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________________ .०००००० स.अ. वीयरागयाएणं भंते जीवे कि जणयह वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणिय तएहाणु बंधणाणिय बोछिदइ मणुणा मणुणेसु सदफरिस रसरुव गंधेमु चेव विरज्जइ ॥ ४५ ॥ खंतीएणं भंते जीवे किं जणयइ । खंतीएणं परीसहे जिणयइ ॥ ४६॥ मुत्तीएणं भंते जीवे किं जणयइ । मुत्तीएणं अकिंचणं जणयई। अकिंचणेय जिवे अथ लोलाणंपुरिसाणं अप्पथ्थणिज्जे हवई ॥ ४७ ॥ अज्जवयाएणं भंते जीवे कि जणयइ अजवयाएणं काउजययं भावजूययं भासुजूययं । आविसंवायणंजणयइ अविसंवायण संपन्नयाणं जीवे धम्मस्सु आराहए भवइ ॥ ४८ ॥ महवयाएणं भंते जीवे किं जणयइ महवयाएणं अणुस्सियसं जणयइ अणुस्सियत्तेणं जीवे मिउमहव संपन्ने अठमयठाणाई निठवेइ ॥ ४९ ॥ ४५. वीतरागता एटले राग द्वेष रहित थवाथी जीव स्नेह अने तृष्णानां बंधन छेदी शके छ; अने शुभाशुभ शब्द, स्पर्श, रस, 18] रूप अने गंधथी विरक्त थाय छे.[४५]. ४६.शान्ति एटले क्षमा राखवाथी जीव परिसहने जीती शके छे,(४६). ४७. मुक्ति एटले निर्लोभताथी जीव अकिंचनता(परिग्रहरहितपणु) उपार्जे छ; अने एवो अकिंचन एटले अर्थरहित जीव द्रव्यार्थी लोको चौर वगेरे] 18 ने अप्रार्थनीय थाय छे.* [४७]. ४८. आर्जव एटले सरलताथी जीव कायानी [ अथवा कार्यनी ], भावनी अने भाषानी सरलता माप्त करी शके हे, अने अविसम्वाद (सत्य-शीलता) पामे छ; अने अविसंवाद संपन्न जीव धर्मनो आराधक बने छे. [४८]. ४९. मार्दव एटले निराभिमानथी जीव अहंकारनो अभाव उपाजे छे अने एवो मान त्यागी जीव मृदु अने कोमल स्वभावनो थाय छे, अने अष्ट। मद् स्थाननो क्षय करी शके छे. [४९]. * आने बदले प्रो. जेकोबी एवो अर्थ करे छ के 'द्रव्यनी इच्छाने वश थतो नथी.' १ आठ मद-जाती मद, कूळ मद, तप मद, रुप मद, बळ मद, लाभ मद, ज्ञान मद अने ऐश्वये मद. ०००००००००००००००००००००००००० 3.०००००००००००००००००००००० Jain Education Interational For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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