Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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. तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
सारूप्यकल्पने तत्राप्यनवस्थोदिता न किम् । प्रमाणं ज्ञानमेवास्तु ततो नान्यदिति स्थितम् ॥ ३७॥
बौद्धोंने इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ये चार प्रत्यक्ष माने हैं, तिनमें ज्ञानको जाननेवाले स्वसंवेदन प्रत्यक्षको तदाकारताके विना भी प्रमाण मान लिया गया है। अर्थका आकार ज्ञानमें पड सकता है, ज्ञानमें ज्ञानका नहीं । रुपयासे रुपया वहां ही उसी समय उतना ही नहीं खरीदा जाता है। बौद्धोंने जैनोंके ऊपर कटाक्ष किया है कि ज्ञानमें यदि अर्थका आकार पडना नहीं माना जायगा तो वे अर्थ विना मूल्य देकर खरीदनेवाले ( मुफ्तखोरा ) हैं। क्योंकि प्रत्यक्षमें अपने आकारको नहीं सोंपते हैं और अपना प्रत्यक्ष करालेना चाह रहे हैं, किन्तु खर्ववेदन ज्ञान द्वारा आकारके विना भी ज्ञानका प्रत्यक्ष हो जाना माना है । आचार्य कहते हैं कि तदाकारताके विना मी यदि स्वसंवेदनको प्रमाणपना मानते हो तो - अर्थज्ञानको भी तदाकारताके विना ही प्रमाणपना क्यों न इष्ट करलिया जाय । इसमें परम्परा परिश्रम करना भी छूटता है। क्योंकि ज्ञान और अर्थके बीचमें तदाकारताका प्रवेश नहीं हुआ । यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्षमें भी ज्ञानका आकार पडना मानोगे तो उसको जाननेवाले उसके स्वसंवेदनमें भी तदाकारता माननी पडेगी और उसको भी जाननेवाले तीसरे स्वसंवेदनमें ज्ञानका प्रतिविम्ब मानना पडेगा । इस प्रकार भला अनवस्थाका उदय क्यों नहीं होगा ! बताओ। तिस कारण ज्ञान ही प्रमाण रहो, उससे भिन्न संनिकर्ष, तदाकारता, इन्द्रिय, आदिक तो प्रमाण नहीं हैं यह सिद्धान्त स्थिर हुआ। - स्वसंविदः स्वरूपे प्रमाणत्वं नास्त्येवान्यत्रोपचारादित्ययुक्तं सर्वथा मुख्यप्रमाणाभावप्रसंगात् स्वमतविरोधात् ।
बौद्ध यदि यों कहें कि स्वसंवेदन प्रत्यक्षको ज्ञानका स्वरूप जाननेमें प्रमाणता नहीं है, सिवाय उपचारके, यानी उपचारसे ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाण है । तदाकारता न होनेसे वह मुख्य प्रमाण नहीं माना गया है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तिरहित है। क्योंकि उपचारसे मान लिया गया प्रमाण यदि ज्ञानको जान लेता है, ऐसी दशामें उपचरित प्रमाण भला अर्थीको भी जान लेगा तो फिर मुख्यप्रमाणोंके अभावका प्रसंग होगा और ऐसा होनेपर बौद्धोंको अपने मतसे विरोध आवेगा । बौद्धोंने मुख्य प्रमाण माने हैं और स्वसंबेदनको अपने स्वरूपकी ज्ञप्ति करानेमें मुख्यप्रमाण इष्ट किया है।
प्रामाण्य व्यवहारेण शास्त्र मोहनिवर्तनमिति वचनात् मुख्यप्रमाणाभावे न स्वमतविरोधः सौगतस्येति चेत् स्यादेवं यदि मुख्यं प्रमाणमयं न वदेत् " अज्ञातार्थप्रकाशो वा स्वरूपाधिगतेः परं" इति । , ...
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