Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिके
हम जैन उन शद्वाद्वैतवादियोंके प्रति प्रश्न उठाते हैं कि उस शब्द ब्रह्मको वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा ये चार अवस्थायें यदि सत्य हैं, तब तो शब्दब्रह्मके अद्वैत होनेका विरोध है। सत्य चार अवस्थायें तो स्पष्टरूपसे द्वैतको साध रही है । यदि तुम यों कहो कि शब्दब्रह्म तो एक ही अखण्ड है । वे चार अवस्थायें अविद्यास्वरूप हैं । जबतक संसारी जीवके अविद्या लगी रहती है, तबतक चार भेद दीखते हैं । किन्तु निरंश ब्रह्मका साक्षात्कार हो जानेपर भेद नष्ट हो जाता है। अतः हमारे ऊपर कोई दोष नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि निरंश शद्वब्रह्मको समीचीन विद्यापन सिद्ध हो चुका तो उसकी अवस्थाओंको अविद्यापनकी प्रसिद्धि नहीं हो सकती है। विद्याके विवर्त भी विद्यास्वरूप हैं। चेतन अखण्ड आत्माके हस्त, पाद, आदि प्रदेशवर्ती आत्मप्रदेश या ज्ञान, दर्शन, सुख, इच्छा आदि अंश अचेतन नहीं हैं। मिश्रीके टुकडे कटु नहीं। तद्धि शब्रह्म निरंशमिंद्रियप्रत्यक्षादनुमानात्स्वसंवेदनप्रत्यक्षादागमाद्वा न प्रसिध्द्यतीत्याह।
वह शद्वाद्वैतवादियों करके माना गया शब्दब्रह्म तत्त्व भला अंशोंसे रहित है, यह मन्तव्य तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंसे, अनुमान प्रमाणसे, स्वसम्वेदनप्रत्यक्षसे अथवा आगमप्रमाणसे नहीं प्रसिद्ध हो पाता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं ।
ब्रह्मणो न व्यवस्थानमक्षज्ञानात् कुतश्चन ।
स्वप्नादाविव मिथ्यात्वात्तस्य साकल्यतः वयम् ॥ ९७ ॥
स्पार्शनप्रत्यक्ष, चाक्षुषप्रत्यक्ष, आदिक किसी भी इन्द्रियजन्य ज्ञानसे तो शद्ब्रह्मकी व्यवस्थिति नहीं हो पाती है। क्योंकि उन इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंको सम्पूर्णरूपसे मिथ्यापना है। ऐसा स्वयं शद्बाद्वैतवादियोंने स्वप्न, मूछित, मदोन्मत्त, अपस्मार, ( मृगीरोग ) भूतावेश आदिक अवस्थाओंमें हो रहे इन्द्रिय प्रत्यक्षोंके मिथ्यापनके समान सभी इन्द्रिय प्रत्यक्षोंको झूठा कहा है। झूठे ज्ञानसे समीचीन प्रमेय माने गये शब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो सकती है। जब सम्पूर्ण ही इन्द्रिय प्रत्यक्ष मिथ्याज्ञान होगये तो शब्दब्रह्मको साधनेके लिए कोई भी जागते हुए पण्डितका प्रत्यक्षप्रमाणशेष नहीं रहा।
नानुमानात्ततोर्थानां प्रतीते?र्लभत्वतः । परप्रसिद्धिरप्यस्य प्रसिद्धा नाप्रमाणिका ॥ ९८॥
दूसरे अनुमानप्रमाणसे भी शब्दब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो पाती है। क्योंकि प्रतिवादियोंने कहा है कि " अनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः " उस अनुमानसे अर्थोकी प्रतीति होना दुर्लभ है।