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________________ * ॥ ॐ असिआउसाय नमः ॥ ॐ श्री उत्तराध्ययन सूत्र मूळ, भाषान्तर तथा टीका. अध्ययन १. *विनय संजोगा विप्प मुक्करस अणगारस्स भिख्खूणो । विणयं पाउ करिस्सामि आणुपुचि सुणेह मे ॥१॥ आणा निद्दे स करे गुरूण मुववाय कारए इंगिया गार संपन्ने सेविणीएत्ति वुच्चई ॥२॥ ४ जेणे बाह्य संयोगो (धन, धान्य, पुत्र, कलत्रादि) तथा अभ्यंतर सयोगो [ मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ वगेरे ] नो त्याग करेलो छे, एवा घर रहित साधुनो विनय अनुक्रमे प्रकट करुं हुं ते सांभळो.[१]. गुरुनी आज्ञा प्रमाण करनार, गुरुनी वृत्ति 18| अने चेष्टारना जाणपणा सहित, गुरुनी दृष्टि अने वचनने विषे रहेला कार्यनो करनार शिष्य विनित कहेवाय. [२]. * विनयथी मोक्ष मार्ग सधाय छ, जैन धर्म, विनय मूळ छ :-धीरे कारणोथी विनयने अत्र प्राधान्य आपेलछे, अन्य १ सूत्रोमां पण विनयन अधिक अगत्य आपवामां आवी छे. “ विणओसासगेमूलं, विणोनिव्वाणसाहगो, विणयाओविष्पमुक्कस्स कओधम्मोकोतवो. विणयाओनाणं नाणाओदंसणंचरणेहिं." वीगेरे घणां प्रमाणो अनुमोदन माटे मळी शके छे. १. संयोगनो खुल्लो अर्थ परिग्रह छे. २. प्रोफेसर हर्मन जेकोबी आ गाथानो अर्थ करेछे के :-"A monk who,on receiving an order from his superior, walks upto him, watching his nods and motions, is called well-behaved." Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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