Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 665
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः और हम स्याद्वादियोंके यहां पर्यायरूप द्रव्यवाक् भी कर्ण इन्द्रियसे ग्राह्य मानी गयी हैं। अतः कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण करने योग्यपना, इस लक्षणका उल्लंघन नहीं हुआ है । आपने तालु आदि स्थानोंमें फैल रही बायु और वक्ताओंकी श्वासोच्छासप्रवृत्ति ही वर्णपनेको परिग्रहण कर रही वैखरी वाणीके कारण माने हैं। वैखरीका लक्षण वर्णपनेका परिग्रह कर लेना है। और वह तो कान इन्द्रियद्वारा ग्राह्य हो जानापनस्वरूप परिणति ही है । जगत्में फैली हुयीं भाषावर्गणायें या . शब्दयोग्यवर्गणायें पहिले कानोंसे सुनने योग्य नहीं थी, अक्षर पद या ध्वनिरूप :पर्याय धारनेपर वे कानोंसे सुनने योग्य हो जाती हैं। इस प्रकार हमको और तुमको कुछ भी अनिष्ट नहीं है। अर्थात्-हमारी श्रोत्रसे ग्राह्य हो रही पर्यायवाणी और तुम्हारी वैखरीवाणी एकसी मान ली गयी। तथा केवल बुद्धि ही मध्यमाकी उपादान कारण तुमने मानी है और प्राणवृत्तियोंका अतिक्रमण करना तो मध्यमाका निमित्त कारण माना गया है । तथा वर्ण, पद आदिके क्रमसे अपने स्वरूपका अनुगम करना ही यह मध्यमाका लक्षण भी श्रोत्रद्वारा ग्रहण करने योग्यपनसे विरुद्ध नहीं पड़ता है। इस कारण आपकी मध्यमाका निराकरण नहीं किया जाता है । स्याद्वादियोंके यहां पर्यायरूप अन्तजल्पस्वरूप शब्द कानोंसे सुनने योग्य माने हैं । . .' पश्यन्त्याः सर्वतः संहृतक्रमत्वमविभागत्वं च लक्षणं । तच्च यदि सर्वथा तदा प्रमाणविरोधो, वाच्यवाचकविकल्पक्रमविभागयोस्तत्र प्रतिभासनात् । कथंचित्तु संहृतकमत्वमविभागत्वं च तत्रेष्टमेव, युगपदुपयुक्तश्रुतविकल्पानामसम्भवाद्वर्णादिविभागाभावाचा. नुपयुक्तश्रुतविकल्पस्येति । तस्य विकल्पात्मकत्वलक्षणानतिक्रम एव । __ शद्बाद्वैतवादियोंने पश्यन्तीका लक्षण क्रमोंका संहार किया जाना और विभागरहितपना किया है। इस पर हमें पूछना है कि वाणियोंमें वह क्रमका संहार और अविभाग यदि सर्वथा रूपसे माने गये हैं, तब तो प्रमाणोंसे विरोध आवेगा । क्योंकि उन शद्वोंमें विकल्पज्ञानके अनुसार वाच्य और वाचकोंका क्रम तथा वर्ण, पद आदिकोंके विभागोंका प्रतिभास हो रहा देखा जाता है। हां, स्हृत क्रमपना और विभागरहितपना यदि कथंचिद् माना जाय सो तो हमें भी वहां शद्बमें इष्ट ही है। उपयोगको प्राप्त हो रहे श्रुतके अनेक विकल्पोंका एक ही समयमें असम्भव है । सुमेरु पर्वत, ऊर्वलोक, छठे गुणस्थानके भाव, अष्टसहस्री आदिका प्रबोध, युगपत् हो सकता है। किन्तु वाच्य वाचकके क्रमका संहार हो जाता है। भोजन कर रहे या विनोद कर रहे न्यायशास्त्रके वेत्ता विद्वान्में न्यायशास्त्रकी व्युत्पत्ति है । किन्तु श्रुतके विकल्पोंका उपयोगरूप. परिणाम आत्मामें नहीं है । उस अनुपयुक्त हो रहे श्रुतके विकल्पके वर्ण, षद, पंक्ति, आदिका यों विभाग उस समय नहीं है । अतः उस पश्यन्ती वाणीके विकल्पस्वरूपपने लक्षणका हमारी मानी हुयी भाववाणीसे अतिक्रमण कैसे भी नहीं हो पाता है। कथञ्चित् लक्षणैक्य ही है।

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