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________________ उ. अ. २० १६२ नतं अरीकंठछेत्ता करेइ जंसेकरे अप्पणिया दुरप्पया सेनाहई मच्धुमहंतु पते पाणुतावेण दयाविहृणो ॥ ४८ ॥ निरठ्ठिया निग्गरुई तस्सजेउत्तमठ्ठे विवज्जासमेई । इमेविसेनथि परेविलोए दुहओ विसेखिझइतथ्थ लोगे ॥३॥ एमेवहा छंदकुसीलरूवे मग्गविराहित्तु जिणुत्तमाणं कुररी विवाभोग रसाणुगिन्छा निरनुसोयापरि यावमेइ || ५० ॥ सोचाण महाविसुभासि इमं अणुसासणं नाणगुणो बवेयं । मग्गं कुसीलाण जहायसव्वं महानियं ठाण वएपणं ॥ ५१ ॥ वरित्तमायार गुणण्णिएतओ अणुत्तरं संजमपालियाणं । निरासवेसंख्खवियाणकम्मं उवेइठाणं विउलुत्तमं धुवं ॥ ५२॥ [दुरात्मता [ दुष्टाचार ] जे दुःख उपजावे छे तेवं दुःख गळु वाढनार बेरी पण उपजावी शकतो नथी १ दयारहित मनुष्यने मरण समये पश्चाताप थाय छे. [४८ ]. “ जे साधु संयमरुपी उत्तम मार्गने विषे विपरीत गतिथी बर्ते छे, तेनुं चारित्र [नग्न-सा ] निष्फळ थाय छे; ते आ लोक के परलोक साधी शकतो नथी, अने उभय लोकनां सुखधी भ्रष्ट थाय छे. [४९]. " आ प्रमाण जे स्वच्छंदी, कुशील साधु उत्तम जिन-मार्ग विराधीने टीटोडीनी पेठे रस-भोगमां ग्रस्त रहे छे, तेने [पछीथी थतो ] शोक, पश्चात्ताप निरर्थक छे. (५०), “ हे पंडित ! हे राजन ! आ शुभाषित अने ज्ञान दर्शन चारित्रना गुणवाळो उपदेश सांभळे छे, ते कुशील मार्ग तजे छे अने महा निग्रंथनो मार्ग सेवे छे. [५१]. “जे कोइ चारित्राचारना गुणे करीने सहित छे, जे सर्वोत्तम संयम पाळे छे, जेणे सर्व आश्रव संध्या छे, र अने जेणे हिंसारहित आठ कर्मने खपाच्यां छे, ते विपुल, उत्तम अने निश्चळ मुक्तिने पामे छे. " [५२]. 66 1. A cut throat enemy will not do him such harm as his own perversity will do him. 2. Who keeps from sinful influences.. The permanent place. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003693
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMehta Mohanlal Damodar
PublisherMehta Mohanlal Damodar
Publication Year
Total Pages352
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size20 MB
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