Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 658
________________ १४१ तत्वार्थश्लोकवार्तिके आगमसे अद्वैत शब्दब्रह्मकी ही सिद्धि होना इष्ट करोगे तब तो हम कहेंगे कि उस आगमका वह बाधारहितपना तो परीक्षकोंकरके अन्य अनुमान, तर्क आदि प्रमाणोंके विना कभी भी निश्चित नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि तुम्हारे यहां उस शब्दब्रह्मसे भिन्न हो रहा परमार्थरूपसे कोई समीचीन आगम भी तो नहीं माना गया है, जिससे कि शद्वब्रह्मकी सिद्धि करली जाय । ब्रह्म और आगमका कथंचित् भेद माननेपर ही गम्यगमकपना बन सकता है। अन्यथा नहीं। यदि आगमको उस शब्दब्रह्मका विवर्त माना जायगा तब तो अविद्यास्वरूप होता हुआ वह आगम उस परमब्रह्मका भले प्रकार ज्ञापक कैसे हो सकता है ! अर्थात्-नहीं। अवस्तुभूत पदार्थसे वस्तुभूत तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। झूठे, कल्पित, मोदक तो सन्धुक्षित उदराग्निकी ज्वालाको शान्त नहीं कर सकते हैं। यों बालकोंके लिये विप्रलम्भ करानेके समान कोरा सन्तोष देना विद्वानोंको समुचित नहीं है । अन्य भेदयुक्त प्रमाणान्तरोंसे आगका निर्वाधपना जबतक विशेषरूपसे निश्चित न होगा तबतक झागके बबूले समान अद्वैत शब्दब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो सकती है । अर्थात्प्रमाणोंके विना ही किसी पदार्थको बलात्कारसे साध दिया जाय तो वह झागके बबूलासमान अधिक देरतक परीक्षकोंके सामने टिक नहीं सकता है । अथवा तत्त्वका विशेषतया निश्चय नहीं होते. सन्ते भेदकरके फेनसे अभिन्न हो रहे बबूलेके समान शद्बब्रह्मकी ज्ञप्ति नहीं कराई जा सकती है। मायेयं बत दुःपारा विपश्चिदिति पश्यति । येनाविद्या विनिर्णीता विद्यां गमयति ध्रुवम् ॥ १०३ ॥ भ्रांते/जाविनाभावादनुमात्रैवमागता । ततो नैव परं ब्रह्मास्त्यनादिनिधनात्मकम् ॥ १०४ ॥ विवर्तेतार्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः । भ्रान्तिबीजमनुस्मृत्य विद्यां जनयति स्वयं ॥ १०५॥ शब्द अद्वैतवादी कहते हैं कि वस्तुतः जलके समान शब्दब्रह्म एक है। उसके अनेक बबूलेके समान भेदकरके जीवोंको झूठा प्रतिभास हो रहा है । खेदके साथ कहना पडता है कि यह संसारी जीवके लम्बी चौडी जिसका पार कठिनतासे पाया जाय ऐसी माया लगी हुयी है। विद्वान् जन वास्तविक तत्त्वको देख लेते हैं जिससे कि विशेषरूपसे निर्णीत करी गयी अविद्या उस विद्याका दृढरूपसे ज्ञापक करा देती है। क्योंकि विना भित्तिके भ्रान्तज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं। अतः सब मिथ्याज्ञान, सम्यग्ज्ञानोंका बीज भूत शब्दब्रह्म है । अब आचार्य कहते हैं कि भ्रान्तियोंका बीजके साथ अविनाभाव माननेसे तो इस प्रकार यहां अनुमान प्रमाण ही आगया और ऐसा होनेपर हेतु, पक्ष, दृष्टान्त आदिको मान

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