Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 659
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६४५ लेनेसे द्वैत हो जावेगा । बीजभूतब्रह्म और नैमित्तिक अविद्यायें मानी गयीं। अतोऽपि द्वैत सिद्ध हो जाता है । तिस कारण अनादि, अनन्तस्वरूप हो रहा शब्द परब्रह्म कैसे भी सिद्ध नहीं हो पाता है, जिससे कि तुम्हारा यह कहना शोभा देवे कि वह शब्दब्रह्म ही घट, पट, आदि अर्थ परिणामोंकरके पर्यायोंको धारता है । यों जगत्की प्रक्रिया चलती है वह शब्दब्रह्म ही भ्रान्तिके निमित्त कारणोंका अनुसरणकर स्मरण किया जाकर पश्चात् स्वयं विद्याको उत्पन्न कर देता है । यह अद्वैतवादियोंका कथन द्वैतके सिद्ध होनेपर ही युक्त ठहरेगा । न हि भ्रांतिरियमखिलभेदप्रतीतिरित्यनिश्वये तदन्यथानुपपत्या तद्वीजभूतं शद्वतमनादिनिधनं ब्रह्म सिध्यति । नापि तदसिद्धौ भेदप्रतीति भ्रांतिरिति परस्पराश्रयणाकयमिदमवतिष्ठते " अनादिनिधनं ब्रह्म शद्वतत्त्वं यदक्षरं । विवर्तेतार्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। " इति यतस्तस्य चतस्रोवस्था वैखर्यादयः संभाव्यंते सत्योऽसत्यो वा । न च तदसंभवेनायं सर्वत्र प्रत्यये श्रद्वानुगमः सिध्येत् सूक्ष्मायाः सर्वत्र भावात् । यतोभिधानापेक्षायामक्षादिज्ञानेन्योन्याश्रयोऽनवस्था च न स्यात्सर्वथैकांताभ्युपगमात् । 1 ब्रह्म देवदत्त, जिनदत्त, घट, पट, आदिक संपूर्ण भेदोंको प्रकाशनेवाली यह प्रतीति भ्रान्तिस्वरूप है । इस प्रकार जबतक निश्चय नहीं होगा, तबतक उस भ्रान्तिकी अन्यथा अनुपपत्ति करके उसका बीजभूत अनादि, अनन्त, व्यापक, शब्दब्रह्म तत्वसिद्ध नहीं हो सकता है, तथा जबतक अद्वैत शब्दब्रह्मकी सिद्धि नहीं होवेगी, तबतक देवदत्त आदिकी भेदप्रतीति भी भ्रान्तिरूप सिद्ध नहीं हो सकती है। इस ढंगसे परस्पराश्रय दोष हो जानेसे यह वक्ष्यमाण अद्वैतवादियोंका ग्रन्थ कैसे व्यवस्थित हो सकता है कि शब्दतत्त्वस्वरूप परमब्रह्म अनादिकालसे चला आया हुआ जो अनन्तकाल तक अक्षीण होता हुआ प्रवर्तता रहेगा । घट, पट, आदि अर्थ स्वरूपोंकर के वह शब्द परिणाम धारता है । जिन परिणामोंसे कि गृह, कलश, पुस्तक, बाल, वृद्ध, स्वर्ग, नरक आदि भेदरूप जगत् की प्रक्रिया बनती है । भावार्थ - भेदप्रतीतियोंके भ्रमरूप सिद्ध हो जानेपर शब्दाद्वैत सिद्ध होय और अद्वैत के सिद्ध हो चुकनेपर भेदप्रतीति भ्रमस्वरूप बने । इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष हो जाने से यों अद्वैतवादियोंके मन्तव्य अनुसार शब्दब्रह्मका नित्यपना और दृश्य जगत्स्वरूपकरके उसका परिणाम होना सिद्ध नहीं हो पाता है, जिससे कि उस शब्दब्रह्म की वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती, सूक्ष्मा ये चार सद्रूप अथवा असद्रूप अवस्थायें सम्भव हो जांय । यानी शद्वब्रह्म के सिद्ध नहीं होनेपर उसकी अवस्थायें आकाश पुष्पकी सुगन्धियों समान नहीं सिद्ध होती हैं । और उन चार अवस्थाओंके असम्भव हो जानेसे सम्पूर्ण ज्ञानोंमें यह शद्वोंका अनुगम करना तो नहीं साधा जा सकेगा कि सूक्ष्मा वाणी सभी ज्ञानोंमें विद्यमान है । अर्थात् - ज्ञानोंमें शद्वकर के अनुविद्धपना नहीं है, जिससे कि अन्य वाचक शब्दोंकी अपेक्षा करते करते इन्द्रियजन्य, लिंग

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