Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 674
________________ तत्त्वार्थ शोकार्तिक ... यदि पुनरुपमानोपमेयभावप्रतिपादनपस्त्वेन विषिष्टादुपमानवाक्यादुत्पद्यमानं श्रुता. त्यमाणान्तरमित्यभिनिवेशस्तदा रूप्यरूपकमावादिपतिपादनपरत्वेन ततोऽपि विशिष्टादूपकादिवाक्यादुपजायमानं विज्ञानं मामाणान्तरमनुमन्यतां, तस्यापि स्वविषयप्रमिती साधकतमत्वाद्विसंवादकत्वाभावादममाणत्वायोगात् । ___ यदि फिर नैयायिकोंका इस प्रकार आग्रह होय कि इव, यथा, समान, सदृश, तुल्य आदि शरोंकरके सूचित किये गये उपमान उपमेय भावको प्रतिपादन करनेमें तत्पर होनेके कारण विशेषताओंको धार रहे उपमान वाक्यसे उत्पन्न हो रहा उपमान प्रमाण तो श्रुतसे न्यारा प्रमाण ही है । गौ, गवय, मुख, चन्द, आदि उपमान उपमेयके प्रतिपादक वाक्योंसे अतिशय युक्त चमत्कारी ज्ञान होता है । तब तो हम जैन सिद्धान्ती कहेंगे कि रूपक अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार, सहोक्ति अलंकार युक्त आप्तवाक्यों द्वारा कहे गये सूप्यरूपकमाव, उपमितउपमेयभाव आदिको प्रतिपादन करने में तत्परपना होने के कारण उस उपमान वाक्यसे भी विशिष्ठ हो रहे रूपक, उत्प्रेक्षा, अनन्वय, आदिके वाक्योंसे उत्पन्न हुआ विज्ञान मी न्यारा प्रमाण मानना पीछे आवश्यक पड जायगा। उन रूपक, समासोक्ति आदि वाक्योंद्वारा उत्पम हुये विज्ञानोंको भी अपने विषयकी चमत्कृतिजनक प्रमितिमें साधकतमपना है । विसंवादकपना नहीं है, अतः अप्रमाणपनेका अयोग है । अर्थात्-वे रूपक आदि वाक्योंसे उत्पन्न ज्ञान अवश्य प्रमाण है । सैकडों अर्थालंकारोंके एक देश उपमालंकारयुक्त वाक्य जन्य ज्ञानको यदि एक खतंत्र प्रमाण मान लिया जायगा तो शेष बहुमाग अलंकार युक्त वाक्योंसे उत्पन्न हुये ज्ञान भी न्यारा न्यारा प्रमाणपना चाहेंगे। स्वयोग्य पिता अपने न्यायमार्गी पुत्रोंको धन बांटनेमें पक्षपात नहीं कर सकता है। अन्यथा धर्माधिकारी राजा द्वारा वह दण्डनीय होगा। ___अथ रूपकायलंकारभाजोऽपि वाक्यविशेषादुपजातमर्यज्ञानं श्रुतमेव प्रवचनमूलत्वाविशेषादिति मतिस्तदोपमानवाक्योपजनितमपि वेदनं श्रुतज्ञानमभ्युपगन्तव्यं तत एवेत्यलं प्रपंचेन । इसपर नये ढंगसे नैयायिक यदि यों कहें कि रूपक, प्रतिवस्तु, उपमा, आदिक अलंकारोंको धारनेवाले भी वाक्य विशेषोंसे उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान तो श्रुत ही है । क्योंकि प्रवचनको मूल कारण मानकर उत्पन्न हुआ ज्ञानपना उक्त ज्ञानोंमें विशेषताबोंसे रहित है। जिनके प्रकृष्ट वचन हैं, उन आप्त पुरुषोंके द्वारा उच्चारित किये गये वचनोंके निमित्तसे रूपक आदि उपाधियोंसे युक्त ज्ञान हो जाते हैं । प्रकृष्टं वचनं यस्य ऐसा विग्रह करनेसे उक्त अर्थ निकलता है अथवा प्रकृष्टं वचनं प्रवचनं ऐसी वृत्ति करनेपर वाक्यद्वारा ही रूपक आदि सहित अोके ज्ञान हो जाते हैं । अर्थात्" श्रुतस्कंधे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्", यहां मनरूपी बन्दरको श्रुतरूपी स्कन्ध ( पीढि ) में रमण कराओ। यह रूपक है, मुख मानू चंद्र ही है, आरोग्यआरोपक मावसे आक्रान्त हो रहे

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