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________________ उ.अ. ३२ २८६ तओसे गयंति पओयणाई निमिज्जिउं मोहमहन्नवंमि सुहेसिणो दुख्ख विणोयणठा तप्पच्चयं उज्जमएय रागी ॥१०५॥ विरज्जमाणस्सय इंदियश्था सद्दाइया तावइय प्पगारा । न तस्स सव्वेवि मणुन्नयंवा निव्बत्तयंती अमणुन्नयंवा ॥१०६॥ एवंस संकप्पविकप्पणासु संजायई समय मुवठियरस । अथ्थेय संकप्पओ तओ से पही यप काम गुणेसु तन्हा ॥ १०७ ॥ स वीयरागोकय सव्व किच्चो खवेइ नाणावरणं खणेणं । तहेब जं दरिसण सावरेइ जचं | तरायं पकरेइ कम्म।।१०८॥ सव्वं तओ जाणइ पासएय अमोहणे होइ निरंतराए । अणासवे भाण समाहि जुत्तेआ १ उख्खए मोख्ख मुवेइ सुडो ॥१०९॥ इन्द्रिय सुखनी अभिलाषाथी जीव मोह समुद्रने विषे डूबी दुःखथी दूर रहेवाने अनेक युक्ति प्रयुक्ति रचे छे अने ए निमित्ते रागी द्वेषी जीव [हिंसादिक उद्यम आदरे छे.[१०]. इन्द्रिय अने शब्दादिक शब्द, रुप, रस, गंध, स्पादि] विषयो वीरागी (विरक्त) पुरुषने राग द्वेष उपजावी शक्ता नथी. (१०६). राग द्वेषादि संकल्प-विकल्प एज समस्त दोषनां मूळ छे, एवी भावनाने विष प्रवर्त्तनारने संपूर्ण समता [ समत्वपणुं] प्राप्त थाय छे. ज्यारे इन्द्रिय अने शब्दादि वस्तुनी तृष्णा ओछां थाय छे, त्यारे भोग भोगववानी तृष्णा बंध पडे छे. (१०७). आवी तृष्णाओने त्यजनार वीतराग जे सर्व कार्य सिद्ध करे छे ते क्षण मात्रमा ज्ञानावर णीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय कर्म सर्व खपावी दे छे. [१०८]. [कर्म खपाव्या] पछी ते ज्ञान वडे सर्व लोकालोकने देखी 18| शके छ, ते मोहनी कर्म अने अंतराय कर्म रहित थाय छे, तेनां आश्रय (पाप) दूर थाय छे अने ते शुद्ध शुक्ल ध्यान* अने समाधि ग्रस्त थइने, आयुष्य खपावीने, मोक्ष प्राप्त करे छे. (१०९). ०००००००००००००००० *He is proficient in meditation and concentration of thoughts. .. Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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