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________________ 2004 १२० - उ.अ.] इइपाउकरे बुद्धेनायए परिनिव्वुए । विज्जाचरण संपन्ने सच्चेसच्च परक्कमे॥२४॥ पडंति भरएघोरे जेनरा पावकारिणो। दिव्यंच गई गछंति चरित्ता धम्ममारियं ॥ २५ ॥ माया बुइय मेयंतु मुप्ता भासा निरश्थिया । संजममाणोवि अहं वसामि इरियामिय ॥ २६ ॥ सव्वेते वेइया मझं मिछादठ्ठी अणारिया । विज्जमाणे परेलोए सम्म जाणामि अप्पयं ॥ २७ ॥ अह मासी महापाणे जइमं वरिस सओवमे । जा सा पाली महापाली दिवा वरिस सओवमे ॥ २८ ॥ "तत्वना जाण, महाबुद्धिमान, मोक्षने पामेला, विद्या चरण संपन्न, सत्यवचन वादी अने सत्य पराक्रमी श्री महावीर भगवाने आ प्रमाणे भाख्युं छे:-[२४]. "जे मनुष्यो पाप करेछे ते घोर नरकमां पडेछे; पण मेओ पवित्र धर्म-मागने पि विचरेछे तेओ उत्तम दिव्य गतिने पामेछ. [२५]. "क्रिया, अक्रिया, विनय अने अज्ञान वादीओनां ए कपट-वचन असत्य अने निरर्थकछे तेटला माटे तेवाओनी असत्य प्ररुपणाथी निवर्तिने हुं संयम मार्गे प्रवर्तु छं.[२६]. "ए सर्वेवाद मिथ्या छ ए हुं जाणुं छु, परलोक (पुनर्जन्म) विद्यमान छे ए पण हुँ जाणुछ अने मारा आत्माने हुं ओळ छं.२७), "पांचमां ब्रह्मलोकने विषे महाप्राण विमाने हुं महा धुतिमान (तेजस्वी) देवता हतो; अने आ लोके शत् वर्षनो मनुष्य वृद्ध कहेवाय छ तेवी वृद्धावस्थाने हुं प्राप्त थयो हतो. 5 पण देवता संबंधीना शत् वर्ष पालीर अने महापाली जेवा बहुज लांबा होय छे. [२८]. १. Conversant with the sacred lore and good conduct. २. पल्योपम-चार गाउ लांबा प्होळा कुवामा वाटना बारीक टूकडाओ भरी, अमुक मुदते एक एक टूकडो काढवाना अति लांबा वखतने पल्योपम कहेवामां आवे छे. अर्थात असंख्याता वर्ष आपणे कहीशुं तो चालशे. संस्कृतमां पाली शदनो अर्थ 'हद-सीमा' थइ शके छे. ३.सागरोपम-दश कोडा कोडी पल्योपमे एक सागरोपम थायछे. जैन सूत्रोमां कहेलु काळy कोष्टक जाणवा जवूछे. आ सूत्रना ७मा अध्ययनमा पूर्व' ने लगतुं कोष्टक आपेल छे. अहिं एक बीजू कोष्टक आपीशुं. अति सुक्ष्म काळने एक समय कहे छे. असंख्याता समये एक आकलिका थाय. एवी १६७७७२१६ आवलिकानुं एक मुहूर्त. त्रीश मुहूर्तनो एक दिवस-अहोरात्रि. ७०५६०००००००००० वर्षे एक पूर्व थाय. एवा असंख्याता पूर्वे एक पल्योपम थाय. दश कोडा कोडी पल्योपभे एक सागरोपम. दश कोडा कोडी सागरोपमें एक अवसर्पिणी अने, उत्सर्पिणी थाय. ए अवसर्पिणी उत्सर्पिणी मली एक काळ चक्र थाय. अनंता काळ चक्रे एक पुद्गल परावर्त थाय. आ काळ-= Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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