Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रकाशितोपमा कैचित्सा श्रुतान्न विभिद्यते । शद्वानुयोजनात्तस्याः प्रसिद्धागमवित्तिवत् ॥ ११८ ॥
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एकत्र श्रुतस्यान्यत्र सम्बन्धोतिदेशः । किसी वनवासी पुरुषने ग्रामीणके लिये कहा कि गौके सदृश पशु तो गवयपद द्वारा कहा जाता है। पीछे ग्रामीणने किसी बन या खेतमें रोझको देखा, उस रोझमें जो गौके सदृशपनेका ज्ञान है, वह उपमितिका करण उपमान प्रमाण है । " प्रसिद्ध साधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम् " यह गौतम सूत्र है । गौके सदृश गवय होता है, इस अतिदेश वाक्यके अर्थका किये गये भावनानामक संस्कारवाले पुरुषको फिर कहीं रोझ व्यक्तिमें प्रसिद्ध गौके समान धर्मपनेसे तिस प्रकार "" यह गवय है " इस प्रकार गवय वाचकशद्वकी योजनापूर्वक जो ज्ञान होता है, वह किन्हीं नैयायिक विद्वान् करके उपमानप्रमाण प्रकाशित किया गया है । किन्तु 66 यह गवयपदसे वाच्य है " इस प्रकार हुयी वह उपमा तो श्रुतसे विभिन्न नहीं हो रही है। क्योंकि उस उपमिति शद्वकी अनुयोजना लग रही है। जैसे कि अन्य प्रसिद्ध हो रहे शद्वानुयोगी आगमज्ञान इस श्रुतसे मिन नहीं हैं। भावार्थ - श्रुतमें ही उपमानप्रमाण गर्भित हो जाता है । " श्रुतं शङ्कानुयोजनात् " यह लक्षण यहां घटित हो जाता है ।
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प्रमाणान्तरतायान्तु प्रमाणनियमः
: कुतः ।
संख्या संवेदनादीनां प्रमाणांतरता स्थितौ ॥ ११९ ॥
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यदि उपमान प्रमाणको नियत प्रमाणोंसे न्यारा प्रमाणपना माना जायगा तब तो तुम्हारे यहां प्रमाणोंका नियम कैसे हो सकेगा ? पचास, चाळीस प्रमाण माननेपर भी परिपूर्णता नहीं हो सकेगी । संख्या के ज्ञान, रेखाओंके ज्ञान, आदिकोंको भी न्यारा प्रमाण माननेकी व्यवस्था करनेका प्रसंग होगा । जितने रुपयेकी मनभर ( चालीस सेर ) कोई वस्तु आती है, उतने ही आनोंकी ढाई सेर आवेगी । इस प्रकार
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अतिदेश वाक्यको स्मरण
कर रहा मुनीम अवसरपर परिमित पदार्थोंका गणित लगा लेता है। " नौ सात त्रेसठ " इस प्रकार पहाडेको याद कर संस्कार रखनेवाला विद्यार्थी सात सात की नौ विछीं हुयीं पक्तियोंको देखकर त्रेसठ संख्याका ज्ञान कर लेता है । रेखागणितके नियम अनुसार विष्कम्भके वर्गको दशगुना करनेपर उसका वर्गमूल निकालने से परिधि निकल आती है। ऐसा स्मरण रखता हुआ बालक जम्बूद्वीप लवणसमुद्रकी आदि गोल पदार्थोकी परिधिका ज्ञान करलेता है । किन्तु ये ज्ञान न्यारे प्रमाण तो नहीं माने गये हैं । श्रुतमें गतार्थ हैं ।
प्रत्यक्षं द्यादिविज्ञानमुत्तराधर्यवेदनं ।
स्थविष्ठोरुदविष्ठाल्पलघ्वासन्नादिविच्च चेत् ॥ १२० ॥