Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ शोकवार्तिके
आदिक ज्ञान मतिज्ञानस्वरूप कहे गये हैं। सभी ज्ञानोंमें नामका संसर्ग अनिवार्य नहीं है। अतः शब्दकी पीछे योजना कर देनेसे ही श्रुत होता है, इस प्रकारका नियम भी उक्त अपेक्षा लगानेपर बाधित नहीं हो जाता है । कारण कि शक्तिस्वरूप ज्ञान वाणीके विना उस परार्थश्रुतकी उत्पत्ति असम्भव है।
लब्ध्यक्षरस्य विज्ञानं नित्योद्घाटनविग्रहं । श्रुताज्ञानेपि हि प्रोक्तं तत्र सर्वजघन्यके ॥ ११४ ॥ स्पर्शनेंद्रियमात्रोत्थमत्यज्ञाननिमित्तकं ।
ततोक्षरादिविज्ञानं श्रुते सर्वत्र संमतम् ॥ ११५ ॥
सर्व ज्ञानोंमें उत्कृष्ट केवल ज्ञान है । और सम्पूर्ण ज्ञानोंमें छोटा ज्ञान सूक्ष्म निगोदियाका जघन्यज्ञान है । सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने सम्भवनीय छह हजार बारह जन्मोंमें भ्रमण करता हुआ, अन्तके जन्ममें यदि तीन मोडेवाली गोमूत्रिका गतिसे मरे तब प्रथम मोडाके समयमें सर्व जघन्यज्ञान उत्पन्न होता है । इस ज्ञानमें अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं। क्योंकि शक्तिके अंशोंकी जघन्यवृद्धिको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। " अविभागपडिच्छेओ जहण्ण उट्ठी परसाणं"। यह सबसे छोटा ज्ञान भी जघन्य अन्तरोंसे अनन्तगुणा है। अतः इस ज्ञानमें अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेद माने गये हैं । स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक यह लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान है । ये कारण कार्यस्वरूप दोनों ज्ञान कुज्ञान हैं। किसी भी जीवको कदापि इससे न्यूनज्ञान प्राप्त होनेका अवसर प्राप्त नहीं हुआ और नहीं होगा। इतना श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम सदा ही बना रहेगा। अतः लब्धि यानी सबसे छोटे क्षयोपशमसे यह ज्ञान अक्षर यानी अविनश्वर है । इतना ज्ञान भी यदि नष्ट हो जाय तो आत्मव्यका ही नाश हो जायगा। अतः यह जघन्य श्रुतज्ञान नित्य ही उघड रहे शरीरवाला है। यानी इसके ऊपर कोई आवरण करनेवाला कर्म नहीं हैं । जघन्यज्ञान निवारण है । इसके ऊपरके श्रुतभेदोंको पर्यायावरण, पर्यायसमासावरण, आदि कर्म ढकते हैं । अतः लब्ध्यक्षर-ज्ञानवाले जीवके हो रहा नित्य प्रकाशमान शरीरवाला जघन्य विज्ञान है। सर्वज्ञानोंमें जघन्य कहे जा रहे कुश्रुतज्ञानमें भी पूर्वमें कहा गया शक्तिरूप श्रुत अवश्य भले प्रकार विद्यामान हैं । सूक्ष्मनिगोदिया जीवके केवल स्पर्शन इन्दियसे उत्पन हुये मत्यज्ञानको निमित्तकारण मानकर जघन्यज्ञान होता है। तिस कारण सिद्ध होता है, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, आदि विज्ञान भी सामान्य चिदरूपकरके व्याप्त हैं । सम्पूर्ण श्रुतोंमें ज्ञानस्वरूपशब्दकी अनुयोजना करना हमको सम्मत है। . नाकलंकवचोबाधा संभवत्यत्र जातुचित् ।
तादृशः संप्रदायस्यांविच्छेदाद्युक्त्यनुग्रहात् ॥ ११६ ॥