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________________ उ.अ.का ०००००००००००००००००००००००० | आयरिय परिव्वाई परपासंड सेवए । गाणं गणिए दुम्भुए पावसमणेत्ति बुझाई ॥ १७ ॥ सयंगेहं परिष्वज्ज परगेहं | सिवावरे । निमित्तणय ववहरइ पावसमणत्ति बुच्चई ॥१८॥ सणाइ पिंडंजेमेइ ने इ सामुदाणियं । गिहिनिसेजंच- । वाहेइ पावसमणोत्ति वुच्चाई ॥१९॥ एयारिसेपंचकुसील संवुडे रुबंधरे मुणीपव राणहिछिमे। अयंसिलोए विसमेवगरहिए नसेइहनेव परथ्थलोए ।॥२०॥ जेवज्जए एएसयाओ दोसे सेसुव्वए होइ मुणीणमझे । अयंसिलोए अमयंवपइए आराहए दुहओ लोगनिणं तहापरं तिबेमि ॥ २१ ॥ ॐ ॥ इति पावसमणीयं झयणं सत्तरसंम सम्मत्तं ।। १७ ॥ जे साधु पोताना आचार्यनो परित्याग करीने परदर्शननी सेवा करे, अने छ, छ मासे (वारंवार) नवा नवा गच्छमां दाखल थाय, एवो दराचारी साध पाप श्रमण कहेवाय. [१७]. जे साधु पोतार्नु घर त्यागीने (दिक्षा लइने) पारके घेर काम करे, (अर्थात व्यवहारमा मच्यो रहे ), अने द्रव्य उपार्जन करवाने निमित्त प्रकाशे (शुभाशुभ भविष्य भांखे) ते पाप श्रमण कहेवाय.[१८]. जे साथ पातानां सगांवहलाने त्यांथी आहार लावीने जमे अने घरोघर भिक्षा मागवानुं पसंद न करे, अने ग्रहस्थने त्यां जहने तेनां (पलंगादि) आसने बेसे ते पाप श्रमण कहेवाय [१९]. आवा पंच-कुशील (पंच महावृतनो भंग करनार ) वेष धारी साधुओ अन्य । मनिवरोमां अधम गणायछे, आ लोकमां तेओ विषनी माफक निंदाय छे, परलोके सिद्धिने पामता नथी अने उभय भ्रष्ट्र थायछे. (२०). पण जे साध आ सर्व दोषने वर्जे छे अने अन्य मुनिवरोनी साथे रहीने सदाचारथी वर्तेछे, ते आ जगतमां अमृतनी माफक पूजायछे, अने आ लोक तथा परलोक साधी शकेछे. [२१]. * ॥ सत्तरमुं अध्ययन संपूर्ण ॥ * 20०००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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