Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 671
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ६५७ परोपदिष्टोत्तराधर्यादिवाक्याहितसंस्कारस्य विनेयजनस्य पुनरौत्तराधर्यदर्शनादिदं तदौत्तराधर्यादीति संज्ञासंज्ञि सम्बन्धमतिपत्तेस्तत्फलस्य भावान हि संख्याज्ञानादि प्रत्यक्षमिति युक्तं वाक्, परोपदेशापेक्षाविरहमसंगात् रूपादिज्ञानवत्, परोपदेशविनिर्मुक्तं प्रत्यक्षमित्यत्र सतां संप्रतिपत्तेः । अज्ञात पुरुषको किसी हितैषीने सोपान ( जीना ) का ज्ञान उपदेश द्वारा कराया कि अमुक सीडी ऊंची है, और अमुक सीडी नीची है, इत्यादि वाक्योंके संस्कारोंका आधान रख चुके हुये विनीत पुरुषको फिर ऊपर और अधर धर्मवाले पदार्थका दर्शन हो जानेसे, यह वही उत्तरपना और अधरपना आदिक हैं । इस प्रकार उस उपमानके संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध प्रतिपत्तिरूप फलका सद्भाव है । अतः आप नैयायिक बतलाओ कि इनका कौनसे प्रमाणमें अन्तर्भाव करोगे ? संख्याज्ञान, स्थूलपनका ज्ञान, आदिक ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण हो जायं, यह तो कहनेके लिये युक्त नहीं पडेगा। क्योंकि यों तो इन उक्त ज्ञानोंको परोपदेशकी अपेक्षा रखनेके अभावका प्रसंग हो जायगी, जैसे कि रूप, रस आदि के प्रत्यक्षज्ञान अन्यके उपदेशोंकी अपेक्षा नहीं रखते हैं । सम्पूर्ण प्रत्यक्षप्रमाण परोपदेशों की विशेषरूप करके अपेक्षा करनेसे सर्वथा रहित हैं। इस प्रसिद्ध सिद्धान्तमें सम्पूर्ण सज्जन विद्वानोंको भली भांति प्रतिपत्ति हो रही है । किन्तु संख्याके ज्ञान करनेमें गणित शास्त्रोंके करणसूत्रकी या पहाडेकी आकांक्षा हो रही है। यह वांसकी पंबोली स्थूल है। यह बांस लंबा है। सरसों छोटी है, इत्यादि ज्ञानोंमें स्मरण या छह चौक चौवीस, जितने रुपयोंकी एक सेर उतने ही आनोंकी एक छटांक, आदि परोपदेशों की अपेक्षा हो रही है । अतः ये उक्तज्ञान कथमपि प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकते हैं । यदि पुनः संख्यादिविषयज्ञानं प्रत्यक्षमपरोपदेशमेव तत्संज्ञासंज्ञि सम्बन्धप्रतिपत्तेरेव परोपदेशापेक्षानुभवादिति मतं तदा सैव संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिः प्रमाणान्तरमस्तु, विनोपमानवाक्येन भावादुपमानेऽन्तर्भावितुमशक्यत्वात् । यदि फिर नैयायिकों का यह मन्तव्य होय कि संख्या स्थूलता, महत्ता, अल्पता, ऊंचा, नीचापन, आदि को विषय करनेवाले ज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही हैं। इनमें परोपदेशकी कोई अपेक्षा नहीं हुयी है। हां, उनके संज्ञासंज्ञी सम्बन्धकी प्रत्तिपत्तिको ही परोपदेशकी अपेक्षा रखनेका अनुभव हो रहा है। अब आचार्य महाराज कहते हैं कि तत्र तो वह संज्ञा और संज्ञावाले अर्थोके सम्बन्धकी ज्ञप्ति होना ही न्यारा प्रमाण हो जाओ। जब कि वे प्रतिपत्तियां समीचीन ज्ञान हैं तो आपके नियत हो रहे चार प्रमाणोंसे अतिरिक्त प्रमाण माननी चाहिये । उपमान वाक्यके बिना ही हो जाने के कारण उपमान प्रमाण तो अन्तर्भाव करानेके लिये असमर्थपना है । भावार्थ गौके समान गवय होता है । मुद्गपर्णी औषधि रा दूसरी औषधि विषको दूर करदेती है। इस प्रकार यथा, इव, वत् 83

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