SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ...] अणुनए नावणए महेसीनयाविपूयंगरहंच संजए । सेउज्जुभाव पडिवज्ज संजए निव्वाणमग्गं विरएउवेइ ॥२०॥ २१|| अरइरइ सहेपहीणसंथवे विरए आयहिए पहाणवं परमठ्ठप एहि चिठ्ठई छिन्नसोए अममे अकिंच॥ ॥ २१ ॥ 18| विवित्त लयणाई भएज्जताई निरोवलेवाइं असं घडाइं इसीहिं चिन्नाइं नहायसेहिंकाएण फासेज परिसहाई ॥२२॥ सन्माण नाणोवगओ महेसी अणुत्तांचरिओ धम्मसंचयं अणुत्तरेनाणधरेजसंसी । उभासईसूरिएवंतरिख्खे ॥ २३ ॥ महर्षि अभिमानथी अति उच्च, अथवा आतेदीन थता नथी; पोतानी स्तुतिथी हर्ष पामता नथी, अने निंदाथी दुःख आणता 18 नथी. उन्नत अने अवनत भाव रहित [ अथवा विरक्त थयेल] साधु [समुद्रपाल] पोतानी सरळताए करीने निर्वाण-मार्गने प्राप्त करी शकशे. [२०]. विद्वान साधु रति अरति सहन करे छे, कोइनो परिचय सेवतो नथी, सर्व वस्तुथी विरक्त रहे छे, पोताना | आत्मानु हित विचारे छे अने संयम सहित परमार्थ पदे [ मोक्ष मार्गे] विचरे छ; अने शोक, ममत्व तथा परिग्रहथी मुक्त रहे छे. [२१]. *जीवदया प्रतिपाल साधु एकान्त, निर्लेप अने जीव जंतु रहित उपाश्रयने सेवे छे* अने महर्षिओए सहन करेला सर्व परिसह कायाये करीने सहे छे. (२२). महर्षि समुद्रपाल ज्ञान-बोध श्रवण करीने अने सर्वोत्तम चारित्र संपूर्ण रीते पाळीने, जेम आकाशमां सूर्य वीराजे छे, तेम ते केवळ ज्ञान अने तपना प्रभावे करीने बीराजवा लाग्या. [२३]. * आने बदले प्रो. जेकोबी एवो वाक्यार्थ करे छ के ' दयाळु साधुए बीजा साधुओथी दूर पोतानी शय्या करवी जोइए, जे शय्या तेने माटे खास तैयार करेली अने जीवजंतु वाळा पदार्थोनी बनेली न होवी जोइए !'. १. साधुओने माटे खास साफ 18/ करेल न होय एवो भावार्थ कोइ टीकामांथी मळे छे, Jain Education intomational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy