ञानावरणीय, अवधि ज्ञानावरणीय, मनपर्यव ज्ञानावरणीय, केवल ज्ञानावरणीय. २. चक्षु दर्शनावरणीय, अचक्षु दर्शनावरणीय, अवधि दर्शनावरणीय, केवळ दर्शनावरणीय, निद्रा, निद्रा निद्रा, प्रचला, मचला प्रचला, थीणद्धि निद्रा. ३. दानांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, भोगांतराय, वीर्यात राय. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --main-musio 00000000000०००००००००००००००००००००००००००००००० | याए तप्पढमयाएणं ज्हाणुपुट्विं अठाविसइ विहं मोहणिज कम्मं उग्घाणु । पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दस| णावरणिज्ज पंचविहं अंतराय एए तिणिवि कम्मसे जुगवं खवेइ तओ पवा अणुत्तरं अणतं कसिणं पडिपुणं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगा लोग प्पभावगं केवल वरनाण दसण समुप्पाडेइ जाब सजोगी भवइ ताव इरियावहियं कम्मं निबंधइ सुइ फरिसं दुसमयठिइयं तंजहा तंपढम समए बद्धं बीइय समए वेदियं तइए समए निजिनं तं बधं पुठं उदिरियं वेइयं निजिन्न सेयकालेय अकम्मयावि भवइ ॥ ७१ ॥ अहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तधावसेसाउए जोग निरोहं करेमाणे सहमकिरियं अप्पडिवाइयं सुक्कझाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरंभइ8 मणजोगं निरूभइत्ता वयजोगं निरंभइ वइजोगं निरंभइत्ता कायजोगं निरंभइ कायजोगं निरुभइत्ता आणापाण | निरोहकरेई आणापाण निरोहंकरित्ता इसि पंच रहस्स ख्खरुच्चारणध्धाएयणं अणगारे समुच्छिन्न किरियं अनियहि सुक्क लोक प्रकाशक एवं केवल ज्ञान-दर्शन प्राप्त करे छे, ज्यां सुधी जीव संयोगी एटले मन, वचन, कायाना व्यापारमा ] रहे छे त्यां सुधी ते इयों-पथिक [ एटले हालवा चालवाथी लागता कर्म बांधे छे ते सुख स्पर्शनी स्थिति मात्र द्वि समय (बे पळ ) नी छ; का प्रथम पळे ते कर्म बंधाय छ, बीजी पळे ते अनुभवाय छे अने त्रीजी पळे तेनो लय थाय छे. आ प्रमाणे कर्म बंधाय छे, जीवने ते | al स्पर्श करे छ, तेनो उदय थाय छे, ते अनुभवाय छे अने तेनो नाश थाय छ, अने भविष्यकालमां जीव कर्मरहित बने छे. (७१). 8 ७२. आ प्रमाणे केवल-ज्ञान प्राप्त थया पछी अने अवशेष मुहूर्त मात्र आयुष्य गाळ्या पछी जीव मन, वचन, कायाना व्यापारनो निरोध करे छे अने शुक्ल ध्याननी त्रीजी पंक्तिमा प्रवेश करे हे, जेमाथी पाछा पडवापणुं नथी अने जेमा मात्र सूक्ष्म क्रियानीज जरूर छ. प्रथम ते मनोयोग रुंधे छ, पछी वचन-योग रुंधे छे, त्यारपछी काया-योग रंधे के अने छेवटे स्वासने रुंधे छे, पांच इस्त्र Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००० झाण झायमाणे वेयणिज्ज आउयं नाम गोत्तं चएण चत्तारिविकम्मसे जुगवं खवेइ ॥ ७२ ॥ तउ उरालिय तेय कम्माइंच सव्वाहिं विप्पजहाणाहिं विप्पजहित्ता उजुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उर्ल्ड एगसमएणं अविग्गहेणं तथ्थ गंता | सागारो वउत्ते सिझइ बुझइ मुच्चइ परिनिव्वायइ सव्वदुख्खाण मंतं करेइ ॥ ७३ ॥ एस खलु सम्मत्त परक्कमरस | अझयणस्स अठेसमणेणं भगवया महावीरेणं आघविए पन्नविए परुविए दंसिए निदंसिए उवदंसिए तिबेमि . ७ ॥ इति समत्त परकम्मनाम झयणं आगनतिसमं सम्मत्तं ॥ २९ ॥ ॐ । अक्षरनो उच्चार करवामां जेटलो वखत लागे तेटला वखतमा ते शुक्ल-ध्याननी चोथी पंक्तिमां पहोंचे छे अने शैलेशी अवस्था अनुभव छे, अने वेदनी, आयु, नाम अने गोत्र ए चार कर्मना अंश एकी साथे खपावे छे. (७२). ७३. वेदनीयादि चारे कर्म खपाव्या 8 पछी *औदारिक, १ कार्मण अने २ तेजसादि शरीर तजीने जीव ऋश्रेणी [ सीधी लीटी ने स्वरुप धारण करीने एक क्षणमा कशाने स्पर्श कयो सिवाय अने लेश मात्र जग्या रोक्या सिवाय उर्ध्व गतिने विपे चाल्यो जाय छे अने मोक्ष स्थानने विष पहोंच्या पछी साकार रुप ज्ञानोपयोग युक्त धारण कर छ; अने सिद्धि, बुद्धि, मुक्ति अने निर्वाण प्राप्त करेछे अने सर्व दुःखनो अंत आणे छे. [७३]. सम्यक्त पराक्रमनो सत्यार्थ आ प्रमाणे श्रमण भगवंत श्री महावीर देवे कह्यो छे, प्रकट कर्यो छे, मरुप्यो छे अने दर्शाव्यो छे. * ॥ ओगणत्रीसमें अध्ययन संपूर्ण ॥ * * जे शरीरमा हाड मांस होय ते. १-२ जीव साथे आबे सुक्ष्म शरीर रहे छे. देवताओने औदारिक शरीर न होय पण तेने बदले वैक्रिय शरीर होय, जेथी ते नानू मोटु स्वरुप धारण करी शके. पांच, आहारक शरीर. चौद पूर्व धारी मुनीराज तीर्थकरनी 18 18 रिद्धि ममुख जोवा एक हाय प्रमाण देह धारण करे ते. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ 9090000. m mu अध्ययन ३०. तपनो मार्ग. 18| जहाउ पावगं कम्मं रागदोस समज्जियं । खवेइ तवसा भिख्खू तमेगग्गमणो सुण ॥१॥ पाणवह मुसावाया अदत्त मेहुण परिग्गहाओ विरओ। राइभोयण विरओ जीवो भवइ अणारसवो ॥२॥ पंचसमिओ त्तिगुत्तो अकसाओ जिई. 18| दिओ । अगारवोय निसल्लो जीवो भवइ अणासवो ॥ ३ ॥ एएसिंतु विवच्चासे रागदोस समज्जियं । खवेइउ जहां भिख्खू तमेगग्गमणो सुण ॥ ४ ॥ जहा महा तलागस्स संनिरुध्धे जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए कम्मेण सो. सणा भवे ॥ ५ ॥ एवंतु संजयरसावि पावकम्म निरासवे । भवकोडी संचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ ॥ ६॥ | सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरझिंतरो तहा । बाहिरो छविहो वुत्तो एव मझिं तरो तवो ॥ ७ ॥ अध्ययन ३०. ॐ राग देष करीने उपार्जेलां पाप कर्मनो साधु तप वडे केवी रीते क्षय करे छे ते एकाग्र मने सांभळो. (१). प्राणी वध, मृपावाद, 2 अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह अने रात्रि भोजनथी विरक्त रहेवाथी जीव निराश्रय [पाप हेतु रहित] बने छे. (२), पांच समिति अने त्रण गुप्तिए सहित, कषाय रहित, जितेन्द्रिय, गर्व रहित अने निशल्य [ शल्य अथवा माया रहित ] थवाथी जीव अनाश्रव [आश्रवरहित ] बने छे. [३]. पुर्वोक्त ( उपर कहेला) लक्षणोना अभावे साधु रागद्वेषवडे उपार्जेलां कर्मनो केवी रीते क्षय करे छे ते एकाग्र मनथी सांभळो. [४]. जेम कोइ मोटा तळावनो पाणी आववानो मार्ग रुंधी राखवाथी जेम ते तळाव उपयोग अने मूर्यनां किरणना आकर्षणवडे धीमे धीमे शोषाइ जाय छे, तेवी रीते जो साधु पाप कर्भने आववानो मार्ग रुंधे तो कोटी भवमां तेने लागेला कर्मनो तप बडे करीने ते क्षय करी शके छ, [५-६]. तप बे प्रकारनां छे:-(१) बाह्य तप अने (२) अभ्यंतर तप वाडा सपना छ भेद छे तेमज अभ्यंतर तपना पण छ प्रकार छे. (७).. --... .. ००००००००००००००००००००० Jan Education Interational For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. अणसण मूणो यरिया भिख्खायरियाय रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणयाय बझो तवोहाइ ॥ ८॥ इत्तरिय मरणकालाय अणसणा दुबिहा भवे । इत्तरिया सावकंखा निरवकंखाओ बेइज्जिया ॥ ९॥ जो सो इत्तरिय तवो सो २५७ समासेण छविहो । सेढि तवो पयर तवो घणोय तहहोइ वग्गेय ॥ १० ॥ तत्तोय बग्गवग्गो पंचमोछठओ पइ न्नतवो । मण इच्छिय चित्तथ्थो नायव्यो होइ इत्तरिओ॥११॥जा सा अणसणा मरणे दुविहा सावियाहिया । सविया । रमवियारा कायचिठ्ठपइभवे ॥ १२ ॥ बाह्य तपना छ प्रकार :-(१) अनशन एटले उपवासादिक. [२] *उनोदरिक एटले ओछु खावू ते. ३ भिक्षाचर्या एट ६ घरोघर भटकीने आहार मेळववो ते. (४) रस त्याग एटले स्वादिष्ठ खोराकनो परित्याग करवो ते. [५]:काय-क्लेश एटले टाढ तडको सहन करवो ते, [६] संलीनता एटले अंग-उपांग संकोचवां ते. ए प्रमाणे छ भेदे बाह्य तप कह्यो छे.(८). १. अनशनना बे भेद छ :-[अ] इत्वरिक तप अने [व] मरण काल पर्यंत तप करवं ते इत्वरिक तपमां भोजन करवानी इच्छा रहे अथवा तो तेवी इच्छा न पण रहे. (९). (अ) इत्वरिक तपना संक्षेपे छ भेद कह्या छे. (१) श्रेणि-तप [२] प्रतर-तप [३] घन-तप [४] वर्ग-तप ५६ वर्गवर्ग-तप अने [६] प्रकीर्ण-तप, ए रीते इत्वरिक तप इप्सित पदार्थनी प्राप्ति अर्थे करी शकाय छे. (१०-११).1 [व] मरण । काल-तप बे प्रकारर्नु छ :-१ सविकार एटले काय-चेष्टा सहित [एटले हाथ पग हलाववा ते ] अने २ अविकार एटले काय चेष्टा रहित. [१२]. * प्रतिदिन आहारमा उतरता जवू एटले प्रथम ३२कोळिया जमता होइए तेमाथी अनुक्रमे उतरतां उतरतां एक कोळिया उपर. निर्वाह चलाववो ते. १. आ रीते पहेलामा ४ बीजामा १६ त्रीजामा ६४, चोथामा ६४४६४-४०९६, पांचमामां १६७७७२१६ 18 उपवास आवे छे. अने छल्ला प्रकारना उपवास करतां तो सात लाख वर्ष वीती जाय छे. माटे ए तप दीर्घ आयुष्यना धणी श्री तीर्थकर भगवानथीज बनी शके तेवां छे. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३० २५८ T अवास पडिकम्मा अपरिकम्माय आहिया । नीहारि मनिहारी आहार ओय दोसुवि ॥१३॥ उमोयरियं पंचहासमासेण वियाहियं । दव्बउ खेत्त कालेणं भावेणं पज्जवेहिय ॥ १४ ॥ जो जस्सउ आहारो ततो उणंतु जो करे । जहन्ने गसिध्याइ एवं दव्त्रेण उभवे ॥ १५ ॥ गामे नगरे तह रायहाणि निगमेय आगार पल्ली | खेड कब्बड दोमुह पण मडंब संबाहे ॥ १६ ॥ आसमपए विहारे संनिवेसे समाय घोसेय । थल सेणाखंधारे अथवा तो ? परिकर्मणा सहित अने २ परिकर्मणा रहित; एटले परिवर्त्तनादि चेष्टा सहित अथवा एवी चेष्टा रहित बने प्रकारे आहार त्याग करे. [१३]. २. उनोदरिक तप :- एना पांच भेद संक्षेपे कह्या छे :- [अ] द्रव्ये, [घ] क्षेत्रे, [क] काले, [ड] भावे अ [इ] पर्याये. (१४). [अ] द्रव्य-उनोदरिक तप :-जेने जेटलो आहार होय ते करतां ओछो आहार करे; छेवट एकज कोळियो ओछो जमे ते द्रव्य-उनोदरिक रूप कहेवाय. (१५). (ब) क्षेत्र-उनोदरिक तप :- क्षेत्र एटले गाम, नगर, राजधानीं शर, निगम [aणक निवास], आगम (सुवर्णादि उत्पन्न थतां होय ते स्थळ), पल्ली (वृक्षादिथी छवायेलुं अने बसायेलुं स्थळ ), खेत ( धूळना कोटवालुं स्थळ ), कर्बट ( सामान्य नगर), द्रोण मुख (जळ अने स्थळ बन्ने मार्गे जे गाममां प्रवेश करी शकाय ते, जे के भ्रगु कच्छ), पट्टण (मोढुं शहेर), मतम्ब [ जेनी आसपास साडा त्रण योजन सुधीमां बीजुं कोइ गाम न होय ते स्थळ ], सम्बाध [यां चारे वर्णनो निवास होय एवं स्थळ ], आश्रम [तापस लोक वसता होय एवं स्थळ ], बिहार [देव गृह अथवा भिक्षुकने रहेवानुं स्थळ ], सन्निवेश [यात्रादिक अर्थे लोको ज्यां भेगा थता होय ते स्थळ], समाज (पंथी लोक अथवा मुसाफरो ज्यां * पुरुषनो पूरी आहार ३२ कोळियानो अने खीनो २८ कोळियानो गणाय छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M सथ्थे संवदृक्कोट्टेय ॥ १७ ॥ वाडेसुव रथ्यासुव घरेसुवा एव मित्तियं खेत्तं । कप्पइओ एवमाइ एवं खित्तेणउ | 18| भवे ॥ १८ ॥ पेडाय अद्धपेडा गोमुत्ति पयंगवीहियाचेव । संबुक्कावट्टाय गंतु पञ्चागया छठा ॥ १९ ॥ २५९ मेगा थता होय तेवं स्थळ], घोष गोवाळिया भेगा थता होय ते, स्थळ], स्थल-सेनास्कन्धार (उच्च भूमिपर सेना पडाव नांखीने रहेती होय तेवं स्थळ), करियाणादि लइने जता आवता लोकोने भेगा थवानुं स्थळ, कोट (एटले गढवाळू गाम), वाडी, शेरी, घर, एसघळानो समावेश क्षेत्रमा थाय छे. ए अने. एवां बीजां क्षेत्रमा विहार करवों साधुने कल्पे छे. अने एम करवं ते क्षेत्र-उनोटारिक म तप कहेवाय. [ १६-१८ ]. १ पेटीना आकारे, २ अर्ध-पेटीना आकारे, ३ गोमुत्रना आकारे, ४ पतंग विधीका एटले पतंग 18. उडे ते रीते, ५ शम्बूकावर्त एटले शंखना वळनी पेठे अने ६ आयतम-गत्वा-प्रत्यागत एटले छेडा सुधी सीधा चाल्या ज, जने पछी पाछा फरवं ते. ए छ रीते गोचरी करे ते क्षेत्र-उनोदरिक तप कडेवाय. [१९]* ___* भिक्षा चर्यानी जुदी जुदी रीतो आ गाथामां दर्शावेली छे. (१-२) पेटी अने अर्थ पेटीना आकारे एटले गाम अथवा शेरीने चोखुण कल्पीने तेने चारे खूणे आवेलां चार घेर भिक्षार्थे जq ते. (३) गोमुत्रिका एटले हारबंध अथवा सीधी लीटीमा आवेलां घेर नहि, पण वांकां चूंकां अथवा सर्पाकारे एटले अमुक घरो पडतां मूकीने अमुक घेर भिक्षा मागवी ते. [४] पतंग विथीका एटले पतंग उडे छे तेवी रीते एक बीजाथी घणे दूर आवेलां घेर भिक्षार्थ जर्बु ते. (५) शम्बूकावत एटले शंखना वळनी पेठे एटले मध्य | भागमांधी बहारना भागमा अथवा तो स्क्रुना आकारे अमुक घर पडतां मूकी अमूक घेर भिक्षा मागवी ते. अने [६] आयतम-गत्वा प्रत्यागत एटले अमुक अंतर सुधी सीधा गया पछी पाछा फरीने अमुक अमुक घेर भिक्षा मागवी ते. .. . . . . . . . . . . . 2000667 Jan Educationa interational For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ܘܕ २६० edeepe दिवसरस पोरिसीणं चउहंपिउ जत्तिओ भत्रे कालो । एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुगेयध्वं ॥ २० ॥ अहवा तइया पोरिसीए उपाए घासमेसंतो । चउभागूणाएवा एवं कालेणऊ भवे ॥ २१ ॥ इथ्थीवा पुरिसोवा अलंकिओवा णलंकिओ वाचि । अन्नयर वयथ्थोवा अन्नयरेणंच वध्येणं ॥ २२ ॥ अन्नेणं विसेसेणं वन्नेणं भावमणुमुयंते । एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेयव्वं ॥ २३ ॥ दव्त्रे खित्ते काले भावंभिय आहियाओ जेभावा । एहिं ओम चरओ पज्जव चरओ भत्रे भिख्खू ॥ २४ ॥ अडविहं गोयरग्गंतु तहा सत्तेव एसणा | अभिग्गहाय जेअन्ने भिख्खायरियमाहिया ॥ २५ ॥ [क] काल उनोदरिक तप :- दिवसनी चार पौरुषि ( पोरसि, महर ) पैकी कई पौरुषिने विषे केटलो काल गोचरीमां गाळवो तेनुं प्रमाण बांधीने ते प्रमाणे ते काले बराबर विचरे ते काल उनोदरिक तप कहेवाय. अथवा तो त्रीजी पौरुषिना अमुक भागम अथवा तेना छेल्ला पायामां [ चोथा भागमां ] आहारनी गवेषणा करे ते काल उनोदरिक तप कहेवाय. [२०-२१]. [5] भाव-उनोदरिक तप:- स्त्री या पुरुष, अलंकृत अथवा, अनलंकृत ( एटले आभरण सहित या रहित), गमे ते वयना ( एटले बाल, वृद्ध या तरुण), गमे ते वस्त्र पहेरेलां होय एवां, गमे तेवास्वभावनां, अथवा तो गमे तेवा वर्णनां [काळां, गोरां वगेरे ], एवां ने हाथे वर्णभावनी परवा कर्या सिवाय आहार ग्रहण करवो ते भाव- उनोदरिक तप कहेवाय. [२२-२३]. (इ) पर्याय - उनोदरिक तप :द्रव्य. क्षेत्र, काल, भाव आदि जे भात्र उपर वर्णव्या छे ए भाव सहित जे साधु विचरे ते पर्याय चरक एटले पर्याय- उनोदरिक तप पाळनार साधु कहेवाय. (२४) ३ भिक्षा-चर्या: - गोचरीना आठ प्रकार तथा एषणाना सात प्रकार कह्या छे; अने ते सिवाय भिक्षा चर्याना अन्य अभिगृह (भेद ) श्री तीर्थंकर भगवाने कहेला छे. (२५). Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. खीर दहि सप्पिमाइ पणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणंतु भणियं रस विवजणं ॥ २६ ॥ ठाणा वीरासणाइया । जीवस्सओ सुहावहा । उग्गा जहा धरिजंति कायकिलेसंत माहियं ॥ २७ ॥ एगंत मणावाए इथ्थी पसु २६१ विबजिजए । सयणासण सेवणया विवित्त सयणासणं ॥२८॥ एसो बाहिरंग तबो समासेण वियाहिओ । अम्भितरो तवो एत्तो बोल्छामि अणुपुव्वसो ॥ २९ ॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सझाओ । झाणं उस्सग्गोविय अम्भितरओतबो होइ ॥ ३० ॥ आलोयणा रिहाइयं पायछित्तंतु दसविहं । जेभिख्खू वहइ सम्मं पाछित्तं तमाहियं ॥ ३१ ॥ अझुठाणं अंजलि करणं तहेवा सणदायणं । गुरुभत्ति भाव सुस्सुसा विणओ एस वियाहिओ ॥ ३२ ॥ ४. रस-त्याग:-दूध, दही, घी वगेरे पुष्टिकारक खानपाननो परित्याग करवो ते रस-परित्याग तप कहेवाय. [२६] B काय-क्लेश:-वीरासनादि आसनो जे आत्माने सुखावह छे, पण जे करवां अति मुश्केल छे ते करवां तेने काय-क्लेश तप कहे छे.(२७), ६.संलीनताः-स्त्री, पशु रहित अने ज्यां कोइर्नु जq आवq यतुं न होय एवां एकांत शयनासन सेवबां ते संलीनता तप कहेवाय.(२८). | उपर प्रमाणे बाह्य तपना भेद संक्षेपे वर्णव्या छे. हवे अभ्यंतर तपना छ भेद अनुक्रमे कहुंछ:-[२९]. अभ्यंतर तपना छ भेद :१ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ वैयावृत्य एटले आचार्यादिनी सेवा करवी ते, ४ स्वाध्याय, ५ ध्यान, अने ६ उत्सर्ग एटले कायोत्सर्ग अथवा काउसग्ग. (३०). (१) प्रायश्चित्त :-गुरु समीपे पापने आलोववां, दश विधे प्रायश्चित्त कर अने कायाये करीने सम्यक्त रुडी ते सेवळू ते प्रायश्चित्त-अभ्यंतर तप कहेवाय. [३१]. २. विनय :-गुरुने आवता जोइने उभा थy, हाथ जोडवा, तमने आसन आप, तेमना तरफ भक्तिभाव राखयो भने गुरुना आदेश प्रमाणे व ते विनय-अभ्यंतर तप कहेवाय. (१२). ००००००००००००००००००००००००००००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आयरिय माइए वेयावच्चमि दसविहे । आसेवणं जहाथाम वेयावच्चं तमाहियं ॥ ३३ ॥ बायणा पुछणाचेव ।। तहेवय परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्म कहा सझायं पंचहा भवे ॥३४॥ अट्ट रूदाणि वज्जित्ता झापुजा सुसमाहिए। धम्म सुक्काई झाणाइं झाणंतंतु बुहावए ॥ ३५ ॥ सयणासण ठाणेवा जेउभिख्खू नवाचरे। कायस्स विउस्सग्गो छटोसोपरिकित्तिओ ॥ ३६॥ एवंतवंतु दुविहंजे सम्मं आयरेमुणी। सेखिणं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए त्तिबेमि ॥ ३७॥ ®॥ इति तवमग्ग नाम झयणं तयोदसं सम्मत्तं ॥ ३० ॥७ ३ वैयावत्य:-*आचार्यादिने आहारादि आणी आपवामां दश विधे पोताथी बने तेटली सेवा करवी ते वैयाकृत्य-अभ्यंतर तप कहेवाय. (३३). ४. स्वाध्याय-स्वाध्यायना पांच भेद छ:-१गुरु समीपे पाठ बोली जवो ते. २संदेह विषे पूछवं ते, ३ परिवर्तन एटले वारंवार पाठ बोली जवो ते. ४ अनुप्रेक्षा एटले चिंत्वन अथवा मनन करवं ते. ५ धर्म-कथा एटले धर्मोपदेश देवो ते.[३४]. ५. ध्यान-आर्त-रोद्र ध्यान वर्जिने द्रढ चित्तथी धर्म-ध्यान (शुक्ल-ध्यान ) धरवू तेने श्री बुद्ध तीर्थकर भगवाने ध्यान-अभ्यंतर तप कहयुं है. (३५), ६. उत्सर्ग-शयने आसने अने अभ्युत्थाने [ एटले भूतां, बेसतां, उठतां] जे साधु कायानो व्यापार [ हालवं, चालवं] न करे ते छहा प्रकारनो कायोत्सर्ग-अभ्यंतर तप कहेवाय. [३६]. जे मुनि बन्ने प्रकारना एटले बाह्य अने अभ्यंतर तप | रुडी रीते आचरे ते चतुर्गति भव भ्रमणमांथी ( संसारमाथी ) शीघ्रपणे मुक्त थाय छे. [ ३७ ]. ___ * त्रीसमें अध्ययन संपूर्ण. * * सेवाने योग्य दशनां नाम-आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, साहण, साधर्मिक, कुल, गण अने संघ. ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० 00000000 Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३१ २६३ अध्ययन ३१. चारित्र विधि. चरणविहं पख्खामि जीवस्सउ सुहा वह जं चरित्ता बहुजीवा तिन्ना संसारसागरं ॥ १ ॥ एगओय पवत्तणं असंजमे नियतंच संजमेय पवत्तणं ॥ २ ॥ रागदोसेय दो पावे पावकम्म रुंभई निांसेन अइ मंडले || ३ || दंडाणं गारवाणंच सल्लाणंच तियं तियं जे भिख्खू चयई ॥ ४ ॥ दिव्वेयजे उवसग्गे तहातेरि माणुसे । जे भिख्खू सहई सम्मंसेन अछुइ मंडले || ५ || विगहा कसाय सन्नाणं झाणाणंच दुयं तहा । जे भिख्खू वज्जई नियंसेन अड्डइ मंडले || ६ || अध्ययन ३१. चारित्र-विधि जे जीवने सुखावह छे ते हुं वर्णधुं हुं ; जे विधि आदरवाथी घणा जीव संसार-सागर तरी गया छे. (१). एक निवर्त्त अने बीजामां प्रवर्त्ततुं :- अर्थात असंयमथी ( हिंसादिथी ) निवर्त्तनुं अने संयममां प्रवर्त्त. [२]. राग अने द्वेष पापकर्मना उत्पन्न करनारा छे, माटे जे साधु तेने अलगा करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (३). जे साधु दंड गाव अने शयनां श्रीगुण कृत्यनो (अर्थात- मन, वचन अने कायाये करीने दंडनो, रिद्धि, रस अने शातारूपी गारवनो, अने माया, निदान अने मिथ्या दर्शनरुपी शल्यनो ) परित्याग करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. [४]. जे साधु देवता, तिर्यच अने मनुष्यनां उपसर्ग सम्यक् बुद्धिथी ( रुडी रीते ) सहन करेछे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. [५]. जे साधु चार प्रकारनी विकथा [राज्य, देश, भोजन अने स्त्रीना रुप संबंधी ], चार कषाय, [ क्रोध, मान, माया अने लोभ ], चार संज्ञा, (आहार, भय, परिग्रह अने मैथुन ), अने चार ध्यान पैकी वे ध्याननो [ आर्त अने रौद्र ध्याननो ] परित्याग करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. [६]. Jain Educationa International एगओ विरई कुज्जा पवत्तणे । जे भिख्खू सेन अ 1 For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ | art इंदिय समिसु किरियासुय । जे भिख्खू जयई निश्शंसेन अइ मंडले || ७ || लेसासु छ कासु छक्के आहार कारणे । जे भिख्खू जयई निच्चसेन अइ मंडले || ८ || पिंडोग्गह पडिमा भयाणेसु ससु । जे भिख्खू जयई निशंसेन अनुइ मंडले ॥ ९ ॥ मए बंभगुत्तीमु भिख्खू धम्मंमि दसविहे । जे भिख्खू जय निशंसेन अछुइ मंडले ||१०|| उवासगाणंपडिमासु भिख्खूणं पडिमासुय । जे भिख्खू जयई निहांसेन अइ मंड ॥ ११ ॥ किरिया भूयगामेसु परमाहम्मिएसुय । जे भिख्खू जयई निां सेन अनुइ मंडले ॥१२॥ उ. अ. ३१ साधु पंच महाव्रत, पंच इन्द्रिओ, पंच समिति, अने पंच क्रियाने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (७). जे साधु छ लेश्या, छ काय, अने आहारनां छ कारणने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (८). जे साधु आहार लेवाना सप्त अभिग्रहने विषे अने आलोकादि सप्त भय स्थानकने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारमुक्त थाय छे. (९) जे साधु ' जाति मदादिक' आठ मदने विषे, ब्रह्मचर्यनी नव वाडने विषे अने 'क्षमादि ' साधुना 'दश प्रकारना धर्मने विषे सदा यत्न करे छे, ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (१०]. जे साधु उपासकना अगियार धर्मने, अने भिक्षुकना बार धर्मने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. ११. जे साबु 'स्वार्थ - अनर्थादि' तेर क्रियाना परिहारने विषे, चौद प्रकारनां प्राणीओना रक्षणने विषे अने पंदर प्रकारनां परमाधार्मिक [पाप-स्थानक ] थी निवर्तवा ने सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. १२. * दरेक गाथामां 'सदा यत्न करे छे' एम लखेलुं छे एनो अर्थ एवो समजवानो छे के 'जे जाणवा योग्य होय ते जाणवानो, आदरवा योग्य होय ते आदरवानो अने त्यागवा योग्य होय ते त्यागवानो सदा यत्न करे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहासोलसएहिं तहाअस्सं जमंमिय । जे भिख्खू जयई निच्चसेन अछइ मंडले ॥ १३ ॥ बंभमि नायजयणेसु ठाणेसु असमाहिए । जे भिख्खू जयई निच्चंसेन अछइ मंडले ॥ १४ ॥ एगविसाए सबलेसु बावीसाए परिसहे।। जे भिख्खू जयई निच्चसेन अछइ मंडले ॥१५॥ तेवीसइ सुयगडे रूवाहिएसु सुरेसुय । जे भिख्खू जयई निच्चांसेन अछइ मंडले ॥ १६ ॥ पणवीस भावणाहिं उद्देसेसु दसाइणं । जे भिख्खू जयई निच्चसेन अछा मडले ॥ १७ ॥ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००. जे साधु सोळ गाथाना ( एटले श्री सूत्र कृतांग अथवा श्री सुगडांगजी सूत्रना प्रथम श्रुत स्कन्धना ) अध्ययनने विषे, अने संयमना सत्तर भेदथी विपरीत न वर्तवाने विष सदा यत्न करे छे, ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (१३). जे साधु ब्रह्मचर्यना अढार भेदने विष, श्री ज्ञाताजीना ओगणीस अध्ययन [प्रथम स्कन्ध ]ने विवे अने समाधिना वीश स्थानकथी विपरीत न वर्तवाने सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (१४).जे साधु एकवीश प्रकारनां शबल [ अशुभ कृत्यो थी, अने बावीश परिसहथी दूर रहेवाने सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. [१५]. जे साधु सूत्रकृतांगनां त्रेवीश अध्ययनने विषे अने तेथी एक अधिक एटले चोवीश देव [१० भवन पति+८ व्यंतर+५ ज्योतिष+१ वैमानिक-२४ अथवा तो ऋषभ देवादि २४ तीर्थकर ] ने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (१६). जे साधु पंच महाव्रतनी पचीश भावनाने विषे अने दशाश्रुत स्कन्ध, कल्प अने व्यवहार सूत्रना छवीश उद्देशने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. (१७). Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. अणगार गुणेहिंच पकप्पमि तहे वय । जे भिख्खू जयई निसन अछइ मंडले ॥ १८ ॥ पावसुयप्पसंगेसु 1. मोहठाणेसु चे वय । जे भिख्खू जयई निच्चसेन अछइ मंडले ॥ १९ ॥ सिडाइगुण जोगेसु तित्तीसा सायणा सुय । जे भिख्खू जयई निच्चांसेन अछुइ मंडले ॥ २० ॥ इइ एएसु ठाणेसु जे भिख्खू जयई सया । खिप्पंसे सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए तिबेमि ॥ २१ ॥ ® ॥ इति चरणविहंनाम झयणं एकत्तीसं सम्मत्तं ॥ ७ | जे साधु *अणगारना सत्तावीश गुणने विषे अने प्रकल्पना [ श्री आचारांग सूत्रना] १अट्ठावीश अध्ययनने विषे सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. [१८]. जे साधु ओगणत्रीस पापश्रुत प्रसंगी अने त्रीस मोह स्थानथी निवर्तवाने । सदा यत्न करे छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे. [१९], जे साधु श्री सिद्धना एकत्रीस गुणने विषे, अने [ मन, वचन कायाना] योगना बत्रीस भेदने विषे सदा यत्न करे छे अने तेत्रीस प्रकारनी आशातनाथी निवर्ते छे ते चतुर्गति संसारथी मुक्त थाय छे.[२०]. जे पंडित साधु उपर वर्णवेलां स्थानोने विषे सदा यत्न करेछे ते चतुर्गति रुप संसारथी शीघ्र मुक्त थायछे.[२१].] * एकत्रीसमें अध्ययन संपूर्ण. * ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० 20०००००००००००००००००००००००० * मूळ गाथामां' अणगार' शब्द छे छतां जेकोबी तेनो अर्थ 'संसारी' करे छ.१. श्री आचारांग सूत्रमा हाल चोवीश अध्ययन छे, पण अगाउ अहावीश हतां एम मनाय छे. For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2000000000000000000000 अध्ययन ३२. प्रमाद-स्थान. २६७/अञ्चंतकालरस समूलयरस सव्वस्स दुख्खस्सउ जो पमोख्खो । तं भासओ मे पडिपुन्न चित्ता सुणेहए गंत हियं । हियथ्थं ॥ १॥ नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्सय संखएणं एगंत सोख्खं समुवेइमोख्खं ॥ २ ॥ तस्से समग्गो गुरु विहसेवा विवज्जणा बालजणस्सदूरा । सझाय एगंत निसेवणाए सुत्तथ्थ । संचिंतणया धिईय ॥३॥ आहार मिले मियमेसणिज्ज सहाय मिळे निउणठ्ठ बुद्धिं । निकेय मिळेज विवेग जोगं समाहि कामे समणे तवस्सी ॥ ४ ॥ न बालभेज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समंवा । एकोवि पावाई विवज्जयंतो विहरेज कामेसु असज्जमाणो ॥ ५॥ ® अध्ययन ३२. * ___ अनादी कालनी अविरतिरुप सर्व दुःखमय संसारथी मुक्त थवाने तमने जे कहेवामां आवे छे ते एकाग्र चित्तथी श्रवण करो. [१]. ज्ञाननो प्रकाश करवाथी, अज्ञान अने मोह वर्जवाथी, अने राग-द्वेषनो क्षय करवाथी एकांत निरावाध सुख मोक्ष पामे. [२]. गुरु अने वडानी सेवा करवी, मूर्ख जनथी सदा दूर रहे, एकांतमा अध्ययन करवू अने सूत्रार्थनें एकाग्र वृत्तिथी चिंत्वन करवूए मोक्षनो मार्ग छे. (३). [ ज्ञानादिकनी ] समाधिने* इच्छनार अने तपनो करनार श्रमण (साधु) दोषरहित कल्पतो आहार, निपुण, बुद्धिशाली शिष्य अने एकांतवासने योग्य [स्त्री, पशु पंडक रहित ] उपाश्रयने इच्छे छे. [४]. पोताथी गुणमां अधिक अथवा सरखो एवो निपुण शिष्य कदाच न मळे तो पाप कर्मथी अने काम भोगथी। दूर रहीने तेणे एकला रहे.(५). * Who longs for righteousness, ? Not devoted to pleasures. ००००००००००००००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Simrary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .00000000000 00000000000000000000000000000000 जहाय अंडप्पभवा बलागा अंडं बलागप्पभवं जहाय । एमेव मोहाय यणंखु तन्हा मोहंच तन्हाययणं वयंति ॥६॥ रागोय दोसोविय कम्मबीर्थ कम्मंच मोहप्पभवं वयंति । कम्मंच जाई मरणरस मूलं दुख्खं च जाई मरणं वयंति ॥ ७ ॥ दुख्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हो जस्स न होइ तन्हा । तन्हा हया जरस न होइ लोहो लोहो हओ जस्सनकिंचणाई॥ ८॥ रागंच दोसंच तहेव मोहं उद्धत्तु कामेण समुलजालं । जे जे उवाया पडिवज्जिायव्वा ते कित्तइस्सामि अहाणुपुद्धि ॥ ९ ॥ जेम पक्षी इंडामाथी उत्पन्न थाय छे अने इंडे पक्षीमांथी उत्पन्न थाय छे तेम तृष्णा मोहर्नु उत्पत्ति स्थान छे अने मोह ए तृष्णानुं उत्पत्ति स्थान छे एम (तीर्थकरे) कहयुं छे. [६]. राग-द्वेष कर्मथी उत्पन्न थाय छे अने कर्मर्नु उत्पत्ति स्थान (तीर्थकरे) मोह कहयुं छे. कर्म ए जन्म मरणर्नु मूळ छे अने जन्म-मरणने (भगवाने) दुःखनुं कारण कहयुं छे. [७]. मोहना अभावे दुःख हणाय छ तृष्णाना अभावे मोह हणाय छ, लोभना अभावे तृष्णा हगाय छे, अने द्रव्यना अभावे लोभ हणाय छे. *[ अर्थात मोह न होय तो दुःख न होय, तृष्णा न होय तो मोह न होय, लोभ न होय तो तृष्णा न होय, अने द्रव्य न होय तो लोभ न होय. ]* [८].18 राग-द्वेष अने मोहने मूळमाथी टाळवा इच्छनार शुं शु उपाय आदरवा ते हुँ अनुक्रमे कहुं छ. (९). . * Delusion the origin of desire मो. जेकोबी आ माटे एवा असरकारक शब्दो वापरेछे के " Misery ceases on the absence of delusion, delusion ceases on the absence of desire, desire ceases on the 11 absence of greed, greed ceases on the absence of property. " 1 Thoroughly uproot. Jain Education Intemattonel For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ००००००००००००००००००००० 00000000000 रसापगाम न निसेवियचा पायं रसा दित्ति करा नराणं । दित्तं च कामा समतिढुवंति दुमं जहा सादु फलंब पख्खो॥१०॥ जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ । एविंदियग्गीवि पगाम भोइणो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ ११ ॥ विवित्त सेज्जासण जंतियाणं ओमासणाणं दमिइंदियाणं । न राग सत्तू धरिसेइ चित्तं पराइओ वाहिरिवो सहेहिं ॥ १२ ॥ जहा विराला वसहस्स मूले न मूसगाणं वसही पसथ्था । एमेव इथ्थी निलयस्स मझे न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥ १३ ॥ न रूव लावन्न विलास हासं न जंपियं इंगियपेहियंवा । इथ्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दळु ववरसे समणे तबस्सी ॥ १४ ॥ रस [घृतादि विगय] घणा सेववा नहि. कारणके रस सेववाथी मनुष्य दीप्तिकर [वीर्यवान-उन्मादि] बने छे, अने जेम पक्षीओ स्वादिष्ठ फळवाळां वृक्ष उपर धसी आवे छे, तेम वीर्यवान मनुष्य उपर काम धसी आवे छे.*(१०) जेम काष्टथी भरेला वनने विषे पवनना झपाटा साथे लागेलो अग्नि बुझातो नयी तेम पचेंद्रिय रुपी अग्नि मनवांछित-उन्मादि आहार करनार ब्रह्मचारीने हितकारक नीवडतो नथी. (११). निदूषण (स्त्री, पशु, पंडक रहित ) शयन, उपाश्रय अने आसन सेवनारनो, उणो आहार करनारनो, अने इंद्रियोने दमनार साधुना चित्तनो रागरुपी शत्रु पराभव करी शकतो नथी जेम औपध रोगनो पराभव करे छे तेम. [१२]. ज्यां बिलाडां वसतां होय त्या जेम उंदरने रहे सलामत नथी तेम ज्या स्त्रीयो वसती होय त्यां ब्रह्मचारीने वसवु सलामत नथी, (१३). तपस्वी साधुए स्त्रीनां रुप, लावण्य, विलास, हास्य, वचन, अंगनुं मोडवू अने कटाक्ष-कुदृष्टि तरफ नजर करवी नहि, तेमज पोताना चित्तने विषे तेनी याददास्त राखवी नहि. [१४]. ____* लशण, डुंगळी, पटाटां वीगेरे उन्मादी आहार वर्जवाथी जीवदया उपरांत मन शान्त अने विषय बीरक्त बने छे. अन्न एg | मन-ए सिद्धांत अहिं सत्य ठरे छे. Jain Education International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३२ २७० असणंचेच अपच अर्चितणचैव अकित्तणंच | इथ्थीजणसा रिय झाणजुग्गंहियं सया बंभचरे रयाणं ॥ १५॥ कामं देव विभूसियाहं न चाइया खोभइउं तिगुत्ता । तहावि एगंत हियंति नच्या विवित्त वासो मुणिणं पसथ्यो ॥ १६ ॥ मोख्खा भिकंखिस्सवि माणवरस संसार भीरुस्स ठियस्स धम्मे । न तारिसं दुत्तरमध्थि लोए जहि थिओ बाल मणो हराओ ॥ १७ ॥ एएय संगे समइक्क भित्ता सुहुत्तराचेत्र भवंति सेसा । जहा महासागर मुत्तरिता नई भवे अत्रि गंगा समाणा ॥ १८ ॥ कामाणु गिडिप्पभवंखु दुख्खं सव्वरस लोगस्स सदेवगरस । जं काइयं माणसियंच किंचि तस्सं तगं गछुइ वीयरागो ॥ १९ ॥ धर्म-ध्यानम अनुरक्त रहेनार आयें अने सदा सर्वदा ब्रह्मचर्यना रागी पुरुषे स्त्री जाति तरफ जोवं नहि, तेनी इच्छा करवी नहि तेनुं चिंत्वन कर नहि तेमज तेनां वखाण करवां नहि. [१५]. जो के त्रण गुप्ते, गुप्ता पुरुषने अलंकारे करी सहित एबी देवांगनाओ पण क्षोभ पाडवाने असमर्थ छ, तथापि साधुने माटे स्त्रीयादिक रहित एकांतवास (तीर्थकरे) हितकारक कह्योछे. [१६] मोक्षना अभिकाषि, संसारथी डरनार अने धर्म प्रमाणे वर्त्तनारने पण, अज्ञानीनां मन हरण करनार स्त्रीना जेवुं आ लोकमां बीजुं hi दुस्तर [दोहलुं] नथी. [१७]. जेवी रीते महासागर पार उतरनारने गंगा जेवी म्होटी नदी उतरवी अति सहेल छे, तेम स्त्री संगथी विरक्त थयेलाने आ लोकमां बीजुं वधुं त्यागं सहेल छे. (१८). कामनी इच्छाथी देवता सहित सर्व लोकने दुःख उपजेछे. श्री वीतराग मुनीवर काया तथा मननां सर्व दुःखनो अंत आणी शके छे. [१९]. * All others will offer no difficulties. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000000060 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. -- जहाय किंपाग फला मणोरमा रसेण वन्नेणय भुज्जमाणा। ते खुद्दए जीविय पच्चमाणा एउव मा कामगुणा विवागे॥२०॥ जे इंदियाणं विसया मणुन्ना नतेसु भावं निसिरे कयाई । मया मणुन्नेसु मणंपि कुज्जा समाहि कामे समणे तवस्सी २७१ ॥२१॥ चखुरस रूवं गहणं वयंति तं राग हेउं तु मणुन्न माहु । तं दोस हेउं अमणुन्नमाहु समोय जो तेसु स वीयरागो ॥२२॥ रूवरस चख्खं गहणं वयंति चख्खुस्स रूवं गहणं वयंति । रागरस हेउं समणुन्न माहु दोसरस | हेउं अमणुन्न माहु ॥ २३ ॥ रूवेसु जोगिडि मुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वापयंगे अलोय लोले समुवेइ मच्चं ॥ २४ ॥ किम्पाकनां फळ जेम रस अने वर्ण ( स्वाद अने देखाव)मां सुंदर जणाय छे, परंतु भक्षण करवाथी ते जेम जींदगीनो अंत 8 आणे छे, तेवोज गुण काम भोगनां फळने विषे रहेलो छे. [२०]. तपनो करनार अने समाधिनो अभिलाषि श्रमण इन्द्रियोना 8 विषयने विषे मनथी भाव करतो नथी, या तो अमनोज्ञ* विषय प्रति द्वेष करतो नथी. [२१]. रुप आंखनुं आकर्षण करे छे. | मनोहर रुपने रागर्नु अने अमनोहर रुपने द्वेषनुं कारण (तीर्थकरे) कहयुं छे. भला मुंडा रुपने विषे राग द्वेष रहित होय ते वीतरागी 18 कहेवाय.२ [२२]. चक्षु रुपने ग्रहण करे छे अने रुप चक्षुर्नु आकर्षण करे छे. मनोहर रुप रागर्नु अने अमनोहर रुप द्वेष, कारण || 8 (तीर्थकरे) कहयुं छे. [२३]. जेवी रीते रागातुर पतंग दीपकथी आकर्षाइने तेमां झंपलाइने विनाश पामे छे, तेवी रीते रुपने विषे ।। 8 तीव्र मूर्छा राखनार अकालिक विनाशने पामे छे. (२४). . *Unpleasanta Dispassionate.२ संसारमा शान्ति साधक जीज्ञासुओए आ शब्दो स्मरणमा राखवा जेवा छे. Jain Education Intemational For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. जेयावि दोस समुवेइ तिव्वं तंसिख्खणे सेउ उवेइ दुख्खं । दुईत दोसेण सएण जंतूनकिचिरूवअवरझईसे ॥२५॥ | एगंत रत्तो रुइरसि रूवे अतालिसे से कुणई पओसं । दुख्खस्स संपील मुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागे | २००३ ॥ २६ ॥ रूवाणुगासाणु गएय जीवे चराचरे हिंसइ णेग रूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तठ गुरू किलिटे ॥२७॥ रूपाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रख्खण सनिओगे । बए विउ गेय कहिं सुहंसे संभोग कालेय अतित्त लाभे ॥२८॥ रूवे अतितेय परिग्गहमि सत्तोवसत्तो न उवेइ तुठिं । अतुठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले ३ आययई अदत्तं ॥ २९॥ जे कोइ कुरुप देखीने अति द्वेष आणे छ, ते तत्क्षण दुःख पामे छे. तेने जे दुःख उपजे छ तेमां तेनो पोतानोज दोष छ. तेमां । रुपनो काइ दोष नथी.* [२५]. जे कोइ मनोहर रुप उपर अति राग करे छ तेने अमनोहर रूप उपर द्वेष उपजे छ. अने तेथी मर्ख माणस दुःख पामे छे, ज्यारे वीतराग मुनि एवा राग द्वेषयी मुक्त रहे छे. (२६). रुपना भोगनी इच्छावाळो जीव अनेक चराचर [त्रस अने स्थावर जीवने हणे छे, स्वार्थमां लीन थयेलो अज्ञानी जीव ए जीवोने अनेक प्रकारे पीडे छे अने तेमने दुःख उप8 जावे छे. [२७]. मनोहर रुपनो रागी जीव ते वस्तु प्राप्त करवानी, तेनुं रक्षण करवानी, तेनो उपभोग करवानी, तेना नाशनी अने तेना विरहनी मुच्छाने लीधे क्यांची सुखी थाय? भोग भोगवती वखते पण तेने तेनाथी तृप्ति थती नथी. [२८]. ज्यारे ते रुपथी तृप्त थतो नथी अने मूर्छने लीधे ते उपर तेनी आसक्ति वधतीज जाय छे त्यारे ते असंतोपना दोषथी दुःखी थाय छे अने लोभथी दोरवाइने पारकानी अण दीधी (अदत्ता) वस्तु हाथ करे छे, १ [२९]. *आ प्रमाणे पाडा पामतां पामर प्राणीओ खरे दया पात्र छे. १ आची रीते पायमाल थइ दुर्गण अने दुर्गति पामेला घणां दृष्टांतो आपणे अनुभव्यां छे. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३२ २७३ तन्हा भिभूयरस अदन्तहारिणो रूत्रे अतित्तरस परिग्गहेय । माया मुसं वढ्ढइ लोभ दोसा तथावि दुख्खानाचे मुच्चई से ॥३०॥ मोसरस पलाय पुरथ्यओय पओगकालेय दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो रूबे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ||३१|| रूवाणुरतरस परस्स एवं कन्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तथ्थो भोगेवि किलेस दुख्खं निवत्तई जस्स कएण दुख्खं ॥३२॥ एमेव रूवंमि गओ पओसं उवेइ दुख्खोह परंपराओ । पठ्ठे चित्तोय चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ३३ ॥ रूबे विरतो मणुओ विसोगो एएण दुख्खोह परंपरेण । न लिप्पए भवमझे व संतो जणवा पुख्खरिणी पलासं ॥ ३४ ॥ तृष्णा पराभव पालो ते प्राणी पारकानी वस्तु ले छे, छतां ए रुप अने परिग्रहथी तेने संतोष थतो नथी, अने पछी लोभना दोषथी तेनामां माया अने जूट वधे छे. एटलं छतां पण ते दुःखथी मुक्त भतो नथी. [३०]. जूडं बोलवा पूर्वे अने त्यार पछी जजू बोलती वखते पण ते अति दुःखी थाय छे. आ प्रमाणे पारकानी वस्तु ग्रहण कर्या छतां तेना रुपथी ते तृप्त थतो नथी, परंतु दुःखी थाय छे. अन एवा जीवनो कोइ रक्षक नथी. [ अर्थात - ते दुर्गतिने पामेछे ]. (३१). एवा रुपयां अनुरक्त मनुष्य कदापि काळे किंचित सुख पण क्यांथी संभवे ? जे वस्तु प्राप्त करवाने तेणे कष्ट वेठेलं ते वस्तुनो उपभोग करती वखते पण तेने दुःख (क्लेश) उपजे छे. [३२]. एवीज रीते रूप उपर द्वेष करनार जीव दुःखनी परंपरा उपार्जे छे. ज्यारे तेनुं चित्त द्वेषथी भरे होय छे त्या तेघां कर्म बांधे छे, जे कर्म परीणामे दुःखनां कारण रूप थइ पडे छे. (३३). परंतु रुपना मोहथी विरक्त मनुष्य शोकथी मुक्त रहे छे. जेम कमल पत्र जळमां रहेबा छतां भींजातुं नथी, तेम जो के ते संसारमां रहे छे छतां दुःखनी परंपराथी रातो नथी. [३४]. *Succession of pains. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोयरस सद्द गहणं वयंति तं राग हेतु मणुन्न माहु । तं दोस हेउं अमणुन्न माहु समोय जो तेसु सबीयरागो ३२ ॥ ३५ ॥ सहस्स सोयं गहणं वयंति सोयरस सदं गहणं वयंति । रागरस हेउं समणुन माहु दोसस्सहेउं अमणुन्न २७४ माहु ॥३६॥ सद्देसु जो गिहि मुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिएव्व मुद्धे सद्दे आतित्ते समुवेइ मच्चु ॥ ३७ ॥ जेयावि दासं समुवेइ तिव्वं तंसिख्खणे सेउ उबेइ दुख्खं । दुईत दोसेण सएण जंतू न किंचि सदं अवरझई से ॥ ३८ ॥ एगंत रत्तो रुइ रंसि सद्दे अतालिसेसे कुणई पओसं । दुख्खस्स संपील मुवेइ R बालेनलिप्पई तेण मुणीविरागे ॥ ३९ ॥ सदाणुगासाणु गएय जीवे चराचरे हिंसइणे गरूवे चित्ते हिंते परितावेइ | बाले पीलेइ अत्तठ्ठ गुरु किजिठे ॥ ४० ॥ ०००020०००००००००००००००६ शब्द काननुं आकर्षण करे छे. मधुर शब्द रागर्नु अने कठोर शब्द द्वेष कारण (तीर्थकरे) कहयुं छे. भला मुंडा शब्दने विषे राग द्वेष रहित होय ते वीतराग कहेवाय. [३५]. कान शब्दने ग्रहण करे छे अने शब्द काननुं आकर्षण करे छे. मधुर शब्द रागर्नु अने कठोर शब्द द्वेषद् कारण [ तीर्थकरे] कहयु छे. [३६]. जेवी रीते रागातुर हरण मुग्ध शब्दथी ललचाइने अकालिक मरण पामे छे तेवी रीते शब्दने विषे तीव्र मूछा राखनार अकालिक विनाशने पामे छे. [३७]. जे कोइ कुशब्द सांभळीने अति द्वेष आणे छे ते तत्क्षण दुःख पामे छे. तेने जे दुःख उपजेछे तेमां तेनो पोतानोज दोपछे, तेमां शब्दनो काइ दोष नथी. (३८). जे कोइ मधुर शब्द उपर अति राग करे छे, तेने कठोर शब्द उपर द्वेष उपजे छे अने तेथी मूर्ख माणस दुःख पामेछे, ज्यारे वीतराग मुनी एवा राग-द्वेषथी मुक्त रहे छे. [३९]. मधुर शब्दने विषे लुब्ध थयेलो जीव अनेक चराचर जीवने हणे छे. स्वार्थमा लीन थलो अज्ञानी जीव ए जीवोने अनेक प्रकारे पीडे छे अने तेमने दुःख उपजावे. (४०), ०००००००००००००००००००००० Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३२ २७५ सदावाण परिग्गण उप्पायने रखखण सन्निओगे । वए विओ गेय कहं सुहं से संभोग कालय अतित्त लाभे ॥४१॥ सद्दे अतित्य परिग्गहंमि सत्तोत्रसत्तो न उबेइ तुडं । अतुट्ठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ४२ ॥ तहाभिभूयरस अदत्त हारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहेय । माया मुसं वहइ लोभ दोसा तथ्यावि दुख्खा नव इसे ॥ ४३ ॥ मोसस्स पचाय पुरथ्यओय पओग कालेय दुही दुरंते । अदत्ताणि समाययंतो सदे अतितो दुहिओ अणिस्सो ॥ ४४ ॥ सद्दाणु रतस्स नररस एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तथ्यो भोगेवि किलेस दुख्खं निव्वतई जस्स कएण दुख्खं ॥ ४५ ॥ मधुर शब्दनो रागी जीव ते वस्तु प्राप्त करवानी, तेनुं रक्षण करवानी, तेनो उपभोग करवानी, तेना नाशनी, अने तेना वि. रहनी मूर्च्छाने ली क्यांथी सुखी थाय ? ते भोगवती वखते पण तेनाथी ते तृप्त थतो नथी. [४१]. ज्यारे ते शब्दयी तृप्त थतो नथी, अने मूछने ली ते उपर तेनी आसक्ति वधतीज जाय छे त्यारे ते असंतोषना दोषथी दुःखी थायछे अने लोभथी दोरवाइने पारकानी अण दीधी [अदत्ता ] वस्तु हाथ करे छे. (४२). तृष्णाथी पराभव पामेला ते प्राणी पारकानी वस्तु ले छे छतां ए शब्द अपरिग्रहथीने संतोष थतो नथी, अने पछी लोभना दोषथी तेनामां माया अने जूठ वधे छे, एटलं छतां पण ते दुःखथी मुक्त तो नथी. [४३]. जुढं बोलवा पूर्वे अने त्यारपछी तेमज जूटुं बोलती वखते पण ते अति दुःखी थाय छे. आ प्रमाणे पारकानी वस्तु ग्रहण कर्या छतां तेना शब्दथी ते तृप्त थतो नथी परंतु दुःखी थाय छे अने एवा जीवनो कोइ रक्षक नथी. (४४). एवा शब्दमां अनुरक्त मनुष्यने कदापि काळे किंचित सुख पण कथांची संभवे ? जे वस्तु प्राप्त करवाने तेथे कष्ट वेडेडु ते वस्तुनो उपभोग करती बखले पण तेने दुःख उपजे छे. [४५ ]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ...18 एमेव सर्पमि गओ पओस उवेइ दुख्खोह परंपराओ। पदुइ चित्तीय चिणाइ कम्म जैसे पुणो होइ दहं विवागे | ३१ ॥४६॥ सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुख्खोह परंपरेण । न लिप्पए भव मझेत्र संतो जलेणवा पुख्खारिणी , २७६ 8 पलासं ॥ ४७ ॥ घाणस्स गंधं गहणं वयंति तं रागहेतु मणुन्न माहु । तं दोसहेउं अमणुन्न माहु समोय जो । तेसु स वीयरागो ॥ ४८ ॥ गंधस्त घाणं गहणं वयंति घाणस्स गंधं गहणं वयंति । रागरसहेउं समणुन्न माहु 8 दोसस्स हेडं अमणुन्न माह ॥४९॥ गंधेसु जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहि गंधगिद्धे सप्पे विलाओवित्र निख्खमंतो ॥५०॥ जेयावि दोसं समुवेइ तिव्वं तं सिख्खणे सेउ उबेइ दुख्खं । दुईत दोसेण सएण जंतू न किंचि गंधं अवरझईसे ॥५१॥ ___एवीज रीते शब्द उपर द्वेष करनार जीव दुःखनी परंपरा उपार्जे छे. ज्यारे तेनुं चित्त द्वेषथी भरेलं होय छे त्यारे ते घणां कर्म बांधे छे जे कर्म परीणामे दुःखना कारण रुप थइ पडे छे. (४६). परंतु शब्दथी विरक्त मनुष्य शोकथी मुक्त रहे छे. जेम कमल पत्र जळा रहेवा छतां भांजातुं नथी तेम ते जो के संसारमा रहे छे छतां दुःखनी परंपराधी खरडातो नथी. [४७]. गंध नासिकार्नु । आकर्षण कर छे. सुगंध रागर्नु अने दुर्गंध द्वेवर्नु कारण तीर्थकरे कहयुं छे. भली भंडी गंधने विषे राग द्वेष रहित होय ते वीतराग 1.नासिका गंधने ग्रहण करेछ अने गंध नासिकानं आकर्षण करे . सगंध रागनं अने दर्गध द्वेष कारण (तीर्थकरे) कहयुं छे.[४९]. जेम रागातुर सर्प (चंदनादि) औषधिनी सुगंधथी ललचाइने पोताना राफडामांथी बहार नीकळी आवे छे अनेश दुःख पामेछे तेप गंधने विषे तीन मूर्छा राखनार अकालिक विनाशने पामेछे. [२०]. जे कोइ दुर्गध उपर अति द्वेष आणे छे, ते तक्षण दुःख पाने छे. तेने जे दुःख उपजे छे तेमां तेनो पोतानोज दोप छे, तेमां गंधनो काइ दोष नथी. [५१]. *दरेक इन्द्रिय उपर तेर तेर गाथामा वर्णन छे. ००००००००००० ०००००००००००००००० 90066608 ०००००००० Jan Education Interational For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. एगंत रत्तो रुइरंसि गंधे अयालिसेसे कुणई पओसं । दुख्खस्स संपील मुवेइ बाले न लिप्पइ तेण मुणी विरागे || ॥५२॥ गंधाणुगासाणु गएय जीवे चराचरे हिंसइणे गरूवे । चित्तेहिते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तठ गुरु किलिछे ॥ ५३ ॥ गंधाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्षण संनिओगे । वए विओगेय कहिं सुहंसे संभोग कालेय अतित्त लाभे॥५४॥ गंधे अतित्तेय परिग्गहमि सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्छि । अतुठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ५५ ॥ तहाभिभूयस्स दत्त हारिणो गंधे अतित्तस्स परिग्गहेय । माया मुसं वढइ लोभ दोसा तथ्था विदुखा नवि मुच्चई से ॥ ५६॥ मोसरस पचाय पुरथ्थओय पओग कालेय दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो 8 गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥५७॥ जे कोइ सुगंध उपर अति राग करे छ, तेने दुर्गंध उपर द्वेष उपजेछे, अने तेथी मूर्ख माणस दुःख पामे छे; ज्यारे वीतराम मुनी एवा रागद्वेपथी मुक्त रहे छे. [५२). सुगंधने विषे लुब्ब थयेलो जीव अनेक चराचर जीवने हणे छे. स्वार्थमां लीन थयेला अज्ञानी जीव ए जीवोने अनेक प्रकारे पीडे छे अने तेमने दुःख उपजावे छे. [५३]. सुगंधनो रागी जीव ते वस्तु प्राप्त करवानी. तेनुं रक्षण करवानी, तेनो उपभोग करवानी, तेना नाशनी अने तेना विरहनी मूछाने लीधे कयाथी सुखी थाय? ते भोगवती. 8 वखते पण तेनाथी तेने तृप्ति थती नथी. [५४]. ज्यारे ते गंधयी तृप्त थतो नथी, अने मूच्र्छाने लीधे ते उपर तेनी आसक्ति वध तीज जाय छे त्यारे ते असंतोषना दोषथी दुःखी थाय छे अने लोभथी दोरवाइने पारकानी अणदीधी वस्तु हाथ करे छे. [१५] तृष्णाथी पराभव पामेलो ते प्राणी पारकानी वस्तु ले छे छतां ए गंध अने परिग्रहथी तेने संतोष थतो नथी. अने पछी लोभ दोषथी तेनामां माया अने जूठ वधे छे. एटलं छत पण ते दुःखथी मुक्त थतो नथी. (५६). जूटुं बोलवा पूर्वे अने त्यार पछी तेम जूटुं बोलती बखते पण ते अति दुःखी थाय छ, आ प्रमाणे पारकानी वस्तु ग्रहण कर्या छतां तेनी गंधयी ते तृप्त यतो नथी, परंतु दुःखी थाय छे अने एवा जीवनो कोइ रक्षक नथी. [५७]. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 0000००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.. गंधाणुरत्तस्स नरस्त एवं कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तथ्थोव भोगेवि किलेस दुखं । निव्वत्तए जस्स कएण ३२ । दुवं ॥ ५८ ।। एमेव गंधमि गओ पओसं उवेइ दुखोह परंपराओ । पदुठ्ठ चित्तोय चिणाइ कम्मं जैसे पुणो होइ २७८० दुहं विवागे ॥५९॥ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुख्खोह परंपरेण । न लिप्पए भव मझेव संतो जलेण वा पुख्खरिणीपलासं ॥ ६ ॥ जीहाए रसं गहणं वयंति तं राग हेतु मणुन्न माहु । तं दोस हेउं अमणुन्न माहु समोय जो तेसु सवीयराओ ॥६१॥ रसरस जीहं गहणं वयंति जिम्भाए रसं गहणं वयंति । रागरस हेउं समणुन्न माहु दोसस्सहेडं अमणुन्न माहु ॥ ६२ ॥ रसेसु जो गिद्धि मुवेइ तिवं अकालियं पावइ से विणासं । रागा उरे बडिस विभिन्न काए मच्छे जहा आमिसलोभ गिद्धे ॥ ६३ ॥ ००००० तेने दुःणां कम बारहवा एवी गंधमां अनुरक्त मनुष्यने कदापि काळे किंचित सुख पण क्याथी संभवे ? जे वस्तु प्राप्त करवाने तेणे कष्ट बेठेलु ते 81 वस्तुनो उपभोग करती वखते पण तेने दुःख उपजे छे. [२८]. एवीज रीते गंध उपर द्वेष करनार जीव दुःखनी परंपरा उपार्जे छे. ज्यारे तेनुं चित्त द्वेषथी भरेलुं होय छे त्यारे ते घणां कर्म बांधेछे, जे कर्म परीणामे दुःखनां कारणरुप थइ पडे छे. [५९]. परंतु गंधथी विरक्त मनुष्य शोकथी मुक्त रहे छे, जेम कमलपत्र जळमा रहेवा छतां भींजातुं नथी तेम ते जोके संसारमा रहे छे छतां दुःखनी परंपराधी खरडातो नथी.1६०]. रस जीभनुं आकर्षण करे छे. मधुर रस रागर्नु अने कटु रस द्वेषतुं कारण [ तीर्थकरे | ४ कहयुं छे. भलामुंडा रसने विषे राग द्वेष रहित होय ते वीतराग कहेवाय. [६१. जीभ रसने ग्रहण करे छे अने रस जीभर्नु आ18 कर्षण करे छे, मधुर रस रागर्नु अने कटु रस द्वेषनुं कारण (तीर्थकरे) कहयुं छे. [६२]. जेम रागातुर माछठे रसना लोभथी ल लचाइने लोढाना कांटाथी भेदाइने अकाळे मरण पामे छे तेम रसने विषे तीन मूर्छा राखनार अकालिक विनाशने पाये छे. (६३) स रागर्नु २००० For Personal and Private Use Only Jan Education International Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३२ २७९ जेयावि दोसं समुवेइ तिव्वं तं सिख्खणे सेउ उवेइ दुख्खं । दुर्द्दत दोसेण सएण जंतू न किंचि रस अवरझई से ॥६४॥एगंत रत्तो रुइरेरसंमि अतालिसे से कुणई पओस । दुख्खरस संपील मुबेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥६५॥ रसाणुगासाणु गएय जीवे चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्ते हिंते परितावेइ बाले पीलेइ अतट्ट गुरु किलिडे ॥ ६६ ॥ रसाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायने रख्खण संनिउंगे । वए विओगेय कहं सुहंसे संभोग कालेय अति लाभे ॥६७॥ रसे अतित्तेय परिग्गहंमि सत्तोवसत्तो न उइ तुहिं । अतुट्टि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८ ॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रसे अतित्तस्स परिग्गहेय । मायामुखं वढ्ढइ लोभ दोसा तथ्थाि दुख्खानवि मुई से ॥६९॥ जे कोइ कटु रस उपर अति द्वेष आणे छे, ते तत्क्षण दुःख पामे छे. तेने जे दुःख उपजे छे तेमां तेनी जीभनो दोष छे, तेमां रसनो कांई दोष नथी. [६४]. जे कोइ मधुर रस उपर अति राग करे छे, तेने कटु रस उपर द्वेष उपजे छे. अने तेथी मूर्ख माणस दुःख पामे छे, ज्यारे वीतराग मुनी एवा राग, द्वेषथी मुक्त रहे छे. [ ६५ ]. सुरसने विषे लुब्ध थयेलो जीव अनेक चराचर जीवने हणे छे. स्वार्थमां लीन थयेलो अज्ञानी जी. व ए जीवाने अनेक प्रकारे पीडे छे अने तेमने दुःख उपजावे छे. [ ६६ ]. सुरसनेो रागी जीव ते वस्तु प्राप्त करवानी, तेनुं रक्षा करवानी, तेनो उपभोग करवानी, तेना नाशनी अने तेना विरहनी मूर्च्छाने लीधे क्यांथी सुखी थाय ? ते भोगवती वखते पण तेनाथी तेने तृप्ति थती नथी. [ ६७ ]. ज्यारे ते रसथी तृप्त थतो नथी, अने मूच्छाने ली ते उपर तेनी आसक्ति बघतीज, जाय छे त्यारे ते असंतोषना दोषयी दुःखी थाय छे, अने लोभथी दोवाइने पारकानी अणदीधी बस्तु हाथ करे छे. (६८). तृष्णा पराभव पामेलो ते प्राणी पारकानी वस्तु ले छे छतां एरस अने परिग्रहथी तेने संतोष थतो नथी. अने पछी लोभना दोषथी ते नामां माया अने जूठ वधे छे, एटलं छतां पण ते दुःखी मुक्त थतो नथी. [६९]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000000 0000000000000 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० al मोसस्स पचाय पुरथ्थओय पओग कालेय दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो रसे अतितो दुहिओ अणिस्सो ७०॥ रसाणु रत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तथ्योवभोगेवि किलेस दुख्खं निव्वत्तई जस्सकएण दुख्खं ॥ ७१ ॥ एमेव रसंमि गओ पओसं उवेइ दुख्खोह परंपराओ। पदुट्ठ चित्तोय चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागो ॥७२॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुख्खोह परंपरेण । न लिप्पइ भवमझेवसंतो जलेण al वा पुख्खरिणीपलासं ॥७३॥ कायरस फासं गहणं वयंति तं रागहेउंतु मणुन्न माहु । तं दोस हेडं अमणुन्न माहु समोयजो तेसु स वीयरागो ॥ ७४ ॥ फासरा कायं गहणं वयंति कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हेडं | समणुन्न माहु दोसस्स हेउं अमणुन्न माहु ॥७५॥ जूटुं बोलवा पूर्वे अने त्यारपछी तेमज जूटुं बोलती वखते पण ते अति दुःखी थाय छ, आ प्रमाणे पारकानी वस्तु ग्रहण कर्या छतां तेना रसथी ते तृप्त थतो नथी, परंतु दुःखी थाय छे अने एवा जीवनो कोइ रक्षक नथी. [७०]. एवा रसमां अनुरक्त मनु। ष्यने कदापि काळे किंचित सुख पण क्याथी संभवे ? जे वस्तु प्राप्त करवाने तेणे कष्ट वेठेठे ते वस्तुनो उपभोग करती वखते पण तेने दुःख उपजे छे./७१]. एवीज रीते रस उपर द्वेष करनार जीव दुःखनी परंपरा उपाजे छे.: ज्यारे तेनुं चित्त द्वेषथी भरेखें होय छ त्यारे ते घणां कर्म बांधे छे, जे कर्म परीणामे दुःखनां कारण रुप थइ पडे छे. (७२). परंतु रसथी विरक्त मनुष्य शोकथी मुक्त रहे छे. जेम कमल पत्र जळमा रहेवा छतां भींजातुं नथी, तेम ते जो के संसारमा रहे छे, छतां ते दुःखनी परंपराथी खरडातो नथी. (७३). स्पर्श शरीरनुं आकर्षण करे छे. मु-स्पर्श रागर्नु अने कु-स्पर्श द्वेषनुं कारण [तीर्थकरे] कहयुं छे. भलामुंडा स्पर्शने विषे राग द्वेष रहित होय ते वीतराग कहेवाय. [७४]. शरीर स्पर्शने ग्रहण करे छे, स्पर्श शरीरनुं आकर्षण करे छे. सु-स्पर्श रागर्नु अने | कु-स्पर्श द्वेषतुं कारण [ तीर्थकरे ] कहयुं छे. [७५]. 600 Jain Education national For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MB] फासस्सजो गिद्धि मुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे सीय जलावसन्ने गाह ग्गहीए महिसेवरन्ने ३२ ॥ ७६ ॥ जेयावि दोसं स मुवेइ तिव्वं तं सिख्खणे सेउ उवेइ दुख्खं । दुईत दोसेण सएण जंतू न किंचि फासं २८१8 अवरझईसे ॥ ७७ ॥ एगंत रत्तो रुइरंसि फासे अतालिसेसे कुणई पओसं । दुख्खस्स संपालमुवेइबाले न लिप्पई तेण मुणीविरागो ॥ ७८ ॥ फासाणु गासाणु गएयजीवे चराचरे हिंसई णेगरुवे । चित्तेहिंते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तठ्ठ गुरु किलिठे ॥ ७९ ॥ फासाणु वाएण परिग्गहेण ऊप्पायणे रख्खण संनिओगे। वए विओगेय कहं सहसे 181 संभोग कालेय अतित्त लाभे ॥८०।। फासे अतित्तेय परिग्गहमि सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्छि । अतुठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आययइ अदत्तं ॥ ८१ ॥ जेम रागातुर महिप शीतळ जळथी ललचाइने मगरमच्छथी पकडाइने अकाळे मरण पामे छे तेम स्पर्शने विषे तिब मूर्छा | राखनार अकालिक विनाशने पामेछे. [७६]. जे कोइ कु-स्पर्श उपर अति द्वेष आणे छे, ते तत्क्षण दुःख पामे छे. तेने जे दुःख उपजे छ तेमां तेनो पोतानोज दोष छे, तेमा स्पर्शनो काइ दोष नथी. [७७]. जे कोइ सु-स्पर्श उपर अति राग करे छे, तेने कुस्पर्श उपर द्वेष उपजे छे. अने तेथी मूर्ख माणस दुःख पामेछे. ज्यारे वीतराग मुनी एवा रागद्वेषयी मुक्त रहे छे. [७८]. सु-स्पर्शने विषे लुब्ध थयेलो जीव अनेक चराचर जीवने हणे छे. स्वार्थमां लीन थयेलो अज्ञानी जीव ए जीवोने अनेक प्रकारे पीडे छे अने 8 तेमने दुःख उपजावे छे. (७९). सु-स्पर्शनो रागी जीव ते वस्तु प्राप्त करवानी, तेनु रक्षण करवानी, तेनो उपभोग करवानी, तेना नाशनी अने तेना विरहनी मूछाने लीधे क्यांधी सुखी थाय ? ते भोगवती वखते पण तेनाथी तेने तृप्ति थती नथी. [८०]. ज्यारे ते स्पर्शथी तृप्त थतो नथी अने मूछाने लीधे ते उपर तेनी आसक्ति वधतीज जाय छे त्यारे ते असंतोषना दोषथी दुःखी थाय छ अने लोभथी दोरवाइने पारकानी अण दीधी वस्तु हाथ करे छे. [८१]. .. . Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. तन्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो फासे अतित्तरस परिग्गहेय । मायामुसं वढइ लोभ दोसा तथ्थावि दुख्खानवि मुच्चई से ॥८२॥मोसस्स पलाय पुरथ्थओय पओग कालेय दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो २८२ ॥८३॥ फासाणुरत्तस्सनरस्सएवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तथ्योव भोगेवि किलेस दुख्खं निव्वत्तई जस्स ३ कएण दुख्खं ॥ ८४ ॥ एमेव फासंमि गओ पसं उवेइ दुख्खोह परंपराओ । पदुठ्ठ चित्तोय चिणाइ कम्मं जसे पणो होड दहं विवागे॥ ८५॥ फासे विरत्तो मणओ विसोगो एएण दख्खोह परंपरेण । न लिप्पई भवमझे वसंतो। जलेण वा पुख्खरिणी पलास ॥८६॥ मणस्स भावं गहणं वयंति तं राग हेतु मणुन्न माहु। तं दोस हेउं अमणुज्ञ 8 माह समोय जो तेसु स वीयरागो ॥८७॥ तृष्णाथी पराभव पामेलो ते प्राणी पारकानी वस्तु ले छे छतां ए स्पर्श अने परिग्रहथा तेने संतोष थतो नथी. अने पछी लोal भना दोषयी तेनामां माया अने जूठ वधे छे. एटलुं छतां पण ते दुःखथी मुक्त थतो नथी. [८२]. जूढे बोलवा पूर्वे अने त्यारपछी | तेमज जूटुं बोलती वखते पण ते अति दुःखी थाय छे. आ प्रमाणे पारकानी वस्तु ग्रहण कर्या छतां तेना स्पर्शथी ते तृप्त थतो नथी. परंतु दुःखी थाय छे. अने एवा जीवनो कोइ रक्षक नथी. [८३]. एवा स्पर्शमां अनुरक्त मनुष्यने कदापि काळे किंचित मुख पण क्यांथी संभवे ? जे वस्तु प्राप्त करवाने तेणे कष्ट वेठेलु ते वस्तुनो उपभोग करती वखते पण तेने दुःख उपजे छे. (८४). एवीज रीते स्पर्श उपर द्वेप करनार जीव दुःखनी परंपरा उपार्जे छे. ज्यारे तेनुं चित्त द्वेषथी भरेलुं होय छे त्यारे ते घणां कर्म बांधे छे, जे कर्म परिणामे दुःखना कारणरुप थइ पडे छे. [८५]. परंतु स्पर्शथी विरक्त मनुष्य शोकथी मुक्त रहे छे. कमल-पत्र जळमा रहेवा उतां भींजातुं नथी, तेम ते जो के संसारमा रहे छे, छतां ते दुःखनी परंपराधी खरडातो नथी.[८६]. भाव मनन आकर्षण करेछे. मनोहर भाव रागर्नु अने अमनोहर भाव द्वेषतुं कारण (तीर्थकरे) कहयुं छे. भला मुंडा भावने विषे राग द्वेष रहित होय ते वीतराग कद्देवाय. [८७]. Jain Education P ational For Personal and Private Use Only www.jainePlorg Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भावस्स मणं गहणं वयंति मणस्स भावं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्न माहु दोसस्सहेउं अमणुन्न माहु ॥ ८८ ॥ भावेसु जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे करेणु मग्गा । 1 वहिएव नागे ॥८९॥ जेयावि दोसं समुवेइ तिव्य तं सिख्खणे सेउ उवेइ दुख्खं दुदंतदोसेण सएण जंतून किंचि | भावं अवरझई से ॥ ९ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि भावे अतालिसेसेकुणई पओसं । दुख्खस्स संपील मुवेइ बाले । न लिप्पई तेण मुणी विरागे ॥ ९१ ॥ भावाणुगासाणु गएय जीवे चराचरे हिसइणेगरूवे । चित्तेहिते परितावेई. ३ बाले पीलेइ अत्तठ गुरू किलिठे ॥ ९२ ॥ भावाणु वाएण परिग्गहेण उप्पायणे रख्खण संनिओगे । वए विओमेय M३ कहं सुहंसे संभोगकालेय अतित्त लाभे ॥१३॥ मन भावने ग्रहण करे छे अने भाव मननुं आकर्षण करे छ. मनोहर भाव रागर्नु अने अमनोहर भाव द्वेपर्नु कारण [तीर्थकरे] कहयुं छे. [८८]. कामातुर हाथी जेम हाथणीनी पाछळ आडे मार्गे जाय छे अने परवश पडी अकाले मरण पामे छे तेम भावने विषे. 1 तीव्र मूर्छा राखनार अकालिक विनाशने पामेछे. (८९). जे कोइ अमनोहर भाव उपर अति द्वेष आणे छे ते तत्क्षण दुःख पामेछे तेने जे दुःख उपजे छे तेमां तेना मननो दोष छे. तेमां भावनो काइ दोष नथी. [९०]. जे कोइ मनोहर भाव उपर अति राग करेछे तेने अमनोहर भाव उपर द्वेष उपजेछे. अने तेथी मुर्ख माणस दुःख पामेछे. ज्यारे वीतराग मुनी एवा राग द्वेषयी मुक्त रहेछ.(९१) मनोहर भावने विष लुब्ध थयेलो जीव अनेक चराचर जीवने हणे छे. स्वार्थमा लीन थयेलो अज्ञानी जीव ए जीवोने अनेक प्रकारे 8 पीडे छे अने तेमने दुःख उपजावे छे. (९२). मनोहर भावनो रागी जीव ते वस्तु प्राप्त करवानी, तेनुं रक्षण करवानी, तेनो उपभोग करवानी, तेना नाशनी अने तेना विरहनी मर्छने लीधे क्याथी सुखी थाय? ते भोगवती वखते पण तेनाथी तेने तृप्ति थती नथी.(९३). ...०.०००००००००००००० ... Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भावे अतितेय परिग्गहमि सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्छि । अतुठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आयथई अदत्त Tal॥९॥ तण्हाभिभुयस्स अदत्तहारिणो भावे अतित्तस्स परिग्गहेय । मायामुसं वढइ लोभ दोसा तथ्थावि दखा नवि ...: मुच्चई से ॥९५॥ मोसस्स पाय पुरथ्थओय पओ गकालेय दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो भावे अतित्तो 18 दुहिओ अणिस्सो ॥९६॥ भावाणुरत्तरस नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तथ्योव भोगेवि किलेस दर्ता निव्वत्तई जस्स कएण दुख्ख॥९७॥ एमेव भावंमि गओ पओसं उवेइ दुख्खोह परंपराओ । पदुछ चित्तोय चिणाड | कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ९८ ॥ भावे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुख्खोह परंपरेण । न लिप्पई | | भवमझेवसंतो जलेण वा पुरवरिणीपलासं ॥९९॥ ज्यारे ते भावथी ठप्प थतो नथी अने मुच्छोने लीधे ते उपर तेनी आसक्ति वधतीज जायछे त्यारे ते असंतोपना दोपथी हावी 1 थाय छे. अने लोभथी दोरवाइने पारकानी अणदीधी वस्तु हाथ करेछे. [९४]. तृष्णाथी पराभव पामेलो ते पाणी पारकानी वस्त ले छे छतां ए भाव अने परिग्रहथी तेने संतोष थतो नथी अने पछी लोभना दोषथी तेनामां माया अने जूठ वधे छे. एटलं छतां पण 8 ते दुःखथी मुक्त थतो नथी. (९५). जूटुं बोलवा पूर्वे अने त्यारपछी तेमज जूटुं बोलती वखते पण ते अति दाखी थाय छे. आप्रमाणे पारकानी वस्तु ग्रहण कयो छतां पण तेना भावथी ते तृप्त थतो नथी; परंतु दुःखी थाय छे. अने एवा जीवनो कोड रक्षक नथी. (९६). एवा भावमा अनुरक्त मनुष्यने कदापि काळे किंचित सुख पण क्याथी संभवे ? जे वस्तु प्राप्त करवाने तेणे कष्ट वेठेलु ते वस्तुनो उपभोग करती बरखते पण तेने दुःख उपजे छे. [२७]. एवीज रीते भाव उपर द्वेष करनार जीव दुःखनी परंपरा उपार्जे छे. ज्यारे तेनं चित्त देषथी भरेलु होय छे त्यारे ते घणां कर्म बांधे छे, जे कर्म परीणामे दुःखनां कारणरुप थड पडे हे. (९८). परंतु भावथी विरक्त मनुष्य शोकथी मुक्त रहे छे. जेम कमलपत्र जळमां रहेवा छतां भींजातुं नथी, तेम से जो फे संसारमा रहेका छतां ते दुःखनी परंपराथी खरडातो नथी. [९९]. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००००० 18| एविंदियथ्थाय मणस्स अथ्था दुश्वरस हेउं मणयस्त रागिणी। ते चेव थोबपि कयाइ दुवंन वीयरागरसकरेति किचि॥१०॥ उ.अ. ३२ न कामभोगा समयं उति नया वि भोगा विगई उति । जे तप्पओसीय परिंगहीय सो तेसु मोहाविगई उवेड। २८५/३॥ १०१ ॥ कोहंच माणंच तहेब मायं लोभं दुगंछ अरइं रइंच । हासं भयं सोग पुमिथिथवेयं नपुसं वेयं विविहेय 18 भावे ॥१०२॥ आवज्जई एव मणे गरूवे एवं विहे कामगुणेसु सत्तो । अन्नेय एयप्पभवे विसेसे कारुन्न दीणे हरिमे | वइस्से ॥ १०३ ॥ कप्पं न इलेज सहायलिछु पड्डाणुतावेय तव प्पभावं । एवं वियारे अभिय प्पयारे आवज्जई इंदिय चोर वस्से ।।१०४ ॥ ___आ प्रमाण इन्द्रिय अने मनना संकल्प-विकल्पो रागातुर मनुष्यने दुःख उपजावे छे. परंतु तेश्रो राग द्वेष रहित वीतराग जीतेन्द्रिय ] ने लेश मात्र दुःख उपजाची शक्ता नथी. [१००]. काम भोगनी वस्तुओ पोते समता अथवा विकार उत्पन्न करती नथी, परंतु तेमना प्रति राग द्वेष आणवाथी मायाने लीधे एवा विकार उत्पन्न थाय छे.[१०]. क्रोध, मान, माया, लोभ, दुगंछा,अरवि, रति, हर्ष, भय, शोक स्त्री वेद, पुरुष वेद, अने नपुंसक वेद* प्रति विषयनी अभिलाषा; आवा विविध प्रकारना भाव विषयासक्त मनुष्यना हृदयमा उत्पन थाय छे. तेमन वळी उपर कहेला क्रोधादिकने लीधे अन्य विकारो पेदा थाय छे. एवो मनुष्य दयाने पात्र लज्जित अने सर्वत्र अप्रीतिकर थइ पढे छे. [१०२.१०३], आ चार स्वाध्यायमां शीथील थइ, साधुए शिष्यनी इच्छा करवी नहि चारित्र लीधा पछी तप वीगरे माटे खेद न करवो तेम पोताना तपना प्रभावनी साधुए इच्छा करवी नही. एवा अनेक प्रकारना विकारो तो इन्द्रियोने वश थयेलामा उद्भव छे. [१०४]. *वार कषाय अने नव नोकपाय. Such emotions of an infinite variety arise in one who is the slave of his senses. 500००००००००००००००० 40000-00००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ३२ २८६ तओसे गयंति पओयणाई निमिज्जिउं मोहमहन्नवंमि सुहेसिणो दुख्ख विणोयणठा तप्पच्चयं उज्जमएय रागी ॥१०५॥ विरज्जमाणस्सय इंदियश्था सद्दाइया तावइय प्पगारा । न तस्स सव्वेवि मणुन्नयंवा निव्बत्तयंती अमणुन्नयंवा ॥१०६॥ एवंस संकप्पविकप्पणासु संजायई समय मुवठियरस । अथ्थेय संकप्पओ तओ से पही यप काम गुणेसु तन्हा ॥ १०७ ॥ स वीयरागोकय सव्व किच्चो खवेइ नाणावरणं खणेणं । तहेब जं दरिसण सावरेइ जचं | तरायं पकरेइ कम्म।।१०८॥ सव्वं तओ जाणइ पासएय अमोहणे होइ निरंतराए । अणासवे भाण समाहि जुत्तेआ १ उख्खए मोख्ख मुवेइ सुडो ॥१०९॥ इन्द्रिय सुखनी अभिलाषाथी जीव मोह समुद्रने विषे डूबी दुःखथी दूर रहेवाने अनेक युक्ति प्रयुक्ति रचे छे अने ए निमित्ते रागी द्वेषी जीव [हिंसादिक उद्यम आदरे छे.[१०]. इन्द्रिय अने शब्दादिक शब्द, रुप, रस, गंध, स्पादि] विषयो वीरागी (विरक्त) पुरुषने राग द्वेष उपजावी शक्ता नथी. (१०६). राग द्वेषादि संकल्प-विकल्प एज समस्त दोषनां मूळ छे, एवी भावनाने विष प्रवर्त्तनारने संपूर्ण समता [ समत्वपणुं] प्राप्त थाय छे. ज्यारे इन्द्रिय अने शब्दादि वस्तुनी तृष्णा ओछां थाय छे, त्यारे भोग भोगववानी तृष्णा बंध पडे छे. (१०७). आवी तृष्णाओने त्यजनार वीतराग जे सर्व कार्य सिद्ध करे छे ते क्षण मात्रमा ज्ञानावर णीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय कर्म सर्व खपावी दे छे. [१०८]. [कर्म खपाव्या] पछी ते ज्ञान वडे सर्व लोकालोकने देखी 18| शके छ, ते मोहनी कर्म अने अंतराय कर्म रहित थाय छे, तेनां आश्रय (पाप) दूर थाय छे अने ते शुद्ध शुक्ल ध्यान* अने समाधि ग्रस्त थइने, आयुष्य खपावीने, मोक्ष प्राप्त करे छे. (१०९). ०००००००००००००००० *He is proficient in meditation and concentration of thoughts. .. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2008 सोतस्स सव्वस्स दुहस्स मुखो जंवाहई सययं जंतुमेयं । दीहामय विप्पमुक्को पसथ्थो तोहोइ अच्चंत सुही कयथ्थो ।। ११०॥ अणाइ कल प्पभवस्स एसो सव्वरस दुखस्स पमोखमग्गो। वियाहिओ जं समुवेच्च सत्ता कमेण अच्चत सुही भवंति तिबेमि ॥ १११ ॥ ® इति श्री पमायठाणं नामं झयणं दव्यात्तिरसं सम्मत्तं ॥ ३२ ॥ * . अध्ययन ३३. कर्म-प्रकृति. अठ्ठ कम्माइं वोड्यामि आणुपुर्दिव जहक्कम्मं जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवत्तई ॥ १ ॥ नाणा वरणं चेव दंसणा वरणं तहा । वेयणिज तहा मोहं आउ कम्मं तहेवय ॥ २ ॥ नामकम्मंच गोयंच अंतरायं तहेवय ।। जे दुःखो जीवने निरंतर पीडा कर्या करेछे ते दुःखथी ते मुक्त थाय छे. अने आ प्रमाणे कर्म रुपी रोगनी पीडाथी मुक्त थइने ते अत्यंत सुखी थाय छे अने सिद्ध दशाने पामे छे. [११०. अनादि काळथी उत्पन्न थयेला सर्व दुःखरुप जे कर्म तेनाथी मुक्त थवानो मार्ग श्री तीर्थकर भगवाने कही संभळाव्यो छे.जे जीव ए मार्गे प्रवर्त्तशे ते क्रमे क्रमे अत्यंत सुखने पामशे. (१११). * अध्ययन बत्रीशमुं संपूर्ण. * ® अध्ययन ३३. ॐ हवे आठ प्रकारनां कर्म अनुक्रमे कहुँ छ, जे कर्मथी बंधायेलो जीव (चार गति रुप) संसारमा परिवर्तन करे छ. [१].ए | आठ प्रकारनां कर्म संक्षिप्ते नीचे प्रमाणे छ:-[१] ज्ञानावरणीय कर्म [जेम वादळां सूर्यनी कान्ति ढांके छे तेम आंखना पाटा समान आ कर्म ज्ञानने रोके छे]. १ Which acts as an obstruction to right knowledge. आ ज्ञानावरणीय कमे अनंत ज्ञान गुण पामवामां अंतराय रुप छे, ०००००००००००००००००० . Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३३ २८८ एव मेयाई कम्माई अवउ समासओ ॥३॥ '[२] दर्शनावरणीय कर्म । जेम प्रतिहार राजानां दर्शन करतां अटकावे छे तेम आ कर्म दर्शनने रोके छे]. २ [३] वेदनीय कर्म (मधथी खरडेली खड्गधारानी पेढे शाता अशाता आ कर्मथी उपजे छे). ३ [४] मोहनीय कर्म ( मदिरानी पेठे अज्ञानी विकल अने बेभान आ कर्म करे छे). ४[५] आयुः कर्म ( नर्कादि गतिथी नीकळवा इच्छे पण आ कर्मथी हेडमां पुरेला केदीं पेठे नीकळी न शके ). [ ६ ] नाम कर्म [चितारानी पेठे चार गति रुप संसारमां घणा भव पमाडेछे]. [७] गोत्र कर्म (कुंभारना चाकडानी पेठे उच्च निगम कर्म जन्म लेकरावे छे). [८] अंतराय कर्म (राजानी तेजुरी साचवनार पोताना उपयोग माटे एक पाइ न लइ शके तेम आ कर्मथी बंधायेला सदुपयोग न करी शके). [२३] . १ Which acts as an obstraction to right faith. आ दर्शनावरणीय कर्मे अनंत दर्शन गुण रोकेला छे. २ Which leads to experiencing pain and pleasure. अनंत अव्यावाध आत्मिक सुख आ कर्मने लीधे प्राप्त थइ शकतुं नथी. ३ Which leads to delusion. आ कर्मे क्षायक समकित गुण रोक्यो छे. ४ Which determines the length of life. आ कर्म अक्षय स्थिति गुण गुमावे छे. ५ Which determines the name or individuality of the embodied soul. आधी अमूर्त्ति गुण रोकायछे. ६ Which determines his Gotra. आ कर्मथी अगुरु लघु गुण गुम थाय छे. ७Which prevents one's entrance on the path that leads to eternal bliss. अनंत आत्म शक्ति गुण आ कर्मथी दवाइ जाय छे. आ आठ कर्मनो क्रम विचारवा जेवोछे, नाम कर्मने छटुं केम मुक्युं अने अंतराय कर्म आठ शा माटे गोठव्युं ए ज्ञान गोष्टि समजवा जेवी छे. ज्ञान अने दर्शन ए जीवत्वनां मुख्य तत्व छे ते मांए ज्ञान प्रधान छे. ज्ञानथीज सारासारनं भान थतां जीवन सार्थक थाय छे माटे ज्ञानने प्रथम पद आपी तेने रोकनार ज्ञानावरणीय कर्मने प्रथम अने बीजो नंबर दर्शनावरणीय कर्मने आपलछे. आ बे कर्मना विपाकना उदय निमित्त वेदनिय कर्मछे. वेदनिय कर्मथा सुख दुःख थत, राग द्वेषने जन्म मळेछे जे मोहनीय कर्मछे. मोहांध थतां फरी जन्म भ्रमण कर पडेले एथी आयुष्यनी आवश्यकता उभी थायछे. आयुष्य उत्पन्न थवाथी नाम कर्म आवी वळगेले ते साथ गोत्रनो पण संबंधछे अने गोत्रानुसार अंतराय कर्मने आधीन था विना छुटको थतो नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३३ २८९ नाणावरणं पंच विहं सुयं आभि णिबोहियं । ओहिनाणंच तइयं मणनाणंच केवलं ॥ ४ ॥ निद्दा तहेव पयला निद्दानिद्दाय पयलपयलाय । तत्तोय थीणगिद्धीउ पंचमा होई नायव्या ॥ ५ ॥ चख्खु मचख्खु ओहिस्स दंसणे केवलेय आवरणे । एवंतु नव विगवं नायव्वं दंसणावरणं ॥ ६ ॥ [१] ज्ञानावरणीय कर्मना पांच भेद कह्या छे :- (१) श्रुत - ज्ञानावरणीय, [२] अभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय (मति ज्ञानावरणीय) (३) अवधि- ज्ञानावरणीय, [४] मन-पर्याय-ज्ञानावरणीय, [५] केवल-ज्ञानावरणीय. [४] [२] दर्शनावरणीय कर्मना नव भेद ह्या छे: - (१), निद्रा, (२) प्रचला, * १] निद्रा-निद्रा, (४) प्रचलाप्रचला, [५] थीणद्धि-निद्रा, १ (६) चक्षुदर्शनावरणीय, [७] अचक्षुदर्शनावरणीय, [4] अवधि-दर्शनावरणीय, (९) केवल-दर्शनावरणीय. [५-६]. *प्रो. जेकोबी आ पांच प्रकारनी निद्रानो जुदो जुदो अर्थ करे छे. जुदा जुदा ग्रन्थो तपासतां आ अर्थ नीकळे छे. निद्रा-जतर जगावी प्रचला - The slumber of a standing or sitting person उभां के बेठां झोकां आवी जाय छे. निद्रा निद्रा - Deep sleep जगाडतां घणी महेनत पड़े तेवी उघ. प्रचला प्रचला चालतां चालतां उंघ आवी जाय ते. मो जेकोबी ने High degree of activity पण खरो अर्थ तो Sleep of a person in motion थइ शके छे. १ चारे निद्रा करतां आ अति तीव्र छे. आ निद्रावस्थाए अर्ध वासुदेवनुं बळ होय छे. दिवस दरम्यान चितवेल कायें रात्रीए सुता पछी आ निद्रा वाळा उघमाने उघमा करे छे. बहुधा आ निद्रामां अनर्थज थाय छे तो पण हालमां एक सारुं काम थयानो दाखलो अमेरिकामा बन्यो छे. चोपान्याओमी लखाण करनार एक लेखकने सवारमा एक चोपान्याना तंत्री तरफथी बेन्कनो चेक मळ्यो 1. के. तमारां फलाणां लखाण माटे आ बदलो मोकल्यो छे, लेखके विचार कर्यो के आ लेख में लख्योज नथी ने मोकल्यो पण नथी. पोरे भोजन लइ निरांते आळोटतां याद आव्युं के चार दिवस पेहेलां आवो विषय लखवा तेनी इच्छा हती. स्मरण शक्तिनी सा - ह्या तांबट सिद्धथयुं के ते दीवसे रात्रीना वार वागते लेखक उधमांने उघमां उठ्यो हतो. बती सळगावी लखवानां साधन raai कर्या, लख्युं अने जाते पोष्ट ओफीसमां नांखी आवी सूइ गयो.त्रण दिवस वीती गया अने आ पत्र आव्यो त्यारे भान थयुं. आ प्रमाणे उघमाने उघमां अर्धी रात्रीए रस्ता वच्चे चाल्या जतां घणां माणसो पोलीसने मळे छे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणियंपिय दुविहं साय मसायंच आहियं । सायस्सओ बहू भेया एमेव असायस्सवि ॥७॥ मोहाणिजपि दुविहं दसणे चरणे तहा । दसणे तिविहं बुत्तं चरणे दुविहं भवे ॥८॥ सम्मत्तंचेव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्त मेवय । एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे ॥९॥ चरित मोहणं कम्मं दुविहंतु बियाहियं । कसाय मोहणिज्जंच नोकसाय तहेवय ॥१०॥ सोलस विह भेएणं कम्मंतु कसायजं । सत्तविहं नवविहंवा कम्मं नोकसायनं ॥ ११ ॥ - (३) वेदनिय-कर्म वे प्रकारनां छे :-[१] शाता-वेदनीय कर्म, (२) अशाता-वेदनीय-कर्म: शाता अने अशाता-वेदनीय कर्मना घणा भेद छे. (७). [४] मोहनीय-कर्म के प्रकारना छ :-[१] दर्शन-मोहनी-कर्म, [२] चारित्र-मोहनी कर्म. वळी दर्शन-मोहनीकर्मना त्रण भेद छे अने चारित्र-मोहनी-कर्मना चे भेद छ. दर्शन-मोहनी-कर्मना त्रण भेद :-[१] सम्यक्, (२) मिथ्यात्व, [३] | सम्यक्-मिथ्यात्व. चारित्र-मोहनी-कर्मना बे भेद :-[१] कषाय-मोहनी-कर्म अने [२] नोकषाय-मोहनी-कर्म. कषाय-मोहनी-कर्मना सोळ अने नोकषाय-मोहनी-कर्मना सात अथवा नव भेद छे. [अनन्तानु बंधी, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी अने *संजल ए प्रत्येकमां क्रोध, मान, माया, लोभ ए रीते कषाय-मोहनी-कर्मना सोळ भेद थाय छे. नोकषाय पोहनी कर्मना भेद-हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंछा अने त्रणवेद, ए प्रमाणे सात, अने जो वणवेद अर्थात स्त्रीवेद, पुरुषपेद अने नपुंसकवेद ए त्रणे जुदा जुदा गणीए तो नव भेद थाय छे]. मोहनी कर्मना कुल २८ भेद थया. (८-११). *संजवलन-थोडा वखतर्नु. जेम पाणीमां लींटी दोरी ते थोडा वखतमां भेगी थइ जाय छे तेम संजलना क्रोध, मान, माया, 18 लोभ थोडा वखत माटेनां होय छे. For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TA नेरइय तिरिख्खाउ मणुस्साउ तहेवय । देवाउयं चउथ्थंतु आउ कम्मं चउविहं ॥ १२ ॥ नाम कम्मंतु दुविहं | सुह मसुहंच आहियं। सुहस्सउ बहूभेया एमेव असुहस्सवि ॥१३॥ गोयं कम्मं दुविहं उच्चं नीयंच आहियं । उच्चं अठ्ठ विहं होइ एवंनीयांप आहियं ॥ १४ ॥ दाणे लाभेय भोगेय उवभोगे वीरिए तहा । पंचविह मंतरायं समासेण | विया हियं ॥१५॥ [५] आयुःकर्म चार प्रकारनां छ :-नर्क, तिथंच, मनुष्य अने देवता. [१२]* (६) नाम-कर्म के प्रकारनां छे :-[१] शुभ-१ नाम-कर्म, [२] अशुभ-नाम-कर्म. शुभ-नाम-कर्मना अनेक ( सामान्य रीते ३७) भेद, अने अशुभ-नाम-कर्मना पण अनेक (सामान्य रीते ३४) भेद कह्या छे. [१३]. (७) गोत्र-कर्म बे प्रकारना छ :-[१] उच्च-गोत्र-कर्म, [२] नीच-गोत्र-कर्म. उच्च गोत्रना आठ | भेद छे तेमज निच्च गोत्रना पण आठ भेद छे.२ [१४]. [८] अंतराय-कर्म पांच प्रकारना छ :-[१]दान-अंतराय-कर्म, [२]लाभ| अंतराय कर्म, (३) भोग-अंतराय-कर्म, [४] उपभोग-अंतराय-कर्म, [५] वीर्य-अंतराय-कर्म.[१५], *महा आरंभ करवाथी, महा परिग्रहथी, मांस मदीरा वापरवाथी, पचेन्द्रि जीवनो वध करवाथी नारकीनुं आयुष्य बंधाय छे. कपट करवाथी, माया जाळ पाथरवाथी, जुटुं बोलवाथी, जुठां तोल माप राखवाथी, खोटा लेख लखाण उभा करवाथी तिर्यंचनुं आयुष्य बंधाय छे. भद्रीक प्रकृतिथी, विनयवंत स्वभावथी, पर जीवनी दया राखवाथी अने मस्तर भावनो त्याग करवाथी मनुष्यनुं आयुष्य बंधाय छे. सराग संयमथी, संयमा संयमथी, बाळ तपश्चर्याथी, अकाम विर्जराथी देवतार्नु आयुष्य बंधाय छे. १ काया, भाषा अने भावना सरळताथी शुभनाम कर्म बंधाय छे. २ जाती, कूळ, बळ, रुप, तप, श्रुत,लाभ अने सत्ता.३वधी जोगवाइ छतां आ कर्मने प्रभाव भोगवी शकातुं नथी.मो. जेकोबीना शब्दो सत्यछे के-The Karman in question brings about an obstruction to the enjoyment &c. though all other circumstances be favourable. अनाज वीगेरे एक वखत भोगवाय ते भोग अने वस्त्रादि वीगेरे अनेक वखत भोगवाय ते उपभोग. ००००००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयाओ मूल पयडीओ उत्तराओय आहिया { पएसग्गं खित्त कालेय भावंवा दुत्तरं सुण ॥ १६ ॥ सव्वेसिं चेव । कम्माणं पएसग्ग मणंतगं । गठियसत्ताईयं अंतो सिद्धाण आहियं ॥१७॥ सब जीवाण कम्मंतु संगहे छहिसा गयं । सव्वेसवि पएसेसु सव्वं सव्येण बद्धगं ॥१८॥ उदहिसरि नामाणं तीसइं कोडिकोडीओ । उक्कोसिया ठिई होइ अंतोमुहुत्तं जहनिया ॥१९॥ आवरणिज्जाणं दुन्हपि वेयणिजे तहेवय । अंतराएय कम्ममि ठिई एसा विया हिया॥२०॥ उदहीसरिस नामाणं सत्तर कोडिकोडीओ। मोहणिज्जरस उक्कोसा अंतो मुहत्तं जहन्निया॥२१॥ तित्तीस सागरोवम उक्कोसेण वियाहिया । ठिई आउकम्मरस अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥२२॥ ए प्रमाणे आठ मूळ प्रकृति अने श्रुत-ज्ञानावरणीयादि उत्तर प्रकृति कही. (अर्थात-कर्मना प्रकार अने तेना भेद कह्या). हवे 1 तेना प्रदेशाम्र, क्षेत्र, काल अने भावनां स्वरुप कहुंछते सांभळो. [१६]. (द्रव्यथी) प्रत्येक कर्मना प्रदेशाग्र छे. तेनी संख्या (राग-द्वेषादि) गांठमां गंठायेला [अभव्य]जीवोना करतां अनंत गणी वधारे छे, परंतु सिद्ध जीवोना करतां (अनंतमे भागे) ओछी छे. [१७]. (क्षेत्रथी) कर्म सर्व जीवोने छए दिशामां बांधी लेछे अने कर्म आत्म-प्रदेशने सर्वाशे (दूध-पाणीनी पेठे) बंधन रुप छे.१८]. (काळथी) बन्ने आवरणीय (अर्थात-ज्ञानावरणीय अने दर्शनावरणीय) तेमज वेदनीय अने अंतराय ए चारे कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति त्रीस* कोटानकोटी सागरोपमनी अने तेमनी जघन्य टुंकामां ढंकी स्थिति अंत-मुहर्तनी [बे घडीथी माठेरी] होय छे. (१९-२०). मोहनीय कर्मथी उत्कृष्ट स्थिति सित्तेर कोटानकोटी सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति अंत-मुहर्तनी होय छे. (२१). आयुः कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश कोटानकोटी सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति अंत-मुहर्तनी होय छे. [२२]. ००००००००००००००००००००००००००० *३००००००००००००००० लागरोपम. Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३४ २९३ उदहिसरिस नामाणं वीसई कोडिकोडीओ । नाम गोयाण उक्कोसा अह मुहुत्ता जहन्निया ॥ २३ ॥ सिद्धाणणंस भागोय अणुभागा हवंतिओ । सव्वे सुवि पएसग्गं सव्वजीवे सइडियं ॥ २४ ॥ तम्हा एएसिं कम्माणं अणुभागे त्रियाणिया । एएसिं संवरे चैव खवणेय जए बुहे त्तित्रेमि ॥२५॥ Pe ॥ इति कम्मप्पगडीयं नामं झयणं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ अध्ययन ३४. लेश्या विषे. लेस झयणं पवख्खामि आणुपुवि जहक्कमं । छन्हंषि कम्म लेसाणं अणुभावे सुह मे ॥१॥ नाम अने गोत्र कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति वीश कोटानकोटी सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त्तनी होय छे. ( २३ ). [भावधी] सिद्ध अनंत छे अने कर्मना अनुभाग (भेद) पण अनंत छे. अने आ सर्व अनुभागने विषे प्रदेशाग्र [ परमाणुओं ] सर्व जीव करतां अनंतगण छे. (२४). एटला माटे उपर कहेला आठ कर्मना अनुभागने संसारना कारणरूप जाणीने पंडितोए तेनो क्षय करवानो यत्न करवो. [२५]. आ प्रमाणे सुधर्मा स्वामी जंबुस्वामीने कछे. * तेत्रीसमं अध्ययन संपूर्ण. * Jain Educationa International अध्ययन ३४. हवे लेश्या* संबंधी अध्ययन अनुक्रमे कहुं हुं. कर्मथी उत्पन्न थती छ लेश्यानुं स्वरूपादि कहुं हुं ते सांभळो. (१). *Different conditions. produced in the soul by the influence of different Karman. 1 For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ २९४ उ. अ. नामाई वन्न रस गंध फास परिणाम लख्खणं । ठाणं ठिई गई चाउं लेसाणंतु सुणेहमे ॥ २॥ किन्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा तहेवय । सुक्कलेसाय छड्डाय नामाईंतु जहक ॥३॥ जीमूय निद्ध संकाला गवल रिह गसन्निभा । खंजं जण नयण निभा किन्ह लेसाओ ओ ॥ ४ ॥ नीला सोग संकासा चास पिल्लु सम पभा । वेरुलिय नि संकासा नील लेसाओ वन्नओ ॥ ॥ अयसीपुप्फ संकासा कोइल छद सन्निभा । पात्रय गीव निभा काउ लेसाओ वन्नओ ||६|| हिंगुलयधाउ संकासा तरुणा इच्च सन्निभा । सुय तुंड पईव निभा तेउ लेसाओ बन्नओ ॥७॥ हरियाल भेय संकासा हलिद्दा भेय सन्निभा | सणासण कुसम निभा पम्ह लेसाओ बन्नओ ॥८॥ लेश्यानां [१] नाम, [२] वर्ण, [३] रस, [४] गंध, [५] स्पर्श, [६] परिणाम, [७] लक्षण, [८] स्थान, [९] स्थिति, [१०] गति अने [११] आयुष्य सांभळो. (२) १ लेश्यानां अनुक्रमे नाम :- [१] कृष्ण-लेश्या, [२] नील-लेश्या, [३] कापोतलेश्या, [४] तेजोलेश्या, [५] पद्म-लेश्या अने [६] शुक्ल-लेश्या. (३). [२]कृष्ण-लेश्यानो वर्ण (रंग) जीमूत एटले काळा मेघ जेवो पाडानां शींगडां जेवो, अरीठानां फळ जेवो अथवा तो खंज पक्षीनी आंखनी कीकी जेवो होय छे. (४). नील- लेश्यानो वर्ण नीलअशोक वृक्ष जेवो, नील-चास पक्षीनी पांख जेवो अथवा तो वैडूर्य [नील-मणि] जेवो होय छे. (५). कापोत- लेश्यानो वर्ण अलसीना फुल जेवो, कोयलनी पांख जेवो अथवा तो पारेवानी डोक जेवो होय छे. (६). तेजोलेश्यानो वर्ग हिंगळा जेवो, उगता सूर्यना जेवो, अथवा तो पोपटनी चांच जेवो होय छे (७) पद्म-लेश्यानो वर्ण हरतालना भूका जेवो, हळदरना भूका जेवो अथवा तो शण अने अशणनां फुल जेवो होय छे. (८). तेना रंग Black, Blue, Grey, Red, Yellow and white.. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VR संखंक कुंद संकासा खीर पूर समप्पभा १ रयय हार संकासा सुक्क लेसाओ वन्नओ ॥९॥ जह कडुय तुंबग रसो 1 निंब रसो कडुय रोहिणि रसोवा । इत्तोउ अणंत गुणो। रसोउ किण्हाए नायव्वो ॥ १० ॥ जह तिकडुयरस रसो M तिख्खो जह हथ्थिपिप्पली एवा । इत्तोवि अणंत गुणो रसोउ नीलाए नायब्बो ॥ ११ ॥ जह तरुण अंवग रसो तुंवर कवठस्स वावि जारिसओ । इत्तोवि अणंत गुणो रसोउ काऊण नायव्यो ॥१२॥ जह परिणयंवंग रसो पक्क कविठ्ठरसवावि जारिसओ। इत्तोवि अगंत गुणो रसोउ तेऊए नायव्यो ॥१३॥ वर वारुणीएव रसो विविहाणब आसवाण जारिसओ । महु मेरगस्सव रसो इत्तो पम्हाए परएणं ॥ १४ ॥ खज्जर मुड़िय रसो खीर रसो खंड सकर रसोवा । इत्तोवि अणंत गुणो रसोउ सुक्काए नायव्यो ॥१५॥ .0000०००००००००००००००००००००००306 ०००००००० शुक्-लेश्यानो रंग शंख जेवो, अंक-मणि शुक्ल-मणि] जेवो, कुन्द वृक्षनां फुल जेबो, दूधनी धारा जेवो, रुपा जेवो अथवा मुक्ताहार मोतीनी माळा जेवो होय छे. (९). ३ कृष्ण-लेश्यानो रस कडवी तंबडीना, कडवा लींबडाना अथवा तो रोहिणीना स्वाद करतां अनंत गणो वधारे कडवी होय छे. [१०]. नील-लेश्यानो रस त्रिकटुक सुंठ, मरी अने पीपर)ना अने हस्ति-पिप्पिली गज-पीपरना स्वाद करतां अनंत गणो तीक्ष्ण तीखो] होय छे. [११]. कापोत-लेश्यानो रस काची केरीना अने काचा कपित्थ (कोठा)ना स्वाद करतां अनंत गणो खाटो होयछे, [१२]. तेजो-लेश्यानो रस पाकी केरीना अने पक्क कपित्थ पाक कोगना स्वाद करतां अनंत गणो खट मीठो होय छे. [१३]. पद्म-लेश्यांनो रस उत्तम मदिराना, विविध प्रकारना आसवना, मधु-मद्यना अने मेरकना स्वाद करतां अनंत गणो [खट मीठो होय छे. [१४]. शुक्ल-लेश्यानो रस खजूर, द्राक्ष, दूध, खांड अने साकरना स्वाद 18 करतां अनंत गणो मधुर [मीगे] होय छे. (१५). 000०००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. जह गोम डस्स गंधो सुणग मडस्सव जहा अहिमडस्स । इत्तोवि अणंत गुणो लेसाणं अप्पसथ्याणं ॥ १६ ॥ जह || सुरहि कुसुम गंधो गंध वासाण पिरस माणाणं । इत्तोवि अणंत गुणो पसथ्य लेसाण तिन्हंपि ॥ १७ ॥ जह कर | गयस फासो गोजिम्भा एव सागपत्ताणं । इत्तोवि अणंत गुणो लेसाणं अप्पसथ्थाणं ॥ १८ ॥ जह बूरस्सब फासो नव णीयस्सव सरीस कुसुमाणं । इत्तोवि अणंत गुणो पसथ्थ लेसाण तिन्हांप ।। १९ ॥ तिविहोव नवविहोवा सत्तावीसइ विहे कसीउवा । दुसओ तेयालोवा लेसाणं होइ परिणामो ॥२०॥ ०००००००००००० ४. अप्रशस्त (कनिष्ठ) लेश्या अर्थात कृष्ण, नील अने कापोत लेश्यानी गंध गाय, कूतरा अने सर्पनां (सडेलां) कलेबरनी दुर्गंध करतां अनंत गणी वधारे खराब होय छे. [१६] प्रशस्त [उत्तम] लेश्या अर्थात तेजो, पद्म अने शुक्ल लेश्यानी गंध सुरभि कुसुमनी अने वटातां [पीसातां] वसाणां (कपुर-काचली वगेरे)नी सुगंध करतां अनंत गणी वधारे सारी होय छे.(१७). अप्रशस्त अर्थात कृष्ण नील अने कापात लेश्यानो स्पर्श करवतना,गायनी जीभना अथवा तो साग वृक्षना पांदडाना स्पर्श करतां अनंत गणो वधारे होय छे. [१८]. प्रशस्त अर्थात तेजो, पद्म अने शुक्ल लेश्यानो स्पर्श कपासनां फुल, माखण यातो शिरीषनां फुलना स्पर्श करता अनंत गणो वधारे कोमळ होय छे. (१९). ६ लेश्यानां परिणाम त्रण प्रकारनां छे :-[१] जघन्य (कनिष्ठ); [२] मध्यम अने [३] उत्कृष्ट. ए प्रत्येकना उपर प्रमाणे त्रण त्रण भेद पाडवाथी नव, एना त्रण त्रण भेद पाडवाथी सत्तावीश, एना त्रण त्रण भेद पाडवाथी एक्काशी अने एना त्रण त्रण भेद पाडवाथी कुल २४३ परिणाम थाय छे. (२०). 5०००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचासव प्पवत्तो तीहिं अगुत्तोसुअबिरओय । तिव्यारंभ परिणओ खुद्दो साहरिसओ नरो ॥२१॥निबंधस परिणामो ३४ ३ निरसंसो अजिइंदिओ। एय जोग समाउत्तो किन्ह लेसंतु परिणमे ॥२२॥ ईसा अमरिस अतवो अविज्ज माया अहिरियाय । गिहि पउसेयसढे पमत्ते रसलोलुए ॥ २३ ॥ साय गवेसे यारंभ अविरओ खुद्दो साहसिओ नरो।। एय जोग समाउत्तो नील लेसंतु परिणमे ॥ २४ ॥ वेके वंकसमायारे नियडिल्ल अणुज्जुए । पलिउंचगओ विहिए मिलदिठी अणारिए ॥ २५ ॥ उपफालग दुळुवाईयतेणेया विय मछुरी । एय जोग समाउत्तो काउ लेसंतु परिणमे || ॥२६॥ ००००००००००० ___७ लेश्यानां लक्षण :-पांच आश्रवे करी प्रमादी, प्रण गुप्तिथी मोकळो, छकायनी रक्षाथी रहित, क्रुर कार्यनो करनार, सर्वर्नु अहित इच्छनार, अविचारी कार्यनो करनार, निद्धंस परिणाम वाळो (आ लोकादिनां कष्ट, दुःखनी व्हीक रहित ), जीवहिंसाथी न डरनार, अने इन्द्रियोने न जीतनार, एवो मनुष्य कृष्ण लेश्यावाळो गणाय. [२१-२२]. इर्षा, कदाग्रह, तप प्रति अभाव, अविद्या, कपट, निर्लजता, लंपटता, द्वेष, शठता, प्रमाद,रस-लोलुपता; एटला दुर्गुणे करी सहित, अने वळी इन्द्रिओनां सुखनो अभि| लापी, आरंभथी अविरत, क्षुद्र अने साहसिक, एवो मनुष्य नील-लेश्या वाळो गणाय. (२३-२४). जे मनुष्य वचन अने आचारमा वक्र [अप्रमाणिक] होय, कपटथी वर्त्ततो होय, असरल (अप्रमाणिक) होय, अन्यना उपर आक्रोश करनार होय, राग-द्वेषयी दुष्ट वोलनार होय, अश्रद्धावान होय, सम्यक्नो लक्षण रहित [अनार्य] होय, बीनाने दुःख उत्पन्न थाय एवं बोलनार होय, चोर होय, | अने अन्यनी संपत्ति जेनाथी देखी न खमाय, एवो मनुष्य कापोत-लेश्या वाळो गणाय. [२५-२६]. ..००००००००००००० Jain Education International For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३४ २९८ नीयावती अचवले अमाई अकुतूहले । विणीय त्रिणए दंते जोगवं उवहाण ||२७|| पिय भरू हिएसए । एय जोग समाउतो तेउ लेसंतु परिणमे ॥ २८ ॥ पयणु कोह माय माया लोभेय पयणुर पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ॥ २९ ॥ तहा पयणु वाईय उवसंतोजे इंदिए । एय जोग समाउतो पहले संतु परिणमे ॥३०॥ अट्ट रुद्राणि वज्जित्ता धम्म सुक्काई झायए । पसंतचित्ते दंतप्पा समिए गुत्तेय गुत्तिसु ॥ ३१ ॥ सरागे वीरागेवा उवसंते जिइंदिए । एय जोग समाउत्तो सुक्क लेसंतु परिणमे ॥ ३२ ॥ असंखिज्जाणो सप्पिणीण उसप्पि णीण जेसमया । संखाईया लोगा लेसाणं हवंति ठाणाई ॥३३॥ जे मनुष्य नम्रता युक्त, अचल, माया अने कुतूहल रहित, विनीत, इन्द्रियोने दमनार, योगवान अने उपधानवान होय, धर्म जेने प्रिय होय, धर्ममां जे दृढ होय, पापथी जे डरतो होय अने मोक्षाभिलाषी होय, एवो मनुष्य तेजोलेश्या वाळो गणाय. ( २७२८). जे मनुष्यने क्रोध, मान, माया अने लोभ बहु ओछां होय, जेनुं चित्त शान्त होय, जे आत्माने दमनार होय, जे योग तथा उपधानवान होय, वळी जे स्वल्प-भाषी [थोडं बोलनार ] अने शान्त होय, अने जेगे इन्द्रियोने वश करी होय, एवो मनुष्य पद्म-लेश्या वाळो गणाय. [२९-३०]. जे मनुष्य आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यान तजीने वर्ग ध्यान अने शुक्ल ध्यान घरनार होय, जेनुं चित्त शान्त होय, जे आत्माने दमनार होय, जे पांच समिति अने त्रण गुप्ति युक्त होय, जे सराग अथवा राग रहित होय, शान्त होय, अने जेणे इन्द्रियोने वश करी होय, एवो मनुष्य शुक्ल-लेश्या वाळो गणाय. (३१-३२). ८ लेश्यानां स्थान :- असंख्य अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणीना जेटला समय अने असंख्याता लोक- आकाशना जेटला प्रदेश, तेटलां (शुभ-अशुभ) स्थान लेश्यानां जाण. [३३] . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.. 36.. ००००००००००००० 8 मुहूत्तडंतु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा किन्ह लेसाए ॥३४॥ मुहुत्तद्धंतु जहन्ना दस उदही पलीय मसंखभागमभ्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा नीललेलाए ॥ ३५ ॥ मुहुत्तहंतु जहन्ना तिन्नुदही पलिय मसंखभाग मभ्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा काउ लेसाए ॥ ३६ ॥ मुहुत्तधंतु जहन्ना दुन्नुदही पलिय मसंखभाग मम्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा तेउ ले लाए ॥३७॥ मुहुन्धंतु जहन्ना दस उदही हुंति मुहुत्त मभ्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्या पम्ह लेसाए ॥३८॥ मुहुत्तधंतु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा सुक्क लेसाए ॥३९॥ एमा खलु लेसाणंओहेणं ठिईओ वन्नियाहोइ । चउसुवि गईसुइत्तो लेसाणं ठिईओ बोल्छामि ॥४०॥ ९ लेश्यानी स्थिति :-कृष्ण-लेश्यानी जघन्य [ डंकामां टुकी ] स्थिति अर्धा मुहर्तनी (बे घडी माठेरी), अने उत्कृष्ट स्थिति 8 तेत्रीश सागरोपम अने एक मुहर्तनी जाणवी. [३४]. नील-लेश्यानी जयन्य स्थिति अर्धा मुहर्तनी अने उत्कृष्ट स्थिति दश सा गरोपम अने पल्यापमना असंख्यातमा भागथी अधिक जाणवी.(३५). कापोत-लेश्यानी जघन्य स्थिति अर्धा मुहर्तनी अने उत्कृष्ट स्थिति त्रण सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागी अधिक जाणवी.(३६). तेजो-लेश्यानी जघन्य स्थिति अर्धा मुहूर्त्तनी अने उत्कृष्ट | स्थिति वे सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागी अधिक जाणवी. [३७]. पद्म-लेमानी जघन्य स्थिति अर्धा मुहूर्तनी अने उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम अने एक मुहर्तनी जाणवी. (३८). शुक्ल-लेश्यानी जघन्य स्थिति अर्धा मुहत्तनी अने उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपम अने एक मुहर्तनी जाणवी. (३९). लेश्यानी सामान्य प्रकारनी स्थिति उपर प्रमाणे वर्णवी छे. हवे चार । 18 गति (नारकी, तिर्यच, मनुष्य अने देवता)ने विषे लेश्थानी स्थिति यथास्थित वर्णवं छ. [४०]. ०००००००००००००००००००००००००० . Jan Educationa intematonal For Personal and Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ ००००००००० दस वास सहस्साई काऊए ठिई जहन्नियाहोइ । तिन्नु वही पलिओवममसंखभागंच ऊकोसा ॥४१॥ तिन्नु दही 18 पलिओवम मसंखभागोय जहन्ननीलठिई । दस उदहीपलिओवममसंखभागंचउकोसा ॥४२॥ दसउदही पलिओवममसंखभाग जहन्निया होइ।तित्तीस सागराओ उक्कोसा होइ किन्हाए॥४३॥एसा नेरइयाणं लेसाणं ठिईउ वन्निया होइ । तेण परं बोवामी तिरिय मणुयाण देवाणं॥४४॥ अंतोमुहुत्तमध्धा लेसाणं ठिई जहिं जहिं जाओ। तिरियाण नराणंच वज्जित्ता केवलं लेसं ॥ ४५॥ मुहुत्तधंतु जहन्ना उक्कोसा होइ पुचकोडीओ। नवहिं वरिसेहिं ऊणा ना. यव्वा सुक लेसाए ॥ ४६ ॥ एसा तिरिय नराणं लेसाणं ठिईओ वन्निया होइ । तेण परं बोछामि लेसाणं ठिईउ देवाणं ॥४७॥ ४.०००००200000000000000000000०००००००००००००००० कापोत-लेश्यानी नारकी जीव तरीकेनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट स्थिति त्रण सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागनी जाणवी. (४१). नील-लेश्यानी (नारकी जीव तरीकेनी) जघन्य स्थिति त्रण सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागनी, अने उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागनी जाणवी. [४२].. कृष्ण-लेश्यानी (नारकी जीव तरीकेनी) जघन्य स्थिति दश सागरोपम अने पल्यापमना असंख्यातमा भागनी अने उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपमनी जाणवी. [४३]. नारकी जीवनी लेश्यानी (जघन्य अने उत्कृष्ट) स्थिति उपर वर्णवी छे. हवे तिर्यंच, मनुष्य अने देवतानी लेश्यानी स्थिति वर्ण छ. (४४). शुक्ल लेश्या सिवाय बाकीनी कोइ पण लेश्यानी तिर्यंच अने मनुष्यनी स्थिति अंतर्मुहुर्त्तनी जाणवी. [४५]. शुक्ल लेश्यानी (तिर्थच अने मनुष्यनी) जघन्य स्थिति अर्धा मुहूर्त्तनी अने उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व-कोटि वर्षमा नव वर्ष ओछां जाणवी.(४६). तिर्यच अने मनुष्यनी लेश्यानी स्थिति उपर वर्णवीछे. हवे देवतानी लेश्यानी स्थिति वर्ण, छं. (४७), Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०००००००००००००400 दस वास सहस्साई किन्हाए ठिई जहन्निया होइ । पलिय मसंखिज्जइमो उक्कोसा होइ किन्हाए॥४८॥ जाकिन्हाए 18 ठिई खल उक्कोसा साउ समय मम्भहिया । जहन्नेणं नीलाए पलिय मसंखंच उक्कोसा ॥४९॥ जा नीलाए ठिई ३०.३ खलु उक्कोसा साउ समय मभ्भहिया । जहन्नेणं काऊए पलिय मसंखंच उक्कोसा ॥५०॥ तेण परं बोल्छामी तेऊ लेसा जहा सुर गणाणं। भवणवइ वाणमंतर जो इस बेमाणिवाणंच ॥५१॥ पलिओवमं जहन्नं उक्कोसा सागराओ दुन्निहिया पलिय मसंखिज्जेणं होइ भागेण तेऊए ॥ ५२ ॥ दस वास सहरसाइं तेऊए ठिई जहन्निया होइ । दुन्नुदही पलिओवम असंख भागच उक्कोसा ॥ ५३ ॥ . कृष्ण-लेश्यानी (देवतानी) जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट स्थिति पल्पोपमना असंख्यातमा भागनी जाणवी.(४८) नील-लेश्यानी [देवतानी] जघन्य स्थिति कृष्ण लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति करतां एक समय वधारेनी, अने उत्कृष्ट स्थिति पल्योपमना असंख्यातमा (म्होटा) भागनी जाणवी. [४९]. कापोत-लेश्यानी [देवतानी] जघन्य स्थिति नील लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति करतां एक समय वधारेनी, अने उत्कृष्ट स्थिति पल्योपाना असंख्यातमा (एथी म्होटा] भागनी जाणवी.(५०). भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क अने वैमानिक देवताना समुहनी तेजो-लेश्यानी स्थिति हवे वर्ण छ.[५१]. तेजो लेश्यानी (सामान्य देवतानी) जघन्य स्थिति एक पल्योपमनी अने उत्कृष्ट स्थिति ये सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागनी जाणवी. [५२]. तेजो लेश्यानी (भुवनपति आदि देवतानी) जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी अने उत्कृष्ट स्थिति बे सागरोपम अने पल्योपमना असंख्यातमा भागनी जाणवी. ०००००००००००० नोट -गाथा ३५ थी ५३ सुधीमां ज्या ज्यां "पल्योपमना असंख्यातमा भागनी" लखेखें छे त्या त्यां प्रो. जेकोबीए एवो शब्दार्थ करेलो छे के "पल्योपम अने असंख्येयना एक भाग जेटली", Jain Education Intemasional For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३४ ३०२ • जातेऊ ठिई खलु उक्कोसा साउ समय मम्भहिया । जहन्नेणं पम्हाए दसउ मुहुत्ता हियाई उकासा ॥ ५४ जा पहाए ठिई खलु उक्कोसा साउ समय मम्भहिया । जहन्नेणं सुकाए तित्तीस मुहुत्त मम्भहिया ॥ ५५ ॥ किम्हा नीला काऊ तिन्निवि एयाओ अहम लेताओ । एयहिं तिर्हिवि जीवो दुग्गइं उववज्जई ॥ ५६ ॥ तेऊ पहा सुक्का तिन्निवि एयाओ धम्म लेसाओ । एयाहिं तिर्हिवि जीवो सुग्गई उववज्जई ॥ ५७ ॥ साहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिंतु । नहु कस्सइ उववाओ परभवे अयि जीवस्स ॥ ५८ ॥ लेसाहिं सव्वाहिं चरिमे समयम्भि परिणयाहिंतु । नहु कस्सवि उवत्राओ परभवे अध्थि जीवस्स ॥ ५९ ॥ अंतोमुहुत्तंमि गए अंतोमुहुत्तंमि. सेसएचेव लेसाहिं परिणयाहिं जीवागछ्रुति परलोयं ॥ ६० ॥ 1 पद्म लेश्यानी (देवतानी) जघन्य स्थिति तेजो लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति करतां एक समय वधारेनी अने उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम अने एक मुहूर्त्तनी जाणवी. [ ५४ ]. शुक्ल लेश्यानी (देवतानी) जघन्य स्थिति पद्म लेश्यानी उत्कृष्ट स्थिति करती एक समय वधारेनी अने उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपम अने एक मुहूर्त्तनी जाणवी. (५५). १० लेश्यानी गतिः -कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण अधर्म लेश्याओ छे. ए त्रण लेश्याए करीने जीव दुर्गतिने पामे छे. (५६). तेजो, पद्म अने शुक्ल ए त्रण धर्म लेश्याओ छे. एत्रण लेश्याए करीने जीव सद्गतिने पामे छे. (५७). ११ लेश्यानुं आयुष्यः - आ सर्व लेश्याओ जीवने प्राप्त थाय तेना प्रथम समयने विषे उपजवापशुं रहेतुं नथी. (५८). आ सर्व लेश्याओ जीवने प्राप्त थाय तेना चरम [ आखर ] समयने विषे उपजवापशुं रहेतुं नथी. [५९]. लेश्यानुं अंतमुहूर्त्त चालतं होय अने तेनो शेष भाग बाकी रह्यो होय ते समये लेश्याना परिणामना प्रमाणमां जीव नवो जन्म प्राप्त करेछे. [६०]. * नोट २–गाथा ५४ अने ५५ मां “दश सागरोपम अने एक ुहूर्त्तनी " अने “ तेत्रीश सागरोपम अने एक मुहूर्त्तनी "लखेलुं छे तेने बदले प्रो. जेकोबीए एवो अर्थ करेलो छे के “ दश मुहूर्त्त वधारेनी " अने " तेजीश मुहूर्त्त वधारेनी ". Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 27 00000000 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. TATE तम्हा एयासिं लेसाणं अणुभावे वियाणिया । अप्पसथ्य ओवज्जित्ता पसथ्याओ अहिए मुणित्तिबेमि ॥ ६१ ॥ ॐ ॥ इति श्री लेसझयणं सम्मत्तं ॥३४॥ अध्ययन ३५. अणगार मार्ग (साधुनो धर्म). सुणेहमे एगग्ग मणे मग्गं बुद्धेहिं देसियं । जमाय तो भिख्खू दुख्खाणंत करो भवे ॥ १ ॥ गिहिवासं परिच्चज्ज । पवज्जा मस्सिए मुणी । इमे संगे वियाणिज्जा जेहिं सज्जति माणवा ॥२॥ तहेवहिंसं अलियं चोज्जं अव्वंमसेवणं । ६ इला कामंचलोहंच संजओ परिवज्जए ॥ ३ ॥ मणोहरंचित्त घरं मल्ल धूवेण वासियं । सकवाडं पंडुरुल्लोयं मणसावि न पथ्थए ॥॥ तेटला माटे साधु पुरुषोए सर्व लेश्याना अनुभाग जाणीने अप्रशस्त [कृष्ण, नील, कापोत ] लेश्याओनो त्याग करवो अने प्रशस्त (तेजो, पद्म अने शुक्ल) लेश्याओ प्राप्त करवी. [६१]. आ प्रमाणे सुधर्मा स्वामी जंबु स्वामीने कहेछे. । अध्ययन चात्रीसमें संपुणे. ।। अध्ययन ३५.॥ ने मार्गे चालवाथी भिक्षुक (साधु) सर्व दुःखनो अंत आणी शके छे, एवो श्री बुद्धे [तीर्थकरे] देखाडेलो मार्ग हुँ तपने कही। संभळावं छते श्रवण करो. (१). गृहवासनो परित्याग करीने अने प्रव्रज्या (दिक्षा) धारण करीने मुनिए पुत्र कलत्रादिनो) जे संग । मनुष्यने बंधन कर्ता गणाय छे तेनो त्याग करवो. (२). तेमज वळी मुनिए हिंसा, मृषावाद, चोरी [ अदत्तादान ], विष पर्नु सेक्यूँ | [मैथुन-सेवन, इच्छा, काम-भोग अने लोभनो परित्याग करवो. (३). चित्र कामथी सुशोभित करेला, पुष्ष अने धूपनी सुगंधवाळाकमाड (कपाट) वाळा, अने उजळा उलेचवाळा मनोहर मंदिर [उपाश्रय]नी साधुए मनथी पण इच्छा करवी नहि. (४). Jain Education Interational M For Personal and Private Use Only www.ainelibrary.org Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.भ. ३५ २०४ - इंदियाणिउ भिख्खूस्सतारिसंमि उवस्सए । ढुकुराइ निवारेउ काम राग वित्रणे ॥ ५ ॥ सुसाणे सुन्न गोरेवा रुख्खमूलेव एगगों । पइरिके पर कडेवा वासं तथ्या भिरोय ॥ ६ ॥ फा सुर्यमि अणावाहे इथ्वीहि अभिदुए | तथ्य संकप वा भिख्खू परम संजए ॥ ७ ॥ न सयं गिहाई कुब्वे तानेव अन्नेहिं कारए । हि कम्म समारंभे भूयाणंदिस्सए वहो ॥८॥ तसाणं थावराणंच सुहुमाणं वायराणय । तम्हागिह समारंभ संजओ परिवज्जए ॥९॥ तव भत पाणेसु पयणे पयावणेसुय । पागभूय दयडाए नपए नपया ए॥ १० ॥ जल धन्न निस्सिया जीवा पुढवी कठ्ठे निस्सिया । हम्मेति भत्तपाणेमु तम्हा जिखु नपयाव ||११|| कारण के काम-रागने वधारनार एवा मनोहर उपाश्रयमाँ पोतानी इन्द्रियने वश राखवानुं काम साधुने मुश्केल थइ पडे छे. (५). स्मशानमां, सूना घरम, वृक्षना थड तळे, एकान्त ( स्त्री, पशु, पंडक रहित ) स्थळमां, अथवा तो अन्यने माटे धावेल मकानमा साधुए रहें जोइए. (६). संयम पाळनार साधुए जीव जंतु राहेत, आत्माने अबाध [स्वाध्यायमां अंतराय न आवे एवा ], अने स्त्री रहित स्थळमां रहें. [७]* साधुए पोते मकान बांधवुं नहि तेज वीजा पासे बंधावं नहि; कारण के घर बांधवामां त्रस अने स्थावर तेमज सूक्ष्म अने चादर जीवनी हिंसा थाय छे. मांटे साधुए घर बांधवाना आरंभ समारंभयी दूर रहें. (८-९). तेमज बळी साधु पोते आहार-पाणी रांधवं नहि तेमज बीजा पासे रंधावं नहि त्रस अने स्थावर जीवनी दया जाणीने साधुए पोते रांधवं नहि, अन्य पासे रंधावं नहि. (१०] जळ, धान्य, पृथ्वी अने काष्टने विषे रहेता जीवो आहार- पाणीथी [पकाववाथी] हणीय छे, तेला माटे साधु संघ- रंधावं नहि. [११]. *मो. जेकोबी आ गाथानो एवो अर्थ करेछे के " संयमवान साबुए स्वच्छ, गीच वस्ती वगरना अने स्त्री रहित स्थळमां रहें. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ.का ३०५ 36 विसप्पे सव्वओ धारे बहुपाणि विणासणे । नथ्थि जोइ समे सथ्थे तम्हा जोइं नदी वए ॥१२॥ हिरन्नं जावी | रूवंच मणसावि नपथ्थए । समले कंचणे भिखू विरए कय विक्कए ॥ १३ ॥ किणतो कइओ होइ विकणंतोय । वाणिओ । कय विक्कयंमि बट्टतो भिख्खू न हबइ तारिसो ॥१४॥ भिख्खियव्वं नकेयव्वं भिख्खुणा भिख्खुवित्तिणा । कय विक्कओ महादोसो भिख्खावित्ती सुहावहा ॥१५॥ समुयाणं उंछ मेसेज्जा जहा सुत्त मणिंदियं । लाभा लाभमि संतुढे पिंडवायं चरे मुणी ॥१६॥ अलोले न रसे गिद्धे जिम्भा दंते अमुछिए । न रसठाए मुंजेजा जवणठाए | महामुणी ॥१७॥ अच्चणं सेवणंचेव वंदणं पूयणं तहा। इढ़ी सक्कार सम्माणं मणसावि न पथ्थए ॥१८॥ ___ अनि जे विनाशनुं बीजु कोइ शस्त्र नथी, कारण के ते सर्व दिशामां पथराइने घणा जीवनो नाश करे छे. तेटला माटे साधुए आग्नि सळगाववो नहि. (१२), साधुए सोना रुपानी मनथी पण इच्छा करवी नहि. कांचन अने पाषाणने समान गणीने साधुए क्रयविक्रयथी [ लेवा-वेचवाथी ] दूर रहे. (१३) मूल्य आपी वस्तु लेवाथी ते ग्राहक बनेछे, अने मूल्य लइ वस्तु वेचवाथी ते वाणिओ [वेपारी बनेछे. क्रय-विक्रय सूत्र प्रमाणे] साधुनुं लक्षण नथी. (१४). भिक्षावृत्तिथी पेट भरनारनुं नाम भिक्षुक [साधु]; माटे भिक्षुके [ साधुए] भिक्षा मागवी जोइए; मूल्य आपीने लेबु न जोइए, क्रय-विक्रय महान दोषछे, परंतु भिक्षावृत्ति सुखने आपनारछे. (१५). साधुए घणां घाना समुदायमाथी थोडी थोडी दोषरहित भिक्षा सूत्रोक्त रीते लेवी. भिक्षाना लाभालाभथी [भिक्षा मळे या न मळे तेथी] संतोष मानीने साधुए भिक्षावृत्तिने माटे फर जोइए. (१६). महा निए सरस आहारनी तीव्र अभिलाषा करवी नहि पोतानां जीभ अने दांतने वश राखवां अने भोजननो [घी, गोळ वगेरेनो] संचय करवो [वाशी राखवा] नहि. कारणके आहार संयम निर्वाहने अर्थेछे, स्वादने माटे नथी. (१७). पुष्पवडे पूजा, आसनवडे सत्कार, वंदणा, पूजन, [ वस्त्रपात्रादिनी] भेट, अथवा सत्कार अने सन्माननी साधुए मनथी पण इच्छा करवी नहि. (१८). ..... Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६: ३०६ सुक्कझाणं झियाएज्जा अनियाणे अकिंचणे । वोसह काए विहरेज्जा जाब कालस्स पज्जओ || १९|| निज्जूहिऊण आहार काल घरमे उबडिए चइऊण माणुसं बोंदि पहू दुख्खे विमुच्चई ॥ २०॥ निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासत्रो । संपत्तो केवलं नाणं सासए परि निव्वुडे तिबेमि ॥ २१ ॥ ॥ इति श्री अणगारमग्गं नाम झयणं सम्मतं ॥ ३५ ॥ ४ अध्ययन ३६. जीव - अजीव विचार. जीवाजीव विभत्ति सुणेह मे एगमणाइओ । जं जाणिऊण भिख्खू सम्मं जयइ संजमे ॥ १ ॥ जीवाचेत्र अजीवाय एम लोए वियाहिए । अजीवो दसमागासे अलोए से वियाहि ॥ २ ॥ शुक्ल ध्यान धरीने अने धन तथा शरीरना यमत्वने त्यागीने, मृत्यु समय आवतां सुघी साधुए प्रतिबंध रहित विचरखं. (१९). मरणकळे आहार त्यागीने अने मनुष्य देह छोडीने ते औदारिक शरीर धारण करेछे अने दुःखथी मुक्त थाय छे. (२०), लोभ, ममता, अहंकार, रागद्वेष अने आश्रव रहित वनीने ते केवलज्ञान पामीने सिद्धगतिने प्राप्त करेछे. (२१). सुधर्मास्वामी जंबु स्वामीने आ प्रमाने कहे छे. ॥ अध्ययन पांत्रीसमं संपूर्ण. ॥ अध्ययन ३६. हवे जीव-अजीवना विभाग कहूं हूं ते एकाग्र मनथी सांभो. संयमने विषे यत्न करनार साधुए ए विभाग जाणवा जोइए. [2]. ६ जीव अने अजीवनो आ लोक बनेलो छे; परंतु अजीवनो देश आकाश तेने श्री तीर्थंकरे अलोक कह्यो छे.[२]. १ दीपिका टीकामां जीवने उपयोगवान अने अजीवने पुद्गल तरीके ओळखावेल छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. दव्बओ खित्तओ चेव कालओ भावओ तहा । परूवणा तेसिं भवे जीवाण मजीवाणय ॥३॥ रूविणो चेव रुवीय अजीचा दुरिहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता रूविणोवि चउबिहा ॥४॥धम्मश्थिकाए तसे तप्पए सेय आहिए। अहम्मे तस्स देसेय तपएसेय आहिए ॥ ५ ॥ आगासे तस्त देसेय तप्पएसेय आहिए । अडा समए चेव अरूवी दसहाभवे ॥ ६॥ धम्मा धम्मेय दोएए लोगमित्तावियाहिया । लोगालोगेय आगासेसमए समयखेत्तिए ॥७॥ धम्मा धम्मागासतिनिवि एए अणाइया । अपज्जायसिया चेव सव्वदंत वियाहिया ॥ ८॥ समएवि संतइंपप्प एवमेव वियाहिए। आएसंपप्प साइए सपज्जवसिएविय ॥९॥ ११ द्रव्य थकी २२ क्षेत्र थकी ३ 3 काल थकी ४४ भाव थकी जीव अजीवना विभाग वर्णववामां आवशे. [३. अजीव. अजीबना वे भेद छे. (१) रुपी अने (२) अरुपी. अरुपीना दश प्रकार छ; अने रुपीना चार प्रकारछे. [४]. अरुपी अजीवना दश प्रकार- ५१ धास्तिकाय, २ तेना देश, ३ तेना प्रदेश,७ ४ अधर्मास्तिकाय ८५ तेना देश, ६ तेना प्रदेश, ७ आकाशास्तिकाय, १८ तेना देश, ९ तेना प्रदेश, १० अद्धा समय (काल). [५-६]. धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय लोक मात्रमा व्याप्त छे ; आकाशास्तिकाय लोक-अलोक बन्नेमां व्याप्त छ; अने काळ समय क्षेत्र [ अढी द्वीप ] ने विषे व्याप्त छे. ७]. धर्मास्तिकाय, अवस्तिकाय अने आकाशास्तिकाय ए त्रणे सर्वदा आदि अने अन्त रहित छे. [८]. अने समयने जो निरंतर १२ प्रवाहरुपे गणीए तांतपण अनादि अने अनन्त छे; परंतु प्रत्येक कार्यना आरंभ अने समाप्ति रुपेगणीए ले तेने आदि अने अन्त बन्ने छे. (९). Substance. २ Place. ३ Time. ४ Development. ५ धर्मास्तिकायनो चलण सहाय गुण छे. संपूर्ण धर्मा-181 स्तकाय होय ते तेनो स्कंध गणाय. ६ स्कंधना विभाग ते देश. ७ देशना विभाग ते प्रदेश. ८ तेनो स्थिर सहाय गुण छ । ९ तेनो अवकाश-विकाश गुण छे. १० ते अविभागी छे. तेना विभाग थइ शक्ता नथी. ११ Are co-extensive. १२ Asa continuous flow. 0000000000000000000000000000 ००००००००० Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ खंधाय खंधदेसाय तप्पएसा तहेवय । परमाणुणोय बोधव्वा रूविणोवि चउबिहा ॥ १० ॥ एगत्तेणं पहुत्तेण । उ.अ. खंधाय परमाणुणो । लोएगदेसे लोएय भइव्वातेय खित्तओ । इत्तो काल विभागंतु तेसिंवाळू चउन्विहं ॥ ११ ॥ संतइंपप्प तेणाई अपज्जवसियाविय । ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥ १२ ॥ असंख काल मुक्कोसं एको ३. समओ जहन्नयं । अजीवाणय रूवीणं ठिई एसा वियाहिया ॥ १३ ॥ अणंतकाल मक्कोसं एकोसमओ जहन्नयं ।।। अजीवाणय रूवीणं अंतरेयं वियाहियं ॥१४॥ रुपी अजीव चार प्रकारनाछ:- १ पुद्गळास्तिकायनो स्कन्ध, २ तेना देश, ३ तेना प्रदेश, अने ४ परमाणुओ. (१०). परमाणुओने एकठा मळवानो तेमज जुदा थवानो स्वभावछे. एकठा मळे त्यारे स्कन्ध अने जुदा थाय त्यारे परमाणु कहेवाय छे. आ प्रमाणे स्कन्ध अने परमाणुओना द्रव्य संबंधी भेद छे. हवे क्षेत्रथी भेद कहे छे परमाणुओ आखा लोकने विषे अने स्कन्ध तेना 18 एक देशने विषे व्यापी छे. हवे हुँ तेना काळ संबंधी चार भेद कहुं छ. (११)२. स्कन्ध अने परमाणुओने निरंतर प्रवाह रूपे गणीए तो ते आदि अने अन्त रहितछे, परंतु ते नियम क्षेत्रने विषे अमुक रुप अथवा स्थिति धारण करे तो तेने आदि अने अन्त बन्ने छे. (१२)३. स्कन्ध अने परमाणुओनी उत्कृष्ट स्थिति असंख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति एक समयनी छे. (१३)४. अजीव रुपी पुद्गलोर्नु उत्कृष्ट अंतर ( आंतरो' ) अनन्त काळर्नु अने जघन्य अंतर एक समयनुं छे. [१४]. तेना एकना बे भाग न थइ शके-Which may not be divided into two parts. २ बीजी गाथाओ चार पदनी छे, ज्यारे आ एकज गाथाने छ पद छे. ३ आ गाथानो एवो भावार्थ समजाय छे के जो के अमुक वस्तुनो ते रुपे नाश थयेलो देखाय छे, छतां तेना तत्वोनो नाश थतो नथी. अने ए सिद्धांत विज्ञान शास्त्रीओ पण स्वीकारेछे के Matter is indestructible. ४ गाथाओना अनुक्रममा केटलीक प्रतोमा तफावत छ केटलीकमां २७०-२७१-२७२ छ, कटलीक गाथाओ भेगी करी दीधी छे. गाथा ११-१२ केटलीक प्रतोमां भेगी करी दीधी छे. ५ Interruption. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्नओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा । संठाणओय विन्नेओ परिणामो तेसिं पंचहा ॥१५॥ वन्नओ परिणया | उ.. जेउ पंचहा ते पकित्तिया। किन्हा नीलाय लोहिया हालिद्दा सुकिला तहा ॥ १६ ॥ गंधओ परिणया जेउ दुविहा 8 ते वियाहिया। सुम्भि गंध परिणामा दुम्भि गंधा तहेवय ॥१७॥ रसओ परिणया जेउ पंचहा ते पकित्तिया । तित्त 8 कडुय कसाया अंबिला महरा तहा ।। १८ । फासओ परिणया जेउ अहा ते पकित्तिया । कख्खडा मउयाचेव गुरुयालहुयातहा ॥१९॥ सीया उन्हाय निडाय तहा लुख्खाय आहिया । इइ फास परिणया एए पुग्गला समुदा. 8- हिया ॥२०॥ संठाग परिणया जेउ पंचहा ते पकित्तिया । परिमंडलाय बट्टा तसा चउरंस मायया ॥ २१ ॥ ०००००००००००० ०००० ०००००००००००० भावथी अजीवरुपी पुदगलना पांच प्रकार छ:-१ वर्णथी २ गंधयी ३ रसथी ४ स्पर्शथी अने ५ संस्थान (संठाण-आकार)थी. [१५]. पुदगलोना वर्णनां परिणाम पांच प्रकारनां छ:-१ कृष्ण काळा], २ निला, ३ रक्त [लाल], ४ हारिद्र [पीळा),अने ५ शुक्ल [घोळा]. (१६). पुद्गलोनी गंधना परिणाम के प्रकारनां छे:-१ सुरभि-गंध सुगंधवाळा अने २ दुरभि-गंध दुर्गंधवाळां]. (१७). पुद्गलोना रसनां परिणाम पांच प्रकारनां छ:-१ तीखा, २ कडवा, ३ कषायला, ४ खाटा अने ५ मीठा. (१८). पुद्गलोना स्प र्शनां परिणाम आठ प्रकारनां छ:-१ कर्कश [कठण पाणा जेवा], २ कोमल [माखण जेवा], ३ भारे लोढा जेवा], ४ हळवा, ५ टाढा चंदन जेवा], ६ उना [आनि जेवा, ७स्निग्ध [सुंबाळा अने ८ रुक्ष [लुखां-खरबचडा].. आ प्रमाणे स्पर्शथी परिणमेला पुद्गलो सम्यक प्रकारे कह्या छे. (१९-२०). पुद्गलोना संस्थान [संठाण-आकार]नां परिणाम पांच प्रकारनां छ:-१ परिमंडल २ [कंकणना आकारनां] २ वर्तुल [लाडुना आकारना] ३ त्रिकोण ४ चतुष्कोण अने ५ लांबा. (२१). 1 Rough. Globular. ; Circular, Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ३१० वन्नओ जे भवे किन्हे भइए सेउ गंधओ । रसओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥२२॥ वन्नओ जे भवे नीले भइए । सेउ गंधओ । रसओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥२३॥ वन्नओ लोहिए जेउ भइए सेउगंधओ । रसओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥ २४ ॥ वन्नओ पीयए जेउ भइए सेउ गंधओ । रसओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥२५॥ वन्नओ सुकिले जेउ भइए सेउ गंधओ । रसओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥२६॥ ___ कृष्ण वर्णना पुद्गलोना गंध, रस, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (२२).* नील वर्णना पुद्गलोना गंध, रस, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (२३). रक्त वर्णना पुद्गलोना गंध, रस, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (२४). हारिद्र [पीळा] वर्णना पुद्गलोना गंध, रस, स्पर्श अन संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (२५). शुक्ल वर्णना पुद्गलांना गंध, रस, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. [२६]. * गाथा २२थी४७ सुधीनो एवो भावार्थ छ के-प्रत्येक वर्णना पुद्गलो बेमांधी एक गंधवाळा, पांचमांथी एकाद रसवाळा, आठमांथी एकाद स्पर्शवाळा, अने पांचमाथी एकाद आकारवाळा होय छे एवीज रीते प्रत्येक गंधवाळा पुद्गलो पांचमाथी एकाद वर्णना, पांचमांथी एकाद रसवाना, आठमांथी एकाद स्पर्शवाळा अने पांचमांथी एकाद आकारना होय छे. एवीज रीते प्रत्येक रसवाला पुदगलो पांचमांथी एकाद वर्णना, बेमांथी एकाद गंधवाळा, आठमांथी एकाद स्पर्शवाळा अने पांचमांथी एकाद आकारना होय छे. तेमज बळी प्रत्येक स्पर्शवाला पुदगलो पांचमांथी एकाद वर्णना, बेमांथी एकाद गंधवाळा, पांचमांथी एकाद रसवाळा, अने पांचमांथी एकाद आकारना होय छे एवीज रीते प्रत्येक संस्थानना पुद्गलो पांचमांथी एकाद वर्णना, बेमाथी एक गंधवाळा, पांचमांथी एकाद रसवाळा अने आठमांथी एकाद स्पर्शवाळा होय छे. 100000000000000000 Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००००००० ३. गंधओ जे भवे सुम्भी भइए सेउ वन्नओ । रसओ कासओ चेव भइए संठाणओविय ॥२७॥ गंधओ जे भवे दुम्भी 8 भइए सेउ बन्नओ । रसओ फासओ चेव भए संठाणओविय ॥२८॥ रसओ तित्तओ जेउ भइए सेउ वन्नओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठागओविय ।।२९।। रसओ कडूओ जेउ भइए सेउ बन्नओ । गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥३०॥ रसओ कसार जेउ भइए सेउ बन्नओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओविय ॥३१॥ ३ रसओ अंबिले जेउ भइए मेउ बन्नओ । गंधओ फासओ चेव भइए स्ठाणओविय ।। ३२ ।। रसओ महुरए जेउ - भइए सेउ बन्नओ । गंधओ फासो चेव भइए संठाणओविय।।३३॥ फासओ कख्खडे जेउ भइए सेउ वन्नओ। गंधओ रमओ चेव भइए संठाणओविय ॥ ३४ ॥ फासओ मउए जेउ भइए सेउ वन्नओ । गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओविय ॥ ३५ ॥ सुगंधवाळा पुद्गलोना वर्ण, रस, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे.[२७]. दुर्गंधवाळा पुद्गलोना वर्ण, अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छ. [२८. तीखा रसना पुद्गलोना वर्ण, गंध, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छ 18 [२९]. कडवा रसना पुद्गलोना वर्ण, गंध, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे.. [३०]. कषाय रसना पुद्गलोना वर्ण, गंध, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. ( ३१ ), खाटा रसना पुद्गलोना वर्ण, गंध, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडला छे. [३२]. मीठा रसना पुद्गलोका वर्ण, गंध, स्पर्श अने संस्थान प्रमाणे विभागो पाडेला छे. (३३). कर्कश स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेलाछे. ( ३४ ). कोमल स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छ, (३५). Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६ ३१२ फासओ जेउ भइए गुरु सेउ बन्नओ । गंधओ रसओ चेत्र भइए संठाणओविय ॥ ३६ ॥ फासओ जेउ लहुए भइए सेउ वन्नओ । गंधओ रसओ चैव भइए संठाणओविय ॥ ३७॥ फासओ सीयए जेउ भइए सेउ वन्नओ । गंधओ सओ चैव भइ ठाणओविय ॥ ३८ ॥ फासओ उन्हए जेउ भइए सेउ वन्नओ । गंधओ रसओ चैव भइए ठाणओविय ॥३९॥ फासओ निडए जेउ भइए सेउ वन्नओ । गंधओ रसओ चेत्र भइए संठाणओविय ॥ ४० ॥ फासओ लख्खए जेउ भइए सेउ बन्नओ | गंधओ रसओ चेत्र भइए संठाणओविय ॥ ४१ ॥ परिमंडल संठाणे भइ सेउ बन्नओ | गंधओ रसओ चेत्र भइए फासओविय ॥ ४२ ॥ संठाणओ भवे वट्टे भइए सेउ वन्नओ । ओरओचे भइए फासओविय ॥ ४३ ॥ संठाणओ भवे तसे भइए सेउ वन्नओ । गंधओ रसओ चेव भइ फासओविय ॥ ४४ ॥ भारे स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. [ ३६ ]. हळवा स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (३७). टाढा स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. [३८]. उना स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. [ ३९ ]. स्निग्ध स्पर्शना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (४०) रुक्ष स्पर्शना पुद्गलोमा वर्ण, गंध, रस अने संस्थान प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (४१). परिमंडल संस्थानना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श प्रमाणे विभाग पाडेला छे. [ ४२ ]. वर्तुल संस्थानना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (४३). त्रिकोण संस्थानना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श प्रमाणे विभाग पाडेला छे. [४४ ] . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाणओय चउरंसे भइए सेउ वन्नओ । गंधओ रसओ चव भइए फासओविय ॥ ४५ ॥ जेआयय संठाणे भइए स.अ. सेउ बन्नओ । गंधओ रसओ चेत्र भइए फासओविय ॥४६॥असंख काल मुक्कोस एक्कोसमओ जहन्नयं । अजीवाणय रूवीणं अंतरेयं वियाहियं ॥४७॥ एसा अजीव विभत्ती समासेण वियाहिया । इत्तो जीव विभत्तिं वोच्छामि अणुपु. व्यसो ॥४८॥ संसारथ्थाय सिद्धाय दुविहा जीवा वियाहिया । सिद्धा णेग विहा वुत्ता तं मे कित्तयउं सुण ॥४९॥ इथ्थी पुरिस सिहाय तहेवय नपुंसगा । सलिंगे अन्न लिंगेय गिहिलिंगे तहेवय ॥ ५० ॥ उक्कोसा गाहणाएय जहन्न मझिमाइय । उढे अहेय तिरियंच समुदंमि जलंमिय ॥५१ ॥ ____ चतुष्कोण संस्थानना पुद्गलोना वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श प्रमाणे विभाग पाडेला छे. ४५). लांबा संस्थानना पुद्गलाना वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श प्रमाणे विभाग पाडेला छे. (४६). अजीव रुपी पुद्गलोर्नु उत्कृष्ट अंतर [आंतरो] असंख्याता कार्नु अने जघन्य अंतर एक समयनुं कडं छे. [४०] * रुपी अजीवना ५३० अने अरुपी अजीवना ३० मळी कुल्ल ५६० भेद आ प्रमाणे अजीवना विभाग संक्षिप्त कह्या. हवे जीव-विभक्ति (विभाग) अनुक्रमे कहुं छु. [४८]. जीव वे प्रकारना कह्या छः-१ संसारी जीव अने सिद्ध (कर्म-मल रहित) जीव. सिद्ध जीव अनेक प्रकारना छे. तेना भेद कहुं छं ते सांभळो. [४९]. पुरुष, स्त्री, नपुंसक, स्वलिंग (जैन दर्शनी), अन्यलिंम (अन्यमार्गी) अने गृहलिंग (गृहस्थाश्रमी) एछ जीवमाथी सिद्ध थइ शके. [५०]. उत्कृष्ट (पांचसें धनुष्यनी), जघन्य (बे हाथनी) अने मध्यम अवगाहन (कदनी देहे, उर्ध्व लोकने विषे, अधो लोक्ने विष, अढी द्वीपने विषे, समुद्रने विषे अने अन्य जळने विषे सिद्ध दशा प्राप्त थइ शके. [५१]. * गाथा प्रो. जेकोबीना भाषान्तरमा नथी. १ गमे ते स्थळे, गमे तेवे शरीरे सिद्ध दशा प्राप्त थइ शके छे ए हेतु आ 18 गाथानो छे. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 दसय नपुंसएसं वीसं इथियासुय । पुरिसेसुय अठ्ठसय समएणेगेण सिझई ॥५२॥ चत्तारिय गिहिलिंगे अन्नलिंगे al HTE दसेवय । सलिंगेणय अठ्ठसयं समएणेगेण सिझई ॥५३॥ उक्कोसो गाहणाएओ सिझंते जगवंदुवे । चत्तारिय जह ! न्नाए जवभझछु त्तरं सयं ॥५४॥ चउरुट्ठलोएय दुवे समुद्दे तओ जले वीस महे तहेवय । सयंच अहुत्तर तिरियMo लोए समएणोण तिझई धुवं ॥५५॥ कहिंपडिहयासिद्धा कहिंसिद्धा पइठिया । कहिंवोदि चइत्ताणं कथ्थ गंतूण सिझई ॥ ५६ ॥ अलोए पडिहया सिहा लोयग्गेय पइया । इहं वोदिंच इत्ताणं तथ्थ गंतूण सिझई ॥ ५७ ॥ वारसहिं जोयणेहिं सवठस्सु वरिं भवे । इसीपम्भार नामाओ पुढवाछुत्त संठिया ॥ ५८ ॥ पणयाण सयसहस्सा . नपुंसक लिंगमांथी दश, स्त्री लिंगमांथी वीश, पुरुष लिंगमांधी एक सोने आठ, गृहलिंग (गृहस्थ-वर्ग) मांथी चार, अन्य लिंग [ अन्य दर्शनी ] माथी दश अने स्वलिंग [जैन दर्शनी ] माथी एक सोने आठ एकी साथे सिद्ध थइ शके. [५२-५३]. उत्कृष्ट' कदना बे जघन्य कदना चार, अने मध्यम कदना एक सो आठ जीव एकी साथे सिद्ध दशाने प्राप्त करी शके. [५४]. Mal.उर्ध्व लोकने विषे चार, समुद्र विषे बे, अन्य जळने विषे त्रण, अयो लोकने विष वीश, अने अही द्वीपने विषे एक सो आठ जीव एकी साथे सिद्ध थइ शके. [५५]. सिद्ध जीवोने क्या जवानो प्रतिबंध छे? तेओ क्यां रहे छे ? तेओ पोतानां शरीर क्यों छोडी जाय छे ? अने सिद्ध थइने क्यां जाय छे. [५६]. सिद्ध जीवाने अलोकने विषे जवानो प्रतिबंध छे. तेओ लोकामना मस्तकने विषे रहे छे. तेओ पोतानां शरीर आ लोकने विषे होडी जाय छे अने त्यां लोकाग्रे जइने सिद्ध थाय छे. [१७]. सर्वार्थ सिद्ध विमाननी उपर बार जोजन उंचे इष्ट-पागभारा ( इसिपभारा) नामे पृथ्वी [सिद्ध-शिला] छत्रीने आकारे आवी रहेली छे. ते ४५ लाख जोजन लांबी अने तेटलीज पहोळी छ; अने तेथी त्रणथी वधारे गणो तेनो परिघ [घेगवो] छे. [१,४२,३०,२५९ जोजन]. ते १५चशो धनुष्यनु कद उत्कृष्ट कहेवाय २ बे हाथर्नु कद जघन्य कहेवाय. For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोयणाणंतु आयया । तावइयंचेव विछिन्ना तिगुणो साहिय परिरओ ॥ ५९ ॥ अठ्ठ जोयण वाहल्ला सा मझंमि उ.अ. 18| वियाहिया । परिहायंती चरिमंते मवायपत्ताओ तणुययरी॥६०॥ अज्जुण सुवन्नगमई सा पुढवी निम्मला सहावेणं । उत्ताणय छत्त संठियाय भणिया जिणवरेहिं ॥ ६१ ॥ संखं क कुंद संकासा पंडुरा निम्मला सुहा । सीयाए जोयणे तत्तो लोयंताओ वियाहिओ ॥६२॥ जोयणस्सउ जो तथ्य कोसो उवरिभो भवे । तरस कोसरस छम्भाए सिध्धाणो गाहणा भवे ॥६३॥ तथ्थ सिधा महाभागा लोयग्गमि पइछिया। भव प्पवंचउमुक्का सिध्धि वरगइं गया ॥६४॥ al उस्सेहो जस्स जो होइ भवंमि चरमं मिओ। तिभाग हीणा तत्तोय सिध्धाणो गाहणा भवे ॥६५॥ एगत्तेण साईया अपज्जव सियाविय । पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसियाविय ॥ ६६ ॥ मध्य भागमा आठ जोजन जाडी छे अने घटता घटती छेडे जतां मांखीनी पांख थकी पण पातळी छ. ए पृथ्वी [सिद्ध-शिला श्वेत कांचन समान, स्वभावे निर्मल अने छत्रना आकारनी श्री जिनवरे वर्णवी छे. ए सिद्ध-शिला शंख, अंक-रत्न अने कुन्दना फुल सरखी उजळी छे. अने त्यांची एक जोजन उंचे लोकनो अन्त आवे छे. ते जोजनना छेल्ला कोसना छठा भागने विषे, सिद्धनी अवगाहना छे. त्यां लोकना अग्र भागने विषे महाभाग्यशाळी, अचिंत्य शक्तिना धणी, भव प्रपंचयी मुक्त, मोक्षने प्राप्त थयेला एवा श्री सिद्ध-भगवान बिराजी रह्या छे. [५८-६४]. सिद्धनी अवगाहना पोताना छेग्ला भवने विषे देहनुं जेटलुं प्रमाण होय तेनाथी त्रीजा भागनी ओछी होय छे. [६५]. सिद्धने पृथक्क तरीके (एक आश्री) गणीए तो तेने आदि होय पण अन्त न होय; अने जो समस्त तरीके गणाए तो तेने आदि के अन्त काइ न होय. [६६]. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरूविणो जीवघणा नाण दंसणसन्निया । अउलं सुह संपत्ता उवमा जस्स नथिओ ॥६७ ॥ लोएग देसे तेसेव्वे । नाणदंसण सन्निया । संसार पार निछिन्ना सिद्धिंवर गइं गया ॥६८॥ संसारथ्थाउ जे जीवा दुविहा ते वियाहिया । तसाय थावरा चेव थावरा तिविहा तहिं ॥ ६९ ॥ पुढवी आउ जीवाय तहेवय वणस्सई । इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणेहमे ॥७०॥ दुविहा पुढवि जीवा सुहुमा वायरा तहा । पज्जत्त मपज्जत्ता एव मेए दुहा पुणो॥७१॥ वायरा जेउ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया । सन्हा खराय बोधवा सन्हा सत्त विहा तहिं ॥ ७२ ॥ किन्हा नीलाय 8 रूहिराय हालिद्दा सुकिला तहा । पंडु पणग मट्टिया खरा छत्तीसई विहा ॥७३॥ सिद्ध अरुपी जीव प्रदेशमय, १ केवल-ज्ञान अने केवल-दर्शननी संज्ञा सहित होय छे अने अनुपम अतुल सुख भोगवे छे. [६७]. सर्व सिद्ध लोकना एक देशने विषे बसे छे. तेओ केवल झानअन केवल दर्शनना उपयोग सहित छे, अने संसार पार उतरीने सिद्ध रुपी उत्तम गतिने पहोंच्या छे [६८]. संसारी जीव बे प्रकारना कह्या छे:-१ अस? अने स्थावर .स्थावर जीवना त्रण प्रकार कह्या छः-१ पृथ्वी काय, २ अप्प (जल) काय, ३ वनस्पति काय. ए प्रमाणे स्थावर जीवना त्रण प्रकार छे. हवे तेना । भेद कहुं हुं ते सांभळो. [६९-७० ]. पृथ्वी कायना जीव वे प्रकारना छे:-सूक्ष्म अने बादर. अने ते बन्ने पर्याप्त (शरीर, इन्द्रियो सहित) अने अपर्याप्त (शरीर, इन्द्रियो रहित) होय छे [७१ ]. बादर पर्याप्तं जीव वे प्रकारना कह्या छः-मुंवाळा अने कठोर. 18 सुंबाळा जीवना सात भेद छः-१ काळा, २ नाला, ३ राता, ४ पीळा,५ घोळा, ६ पांडुवर्ण, अने ७ माटीना रंगना. कठोर पृथ्वी जीवना नीचे प्रमाण छत्रीस भेद कह्या छे. [७२-७३]. १ They consist of Life throughout. २ Movable. 3 Immovable. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६ ३१७ पुढवीय सक्कराय वालुयाय उबले सिलाय लोणोसे । अय तंत्र तउय सीसग रुप्प सुवन्नेय वइरेय ॥ ७४ ॥ हरियाले हिंगलुए मणोसिला सीसगं जण प्पवाले । अम्भपडलम्भ वालुय बायरकाए मणिविहाणा ॥ ७५ ॥ गोमि - जय रुगे अंके फलिहेय लोहियख्खेय । मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदनीलेय ॥ ७६ ॥ चंदणं गेरुय हंसगभे पुलएय सोगंधिएय बोधव्वे | चंदप्पह वेरुलिए जलकंते सूरकंते ॥ ७७ ॥ एए खर पुढवीए भैया छत्तीस माहिया । एगविह मनाणत्ता सुहुमा तथ्य वियाहिया ॥ ७८ ॥ सुहुमा सव्वलोगंमि लोग देतेय बायरा । इत्तो काल विभागंतु तेसिं बोद्धुं चउब्विहं ॥७९॥ संतई पप्पणाईया अपज्जवसियात्रिय । ठिईपडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥ ८० ॥ बावीस सहरसाई वासाक्कोसिया भवे । आउ ठिई पुढवीणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥८१॥ माटी मरडिया कांकरा, रेती, पाषाण, शीला, लवण, खारीमाटी, लोढुं त्रांबु, कलइ, सीसुं, रुपुं, सोनुं, हीरा, हरियाल, हिंगलो, मणसिल, सीसक, (जस्त), सुरमो, परवाळा, अभ्रपटल, अभ्रवालुका, गोमेधमाण, रुचक रत्न, अंक रत्न, स्फाटिक रत्न, लोहिताक्ष मणि, मरतक मणि, मसारगल्ल रत्न, भूजमोचक रत्न, इन्द्रनील रत्न, चंदन, गेरु, हंसगर्भ, पुलक, सौगंधिक रत्न, चंद्रप्रभ रत्न, बैडूर्य मणि, जलकान्त मणि अने सूर्यकान्त मणि. [ ७४-७७ ]. ए प्रमाणे कठोर ( खर) पृथ्वी जीवना छत्रीस भेद वर्णव्या छे. सूक्ष्म पृथ्वी जीनो एक भेद छे; तेना जुदा जुदा भेद नथी. (७८). सूक्ष्म पृथ्वी जीव लोकने विषे सर्वत्र फेलाइ रह्या छे, परंतु बादर पृथ्वी जीव लोकना एक देशने विषे रहेला छे. हवे हुं तेना चार प्रकारना काळ विभाग कहुं हुं . [ ७९ ]. प्रवाह रूपे जोइए तो पृथ्वी जीव आदि अने अन्त रहित छे. परंतु ते हाल जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अन्त सहित छे. (८०). पृथ्वी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति बावीस हजार वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [८१]. नोट-छत्रीसने बदले चाळीस थाय छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नियं । कायठिई पुढवीणं तंकायंतु अमुंचओ ॥ ८२ ॥ अणंतकाल मुक्कोस । अंतोमुहत्तं जहन्न्यं । विजमि सए काए पुढवि जीवाण मंतरं ॥८३॥ एएसिं वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ। स्ठाणा देसओवावि विहाणाई सहस्ससो ॥ ८४ ॥ दुविहा आउ जीवाओ सुहुमा ायरा तहा । पज्जत्त मपज्जत्ता ।। एवमेए दुहापुणो ॥८५॥ बायरा जेउपज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया सुद्धोदएय उस्सेय हरतणु महिया हिमे ॥ ८६ ॥al एगविह मनाणत्ता सुहुमा तथ्थ वियाहिया । सुहुमा सबलोगंमि लोगदेसेय बायरा ॥८७॥ संतई पप्पणाईया अपज्जवसियाविय । ठिईपडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥८८॥ सत्तेव सहस्साई वासाणु कोसिया भवे । आउ ठिई आऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥८९।। ___ पृथ्वी जीव पृथ्वी क.यथी न मूकायतो तेनी उत्कृष्ट स्थिति असंख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंतर मुहूर्त्तनी छे. [८२]. पृथ्वी जीव पृथ्वी कायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंता काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहर्त्तनो छ. [८३]. पृथ्वी जीवोनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइन हजारो भेद पडी शके. [८४]. (२) अप्पकाय जीवना वे प्रकार छ:१ सूक्ष्म अने २ बादर. तेना वळी पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा वे भेद छे.[८५]. बादर पर्याप्त अप्पकायना पांच प्रकार छ:-१ शुद्ध जळ, २ मेघ, समुद्रादिनु जळ, ३ झाकळ, ४ परसवो, ५ हिम (बरफ).[८६]. सूक्ष्म अप्पकायनो एक प्रकार छे. तेना विविध भेद नथी. सूक्ष्म अप्पकाय आखा लोकने विष व्यापीछे, परंतु बादर अप्पकाय लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे. [८७]. प्रवाह रुपे जोइए तो अप्पकाय जीव आदि अने अंत रहित छे. परंतु तेओ हाल जे रुपे छेते रुपे जाइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [८८]. अप्पकाय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहर्तनी छे (८९). Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ ३६. असंखकाल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नियं । कायठिई आऊणं तं कायंतु अमुंचओ ॥ ९० ॥ अणंतकाल मुक्कोस अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए आउ जीवाण अंतरं ॥९१॥ एएसि वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओवावि विहाणाई सहस्ससो ॥९२॥ दुविहा वणरसई जीवा सुहमा बायरा तहा। पज्जत मपज्जत्ता एव३१९ ६ मेए दुहापुणो ॥९३॥ बायरा जेउ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया । साहारण सरी राय पत्तेगाय सहेवय ॥ ९४ ॥ पत्तेय सरीराओ णेगहा ते पकित्तिया । रुख्खा गुलाय गुम्माय लयावल्ली तणातहा ॥ ९५ ॥ वलया पव्वया कुहणा जलरुहा ओसहीतणा । हरीयकायाय बोधव्वा पत्तेयाइति आहिया ॥९६॥ साहारण सरीराओ णेगहा ते पकित्तिया । आलुए मूलए चेव सिंगवेरे तहेवय ॥ ९७ ॥ हिरिली सिरिली सिरिसरिली जावई केय कंदली । पलंडु लसण ___ अपकाय जीव अप्पकायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति असंख्याता काळनी अंने जघन्य स्थिति अंत मुहर्तनी छे.(९०). 8 अप्काप जीव अपकायया चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंता काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. (९१). अप्काय जीवोनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अन संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [९२]. (३) वनस्पति जीवना बे प्रकार छ:-- १ सूक्ष्म अने बादर तेना वळी पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा बे भेदछे. (९३).बादर पर्याप्त वनस्पति जीव बेप्रकारना कह्या छे:-१साधारण शरीरवीळां (एक कायामां अनंत जीववाळा), २ प्रत्येक शरीरवाळां (एक कायामां एक जीववाळां) [९४]. प्रत्येक जीवे जुहूं शरीर एवा वनस्पति जीवना घणा भेद छ:-जेवां-वृक्ष, गुच्छ (रोंगणी वगेरे), गुल्म (नवमालती वगेरे), लता (चम्पकादि), वेली (तुंबडी वगेरे), तृण (कुश वगेरे), वलय (नामियेरी वगेरे), पर्वगं (शेलडी वगैरे), कुहण ( सर्पछत्र वगेरे ), जलरुह ( कमल वगरे), ओषधि (डांगर वगेरे), हरितकाय (तांदल नो वगेरे). उपरना वनस्पति जीवने प्रत्येकने जुदुं शरीर होय छे [९५-९६ ]. 8 साधारण शरीरवाळां-वनस्पति जीवना घणा प्रकार छे.जेवांके--आलुक [रतालु वगेरे], मूलक (मूळा वगरे), आदु, हरिली, 100 Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६ ३२० कंदेय कंदलीय कुहुव्व ॥ ९८ ॥ लोहिणी हूयश्री हूयतुहगाय तहेवय | कन्हेय वज्जकंदेय कंदे सूरणए तहा ॥९९॥ अस्सकन्नीय बोधव्वा सीहकन्नी तहेवय । मुसंढीय हलिद्दाय णेगहा एवमायओ ॥ १०० ॥ एगविह मना हुमा तथ्य वियाहिया । सुहुमा सव्वलोगंमि लोगदेसेय बायरा ॥ १०१ ॥ संतई पप्प णाईया अपज्जवसियाविय । ठिईपडुच्च साईया सपज्जबसियात्रिय ॥१०२॥ दस चेत्र सहस्साइं वासाणु क्कोसिया भवे । वणरसईण आरंतु अं| मुहुत्तं जहन्निया ॥ १०३ ॥ अनंतकाल मुक्कोसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायाठई पणगाणं तंकायंतु अमुंचओ ॥१०४॥ असंखकाल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सर काए पणग जीवाणं अंतरं ॥ १०५ ॥ एएसिं वन्नओ चैव गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओवावि विहाणाई सहस्ससो ॥१०६ ॥ सिरिली, सिस्तिरिली, जावइ, कन्दली, डुंगली, लसण, कदली, लोहिनी, हुयत्थी, हुय, तुहरु, कृष्ण कन्द, वज्ञ कन्द, सूरण, अश्वकर्णी, सिहकर्णी, मुसंढी कन्द, हळदर, अने एवी कन्द मूळनी अनेक जातो छ. [ ९७-१००] सूक्ष्म वनस्पति जीवनो एक प्रकार छे. तेना जुदा जुदा भेद नथी. सूक्ष्म वनस्पति जीव आखा लोकने विषे व्याप्त छे, परंतु बादर वनस्पति जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे. [१०१]. प्रवाह रुपे जोइए तो वनस्पति जीव आदि अने अंत रहित छे; परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [१०२]. वनस्पति जीवनी उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्षानी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१०३ ]. वनस्पति (पनक) जीव वनस्पति कायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति असंख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१०४ ]. वनस्पति जीव वनस्पति कायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंता काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. [१०५ ]. वनस्पति जीवोनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजागे भेद पडी शके. [१०६ ]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए. अ ३६. ३२१ इच्चेते थावरा तिविहा समासेण वियाहिया । इत्तोउ तसे तिविहे वोडामि अणुपुव्वसो ॥१०७॥ तेऊ वाऊय बोधव्वा ओरालाय तसा तहा । इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेहमे ॥ १०८ ॥ दुविहा तेउ जीवाओ सुहमा बायरा तहा । पज्जत मपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ १०९ ॥ बायरा जेउ पज्जत्ता णेगहा ते वियाहिया । इंग्गारे मुम्मुरे अगणी अच्च्चिजाला तत्र ॥ ११० ॥ उक्का विज्जुय बोधव्त्रा णेगहा एवमाइओ । एगविह मनाणत्ता सुहुमा ते वियाहिया ॥ १११ ॥ सुहुमा सव्व लोगंमि लोग देतेय बायरा । इत्तो काल विभागंतु तेसिं बोद्धुं चउन्विहं ॥ ११२ ॥ संतइंपप्प णाईया अपज्जवसियाविय । ठिईपडुच्च साईया सपज्जवसियात्रिय ॥ ११३ ॥ तिन्नेव अहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया । आऊ ठिई ऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥११४॥ उपर प्रमाणे पृथ्वी, पाणी अने वनस्पति एत्रण स्थावर जीवनुं संक्षिप्त वर्णन कर्यु. हवे त्रस जीवोनुं अनुक्रमे वर्णन करूँ हूं. [१०७].१ ते काय (अग्निना जीव), २ वायुकाय, ३ उदारिक जीव[बे इन्द्रीयादि ]ए त्रस जीवना ऋण प्रकार छे. तेना भेद कहुं हुं ते सांभळो. [१०८]. १ तेउकायना वे प्रकार छे:- सूक्ष्म अने बादर. तेना वळी पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा वे भेद छे. [१०९]. बादर पर्याप्त ते कायना घणा प्रकार छे:- जेवाके अंगारा, धूमाडा सहित बळतो अग्नि, झाळ, भडका, खरता तारा, विजळी आदि आना जीव अनेक प्रकारना छे. [११०] सूक्ष्म तेउकायनो एक प्रकार छे. तेना जुदा जुदा भेद नथी. [१११]. सूक्ष्म ते काय जीव आखा लोकने विषे व्याप्त छे. परंतु बादर तेउकाय जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे. [११२]. प्रवाह रुपे जोइए तो ते काय जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु ते हाल जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [११३ ] . ते काय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण अहोरात्र अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [ ११४]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E... असंख काल मुक्कोसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । काय ठिई तेऊणं तं कायंतु अमुंचओ ॥ ११५ ॥ अणंत काल ३६० मुक्कोसं अंतोमुहुर जहन्नयं । विजढंमि सए काए तेऊ जीवाणं अंतरं ॥ ११६ ॥ एएसि वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओ वावि विहाणाई सहरससो ॥११७॥ दुविहा वाउ जीवाओ सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्त मपज्जत्ता एवमेए दुहापुणो ॥ ११८ ॥ बायरा जेउ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया । उक्कलिया मंडलिया घण गुंजा सुद्धवायाय ॥११९॥ संवट्टग वायायणेगहा एवमाइओ। एगविह मनाणत्ता सुहमाते वियाहिया ॥ १२॥ सुहमा सव्वलोगंमि लोगदेसेय बायरा । इत्तो काल विभागंतु तेसिं वोढुं चउविहं ॥ १२१ ॥ संतइंपप्प णाईया अपज्जव सियाविय । ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥१२२॥ तेउकाय जीव तेउकायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति असंख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंत म [११५]. तेउकाय जीव तेउकायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंता काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहर्तमो . [११६]. तेउकाय जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [११७]. २ वायु कायना बे प्रकार छ:--सूक्ष्म अने बादर. तेना वळी पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा वे भेद छे. [११८]. वादर पर्याप्त वायु कायना * पांच प्रकार छे:-- उत्कलिक, मंडलिक, घनवायु, गुंजवायु, शुद्धवायु, अने संवर्तक वायु. ए वगेरे वायुना अनेक प्रकार का छे. सूक्ष्म वायुकायनो एक प्रकार छे. तेना जुदा जुदा भेद नथी. [११९-१२०]. सूक्ष्म वायु काय आखा लोकने विषे व्याप्त छे, परंतु बादर वायु काय लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे. [१२१]. प्रवाह रुपे जोइए तो वायु कायना जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु ते हाल जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [१२२]. * जोके गाथामां पांचज प्रकार कह्या छे, छतां गणतां छ थाय छे, अने वळी " वगेरे" लखीने एथी वधारेनी हस्ती स्वीकारेली छे. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह.अ. | तिन्नेव सहस्साइं वासाणु कोसिया भवे । आऊ ठिई वाऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥१२३॥ असंखकाल मुक्कोसा | अंतोमुहुत्तं जहन्निया । काय ठिई वाऊणं तं कायंतु अमुंचओ ॥ १२४ ॥ अणंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जह नयं । विजढंमि सए काए वाऊ जीवाणं अंतरं ॥१२५॥ एएसि वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ॥१२६॥ ओराला तसाजेऊ चउविहा ने पकित्तिया । बेइंदिय तेइंदिय चउरो पंचिंदिया चेव ॥१२७॥ बेइंदियाओ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पजत्त मपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेहमे ॥१२८॥ किमिणो B सोमंगला चव अलसा माइवाहया । वासी मुहाय सप्पीया संखा संखणगा तहा ॥ १२९ ॥ पल्लो याणुल्लोया चेव तहेवय वराडगा । जल्लगा जालुगा चेव चंदणाय तहेवय ॥ १३० ॥ इइ वेदिया एए णेगहा एवमाइओ । लोएग वायु काय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण हजार वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्तनी छे. [१२३]. वायुकाय जीव वायुकायथी न मूकायतो तेनी उत्कृष्ट स्थिति असंख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहर्त्तनी छे. [१२४]. वायुकाय जीव वायुकाययी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. [१२५]. वायुकाय जीवनां वर्ण, गंध, B रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पढी शके. [१२६]. उदारिक त्रस जीवना चार प्रकार छः-१ वे इन्द्रि, २त्रण इन्द्रि, ३ चार इन्द्रि अने ४ पांच इन्द्रिवाळां जीव. (१२७). १ वे इन्द्रि (शरीर अने जीभवाळां) जीवना बे प्रकार छ:- पर्याप्त अने । अपर्याप्त तेना भेद कहुं हुं ते सांभळा. (१२८). कृमि, सोमंगल, अलसिया, मातृवाहक [चुडेली], वासीमुखा (वासळीना जेवामुखवाळां जीवडां), शंख, शंखनक, पल्लुक, अणुपल्लुक, कोडी, जलो, जालक, अने चंदन [घो] आ अने एवां बीजा अनेक Jain Educationa intematonal For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ३२४| "देसे ते सव्वे न सव्वथ्य वियाहिया ॥ १३१ ॥ संतईपप्प णाईया अपज्जव सियाविय ठिई पडुच्च साईया सपज्जव सियाविय ॥१३२॥ वासाइँ वारसेवउ उक्कोसेण वियाहिया । बेइंदिय आउ ठिई अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १३३ ॥ संज्जकाल मुकोसा अंतोमुहुतं जहन्निया । बेइंदिय काय ठिई तं कायंतु अमुंचओ ॥ १३४ ॥ अनंतकाल मुक्कासं अंतोमुहुतं जहन्नयं । बेइदिय जीवाणं अंतरेयं वियाहियं ॥ १३५ ॥ एएसिं वन्नओ चेव गंधओ रस • फासओ । संठाणा देसओबावि विहाणाई सहस्ससी || १३६|| तेंदियाओ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जन मज्जता सिंए हमे ॥ १३७ ॥ कुंथुं पिपीलि उदंसा उक्कलद्देहिया तहा । तणहार कठहाराय मालुगा पत्तहारगा॥१३८॥ कप्पासहिमिंजाय तिदुगाओ समिजगा । सयावरीय गुम्मीय बोधव्वा ईदगाईया || १३९ || इंदगोवग प्रकरनां वे इन्द्रवाळां जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे; आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. (१२९-१३१). प्रवाह रुपे जोइए तो वे इन्द्रिय जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु जे रुपे हाल ते छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [१३२ ]. बे इन्द्रिय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति बार वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१३३]. वे इन्द्रिय जीव वे इन्द्रिय कायथी न "काय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति संख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१३४]. वे इन्द्रिय जीव वे इन्द्रिय कार्याथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. [१३५]. वे इन्द्रिय जीवन वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. (१३६ ). २ ऋण इन्द्रिय [शरीर, जीभ अने नाकवाळां] जीवना प्रकार :- पर्याप्त अने अपर्याप्त तेना भेद कहुं हुं ते सांभळो. (१३७). कुंथु [कंथवा], कीडि, चांचड, उक्कल, (उत्कलिक जंतु) तृणहार, काष्टहार, मालूका, पत्रहार, कपासना मिंजनां जीव, सदावही, गुल्मी ( कानखजुरा), इन्द्रगाय, काममोला, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६ ३२५ माईया गहा एव माइओ । लोएग देसे ते सब्वे न सव्वथ्य त्रियाहिया ॥ १४० ॥ संतईपप्प णाईया अपज्जव सियाविय । ठि पडुच्च साईया सपज्जब सियाविय ॥ १४१ ॥ एगुणपन्न होरसा उक्कोसेण वियाहिया । तेइंदिय आउ ठिई अंनोमुत्तं जहन्निया ॥ १४२ ॥ संखेज्ज काल मुकोसा अंत मुहुंत्तं जहन्निया । तेइंदिय काय ठिई तं कायंतु अचओ ॥ ११३ ॥ अनंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । ब्रेइंदिय जीवाणं अंतरेयं विआहियं ॥ १४४ ॥ एएल बन्नओ चे गंधओ रस फासओ संठाणा देसओबात्रि विहाणाई सहरससो ॥ १४५ ॥ चउरिंदियाओ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्त मपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेहमे ॥ १४६ ॥ अंधिया पुत्तिया चेव मडिया मसगा तहा । भमरे कीड पयंगेय ढिंकणे कंकणे तहा ॥ १४७॥ कुक्कुडे सिंगिरीडीय णंदावतेय विलिए। डीले भिंगारीय विराली अने व बीज अनेक प्रकारनां त्रण इन्द्रियवाळां जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे, तेओ आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. [१३९ १४० ] मवाह रुपे जोइए तो ऋण इन्द्रिय जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल तेओ जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि ने अंत सहित छे. [१४१]. त्रण इन्द्रिय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति ४९ दिवसनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. (१४२) त्रण इन्द्रिय जीव त्रण इन्द्रिय कायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति संख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१४३ ]. त्रण इन्द्रिय जीव त्रण इन्द्रिय कायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरी अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो मुहूर्त्तनो छे. [१४४]. त्रण इन्द्रिय जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [१४५]. चार इन्द्रिय (शरीर, जीभ, नाक, अने आंखवाळां) जीवना वे प्रकार छे:-पर्याप्त अने अपर्याप्त. तेना भेद कहुं हुं ते सांभळो. [१४६ ]. अधिका, पौत्तिका, मक्षिका, मच्छर, भमरा, कीट (पतंगीया), टिंकण, कुंकण, कुर्कट, श्रृंगरीटी, नन्द्यावर्त्त, वांछी, डोल, भृंगरीट, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. अछिवेहए ॥१४८॥अथिले मोहए अथ्थि रोडए विचित्ते चित्तपचए । उहिं जलिया जलकारिय नीयातंतव गाईया ६॥१४९॥ इइ चउरिदिया एए णेगहा एव माइओ । लोगस्स एग देसमि ते सव्वे परिकित्तिया ॥१५०॥ संतइपप्प ३२६३ णाईया अपज्जव सियाविय । ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥१५१॥ छच्चेवय मासाउ उक्कोसेण वियाहिया। चउरिदिय आउ ठिइ अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥१५२॥ संखेज्जकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्निया । चउरिदियकाय ठिई संकायंतुअमुंचओ ॥ १५३ ॥ अणंतकाल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सएकाए अंतरेयं वियाहियं | ॥१५४॥ एएसिं वन्नओ चेव गंधओरस फासओ। संढाणा देसओवावि विहाणाई सहस्ससो ॥१५५॥ पांचंदिया ओ जेजीवा चउचिहाते वियाहिया । नेरइय तिरिख्खाय मणुया देवाय आहिया ॥१५६॥ विरली, अक्षवेधक, आक्षिल, मागध, अक्ष, रोडक, विचित्र, चित्रपत्र, उहिंजलिया, जलकारी, नीया, तंतवगाइया, अने एवा बीजा 18 अनेक प्रकारनां चार इन्द्रिवाळां जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छ, तेओ आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. [१४७-१५०].:. | प्रवाह रुपे जोइए तो चार इन्द्रिय जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत 18 साहेत छे. [१५१]. चार इन्द्रिय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति छ मासनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहर्तनी छे. [१५२]. चार इन्द्रिय जीन चार इन्द्रिय कायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति संख्याता काळनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहर्तनी छे. [१५३], चार BI इन्द्रिय जीव चार इन्द्रिय कार्यथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. ६ (१५४). चार इन्द्रिय जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइन हजारो भेद पडी शके. (१५५). ४ पचेन्द्रि जीवना चार 15 प्रकार छेः-१ नारकी, २ तिर्यंच, ३ मनुष्य अने ४ देवता. (१५६). Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ.अ. 1 नेरइया सत्तविहा पुढवीसू सत्तसू भवे । पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेहमे ॥१५७॥ रयणाभसक्कराभावालुयाभाय STRI आहिया । पंकामा धूमाभातमा तमतमा तहा ॥१५८॥ धम्मावंसगासेलातहा अंजणरिठ गामघामाघवइचेवणारयाय पुणोपुणो। रयणाइगुत्तओचेवतहाघम्माइणामओ इइ नेरइया एएसत्तहापरिकित्तिया लोगस्स एगदेसंमि तेसव्वेउ | बियाहिया । इत्तो कालविभागंतुतेसिं वोठं चउब्विहं ॥ १५९ ॥ संतइंपप्पणाईया अपज्जव सियाविय । ठिई पडुच्च | साईया सपज्जवसियाविय ॥१६०॥ सागरोवम मेगंतु उक्कोसेण वियाहिया । पढमाए जहन्नेणं दस वास सहस्सिया 11- ॥१६१॥ तिन्नेव सागराऊ उक्छोसेण वियाहिया । दुच्चाए जहन्नेणं एगंतु सागरोवमं ॥ १६२ ॥ सत्तेव सागराऊ | उक्कोसेण वियाहिया । तइयाए जहन्नेणं तिन्नेवउ सागरोवमा ॥ १६३ ॥ दस सागरोवमाऊ उक्कोसेण वियाहिया । चउथ्थीए जहन्नेणं सत्तेवउ सागरोवमा ॥१६४॥ १ नारकी जीव सात नरक-पृथ्वीने विषे वसता होवाथी तेना सात प्रकार छ तेनां नामा-रत्नप्रभा, शकरप्रभा, वालुकमभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमा अने तमतमा, आ प्रमाणे नारकी जीवना सात प्रकार वर्णव्या छे. (१५७-१५८). नारकी जीव लोकना एक देशने विष व्याप्त छ, तेओ आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. (१५९). प्रवाह रुपे जोइए तो नारकी जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. (१६०). पेली रत्नप्रभा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी छे (१६१). बीजी शर्करप्रभा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थि सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति एक सागरोपमनी छे. (१६२). त्रीजी वालुकममा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति त्रण सागरोपमनी छे. (१६३), चोथी पंकपमा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति सात सागरोपमनी छे. (१६४). Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. सत्तरस सागराऊ उकोसेण वियाहिया। पंचमाए जहन्नेणं दसचेवउ सागरोवमा ॥१६५॥ बालीस सागराउ उकोसेण ३६० वियाहिया । छठीए जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमा ॥१६६॥ तित्तीस सागराऊ उकोसेण वियाहिया। सत्तमाए जह३२० नेणं बावीसं सागरोवमा ॥१६७॥ जाचेवउ आउ ठिई नेरईयाणं वियाहिया । सातेसिं काय ठिई जहन्नुकोसिया । भवे ॥१६८॥ अणंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए नेरइयाणंतु अंतरं ॥ १६९ ॥ एएसि । । वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओवावि विहाणाई सहस्ससी ॥ १७० ॥ पंचिदिय तिरिख्खाओ । दुविहा ते वियाहिया । समुछिम तिरिख्खाओ गम्भ वळू तिया तहा ॥ १७१ ॥ दुर्विहा ते भवे तिविहा जलयरा थलयरा तहा । खहयराय बोधव्वा तेसिं भेए सुणेहमे ॥१७२॥ पांचमी धूमप्रभा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति दश सागरोपमनी छे. (१६५). छठी 11 तमा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी छे. (१६६). सातमी तमतमा नारकी जीवनी उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति बावीश सागरोपमनी छे. [१६७]. नारकी जीव नरकथी न मुकाय तो तेनी उत्कृष्ट अने जघन्य स्थिति जे जे नरकमां ते उपजे ते ते नरकनी उत्कृष्ट अने जघन्य स्थिति प्रमाणे जाणवी. [१६८]. नारकी जीव नरकथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंतमुहर्त्तनो छे. १६९]. नारकी जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [१७०]. (२) पर्चेन्द्रि तिर्यंचना । प्रकार छ:--संमूच्छिम [ मन पर्याप्ति रहित अने गर्भव्युक्रान्तिका [गर्भज मन पर्याप्ति सहित]. [१७]. ते प्रत्येकना बळी-त्रण प्रकार छ :--जळचर, स्थळचर अने खेचर (पक्षीओ). तेना भेद हवे कहुं हुं ते सांभळो. [१७२]. * Generatio acquivoca.. Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माय कलभाया गाहाय मगरा तहा । सुं सुमाराय बोधवा पंचहा जलयरा हिया ॥ १७३ ॥ लोगदेसे ते सव्वे न सव्वथ्थ वियाहिया । इत्तोकाल विभागंतु तेसिवानं चउविहं ॥१७४॥ संतई पप्पणाईया अपज्जव सियात्रिय । ठिई पडुच्च साईया सपज्जव सियाविय ॥ १७५ ॥ एक्काय पुचकोडी उक्कोसेण वियाहिया । आउ ठिई जलयराणं 18 अंतोमुहुत्तं जहंन्निया ॥ १७६ ॥ पुवकोडी पुहत्तंतु उक्कोसेण वियाहिया । काय ठिई जलयराणं अंतोमुहुत्तं जह न्निया ॥१७७॥ अणुंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए जलयराणंतु अंतरं ॥१७८॥ एएसिं Lal वन्नयो चेव गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओ वावि विहाणाई सहस्ससी ॥१७९॥ .... मांछलां, काचवा, ग्राह, मगर अने शिशुमार ए प्रमाणे जळचर जीवना पांच भेद छ.[१७३]. जळचर जीव लेकना एक देशने विषे व्याप्त छे, तेओ आखा लोकने विष व्याप्त नथी. हवे हुँ तेना चार प्रकारे काळ विभाग कहुँ छ.[१७४]. प्रवाह रुपे जोइए तो जळचर जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [१७२]. | जळचर तिर्यंच पचेंद्रि जीवनी उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कोटि वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत महतनी छे. [१७६]. जळचर पचेंद्रि जीवनी काय स्थिति उत्कृष्ट स्थिति पृथक । पूर्व कोटि वर्षनी २ अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. (१७७). जळचर जीव जळचर कायथी। चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहर्सनो छ (१७८). जळचर जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. (१७९)३. बेथी लइ नव सुधी पृथक कहेवाय छे. २ त्रीजा अध्ययननी पंदरमी गाथा जुओ. ३ प्रो. जेकोबीए आ गाथा अहिंआ का अने हवेपछी ज्यां ज्यां आवे छे त्यां पडती मूकी छे, तेथी अनुक्रम मळतो नथी. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६ ३३० चउप्पयाय परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउब्विहा ओतेमेकित्तयओसुण ॥ १८० ॥ एगखुरादुख्खुराचैव गंडीपय सनप्पया । हयमाईगोणमाई गयमाई सीहमाइणो ॥ १८१ ॥ भु उरग परिसप्पा परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाईया एक्केक्का णेगहा भवे ॥१८२॥ लोएग देसे तेसव्वे न सव्वथ्य वियाहिया । इत्तो काल विभा गंतु तेसिं वोद्धुं चउब्विहं ॥१८३॥ संतई पप्पणाईया अपज्जव सियाविय ठिई पडुच्च साईया सज्जवसिय वि ॥ १८४॥ पलिओ वमाओ तिन्निओ उक्कोसेण वियाहिया । आउ ठिई थलयराणं अंतोमुहुतं जहन्निया ॥१८५॥ पलिओवमाओ तिन्निओ उक्कोसेणंतु साहिया । पुव्वकोडी पुहुत्तेणं अंतमुहुत्तं जहन्निया ॥ १८६॥ कायठिई थलयराणं अंतरं तेसिमं भवे । अनंत काल मुक्कासं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ १८७॥ } स्थळवर जीवना वे प्रकार छे:-चोपगां अने पेटे चालनारां. चोपगांना चार भेद छे ते तमने कहुं हुं ते सांभळोः - (१८०). एक खरीवाळां (घोडा वगेरे), वे खरीचाळां (गाय वगेरे), गंडी पदा (हाथी वगेरे) अने सनखपदा एटले नोरवाळां (सिंह वगेरे ). (१८१). पेटे चालनारां जीवना वे प्रकार छे:-भुजा उपर चलना जेवांके अंदर वगेरे, अने पेढे चालनारां जेवांके सर्प वगेरे, ए बन्नेना वळी अनेक भेद छे. [१८२]. स्थळचर जीव लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे, तेओ आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. हवे हुं तेना चार प्रकारे काळ विभाग कहुं छं. [१८३] प्रवाह रुपे जोइए तो स्थळचर जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. [१८४]. स्थळचर जीवनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपमनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [१८५ ]. स्थळचर जीव स्थळचर कायथी न मुकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपम उपर पृथक पूर्व कोटि वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. (१८६). स्थळचर जीव स्थळचर कायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. [१८७ ]. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजढंमि सए काए थलयराणंतु अंतरं । एएसि वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ ॥१८८॥ संठाणा देसओ वावि उ.अशा विहाणाइं सहस्ससी चम्मेउ लोम पख्खीय तइया समुग्ग पख्खिया ॥ १८९ ॥ वियय पख्खीय बोधव्वा पारखणोय चउविहा । लोएगदेसे तेसव्वे न सव्वथ्थ वियाहिया ॥ १९० ।। संतई पप्पणाईया अपज्जवसियाविय । ठिइंपडुच्च साईया सपज्जव सियाविय ॥ १९१ ॥ पलिओवमस्स भागो असंखेज्जइमो भवे । आउठिई खहयराणं अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ ५९२ ॥ असंखभागो पलियरस उक्कोसेण वियाहिओ। पुवकोडी पुहुत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया । १९३ ॥ काय ठिई खहयराणं अंतरतेसिमंभवे । कालं अणंत मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ।। १९४ ॥ एएसिं वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ संठाणा देसओवावि विहाणाइं सहस्ससो ॥१९५॥ स्थळचर जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [१८८]. खेचर जीवना चार प्रकार छ:-- चर्मरुप पांखवाळां (वडवागळां वगेरे), रोमरुप पाखवाळा (मोर हंस वगेरे), समुगा पांखवाळां एटले पांख बांधीने उडनारा, अने वितत पांखवाळां एटले पांख विस्तारीने उडनारां. [१८९]. खेचर जीव लोकना एक देशने विष व्याप्त छ, तेओ आखा लोकने विषे व्याप्त नथी. हवे हुं तेन चार प्रकारे काळ विभाग कहुं छु. [१९०]. प्रवाह रुपे जोइए तो खेचर जीव आदि अने अंत रहित हे, परंतु हाल ते जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने मंत सहित छे. [१९१]. खेचर जीवनी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपमना असंख्यातमा भागनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहर्त्तनी छे. [१९२]. खेचर जीव खेचर कायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अने पृथक पूर्व कोटि वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहर्त्तनी छे. [१९३]. खेचर जीव खेचर कायथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो छे. [१९४]. खेचर जीवनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [१९५]. ... For Personal and Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मणुयादुविहाभेआओतेमेकित्तयओसुण । संमुछिमायमणुया गम्भवकंतियातहा ॥ १९६ ॥ गभ्मवकूतियाजेउतिविहा तेवियाहिया । अकम्मकम्मभूम य अंतरदीवगा तहा ॥ १९७ ॥ पन्नरस तीसइ विहा भेया अठावीसइ । संखाओ Ma कमसो तेसिं इइ एसा वियाहिया ॥१९८॥ संमुछिमाणएसेव भेउहोइ आहिओ। लोगस्स एगदेसंमि ते सव्वे विया हिया ॥१९९॥ संतइंपप्प णाईया अपज्जव सियाविय । ठिई पडुच्च साईया सपज्जव सियाविय ॥२०॥ पलिओवमाइ तिन्निओ उक्कोसेण वियाहिया । आउ ठिई मणुयाणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥२०१॥ पलिओवमाउ तिन्निओ उकोसेणंतु साहिया । पुवकोडि पुहुत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ २०२ ॥ काय ठिई मणुयाणं अणंतरं तेसिमं भवे । अणंत काल मुकोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ २०३ ॥ (३) मनुष्यना वे प्रकार छे, ते तमने कहुं छं ते सांभळो:-१ संमूछिम अने २.गर्भज-गर्भ व्युक्रान्तिका. [१९६]. गर्भ व्युकान्तिका मनुष्यना त्रण प्रकार कह्या छे:--अकर्म भूमिमां वसनारां, कर्म भूमिमां वसनारां अने अन्तर द्वीपमा वसनारां. [ १९७]. कर्म भूमिमां पंदर जातनां (भरत, ऐरावत अने महविदेह दरेकमां पांच पांच जातनां), अकर्म भूमिमा त्रीश जातनां (हैमवत, हरिवर्ष, हैरण्यवत, देवकुरु, अने उत्तरकुरु दरेकमां पांच पांच जातनां) अने अन्तर द्वीपमा २८ जातनां मनुष्य वसे छे एम श्री तीर्थकरे भाख्युं छे. [१९८]. संमूञ्छिम मनुष्यना घणा प्रकार छे. तेओ लोकना एक देशने विष व्याप्त छे. [१९९]. प्रवाह रुपे जाइए तो मनुष्य जीव आदि अने अंत रहित छे, परंतु जे रुपे हाल ते छे ते रुपे जोइर तो ते आदि अने अंत सहित छे. [२००J. मनुष्यनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्पोपमनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. (२०१). मनुष्य जीव मनुष्य कायथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्यापम अने पूर्व कोटि वर्षनी अने जघन्य स्थिति अंत मुहूर्त्तनी छे. [२०२]. मनुष्य जीव मनुष्य कायथी | चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंरो अंत मुहूर्त्तनो छे. (२०३). Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.अ. 666666०००००००००००००००० एएसि वन्नओ चेव गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओबावि विहाणाई सहरससो ॥ २०४ ॥ देवा चउबिहा | वुत्ता ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्ज वाणमंतर जोइस वेमाणिया तहा ॥ २०५ ॥ दाहाओ भवणवासी अठहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया दुविहा वेमाणिया तहा ॥२०६॥ असुरा नाग सुवन्ना विज्जु अग्गीय आहिया । | दीवो दहि दिसा वाया थणिया भवणवा सिणो ॥२०७॥ पिसाय भूया जख्खाय रख्खसा किंनराय किंपुरिसा ।महो- | रगाय गंधव्वा अठविहा वाणमंतरा ॥२०८॥ चंदा सूराय नख्खत्ता गहा तारागणा तहा। ठिया विचारिणो चेव पंचहा जोइसालया ॥२०९। चेमाणियाओ जेदेवा दुविहा ते वियाहिया । कप्पोवगाय बोधव्वा कप्पाईया तहेवय ॥२१॥ बनुष्यनां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [२०४]. (४) देवताना चार प्रकार छे, ते कई छते सांभळो. १ भौमेयक (भूवनपति),२ व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क अने ४ वैमानिक. [२.५]. भूवनपविना दश भेद, व्यन्तरना आठ भेद, ज्योतिष्कना पांच भेद अने वैमानिकना बे भेद छे. [२०६]. भूवनपतिना दश भेदः-असुर कुमार, नाग कुमार, सुवर्ण कुमार, विद्युत कुमार, अग्नि कुमार, दीप कुमार, उदधि कुमार, दिसि कुमार;' वायु कुमार अने स्ननित कुमार. [२०७]. व्यन्तरना आठ भेदः--पिशाच, भूत, यक्ष, गक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरगा, गन्धर्व. [२०८]. ज्योतिष्क देवताना पांच स्थळ:--चंद्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह अने तारागण.* तेमां अमुक स्थिर अने अमुक फरता छे. [२०९]. * वैमानिक देवताना बे भेदः-कल्पोपगा (बार देव लोकमां उपजे ते) अने कल्पातीता (नव ग्रेवेयक अने पांच अनुत्तर विमानमा उपजे ते). [२१०]. प्रो. जेकोबीए तेमज संस्कृत टीकाकारे आ नाम तदन मूकी दीधुं छे तेथी नव भेद थाय छे. २ आने बदले प्रो. जेकोबीए "घणिक कुमार" ल छे. * गाथा २०९-आटलो भाग प्रो. जेकोबीए मूकी दीधो छे. संस्कृत टीकाकार एनो एवो अर्थ करे छे के तेओ अढी द्वीपमा फैरे छे अने अढी द्वीप बहार स्थिर छे. ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. ३६० ३ कप्पोबगा बारसहा सोहम्मी साणगा तहा । सणंकुमारमाहिंदा बंभलोगायलंतगा ॥२११॥ महासुक्कासहरसारा आ णया पाणयातहा । आरणा अच्चुया चेव इइ कप्पोवगा सुरा ॥२१२॥ कप्पाईयाय जेदेवा दुविहा ते वियोहिया । ३४/ ३) गेवेज्जा णुत्तरा चेव गेवेज्जा नव विहा तहिं ॥२१३॥ हिटिमा हिठिमा चेव हिठिमा मझिमा तहा। हिछिमा उवरिमा चेव मझिमा हिठिमा तहा ॥२१४॥ मझिमा मझिमा चेव मझिमा उवरिमा तहा । उदरिमा हिछिमा चेव उपरिमा मझिमा तहा ॥२१५॥ उवरिमा उवरिमा चेव इइ गेवेज्जगा सुरा। विजया वेजयंताय जयंता अपराजिया ॥२१६॥ सव्व सिद्धिगा चेव पंचहा णुत्तर। सुरा । इइ वेमाणिया एए णेगहा एव माइओ॥ २१७ ॥ लोगस्स एग देसंमि ते सव्वे परिकित्तिया । इत्तो काल विभागंतु तेसिं वाटुं चउव्विह॥२१८॥ संतइपप्पणाईया अपज्जवसियाविय । ठिइं | पडुन साईया सपज्जव सियाविय ॥ २१९ ॥ कल्पोपगा देवताना बार भेद छे:--१ सौधर्म, २ इशान, ३ सन्त कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्मलोक, ६ लान्तक, ७ महाशुक्र, ८ सहस्रार, ९ आगत, १० प्राणत ११ आरण अने १२ अच्युत. ए प्रमाणे बार देवलोकमां वसता देवताना वार भेद कह्या छ. (२११-२१२). कल्पातीता देवताना बे भेद छ:--१ अवेयक अने २ अनुत्तर. ग्रेवेयक देवताना नव भेद छे. [२१३]. १ अधस्तमा अधस्त (हेठलामा हेठला), अधस्तमा मध्यम, ३ अधस्तमा उपरि, ४ मध्यमां अधस्त, ५ मध्यममा मध्यम, ६ मध्यममा उपरि; ७ उपरिमां अधस्त, ८ उपरिमां मध्यम अने ९ उपरिमां उपरि. ए प्रमाणे ग्रैवेयक देवता छे. १ विजय, २ विजयन्त, ३ जयन्त, ४ अपराजेत अने ५ सर्वार्थसिद्ध ए अनुत्तर देवताना पांच भेद छे. आ प्रमाणे वैमानिक देवताना अनेक भेद छे. '२१४-२१७]. ए देवता लोकना एक देशने विषे व्याप्त छे; हवे हुँ तेना चार प्रकारे काळ विभाग कहुं छ. [२१८]. प्रवाह रुपे जोइए तो देवता आदि अने अंत रहित छे, परंतु हाल तेओ जे रुपे छे ते रुपे जोइए तो ते आदि अने अंत सहित छे. २१९]. ००००००००००००० Jain Education Intematonal For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहियंसा गरंएक उक्कोसेणठिईभवे । भोमेज्जाणंजहन्नेणं दसवाससहस्तिया ॥२२०॥ पलिओबममेगंतु उक्कोसेण उ.अशा ठिई भवे । वंतराणं जहन्नेणं दस व स सहस्सिया ॥२२१ । पलिओवमंतु एगं वासलख्खेण साहियं । पलिओवमट्ठ 12 भागो जोइसेसु जहन्निया ॥२२२॥ दीचेव सागराई उक्कोसेण वियाहिया । सोहम्ममि जहन्नेणं एगंच पलिओवमं 1॥२२३।। सागरा साहिया दुन्नि उक्कोसेण वियाहिया। ईसाणंमि जहन्नेणं साहियं पलिओवमं ॥२२४॥ सागरा३णिय सत्तेव उक्कोसेण ठिई भवे । सणंकुमारे जहन्नेगं दुन्निऊ सागरोवमा ॥२२५॥ साहिया सागरा सत्त उको. 18 सेण ठिई भवे । माहिदम्नि जहन्नेणं साहिया दुन्नि सागरा ॥ २२६ ॥ दसचेव सागराइं उकोसेण ठिई भवे । भलोए जहन्नेणं सत्राऊ सागरोवमा ॥ २२७ ॥ चउद्दस सागराइं उकोसेण ठिई भवे । लंतगंमि जहन्नेणं दसऊ सागरोवमा ||२२८॥ भूबनपति देवतानी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपमथी अधिक अने जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी छे. [२२०]. व्यन्तर देवतानी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपमनी अने जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी छे. [२२१]. ज्योतिष्क देवतानी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम अने एक लाख वर्षनी ने जघन्य स्थिति पल्योपमना आठमा भागनी छे. [२२२]. सौधर्म देवलोकना देक्तानी उत्कृष्ट स्थिति बे सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति एक पल्योपमनी छे. [२२३]. इशान देवलोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति वे सागरोपमथी अधिक अने जघन्य स्थिति एक पल्यापमथी अधिक छे. [२२५]. सनत कुमार देवलोकना देवतानी उत्कट स्थिति सात सागरोपमनी अने जधन्य स्थिति बे सागरोपमनी छे (२२५].माहेन्द्र देवलोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमथी अधिक अने जघन्य स्थिति बे सागरो मथी अधिक छे. [२२६. ब्रह्म देवलोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति सात सागरोपमन छे.(२२७),लान्तक देवलोकना देवतानी उत्कट स्थिति चौद सागरोपमनी अने जवन्य स्थिति दश सागरोपमनीछे/२२८]. । Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E.अ. all सत्तरस सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे । महासुक्के जहन्नेणं चउदस सागरोवमा ॥२२९॥ अठारस सागराइं उक्को| सेण ठिई भवे । सहरतारे जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमा ॥२३०॥ सागरा अउणवीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे । आणयम्मि जहन्नेणं अठारस सागरोवमा ॥२३१॥ वीसंतु सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे । पाणयम्मि जहन्नेणं सागरा अउणवीसई ॥ २३२ ॥ सागराएकवीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे । आरणम्मि जहन्नेणं वीसई सागरोवमा ॥ २३३ ॥ बावीस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे । अच्चुयंमि जहन्नणं सागरा एकवीसई ॥२३५॥ तेवीस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे । पढमम्मि जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा ॥ २३५ ॥ चउवीस सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे । बिइयंम्मि Ma जहन्नेणं तेवीसं सागरोवमा ॥२३६॥ महाशुक्र देव लोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति चौर सागरोपमनीछे. [२२९]. सहस्रार देव लोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति अठार सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी छे. [२३०] आणत देव लोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति १९ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति १८ सागरोपमनी छे. [२३१] प्राणत देव लोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २० सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति १९ सागरोपमनी छे. [२३२] आरण देव लोकना देवतारी उत्कृष्ट स्थिति २१ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २० सागरोपमनी छे. (२३३) अच्युत देव लोकना देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २२ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २१ सागरोपमनी छे. (२३४) प्रथम ग्रेवेयकने विषे देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २३ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २२ सागरोपमनी छे. (२३५) बीजा अवेयकने विषे देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २४ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २३ सागरोपमनी छे. (२३६) Jamn Educationa interational For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .अ. पणवीस सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे । तइयंमि जहन्नेणं चउवीसं सागरोवमा ॥२३७॥ छव्वीसं सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे । चउथ्यमि जहन्नेणं सागरा पणवीसई ॥ २३८ ॥ सागरा सत्तवीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे । पंचमंमि जहन्नेणं सागरा छवीसई ॥२३९॥ सागरा अठ्ठवीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे । छठेमि जहन्नेणं सागरा सत्तवीसई ॥२४०॥ सागरा अउणतीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे । सत्तमंमि जहन्नेणं सागरा अट्टयोसई ॥२४१॥ तीसंतु सागराई उक्कोसेण ठिई भवे । अट्टमम्मि जहन्नेणं सागरा अउणतीसई॥२४२॥ सागरा एकतीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे। नवमम्मि जहन्नेणं तीसई सागरोवमा ॥ २४३ ॥ तेत्तीस सागराऊ उक्कोसेण ठिई भवे । चउसुवि विजयाईसु जहन्नेणे कृतीसई ॥२४४॥ त्रीजा ग्रेवेयकने विषे देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २५ सागरोपभनी अने जघन्य स्थिति २४ स.गरोपमनी छे. [२३७]. चोथा ग्रेवेयकने विष देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २६ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २५ सागरोपमनी छे. [२३८]. पांचमा ग्रेवेयकने विषे देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २७ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २६ सागरोपमनी छे. [२३९]. छटा अवेयकने विवे देवतानी उत्कृष्ट 18 स्थिति २८ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २७ सागरोपमनी छे. [२४०]. सातमा ग्रेवेयकने विषे देवतानी उत्कृष्ट स्थिति २९ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २८ सागरोपमनी छे. [२४१]. आठमा अवेयकने विष देवतानी उत्कृष्ट स्थिति ३० सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति २९ सागरोपमनी छे. [२४२]. नवमा ग्रेवेयकने विषे देवतानी उत्कृष्ट स्थिति ३१ सागरोपमनी अने जघन्य स्थिति ३० सागरोपमनी छे. [२४३]. अनुत्तर देवलोकना विजयादि पहेला चार (विजय, विजयन्त, जयन्त अने अपराजित) देवतानी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमनी अने जधन्य स्थिति ३१ सागरोपमनी छ. [२४४]. Jain Educe la matinal For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ९.अ. ३३८ अन्न को तेतीसं सागरोत्रमा | महाविमाण सब ठिई एसा वियाहिया ॥ २४५ ॥ जाचेवउ आउ ठिई ३६ ४ देवाणंतु वियाहिया । सातेसिं काय ठिई जहन्नुक्कोसिया भवे ॥ २४६ ॥ अनंत काल मुक्कासं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । जिम सकाए देवाणं होज्ज अंतरं ॥ २४७॥ अनंत काल मुक्कासं वास पुहत्तं जहन्नयं । आणयाइणं कप्पाणं विज्जा अंतरं ॥ २४८ ॥ संखिज्ज सागरो क्कोसं वास पुहतं जहन्नयं । अणुत्तराणय देवाणं अंतरंतु वियाहिया ॥ २४९ ॥ एएस बन्नओ चेत्र गंधओ रस फासओ । संठाणा देसओबाचि विहाणाई सहस्ससो ॥ २५० ॥ संसारध्याय सिद्धाय इइ जीवा वियाहिया । रूविगो चेव अरूत्रीय अजीवा दुविहाविय ॥ २५१॥ महाविमान सर्वार्थसिद्धने विषे देवतानी उत्कृष्ट अने जघन्य स्थिति तफावत रहित ३३ सागरोपमनी छे. [२४५ ]. देवतानो जीव देवतानी कायाथी न मूकाय तो तेनी उत्कृष्ट अने जघन्य स्थिति प्रत्येक देवलोकना संबंधमां उपर दर्शाव्या प्रमाणे जाणवी. [२४६]. देवतानो जीव देवतानी कायाथी चवीने उत्पन्न थाय तेनो उत्कृष्ट आंतरो अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो अंत मुहूर्त्तनो . [२४७ ]. आणत चैवेयकादि देवलोकना देवता चवीने वीजे उत्पन्न थाय अने पाछा स्वस्थाने आवी उपजे तेनी वच्चनो उत्कृष्ट आंतरी अनंत काळनो अने जघन्य आंतरो नव वर्षनो जाणवो. * [ २४८ ]. अनुत्तर देवलेोकना देवता चवीने वीजे उत्पन्न थाय, अने पाछा स्वस्थाने आवी उपजे तेनी बच्चेनो उत्कृष्ट आंतरी एक सागरोपम अने संख्याता काळनो अने जघन्य आंत नव वर्षनो जाणे. * [ २४९ ]. देवतानां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानने लइने हजारो भेद पडी शके. [२५० ]. उपर प्रमाणे संसारी अने सिद्ध जीवोना भेद छे, तेमज रुपी, अरुपी अजीवना भेद पण वर्णव्या छे. [२१]. * अवे गाथाओ प्रो. जेकोबीए पडती मूकी छ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -tu ६ इइ जीव मजीवेय सोच्चा सहहिऊणय । सव्य नयाण अणुमए रमेज्जा संजमे मुणी ॥२५२॥ तओ बहूणि वासाणि स.अ. सामन्न मणुपालिया। इमेण कम्म जोगेणं अप्पाणं संलिहे मुणी ॥ २५३ ॥ बारसेवउ वासाइं सलेहु कोसिया भवे । संवकर मझमिया छम्मासाय जहन्निया ॥२५४॥ पढमे वास चउक्कंमि विगई निज्जूहणं करे । विइए वास चउक्कमि विचित्तंतु तवं चरे ॥ २५५ ॥ एगंतर मायाम कट्ठ संवरे दुवे । तओ संवछुरद्धंतु नाइविगिळं तवं चरे ॥२५६॥ तओ संवछुरहंतु बिगिळंतु तवं चरे । परिमियं चेव आयामं तंमि संवरे करे ॥ २५७ ॥ कोडीसहिय मायाम कट्ट संवछुरे मुणी । मासहमासिएणंतु आहारेणं तवंचरे ॥ २५८ ॥ कंदप्प माभि ओगं किदिवसियं मोह ar• मासुरतंच । एयाओ दुग्गईओ मरणमि विराहिया होतं ॥२५९॥ उपर प्रमाणे जीव अने अजीवना भेद गुरु पासथी सांभळीने ते उपर श्रध्धा राखीने मुानेए संयमने विपे विचर. [२५२] घणां वर्षसुधी संयम (चारित्र) पाळ्या बाद, मुनिए तपवडे नीचे प्रमाणे संलेखणा आदरवी, (कायाने कृश करवी). [२५३]. संलेखणानी उत्कृष्ट मुदत बार वर्षनी, मध्यम एक वर्षनी, अने टुंकामा टुंकी मुदत छ मासनी छे. [२५४]. पहेला चार वर्षने विष विगयनो त्याग करीने आंबिल, नीवी करे; बीजा चार वर्षने विषे जात जातना तप (छट्ट, आठमादि) आदरे. [२५५]. पछी वे वर्ष सुधी एकांतर उपवास अने पारणे आंबिल करे अने छेल्ला छ मासमां काइ कठिन तप न आदरे,(आम साडा दश वर्ष थाय).[२५६]. त्यारपछीना छ मासमां आकरा तप करे अने परिमि आंबिल करे. [२५७]. छल्ला वर्षमा मासखमग अने अर्थ मासखमणना तप al करे अने आहारनो त्याग करीने अणसणरुप तप करे. [२५८. कन्दर्प भावना, अभियोग्य भावना, किल्विषी भावना, मोह भावना, 18 अने असुरत्व भावना ए पांच भयंकर भावना पैकी कोइ भावना मरण समये उपजे तो दुर्गतिना कारण रुप थइ पडे छे. [२५९]. Last selfmortification which is to end with death. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.अ. AMRIERamana मिटा दसण रत्ता सन्नि याणाहु हिंसगा । इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुलहा वोही ॥२६०॥ सम्मइंसण रत्ता अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा सुलहा तेसिं भवे बोही ॥ २६१ ॥ मिला दसण रचा सनियाणा किन्हलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा तेसिंपुग दुल्लहा बेहि ॥२६२॥ जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करंति भावणं । अमला असं किलिछा ते होति परित संसारी ॥२६३॥ बाल मरणाणि बहुसो अकाम मरणाणि चेवय । बहुणि मरिहंति तेवराया जिणवयणंजेनयाणति ॥ २६४ ॥ बहु आगम विन्नाणा समाहि मुप्पायगाय गुणग्गाही । एएणं कारणेणं अरिहा आलोयणंसोउं ॥ २६५॥ कंदप्प कोकुइयाई तहसील सहाव हास विगहाहि । विम्हावितोय 81 परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥२६६॥ जे जीव मिथ्या दर्शन ( अन्य धर्म ) मां अनुरक्त रहे छ, ते पार अने जीव हिंसा करे छे अने एवा जीवने भवान्तरे पण जिन धर्मनी प्राप्ति थी दुर्लभ छे. [२६०]. जे जीव सम्पक दर्शन (जिन धर्म)मां अनुरक्त रहे छे ते पाप रूपी मळ रहित अने शुक्ल लेश्यावाला थाय छे अने एवा जीवने मोक्ष सुलभ था पडे छे. [२६१]. जे जीव मिथ्या दर्शनमा अनुरक्त रहे छे, ने पापकर्म करे छे अने कृष्ण लेश्यावाळा याय छे, अने एवा जीवने बोधि (जिन धर्मनी प्राप्ति) दुर्लभ थइ पडे छे. | २६२]. जे जीव जिन बचन (सिद्धांत) मां अनुरक्त रहे छे अने ते प्रमाणे भावथी वर्षे छे ते मळ रहित अने ( मोह मत्सरादि) क्लेश रहित थाय छे अने काळे करीने संसार (जन्म मरण) थी मुक्त थाय छे. [२६३]. जे जीव जिन वचनने विषे श्रद्धा राखतो नथी ते वारंवार अकाम मरणने पामे छे, (जन्म-मरणना फेरा फर्या करे छे). [२६४]. जेओ आगम (सिद्धांतना अर्थ) ने जाणनारा छे, जेनुं ज्ञान विशिष्ट छे, जेओ अन्यने समाधि (श्रद्धा) उपजावी शके छे, अने जेओं अन्यने गुण ग्रहण करावी शके छ (अर्थात-अन्यना दुषण टाळी शके छ) एवा आचार्यो आवो मुक्तिनो मार्ग (आलोचना) सांभळवाने योग्य छे. [२६५]. जेभो हास्य, विकथा, कर्मकथा, कायचेष्टा आदि करीने अन्यने विस्मय पमाडे छे ते कन्दर्प भावना भावे छे. [२६६]. ००००००००००००००००००००००००० 6690000००००००००० 160०००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. अ. ३६ ३४१ मंता जोगं काउं भूई कम्मं च जे पउंजंति । साय रंस इढि हेउं अभिओगं भावणं कुणइ ॥ २६७॥ नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघ साहूणं । माई अवाई किव्विासयं भावणं कुणइ || २६८ || अणुबद्ध रोस पसरो तह निमित्तमि होइ पाडवी । एएहिं कारणे हिं आसुरियं भावणं कुणइ ॥ २६९ ॥ सध्यग्गहणं विसभख्खणं च जलणं च जलपवेसीथ । अणायार भंड सेवी जम्मण मरणाणि बंधति ॥ २७० ॥ इइ पाउ करे बुद्धे नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरझाए भवसिद्धिय सम्मएत्तिबेमि || २७१ । जीवाजीव विभत्तिझयणं सम्मतं ॥ ३६ ॥ • ओ मंत्र प्रयोग करे छे अने पोतानां सुख, आनंद अने प्राप्तिने अर्थे शरीरे राख वगेरे चोळे छे ते अभियोग्य भावना भावे छे. [२६७]. जे मूर्ख जीवो ज्ञाननी, केवलानी, धर्माचार्यनी, संघनी अने साधुनी अशातना (निंदा) करे छे ते किल्विष भावना भावे छे. [२६८ ]. जेओ हमेशां क्रोध करे छे अने जेओ शुभाशुभ भविष्य भाखे छे ते आसुरी भावना भावे छे. [२६९ ]. जेओ आत्म वध करवाने, शस्त्र वापरे छे, विषपान करे हे, जळ अथवा अग्निमां प्रवेश करे छे अने अनाचार आदरे छे, तेओ जन्म-मरणना छे, अर्थात अनंता भव वांधे छे. (अने मोह भावना भावे छे). [२७०]. ज्ञाता अने निर्वाण पहोंचेला श्री महाविर भगवान उपर प्रमाणे श्री उत्तराध्ययन सूत्रना छत्रीस अध्ययन प्रकट की छे जे श्रवण करवाथी भव्य जीव भवसिद्धिने पामे छे. [२७१] .* आ प्रमाणे सुधर्मा स्वामी जंबु स्वामीने कहे छे. * प्रो. जेकेोवी कृत भाषान्तरमां २६७ गाथा छे. सूत्रमां २७२ गाथा छे, पण कोइ स्थळे अनुक्रम आपवामां सरत चूक थली छे तेथी कुल गाथा २७१ थाय छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jareibrary.org Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ad S xderstudio HASSES NA श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र समाप्त. SHNA - - KESH sax an Educationa intematonal For Personal and Private Use Only