Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थ लोकवार्तिक
जन्य आदि ज्ञानोंमें अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष नहीं हो सके। अर्थात्-ज्ञानको चारों ओरसे शद्वसे गुथा हुआ माननेपर अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष आते हैं। क्योंकि शद्बाद्वैतवादियोंने सभी प्रकारों से शद्बानुविद्धपनेका एकान्त चारों ओर स्वीकार कर लिया है । अतः जान करके शद्वका संसर्ग करनेपर उसी सम्वेदन और अन्य सम्वेदनों द्वारा जाननेमें उक्त दोष उपस्थित हो जाते हैं । यहांतक 'वायूपता ततो न स्यात् ' इस कारिकाके प्रथमसे उठाये गये प्रकरणका उपसंहार करदिया गया है।
स्याद्वादिनां पुनर्वाचो द्रव्यभावविकल्पतः। द्वैविध्यं द्रव्यवाग्द्वेधाद्रव्यपर्यायभेदतः ॥ १०६ ॥ श्रोत्रग्राह्यात्र पर्यायरूपा सा वैखरी मता। मध्यमा च परैस्तस्याः कृतं नामांतरं तथा ॥ १०७ ॥
अब आचार्य महाराज इस वचनके विषयमें जैनसिद्धान्त दिखलाते हैं कि स्याहादियोंके यहां तो फिर द्रव्यवाक् और भाववाक्स्वरूप भेदोंसे वचनोंका दो प्रकार सहितपना है । तिनमें द्रव्यवाक् तो द्रव्य और पर्यायके भेदसे दो प्रकारकी है । यहाँ प्रकरणमें दूसरे शद्बाद्वैतवादी विद्वानों करके जो श्रोत्र इन्द्रियसे ग्रहण करने योग्य वाणी मानी गयी हैं, वे पर्यायरूप वाक् हैं। दूसरोंने उस पर्यायरूप वाणीका तिस प्रकार वैखरी और . मध्यमा ये दूसरे नाम करलिये हैं। अतः शब्द मात्र भेद है । तात्पर्य अर्थ एक ही है। पुद्गलकी कर्ण इन्द्रियसे ग्रहण करने योग्य पर्यायको शब्द माना गया है।
द्रव्यरूपा पुनर्भाषावर्गणाः पुद्गलाः स्थिताः। प्रत्ययान्मनसा नापि सर्वप्रत्ययगामिनी ।। १०८ ॥ भाववाग्व्यक्तिरूपात्र विकल्पात्मनिबंधनं । द्रव्यवाचोभिधा तस्याः पश्यंतीत्यनिराकृता ॥ १०९ ॥
दूसरी द्रव्यस्वरूपवाणी तो फिर भाषावर्गणास्वरूप स्थित हो रहे पुद्गल हैं, जो कि कण्ठ, ताल आदिको निमित्त पाकर अकार, ककार, अक्षरात्मक या अनक्षरात्मकशद परिणम जाते हैं । अतः यह द्रव्यवाक् तो ज्ञानसे और मनके द्वारा भी सम्पूर्ण ज्ञानोंमें अनुगम करनेवाली नहीं है। फिर अद्वैतवादियोंने व्यर्थ ही कहा था कि ज्ञानोंमें प्रकाशनेवाला पदार्थ वागरूपपना ही है। दूसरा मेद जो भाववाक् किया गया है वह तो यहां पौद्गलिक या आत्मीय व्यक्तिस्वरूप होता हुआ