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कारण एणा छे के ऐहिक सुख एज जिंदगीभुं सार्थक मनावा लाग्युं छे अने संसार- विषय-वासनानी तृप्ति साधवान तन, मननी तमाम शक्तिओनो उपयोग पण एज मार्गे थतो जणाय छे, स्वधर्मनी अज्ञानता अने पायात्य प्रजाना रीत-रीवाज अने रहेणी कणीना अनुकरणं ए परिणाम छे एम कहीए तो खोडं नथी.
गृह अने शाळानां अपाती केळवणीमांथी धार्मिक शिक्षणनो बहिष्कार अने प्रचलित भाषामा धर्म-पुस्तकोनां भाषान्तरोनो अभाव ए पण धर्मनी अवनतिनां अन्य कारणी छे.
ए गैर समज दूर करवाने ज्ञाननो प्रसार एज मात्र एक उपाय छे. जीव दया याने प्राणी मात्र प्रति भ्रातृभाव उपर रचायेला जैन धर्मनो पायो अति उंडो अने सुद्दढ छे. आत्मवत् जगतने जोनार प्राणी समजे छे के सकळ सृष्टि एकज शरीर रुप छे अने मां वसतां प्राणीओ तेनां अवयव रुप छे; अने तेथी तेमांना एकाद अवयवने इजा करतां आखा शरीरने व्यथा पहोंचे छे अने तेनां परिणाम तमाम अवयवने भोगवव पडे छे. धर्मनो आवो प्रौढ अने उच्च सिद्धान्त होवा छतां जैन कुळमां जन्मल तरीके ओळखावनार केटलाकनुं वर्त्तन एथी विपरित जोवामां आवे छे तेनुं कारण शुं ? कारण मानी लीघेलो स्वार्थ अने अज्ञानता. आपणे हाथे थती प्रत्येक भूल, अपराध अने पापनुं मूळ तपासीशुं तो स्वार्थ सिवाय वीजं भाग्येज हशे अने ए स्वार्थ बुद्धि उत्पा स्थान अज्ञानताज छे. तेटलाज मांटे जैनधर्मनां पुस्तकोमा फरमान्युं छे के प्रथम ज्ञान अने पछी दया. डंडो विचार करी जोवाथी जणाशे के अन्यना भोगे पोतानो स्वार्थ साधनार अज्ञानी पामर प्राणीज हो. अर्थात ते स्वार्थ-परायण के कारण के ते अज्ञान ले.
विचार ए एक प्रबळ शक्ति छे. वाणी अने कर्म एतो मात्र विचार वृक्षनी शाखाओ छे. प्राणी मात्र तरफ प्रेमभावना विचार वृक्ष प्रेमन, अने द्वेषभावना विचार वृक्षने द्वेषनां फळ लागे ए कुदरतना निर्विकल्प नियम छे. तेला माटे काम, क्रोध, लोभ, माहे मदादिने विचारमां पण स्थान आप ए केवळ अज्ञानी मनुष्यतुं काम छे. पशु पक्षी ओ तरफ दर्शावेलो प्रेमभाव पण व्यर्थ नयी जतो, तो पछी मनुष्य तरफनो ए भाव निरर्थक नज जाय ए वात स्वतः- सिद्ध छे अने सुख अने शान्तिनो एज साचो मार्ग छे अने जैन धर्मनी पण एज प्ररूपणा छ.
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