SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उ.अ.का ३०५ 36 विसप्पे सव्वओ धारे बहुपाणि विणासणे । नथ्थि जोइ समे सथ्थे तम्हा जोइं नदी वए ॥१२॥ हिरन्नं जावी | रूवंच मणसावि नपथ्थए । समले कंचणे भिखू विरए कय विक्कए ॥ १३ ॥ किणतो कइओ होइ विकणंतोय । वाणिओ । कय विक्कयंमि बट्टतो भिख्खू न हबइ तारिसो ॥१४॥ भिख्खियव्वं नकेयव्वं भिख्खुणा भिख्खुवित्तिणा । कय विक्कओ महादोसो भिख्खावित्ती सुहावहा ॥१५॥ समुयाणं उंछ मेसेज्जा जहा सुत्त मणिंदियं । लाभा लाभमि संतुढे पिंडवायं चरे मुणी ॥१६॥ अलोले न रसे गिद्धे जिम्भा दंते अमुछिए । न रसठाए मुंजेजा जवणठाए | महामुणी ॥१७॥ अच्चणं सेवणंचेव वंदणं पूयणं तहा। इढ़ी सक्कार सम्माणं मणसावि न पथ्थए ॥१८॥ ___ अनि जे विनाशनुं बीजु कोइ शस्त्र नथी, कारण के ते सर्व दिशामां पथराइने घणा जीवनो नाश करे छे. तेटला माटे साधुए आग्नि सळगाववो नहि. (१२), साधुए सोना रुपानी मनथी पण इच्छा करवी नहि. कांचन अने पाषाणने समान गणीने साधुए क्रयविक्रयथी [ लेवा-वेचवाथी ] दूर रहे. (१३) मूल्य आपी वस्तु लेवाथी ते ग्राहक बनेछे, अने मूल्य लइ वस्तु वेचवाथी ते वाणिओ [वेपारी बनेछे. क्रय-विक्रय सूत्र प्रमाणे] साधुनुं लक्षण नथी. (१४). भिक्षावृत्तिथी पेट भरनारनुं नाम भिक्षुक [साधु]; माटे भिक्षुके [ साधुए] भिक्षा मागवी जोइए; मूल्य आपीने लेबु न जोइए, क्रय-विक्रय महान दोषछे, परंतु भिक्षावृत्ति सुखने आपनारछे. (१५). साधुए घणां घाना समुदायमाथी थोडी थोडी दोषरहित भिक्षा सूत्रोक्त रीते लेवी. भिक्षाना लाभालाभथी [भिक्षा मळे या न मळे तेथी] संतोष मानीने साधुए भिक्षावृत्तिने माटे फर जोइए. (१६). महा निए सरस आहारनी तीव्र अभिलाषा करवी नहि पोतानां जीभ अने दांतने वश राखवां अने भोजननो [घी, गोळ वगेरेनो] संचय करवो [वाशी राखवा] नहि. कारणके आहार संयम निर्वाहने अर्थेछे, स्वादने माटे नथी. (१७). पुष्पवडे पूजा, आसनवडे सत्कार, वंदणा, पूजन, [ वस्त्रपात्रादिनी] भेट, अथवा सत्कार अने सन्माननी साधुए मनथी पण इच्छा करवी नहि. (१८). ..... Jain Education Intomational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy