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________________ उ.अ. ००००००००००००००००००००० 00000000000 रसापगाम न निसेवियचा पायं रसा दित्ति करा नराणं । दित्तं च कामा समतिढुवंति दुमं जहा सादु फलंब पख्खो॥१०॥ जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ । एविंदियग्गीवि पगाम भोइणो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ ११ ॥ विवित्त सेज्जासण जंतियाणं ओमासणाणं दमिइंदियाणं । न राग सत्तू धरिसेइ चित्तं पराइओ वाहिरिवो सहेहिं ॥ १२ ॥ जहा विराला वसहस्स मूले न मूसगाणं वसही पसथ्था । एमेव इथ्थी निलयस्स मझे न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥ १३ ॥ न रूव लावन्न विलास हासं न जंपियं इंगियपेहियंवा । इथ्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दळु ववरसे समणे तबस्सी ॥ १४ ॥ रस [घृतादि विगय] घणा सेववा नहि. कारणके रस सेववाथी मनुष्य दीप्तिकर [वीर्यवान-उन्मादि] बने छे, अने जेम पक्षीओ स्वादिष्ठ फळवाळां वृक्ष उपर धसी आवे छे, तेम वीर्यवान मनुष्य उपर काम धसी आवे छे.*(१०) जेम काष्टथी भरेला वनने विषे पवनना झपाटा साथे लागेलो अग्नि बुझातो नयी तेम पचेंद्रिय रुपी अग्नि मनवांछित-उन्मादि आहार करनार ब्रह्मचारीने हितकारक नीवडतो नथी. (११). निदूषण (स्त्री, पशु, पंडक रहित ) शयन, उपाश्रय अने आसन सेवनारनो, उणो आहार करनारनो, अने इंद्रियोने दमनार साधुना चित्तनो रागरुपी शत्रु पराभव करी शकतो नथी जेम औपध रोगनो पराभव करे छे तेम. [१२]. ज्यां बिलाडां वसतां होय त्या जेम उंदरने रहे सलामत नथी तेम ज्या स्त्रीयो वसती होय त्यां ब्रह्मचारीने वसवु सलामत नथी, (१३). तपस्वी साधुए स्त्रीनां रुप, लावण्य, विलास, हास्य, वचन, अंगनुं मोडवू अने कटाक्ष-कुदृष्टि तरफ नजर करवी नहि, तेमज पोताना चित्तने विषे तेनी याददास्त राखवी नहि. [१४]. ____* लशण, डुंगळी, पटाटां वीगेरे उन्मादी आहार वर्जवाथी जीवदया उपरांत मन शान्त अने विषय बीरक्त बने छे. अन्न एg | मन-ए सिद्धांत अहिं सत्य ठरे छे. Jain Education International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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