Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 664
________________ ६५० सच्चार्य छोकवार्तिके तथा मध्यमा केवलमेव बुध्युपादाना परूपानुपातिनी वक्तृप्राणवृत्तिमतिक्रम्य प्रवर्तमाना निश्चिता " केवलं बुध्युपादाना क्रमरूपानुपातिनी, प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्त्तते " इति वचनात् । पश्यन्ती पुनरविभागा सर्वतः संहृतक्रमा प्रत्येया । सूक्ष्मात्र स्वरूपज्योतिरेवान्तरवभासिनी नित्यावगन्तव्या । " अविभागा तु पश्यंती सर्वतः संहतक्रमा । स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागवभासिनी ॥ १ ॥ " इति वचनात् । ततो न स्याद्वादिनां कल्पयितुं युक्ताश्चतस्रोऽवस्थाः श्रुतस्य वैखर्यादयस्तदनिष्टलक्षणत्वादिति केचित् । अभी कोई विद्वान ही कहें जाते हैं कि तथा इम राद्वाद्वैतवादियोंकी मानी हुयी मध्यमा arit तो केवल बुद्धिको ही उपादान कारण मानकर उत्पन्न होती है । क्रमसे होनेवाले अपने स्वरूप के अनुसार हो रही चली आ रही है, और वक्ताकी प्राणवृत्तिका अतिक्रमण कर प्रवर्त रही निर्णीत हो चुकी है । हमारे दर्शन में यों लिखा है कि केवल बुद्धिको उपादान कारण मानकर उपजी और क्रमरूपसे अनुपात कर रही तथा वासोच्छ्रासकी प्रवृत्तिका अतिक्रमण कर मध्यमा वाणी प्रवर्त रही है । फिर तीसरी पश्यन्ती वाणी तो विभागरहित होती हुयी सब ओरसे वर्ण, पद, आदिके मका संकोच करती हुई समझनी चाहिये और यहां चौथा सूक्ष्मवाक् तो शब्द ब्रह्मस्वरूपकी ज्योतिः (प्रकाश) ही है । वह सूक्ष्मा अन्तरंग में सदा प्रकाश रही नित्य समझनी चाहिये । इन दोनों वाणियोंके लिये हमारे ग्रन्थोंमें इस प्रकार कथन है कि जिसमें सब ओरसे क्रमका उपसंहार किया जा चुका है और विभाग भी जिसमें नहीं है, वह तो पश्यन्ती है, अर्थात्-अकार, ककार आदि वर्ण विभागरहित और वर्ण पदोंके बोलनेके क्रमसे रहित पश्यन्ती है और शब्द ज्योतिः-. स्वरूप ही सूक्ष्मावाणी है, जो कि अन्तरङ्गमें प्रकाश कर रही है । स्याद्वादियोंने तो ऐसी द्रव्यवाक् भाववाकू तो नहीं मानी हैं | तिस कारण स्याद्वादियों के यहां श्रुतकी वैखरी, मध्यमा आदि अवस्थायें कल्पना करने के लिए किया गया पण्डिताईका परिश्रम समुचित नहीं है । क्योंकि जैनोंके माने हुए वचनों के लक्षण हम शब्दाद्वैतवादियोंको इष्ट नहीं हैं। इस प्रकार कोई शब्दानुविद्धवादी कह रहे हैं । * तेऽपि न प्रातीतिकोक्तयः । वैखर्या मध्यमायाश्च श्रोत्रग्राह्यत्व लक्षणानतिक्रमात् । स्थानेषु विवृतो हि वायुर्वक्तॄणां प्राणवृत्तिश्च वर्णत्वं परिग्रहत्यावैखर्याः कारणं । वर्णत्वप-: रिग्रहस्तु लक्षणं स च श्रोत्रग्राह्यत्वपरिणाम एव । इति न किश्चिदनिष्टं । तथा केवला बुद्धिर्वप्राणवृश्यतिक्रमश्च मध्यमायाः कारणं तु लक्षणं क्रमरूमानुपातित्वमेव च तत्र श्रोत्रग्रहणयोग्यत्वाविरुद्धमिति न निराक्रियते । अब आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि वे विद्वान् भी प्रतीतियोंसे युक्त भाषण करनेवाले नहीं है । क्योंकि वैखरी और मध्यमाको शद्ववादियोंने श्रोत्रसे ग्रहण करने योग्य स्वीकार किया है ।

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