Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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श्रुतज्ञान के प्रदोंकी भले प्रकार सिद्धि हो जानेसे सम्पूर्ण प्रतिवादियोंके दूषित खोटे मतोंका समुदाय निराकृत कर दिया है। ऐसे परोक्ष प्रमाणका " आधे परोक्षम् " और " मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता " यहां से लेकर " श्रुतं मतिपूर्व द्यनेकद्वादशभेदम् " यहांतक तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में भले ढंग से श्री उमास्वामी महाराजने निरूपण किया है। परीक्षक जन इस बातको अपनी दूरगा मिनी प्रज्ञा बुद्धिके चमत्कारकी अधीनतासे चित्तमें धारण करलो । महात्मा पुरुषोंके प्रसाद पानेका अवसर सर्वदा नहीं मिलता है । परम गुरुओंके आशीर्वाद भाग्यवानों को ही कदाचित् प्राप्त होते हैं। तीसरे आह्निक के अन्त में इसी बातका उपसंहार प्रकरण संकोच करते हुए श्रीविद्यानंद आचार्य महाराज आशीर्वाद के समान स्पष्टवाणी बोलते हैं ।
इति श्रुतं सर्वमुनीशविश्रुतं । सहोक्तमत्यात्र परोक्षमीरितं ।
प्रमाण मुन्मूलित दुर्मतोत्करं । परीक्षकाचेतसि धारयन्तु तम् ॥ १२८ ॥
प्रामाणिक सम्पूर्ण ऋषीश्वरों में प्रख्यात हो रहे श्रुतज्ञानको यहाँ तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में मतिज्ञानके साथ रखते हुए दोनों ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । इस प्रकार युक्ति और आगमके अनुसार उमास्वामी महाराजने खान दिया है । तभी तो मति और श्रुत इन दो परोक्ष प्रमाणोंकरके शब्दाद्वैतवादी, आदि विद्वानोंके दूषित मतोंके समुदायको लीलामात्रसे उखाड़कर फेंक दिया है । इस कारण डंके की चोट के साथ परीक्षा कर चुके । हम परीक्षक सज्जनोंके प्रति साग्रह सूचना देते हैं कि ऐसे प्रमाण प्रसिद्ध उस परोक्ष प्रमाणको चित्तमें निर्धारण करो जिससे कि अज्ञान अन्धकारका विनाश होकर ज्ञानसूर्यका उदय हो ।
इति स्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकारे प्रथमस्याध्यायस्य तृतीयमाह्निकम् ।
इस प्रकार परोक्ष प्रमाणके प्रकरणकी समाप्ति करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामीके तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार प्रन्थमें प्रथम अध्यायका तीसरा प्रकरणोंका समुदायस्वरूप आह्निक परिपूर्ण हो चुका है ।
इस सूत्र का सारांश ।
इस सूत्र में संक्षेपसे प्रकरण यों दिये गये हैं कि प्रथम ही परोक्ष प्रमाणके दूसरे भेदकी प्रतिपत्ति कराने के लिये श्रुतके निमित्त कारण और भेदप्रभेदों के निर्णयार्थ सूत्रका प्रारम्भ करना Mart बताया गया है। श्रुतके प्रतिपादक शब्दों की अपेक्षा श्रुतज्ञानके भी दो आदिक भेद हो जाते हैं । श्रुतज्ञान ऐसा स्पष्ट शब्द नहीं कहकर सूत्रकार महाराजका केवल श्रुत प्रयोग करना सामिप्राय है। छह अंग या सहस्र शाखावाले वेदकी सिद्धि वैसी नहीं हो पाती है, जैसी कि मीमांसकोंने मानी है । सम्यक् शद्वका अधिकार चला आ रहा है। सूत्रमें कहे गये एक एक पदकी 'सफलता और व्यभिचारनिवृत्तिको दिखलाते हुये शद. आत्मक श्रुतको केवलज्ञान पूर्वक भी पुष्ट किया है। यह बात भव्यजीवोंके बडे लाभकी है । सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे हुये सभी मतिज्ञानरूप निमित्तों श्रुत हो जाता है । मतिज्ञान पूर्वक न होनेसे स्मृति आदिक ज्ञान श्रुत नहीं हैं । श्रुता " अस्पष्टतर्कण क्षण अतिव्याप्त हो जाता है । शद्वस्वरूप श्रुतको गौण रूपसे प्रमाणपना इष्ट कर लिया है । इसके आगे मीमांसकों के माने हुये निव्यश्रुतका प्रत्याख्यान करना प्रारम्भ किया है,
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